बालस्वरूप राही कृत ‘जुगनू भाई कहाँ चले?’
हिन्दी साहित्य में बालस्वरूप राही अनुमान, कल्पना, वैज्ञानिक नज़रिया और मानवीय संवेगों की हौले से थपकी देने वाले गीतकार, ग़ज़लकार और कवि हैं। उन्होंने बाल पाठकों को ध्यान में रखकर भी साहित्य रचा है। ऐसा साहित्य, जिसके समकक्ष उनसे पहले भी और अनवरत् भी दूर-दूर तक कोई नज़र नहीं आता। वह अपनी रचनाओं में ऐसा पहलू ले आते हैं कि पाठक अवाक् रह जाता है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि शेष गौण हैं। ऐसा होना भी चाहिए। कोई साहित्यकार दूसरों-सा क्यों हो।
बहरहाल, बालस्वरूप राही की रचनाएँ पढ़ते हुए पाठक खुद से सवाल करने लगता है। खुद से जूझता है। अपना स्थापित नज़रिया बदलने पर बाध्य हो जाता है। परम्पराओं-मान्यताओं को पीछे छोड़कर नई शुरुआत करता है। बालस्वरूप राही धारणाओं को तोड़ने वाले कवि हैं। वह पाठकों का मन बदल देते हैं। वह कहीं न कहीं पाठकों के ज़ेहन में तसलीम करने की ताकत तक भर देते हैं। उनकी रचनाएँ चमत्कृत कर देती हैं। पाठक पढ़ता है। फिर पढ़ता है और ठहरकर विचार करता है। कवि से सहमत होते हुए खुद में बदलाव महसूस करता है।
साहित्य का सही मक़सद क्या है। महज़ साहित्य आनन्द देने के लिए तो नहीं है। आनन्द साहित्य का पहला और आवश्यक तत्व तो है। यह बात सही है। लेकिन, साहित्य मात्र लतीफा नहीं है। लतीफा पढ़ा-सुना। हँस लिए और फिर, वही ढाक के तीन पात! साहित्य का दायरा कुछ नहीं होता। वह खुला है। आसमान की तरह। आसमान सिर्फ ऊपर ही नहीं है। आसमान सर्वत्र है। साहित्य साहित्य हमारे भीतर विद्यमान अंधकार को मिटाने के लिए टॉर्च का काम करता है। मुझे साहित्य की विधाएँ ऐसी इबारतें जुगनू जान पड़ती हैं, जिन्हें पढ़ते-पढ़ते हमारा मन-मस्तिष्क चेतन-अवचेतन में ठहरे हुए अन्धकार में टिमटिमाता प्रकाश दे जाती हैं।
जुगनू से याद आया बालस्वरूप राही की कविता ‘जुगनू भाई, जुगनू भाई कहाँ चले?’ एक शानदार कविता है। यह हम सबके लिए है। बच्चों को तो यह बेहद पसंद आती ही है। यह चमत्कारिक कविता है। सबसे बड़ी बात यह है कि कवि ने इस प्रकृति में जुगनू जैसे भृंग को कविता के केन्द्र में रखा है। हम जानते ही हैं कि जुगनू की उम्र ही मात्र पन्द्रह-बीस दिन होती है। अधिक से अधिक हुई तो जुगनू का जीवन दो-तीन महीने का ही होता है। ऐसे में तथाकथित तुच्छ जीव को केन्द्र में रखना, उसका असरदार-जानदार और शानदार चित्रण करना कवि की विहंगम दृष्टि को चिन्हांकित करता है। चमत्कारिक से आशय किसी जादू-टोने से नहीं है। जादू हो या चमत्कार। यह कुछ होता ही नहीं है। झूठ ताकतवर दिखाई देता है। सच यही है कि सत्य की ताप पर वह बर्फ़ की तरह पिघल जाता है। सब कुछ पानी-पानी हो जाता है। सच-झूठ, मदद-धोखा प्रसन्न-कुपित होना मानवीय स्वभाव है। साहित्य में जादू और चमत्कार सब होता है। वह जादू या चमत्कार में यकीन करने के लिए नहीं होता। वह होता है ताकि इंसान इस धरा में सभी अन्य जीवों से अधिक संवेदनशील हो। उसके भीतर मनुष्यता बची रहे। बनी रहे। साहित्य इस दुनिया में इंसान द्वारा रचित सबसे बड़ा आविष्कार है।
कहते हैं कि आग, पहिए और छापेखाने के आविष्कारों ने मनुष्य को महाबली बनाया है। यह सही है। यह भी तो सही है कि जीवों में मात्र साहित्य मनुष्यों के पास धरोहर के तौर पर भी सहेजा जा सकता है। साहित्य आदमी में आदमियत भर सकता है। यह जीवन से निराश हो चुके तन में उम्मीद और आशा के बीज भर देता है। साहित्य का आस्वाद लेते ही हताश मन हरा-भरा हो जाता है। साहित्य किसी इंसान में अनुभवी इंसानों के अनुभव से गुणित अनुपात में वृद्धि कर सकता है। माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त साहित्य के सामने पानी भरता है।
जुगनू समूची दुनिया में हर किसी के लिए कौतूहल का विषय है। बच्चों के लिए तो यह जादुई जीव है। एक समय था जब वसंत के बाद जुगनू शाम ढलते ही दिखाई देने लग जाते थे। आज जुगनू किसी दूसरी दुनिया में चले गए हैं? काश ! दूसरी दुनिया भी होती। यह तो तय है कि जुगनू अतिसंकटापन्न जीव में यदि शामिल हो जाएँ तो यह मनुष्य की ही देन माना जाएगा। जुगनू भाई कविता का पाठक यदि एक बच्चा है। उस पर वह बालक है। तो, पहली ही पँक्ति में उसकी ओर से कवि कहते हैं-‘जुगनू भाई’. . . .!
