मुकेश नौटियाल की कहानी गोहतरा

मुकेश नौटियाल कृत ‘गोहतरा’ पढ़ी। शीर्षक ने चौंकाया। कहानी ने कहानी पर बात करने के लिए विवश कर दिया। मुकेश नौटियाल पहाड़ को अपने साहित्य संसार में हमेशा उकेरते हैं। उनके ज़ेहन में पहाड़ बसता है। उनकी कई कथाएँ ऐसी हैं जिनमें आँचलिकता के दर्शन पाठक करते हैं और नई दृष्टि पाते हैं। दिलचस्प बात यह है कि मुकेश बड़ी तल्लीनता से कहानियों के पात्रों में पहाड़ की जीवटता-विशेषता और सौन्दर्य की खुशबू पाठकों तक पहुँचाने का काम करते हैं।

शीर्षक ही पाठक को सीधे जोड़ने में सफल है। कहानी का पहला पल्ला यानी बॉर्डर की बुनाई संस्मरणात्मक शैली से शुरू होती है। कहानी पचास साल पहले किसी अतीत में ले जाती है। पुराने संदूक में पचास साल पुराना कड़ा यादों को उलीचता है। एक जिज्ञासा ध्यान खींचती है। कुछ कीमती सामान की ओर ध्यान जाता है। फिर लगता है कि घर-परिवार के बुजुर्ग के योगदान का किस्सा जुड़ेगा। लेकिन ऐसा नहीं होता। दूसरा अनुच्छेद पचास साल पहले के किसी दिन में ले जाता है। वह भी कौतूहल भरे विस्तार में जाने के लिए बाध्य करता है। फिर लगता है कि कोई भूत-पिशाच का किस्सा जुड़ेगा। लेकिन ऐसा नहीं होता। कहानी पचास साल पहले के कालखण्ड में तो ले ही जाती है। लेकिन कहानी यहीं नहीं खुलती। कथाकार ने पचास साल पहले के समय में जाकर पहाड़ के बाशिन्दों का असल आगमन वाली बुनाई भी करीने से जोड़ दी। बात यहाँ मात्र निवासियों के मूल आगमन की नहीं है। पहाड़ के मूल निवासियों के स्वभाव और सादगी के साथ दुष्कर कठिन जीवन में झांकती यह कहानी है।

बता दूँ कि उत्तराखण्ड के बाशिंदे पाषाण युग की याद दिलाते हैं। मुकेश पाठकों को दस हजार साल से भी पीछे ले जाते हैं। कमाल ! कहानी यह बताने का भरसक प्रयास करती है कि जीवन जीने का अधिकार सभी को होना चाहिए लेकिन हर युग में निर्बलों को सबल धकियाते आए हैं। भले ही धकियाने वाले स्वयं में एक समय में खुद शरणार्थी रहे हो। बावजूद उसके कहानी उदारमन और सीमित संसाधनों में जीने वाले की कद्र करती नज़र आती है।

कहानी यह कहीं नहीं कहती कि हमें भी अभाव में रहना चाहिए। हमें भी अत्याधुनिक साधनों से दूर रहना चाहिए। लेकिन वह पाठक को इस ओर ले जाने का सफल प्रयास तो करती ही है कि अभाव में जो प्रभाव है उसे महसूस करने का शऊर तो हमें सीखना ही चाहिए। गोहराव और पम्पा के बहाने यह कहानी यह भी इशारा करती है कि भले ही एक ज़रूरतमंद को आप धिक्कार दें लेकिन चारों दिशाओं से मिलने वाली संभावित मदद का रास्ता आप बंद नहीं कर सकते।

यह कहानी कहीं अँधेरे मार्ग पर प्रकाश भी डालती है। मसलन कि लगातार विकास और अत्याधुनिकता के कैनवस पर कई रंग हमेशा के लिए काल कवलित हो गए है। कई रंग धुंधले हो गए हैं। कई रंगों की चमक फीकी पड़ती जा रही है। गोला, गौला, गौल, गौल्यू कहें या मॉनिटर लिजार्ड जिसे विषखोपड़ा भी कहा जाता है आज तेजी से विलुप्त हो रहा है। कहीं कहीं इसे बड़ी छिपकली भी कहते हैं। बदलते मौसम, परिवेश और अत्याधुनिक रहन-सहन ने कही जीवों को अतिसंकटापन्न श्रेणी में रख दिया है जो कभी इंसानों के आस-पास रहते थे। मुकेश इस कहानी के सहारे इस ओर भी इशारा करते हैं। कहीं न कहीं वे चेताते भी है कि हम मनुष्यों ने जीवों के स्वाभाविक जीवन शैली को त्याग कर अपने लिए नई दिक्कतें पैदा कर ली हैं। अप्रत्यक्ष रूप से वे सह-सम्बन्ध की पुरजोर वकालत भी करते नज़र आते हैं। जियो और जीने दो की भावना के वे पक्षधर दिखाई देते हैं। वह इस ओर इशारा भी करते हैं कि मनुष्य ने प्रकृति और प्रकृति के जीवों का अपने लिए अत्यधिक दोहन जो कर लिया है यह घातक है।

