बाल साहित्य सृजन के आयाम और चुनौतियां
-मनोहर चमोली ‘मनु’ भारत को अभी पूर्ण साक्षरता हासिल करने के लिए चालीस बरस और चाहिए। ऐसा माना जा रहा है। यह बुनियादी साक्षरता भी महज़ कक्षा तीन के स्तर…
-मनोहर चमोली ‘मनु’ भारत को अभी पूर्ण साक्षरता हासिल करने के लिए चालीस बरस और चाहिए। ऐसा माना जा रहा है। यह बुनियादी साक्षरता भी महज़ कक्षा तीन के स्तर…
- मनोहर चमोली भारत को अभी पूर्ण साक्षरता हासिल करने के लिए चालीस बरस और चाहिए। ऐसा माना जा रहा है। यह बुनियादी साक्षरता भी महज़ कक्षा तीन के स्तर की पढ़ाई के अक्षर और अंक ज्ञान हासिल कर लेने तक सीमित है।हम जब इक्कीसवीं सदी की चौखट पार कर चुके हैं तब बाल साहित्य पर विमर्श का भी स्तर क्या होना चाहिए? यह सवाल इतना आसान नहीं है। यदि हम हिन्दी भाषी राज्यों के बच्चों की बात करें तो भी उपलब्ध बाल साहित्य बच्चों की आबादी के हिसाब से एक फीसदी भी नहीं है। उस पर यह जोड़ दें कि वह बालमन की अनुरूप है भी या नहीं! तो चर्चा ही बदल जाएगी। बाल साहित्य वह साहित्य जिसे बड़ों के अलावा बच्चे भी आनन्द के साथ पढ़ें वही बाल साहित्य है। अब ऐसा कहना कि बच्चों को केन्द्र में रखकर लिखा जाने वाला साहित्य ही बाल साहित्य होता है, गलत है। यह कहना भी गलत है कि बच्चों के लिए लिखने से पहले बच्चा बनना पड़ता है। तब? कौन नहीं जानता कि अभी-अभी स्कूल जाने वाला बच्चा कोरी स्लेट नहीं होता। मिट्टी का लोंदा नहीं होता। अब जब हम पहले से ही यह मान लेते हैं कि वह साहित्य जो बच्चों में आदर्श भर दे। बच्चों को नई सीख दे दे। बच्चों को आदर्श नागरिक बना दे, वह बाल साहित्य है तो फिर स्कूली किताबें क्या कर रही हैं? घरों में रखे ग्रन्थ क्या कर रहे हैं? इस समाज के तथाकथित बड़े-बुजुर्ग, सरकारें, संस्थाएं क्या कर रही हैं? यह तो कहा ही जा सकता है कि वह सब बाल साहित्य है जिसे पढ़ते हुए बाल पाठक आनंदित हो। बाल साहित्य आनन्द से ओत-प्रोत होता है। वह जिज्ञासा जगाता है। उसकी पहली शर्त है आनंद। बाल साहित्य: क्यों? बच्चों के लिए भी साहित्य हो। ऐसा सोचने की उम्र एक-डेढ़ शतक से अधिक नहीं है। भारत में तो पचास के दशक की चुनौतियाँ ही कुछ और थीं। गुलामी से मुक्ति के बाद राष्ट्रवाद सिर चढ़कर बोल रहा था। बोलता भी क्यों नहीं। साठ-सत्तर के दशक में देश रोटी, कपड़ा और मकान की आधारभूत समस्याओं के हल पर जुट गया था। अस्सी के दशक में भारत को महसूस हुआ कि सबसे पहले तो साक्षरता ज़रूरी है। जनता पढ़ी-लिखी हो। इक्कीसवीं सदी तक आते-आते अब हमें समझ आ रहा है कि अंकों और अक्षरों की साक्षरता रोजगार दिला सकती है लेकिन साझा जीवन, मानवीयता, संवेदना और सामूहिकता के लिए मानवीय संवेगों-मूल्यों को प्रगाढ़ करना और भी ज़्यादा ज़रूरी है। अब महसूस हो रहा है कि भारतीय बच्चों की विविधता भी तो वृहद है। पहाड़ और मैदान के बच्चे। देहात के बच्चे। फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे। घुमन्तु बच्चे। वन गूजरों के बच्चे। बाढ़, भूकंप, भूस्खलन आदि के बाद शिविरों में रहने वाले बच्चे। महानगरों के बच्चे। गाँव के बच्चे। कभी न स्कूल गए बच्चे। बीच में स्कूल छोड़कर जाने वाले बच्चे। यह सूची लंबी है। सोचिए। इन बच्चों के पास स्कूली पाठ्यपुस्तकों के अलावा साहित्य के नाम पर कुछ किताबें हैं? यदि हैं तो वह विविधता से भरी हैं? उनकी पसंद की किताबें हैं? क्या हर बच्चे की पहुँच में हैं? बाल साहित्य का आयाम यह अनंत है। इसकी कोई तयशुदा चौखट बनाना बच्चों की कल्पनाशक्ति को सीमित करना है। इसकी लंबाई, चौड़ाई या ऊँचाई की थाह पाना मुश्किल ही नहीं असंभव है। बाल साहित्य वह खिड़की है जिसके सहारे बच्चे दुनिया में झांकने का शऊर सीखते हैं। यदि ललक जग गई तो फिर बच्चे खुद-ब-खुद साहित्य के सहारे समूची दुनिया तक पहुँच