बालक के ज़ेहन में उसका भाई चाहे छोटा हो या बड़ा उभरता है। यहीं से वह एकदम-त्वरित कविता से जुड़ जाता है। यदि पाठक बालिका है तो यह बात और बड़ी हो जाती है। बालिका जुगनू को अपना छोटा भाई या बड़ा भाई समझते हुए जुड़ती है। यहीं से बात विहंगम आकार ले लेती है। साहित्य में खासकर कविता और कहानी में बेजोड़ प्रभाव होता है। एक कविता। वह भी आठ पँक्ति की! एक-एक पाठक में, लाखों-लाख पाठकों में एक जैसा असर करेगी? जी नहीं। हर पाठक का अपना निजी अनुभव होता है। यह कविता एक ही घर में दो पाठकों में अलग-अलग प्रभाव छोड़ सकती है। किसी भी कविता को पढ़ते हुए पाठक की मनःस्थिति भी अपना प्रभाव छोड़ती है। यह कहना भी गलत न होगा कि यह कविता इतनी धारदार और प्रभावशाली है कि पाठक एक ही हो और वह इसे कभी फुरसत में पढ़े या कभी उदास क्षणों में पढ़े तो यकीनन यह दोनों बार अलग-अलग असर देगी।
यह है साहित्य की शक्ति। एक वयोवृद्ध पाठक है। जीवन के अंतिम क्षणों में है। खोया-पाया पर विचारमग्न है। क्या यह कविता उस व्यक्ति पर कुछ भी असर नहीं करेगी? जवाब होगा-कर सकती है। संभव है कि मरणासन्न यह कहे कि कुछ भी करो लेकिन लोगों की मदद करो। जीवन में दूसरे के साथ खड़े होने का एक भी अवसर मत चूको। यदि उसने जीवन में एक बार भी किसी की मदद की हो तो यह कविता शांत भाव से तसल्ली देती हुई व्यक्ति को आँखें मूँदने में सहायक होगी। कारण? कविता अपनी आखि़री पँक्ति में कहती है-‘चमकोगे, जब काम किसी के आओगे।’
यह कविता उदास मन के पाठक को ही उत्साह से नहीं भरती। यह कविता तो मद में चूर, अहंकारी और सुविधासम्पन्न पाठक को भी ठहरकर विचार करने का अवसर देती है। एक बित्ते भर का जीव भी दूसरों के काम आता है। राह दिखाता है। अनोखा है। मैं क्यों नहीं? कौन नहीं जानता कि घर में माँ परिवार की धुरी है। भोर होने से पहले और रात के गहराने तलक काम में खटती महिला भी कई बार निराशा से भर जाती है। यदि वे पाठक हों तो यह कविता उनमें चौगुना उत्साह भरने की कुव्वत रखती है।
यह कविता उन पाठकों के लिए भी मशाल उठाकर आगे-आगे चलती है जो निराश हैं-हताश हैं। कह सकते हैं जिन्हें अभी कम समझ हैं। या जो बचकाना बातें करते हैं। वह भी जो जिज्ञासु हैं। जब कविता यह कहती है-‘जुगनू भाई, अँधियारे में क्यों जाते?’ इस सवाल का उतना ही सटीक, व्यापक और तार्किक जवाब जुगनू की ओर से आता है। यहीं यह कविता हर किसी पाठक के दिल में गहरी पैठ बना देती है।
बावजूद उसके यदि बात हँसी-ठिठोली पर अटकती है। या उपहासात्मक ही मान लिया जाए कि कोई बड़ा, अहंकारी, ताकतवर या दूसरे को निर्बल समझने वाला व्यंग्यात्मक शैली का उपयोग करने पर आमादा हो। दूसरे शब्दों में कहें कि मासूम-अबोध सवाल ही हो-‘जुगनू भाई, किसकी टार्च चुराई है?’