कहानी जिस गति, लय और जिज्ञासा के साथ आगे बढ़ती है वह सराहनीय है। पाठक पढ़ता जाता है और किसी अप्रत्याशित घटने की आशंका उसके ज़ेहन में चलती जाती है। यह खूबी पिरोने के लिए गजब की कारीगरी चाहिए होती है। मुकेश नौटियाल ने यथार्थ के साथ जो कल्पना का मिश्रण किया है वह काबिल-ए-तारीफ है। हर्षिल का उल्लेख कर वह उसे उत्तराकाशी के आस-पास की देश-भूमि बना देते हैं। पत्थरियाल का उल्लेख कर उन्होंने पहाड़ में जाति नाम का सूत्र भी दिया है। स्थान के सूत्र भी इसी तरह मिलते हैं। डुग्ररियाल, सेमवाल, नगरकोटी, भटकोटी सहित तुनवाला, बाढ़वाला, बड़ोवाला, डाकपत्थर, पाँवटासाहिब नाम के पीछे भी तो किस्से ही हैं। जो काल के गाल में अपभ्रंश होते हुए नए स्वरूप में बदल जाते हैं।

इस पहाड़ी कथाकार की कहानियों के को पढ़कर पाठक उनके पात्रों से चुटकी भर मनुष्यता उठा लेता है। लेते हैं। पाठक कथाकार और कथा में छिड़के पात्रों की पदचाप पाठक सुन लेता है। उनके स्वभाव और मानवीय संवेगों से पाठक हतप्रभ भी होता है और इंसानियत पर भरोसा भी करता है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो मुकेश नौटियाल को पहाड़ी कथाकार कहें तो उचित होगा। इसका अर्थ यह कदापि नहीं लगाया जाए कि मैं किसी साहित्यकार को आँचलिकता के घेरे में समेटकर उसके कद की काट-छाँट कर रहा हूँ। मेरा स्पष्ट मानना है कि साहित्यकार के लेखन की ताकत ही ऐसी होती है कि उसे किसी भू-भाग के दायरे में बाँधा नहीं जा सकता। साहित्य का कोई नपा-तुला इलाका नहीं होता। वह किसी इलाके का हो सकता है लेकिन किसी इलाके में ही पढ़ा जाए, ऐसा नहीं हो सकता। आज त्रि-भाषा के जानकार किसी भी भाषा के साहित्य को अनुदित कर उसे व्यापक स्तर पर दुनिया के पाठकों तक पहुँचा रहे हैं। आज हिन्दी पट्टी का पाठक आसानी से चीन, कोरिया, जापान, तुर्की, फिनलैण्ड आदि आदि भाषा के साहित्य को हिन्दी में पढ़ पा रहा है। यह बड़ी बात है।

मुकेश नौटियाल वित्त, लेन-देन और निवेश के जानकार है। यही कारण है कि वह अपनी कथाओं में सीधी बात नहीं करते। मेरी पहुँच में ऐसे कथाकार कम हैं जिनका हिडेन एजेण्डा दिखाई ही नहीं देता। कहानी खत्म हो जाती है तब भी वह एजेण्डा पाठक पकड़ नहीं पाता। अधिकतर कथाकारों की कहानी सीधी-सपाट और किसी एक उद्देश्य या संघर्ष या समस्या के लिए आगे बढ़ती है। उसकी प्राप्ति कर कथाकार अपने दायित्व से मुक्त हो जाता है।