जाते हैं। हर बच्चा अनूठा है। दूसरे से अलग। एक-एक बच्चा इस दुनिया में एक नई दुनिया रचना चाहता है। वह इसे और बेहतर बनाना चाहता है। लेकिन क्या हम बड़े बच्चों को उनके सपने पूरे करने देते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम उनसे अपने सपने पूरा करवाना चाहते हैं? बाल साहित्य बच्चों को और रचनात्मक बनाने की ताकत देता है। बाल साहित्य : कैसा ? बच्चे किस तरह के साहित्य को पढ़ना पसंद करते हैं? यह सवाल बनता है। इसका नपा-तुला जवाब भी नहीं दिया जा सकता। पढ़ना एक ऐसी क्रिया है जिसे करते हुए स्थिति, परिस्थिति, देशकाल और मिज़ाज भी आनंद की सीमा निर्धारित करता है। कोई एक रचना सभी बच्चों को पसंद आ जाए। ऐसा भी नहीं हो सकता। तब यह तो ज़रूरी है कि साहित्य में बात सुई से लेकर हाथी तक की भले ही क्यों न हो उसमें बच्चों की दुनिया तो हो। बच्चों की आवाज़ें तो हों। उनकी शब्दावली तो हो। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से ओत-प्रोत विषय भी बच्चों के लिए है। गर्भ में शिशु कैसे बनता है? उसका जन्म कैसे होता है? किन्नरों की दुनिया क्या है? समलैंगिकता क्या है? यह विषय भी बच्चों के लिए हैं! अब यह रोचकता के साथ कैसे बच्चों के लिए लिखे जाएं। यह चुनौती है। हम और आप होते कौन हैं जो यह तय कर लें कि फलां विषय बच्चों के लिए नहीं है? हम बड़ों को यह बात समझ लेनी चाहिए कि बाल साहित्य बच्चों को कल्पना और यथार्थ से बुनी ऐसी सामग्री देता है जो किसी नीति, धर्म और नैतिक शिक्षा की किताब का हिस्सा नहीं होती। हाँ बाल साहित्य बच्चों को आतंकवादी बन जाने की प्रेरणा तो नहीं दे सकता। बाल साहित्य बच्चों में ऐसी सोच विकसित तो नहीं कर सकता कि वह उसे पढ़कर दुनिया को तबाह करने वाला नायक बनने की कसम खा ले। हम और तो बड़े हैं। लेकिन उस बच्चे की सोचिए जिसके सामने हर रोज़ जीवन की कई परतें रहस्य की तरह खुलती हैं। उसके सवालों को बचकाना माना जाता है। बच्चों को देखते ही हम तुतलाने लगते हैं। बनावटी भाषा बोलने लगते हैं। जबकि कोई भी बच्चा ऐसा करने को नहीं कहता। ऐसे में हम बड़ों के अनुभव बच्चों के लिए एक और दुनिया हो सकती है। वह हम बड़ों का लिखा हुआ पढ़ते हुए अपने अनुभवों को समृद्ध करता है। है न दिलचस्प? लेकिन बाल साहित्य भी तो दिलचस्प होना चाहिए! हम बड़े बच्चों को बोदा समझते हैं। हमें समझना चाहिए कि बच्चों को अच्छे से पता है कि पेड़ नहीं बोलते। वह भी जानते हैं कि किसी चिराग़ को घिसने से जिन्न नहीं आता। वह भी जानते हैं कि परियाँ नहीं होती। लेकिन उनकी रचनाशीलता और कल्पनाशीलता ही है जो उन्हें खिलंदड़ी जीवन जीने को उकसाता है। बाल साहित्य बच्चों की कल्पनाशीलता का सम्मान करे और उसकी कल्पना को और पंख दे। बाल साहित्य : चुनौतियाँ बाल साहित्य अभी अपने बाल्यकाल में है। अब बच्चे अपने लिए तो बाल साहित्य लिख नहीं सकते। जाहिर-सी बात है कि बड़े ही बच्चों के लिए बाल साहित्य लिख रहे हैं। अव्वल तो बाल साहित्य अत्यल्प मात्रा में ही लिखा गया है। जो लिखा है उसमें अधिकतर बच्चों को आदर्शवाद का पाठ पढाने की मंशा से लिखा गया है। अधिकांश बाल साहित्य बनावटी दुनिया को बनावटी भाषा में पिरोता हुआ दिखाई देता है। परियों को स्थापित करता हुआ बाल साहित्य आज भी खूब लिखा जा रहा है। माना कि परी और भूत बच्चों को हैरान करते हैं। तो कराइए न ! लेकिन उन्हें इस तरह से प्रस्तुत तो मत कीजिए कि बच्चे यह मान ही लें कि भूत होते हैं। परियों की झूठ की दुनिया दिखाता हुआ बाल साहित्य। जहाँ दुःख और संघर्ष की कोई जगह नहीं है। इतिहास उठा लें। कोई राजा कितना भी अच्छा क्यों न हुआ होगा, हुआ होगा क्या? 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अक्तूबर 2024
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