जवाब में यह संभावित उत्तर सूझता ही नहीं। जिस शालीनता, सादगी और तार्किकता के साथ सवाल का जवाब आता है वह हर किसी को हैरत में डाल देता है। यहाँ कविता का प्रबल पक्ष पीछे खड़ा दिखाई देता है। पाठक जुगनू के बारे में सोचता अवश्य है। जुगनू के चमकने का जो वैज्ञानिक पक्ष है उसकी खोजबीन भी पाठक कर सकता है। बालस्वरूप राही कपोल-कल्पना के कवि नहीं हैं। वह मात्र शृंगारिक कवि नहीं हैं। वह सामाजिक सरोकारी के पैराकारी-वैज्ञानिक नज़रिए को स्थापित करने वाले कवि भी हैं।
इस आठ पँक्तियों की छोटी-सी कविता का फ़लक बेहद विशाल है। जब हम उपहार में या निःशुल्क किसी वस्तु, सामग्री या सेवा की चाह करते हैं तो कहीं न कहीं वह श्रम का उपहास उड़ाता हुआ माना जा सकता है। एक छात्र साल भर मेहनत करता है वहीं दूसरा नकल कर अगली कक्षा में चला जाता है। क्या यह उचित है? बहरहाल, जब पाठक की ओर से यह सवाल आता है-‘जुगनू भाई, हमको भी चमकाओगे?’ तो अनुमान और कल्पना से परे जवाब मिलता है। यहाँ तक सोचे जाने का अंदेशा लग ही नहीं पाता। ऐसा सटीक, जनोपयोगी और मनुष्यत्व से भरा जवाब भी पढ़िएगा-‘चमकोगे, जब काम किसी के आओगे।’
और, हाँ! इस कविता के इतने मायने हैं कि यहाँ दिए गए दृष्टान्त मात्र नमूना ही कहलाएँगे। यह कविता संवादात्मकता के साथ-साथ एक पँक्ति में सवाल और दूसरी पँक्ति में जवाब का शिल्प लेकर प्रस्तुत हुई है। इससे इस कविता की खूबियों पर चार चाँद लग जाते हैं।
पाठक इस एक कविता से ही बालस्वरूप राही की सोच, पकड़ और खूबी का अनुमान लगा सकते हैं। पाठक जैसे-जैसे इस कवि के रचनाकर्म पर नज़र डालता है तो आश्चर्य में पड़ जाता है। गीत, ग़ज़ल के साथ बाल कविताएँ। एक से बढ़कर एक। उम्मीद है कि आप इस कवि का लेखन खोजेंगे और तलाशेंगे। ढूंढकर पढ़ना भी चाहेंगे।
एक साँस में पढ़ने और समग्रता के साथ कविता का आनन्द और थाह पाने के लिए पूरी कविता आपके लिए यहाँ दी जा रही है।
जुगनू भाई
यह छोटी-सी किताब शहद की तरह मीठी है।जुगनू से कोई सवाल पूछता है – जुगनू भाई, जुगनू भाई कहाँ चले?
जहाँ अँधेरा छाया हम तो वहीं चले।
जुगनू भाई, अँधियारे में क्यों जाते?
भूली भटकी तितली को घर पहुँचाते…
क्या जुगनू से ऐसी बातचीत हम कर सकते हैं? यह सवाल आते ही लगता है कि जुगनू हमारे भीतर हमारे मन की कोई बात भी
तो हो सकती है। कोई छोटी-सी अच्छी बात जो रोशनी पैदा करती है। हिम्मत भरती है। या कोई हमारा दोस्त है। जिसमें हमें जुगनू दिखता है।
इस किताब के चित्र हिमांशु ने बनाए हैं। उन्होंने कविता के कई – कई अर्थों को बचाए रखकर चित्र बनाए हैं। चित्रों के जुगनू एक साथ
बाहर उड़ने वाले और हमारे और हमारे दोस्तों के भीतर चमकने वाले जुगनू हैं।किताब लिंक:- https://cutt.ly/pSSvG4t