एक बात और उत्तराखण्ड के टिहरी जिले के प्रख्यात कहानीकार विद्यासागर नौटियाल की याद दिलाते हैं। बाद लम्बे समय तक मुझे लगता रहा कि मुकेश नौटियाल के लेखन में विद्यासागर नौटियाल का प्रत्यक्ष सहयोग है। कॉलेज के दिनों से दोनों को पढ़ता रहा हूँ। मेल-मुलाकात नहीं थी। विद्यासागर नौटियाल से तो कभी मुलाकात नहीं हुई। अलबत्ता, मुकेश नौटियाल से 2005 में उत्तराखण्ड शिक्षा विभाग के बैनर तले पाठ्य पुस्तक लेखन के दौर में मुलाकात हो गई। उनका मिलनसारी-सहयोगी और सुझावात्मक स्वभाव अच्छा लगा था। कालान्तर में हमारी निकटता बढ़ती रही। वे पहले ऋषिकेश रहते थे बाद उसके देहरादून रहने लगे। हम देहरादून से सुदूर पौड़ी में 2005 से ही हैं।

मुकेश नौटियाल रुद्रप्रयाग के हैं। विद्यासागर नौटियाल टिहरी के। मुकेश नौटियाल ने ही बताया था कि देहरादून में रहते हुए वे दोनों खूब मिलते रहे। कथा-कहानी के संसार में गोता लगाते हुए उनकी खूब बहसें-असहमति-चर्चा होती रहती थीं। वे घण्टों साहित्य जगत के बारे में बात करते। विद्यासागर नौटियाल की मृत्यु के बाद भी मुकेश उनके साथ बिताए समय को बड़ी शिद्दत के साथ याद करते रहते हैं। यह ज़िक्र करने का मक़सद सिर्फ इतना है कि कोई भी लेखक नितांत स्वयं से उम्दा रचना नहीं रच पाता। कहीं न कहीं किसी भी रचना के आलोक में उसका अपना अनुभव भी काम आता है। अतीत में दूसरों से हुए गहरे-लंबे-आत्मीय संवाद भी बहुधा कथा बुनने में काम आते हैं। किस्सों का, बातों-मुलाकातों का, की गई यात्राओं का भी कथा बुनने में योगदान रहता है। आँखों देखा और कानों सुना हाल भी बहुधा काम आता है। यह सब न हो कहानी लिखने का हुनर धरा का धरा रह जाता है। इतना सब कुछ होने-होने के बाद भी खुद से कहानी के पात्रों का जूझना भी बहुत काम आता है। कहानी के कई अंश दिल-ओ-दिमाग में तूफान-बैचेनी पैदा करते हैं। तड़प के साथ उतरने को आमादा कहानी के पात्र उथल-पुथल मचाते हैं। कथा कहानीकार से लिखवा लेती है। कोई प्रकाशक-सम्पादक उसे छाप भी देता है। और कहानी खत्म ! जी नहीं। कहानी कभी खत्म नहीं होती। वह चलती रहती है। आगे बढ़ती रहती है।

मुकेश नौटियाल की कहानियों का अपना स्वभाव है। संस्मरणात्मक, आपबीती या कहूं कि कहानी में आत्मकथ्य-सा बुनावट उन्हें प्रिय है। वह ढर्रे पर चलती शैली को बहुधा तोड़ते हैं। देश, काल, परिस्थिति, स्थिति, विवरण, संवाद, फ्लैश बैक, कल, आज और कल को एक-साथ शामिल करने का जोखिम भी वह उठाते हैं। अतीत के साथ आज और भविष्य को एक बुनावट में करीने से सहेजना बेहद सतर्कता का काम है। मैं कह सकता हूँ कि यह काम आसान नहीं है। उस पर पाठक की चाहत यह होती है कि पढ़ते हुए और पढ़ने के बाद आनंद और सन्तुष्टि तो मिलनी चाहिए।


सन्दर्भ: बच्चों का दुमहिया साइकिल पत्रिका में यह कहानी अप्रैल-मई 2024 के अंक में प्रकाशित हुई है। पत्रिका पिछले छःह सालों से हिन्दी की ऐसी पत्रिका के तौर पर प्रतिष्ठित है जिसने बाल खासकर किशोर पाठकों के लिए साहित्य का अनोखा-नया और अब तक वर्जित क्षेत्र मुहैया कराया है। सही अर्थों में साइकिल ने समूची साहित्यकार बिरादरी को नए सिरे से सोचने पर बाध्य किया है कि आखिरकार बाल पाठकों को कैसा साहित्य उपलब्ध कराना चाहिए और क्यों? पत्रिका के सम्पादन में सुशील शुक्ल, शशि सबलोक, चन्दन यादव, तज़ीन अली, दिव्या सिंह की भूमिका प्रशंसनीय है।

एक किताब है मनुष्य महाबली कैसे बना? रूसी से हिन्दी अनुवाद है। वह किताब बताती है कि कैसे मानव चार पैरों से दो पैरों में तब्दील हुआ! कैसे मनुष्य ने आग और पहिए के आविष्कार से खुद को शेष जीवों से अलग कर लिया! आदि-आदि। मुकेश भी पाठकों में यह सोच भरने में सफल होते हैं कि वह भी अपने परिवेश को गहरे से जाने। आ रहे बदलावों को महसूसें। अपने अतीत को खगालें। बतौर मनुष्य हम कहाँ थे और कहाँ पहुँच गए हैं। यह कहानी सोचने पर बाध्य करती है कि कैसे और क्यों आज भी बंदर बंदर रहा गया है और हम मनुष्य अति उपभोक्तावादी युग में किस यात्रा पर चल पड़े हैं। हाँ! जो मनुष्यत्व हमें शेष जीवों से अलग करता रहा है वह निखरा है या कुन्द हुआ है? यह आप तय कीजिएगा।

मुकेश नौटियाल की कहानी गोहतरा

कोई खोई हुई चीज़ अनायास मिल जाय तो खुशी देती है, साथ ही अपने से जुड़ी बुझती यादों को भी नई रंगत दे जाती है। पुराने संदूक को कबाड़ में देने से पहले जब मैं उसमें रखा सामान खाली कर रहा था तब मुझे जंग लगा वह कड़ा मिल गया। किसी गोह को वृत्ताकार आकर में मोड़ते हुए उसके मुंह से पूंछ छुआओ तो बिल्कुल यही आकृति बनेगी जो इस लोहे के कड़े की है। यह मुझे पचास साल पहले मिला था। पहाड़ों की तरफ़ जाते हुए उस शाम पेशाब जाने के लिए मैंने सड़क किनारे गाड़ी रोकी। उन दिनों पहाड़ी सड़कों पर यातायात नाममात्र का होता था। मेरे निवृत्त होने तक शायद ही कोई गाड़ी वहां आती लेकिन घसेरियों का एक झुंड पीठ पर घास के गट्ठर ढोते हुए वहां से गुजर रहा था। उनकी नज़र से बचने के लिए मैंने सड़क के बाईं ओर पसरे ढाल की वह चढ़ाई नापनी शुरू की।

अभी मैं कुछ क़दम ही चला था कि पंछियों के कलरव के बीच किसी के खांसने की आवाज़ सुनाई दी। वहां कोई आदमी नज़र नहीं आता था। कोई घर भी नहीं था। केवल भारी-भरकम पत्थरों का विस्तार था। पत्थरों के चारों ओर जीभ लपलपाती गोह घूम रही थीं। मैं पहली बार एक जगह इतनी सारी गोह देख रहा था। उस बियाबान में कुछ मुर्गियां भी दाना चुगतीं नज़र आ रही थीं। समझ में नहीं आया कि इस जंगल में मुर्गियां कौन पालता है ! दूर कहीं से सियारों के रोने की आवाज़ें आ रही थीं। ठंडी हवा चल रही थी और लगता था, जैसे जल्दी ही ओंस बरसने लगेगी।

सहमते हुए मैंने एक भीमकाय पत्थर की आड़ में हल्का होने की कोशिश की तो पत्थर के अंदर से खांसी फूट पड़ी। महसूस हुआ जैसे पत्थर खांस रहा हो। मैं सरपट नीचे भागा और गाड़ी स्टार्ट कर अपने रास्ते आगे बढ़ गया।

तीसेक किलोमीटर चलने के बाद मैं एक कस्बे में पहुंचा। अंधेरा घिर आया था। उस रात मैंने वहीं पड़ाव डाला। खांसते पत्थर की स्मृतियां रात भर मेरे मस्तिष्क में उमड़ती घुमड़ती रहीं। अगली सुबह मैंने पिछली शाम के डरावने अनुभव को वहां के लोगों से साझा किया तो एक नई कहानी सामने आई।

बात उन दिनों की है जब मैदानी इलाकों में मची लड़ाइयों से बचने के लिए लोग पहाड़ों की तरफ़ भाग रहे थे। छुपने के लिए पहाड़ों से बेहतर कोई दूसरी जगह नहीं होती थी। उन्हीं दिनों सुदूर राजस्थान के रेगिस्तान से भागा नौजवान पम्पा कई दिनों तक दर-दर भटकने के बाद अपने कुनबे के पांचेक सदस्यों के साथ पहाड़ आ पहुंचा। वह जिस पहाड़ी पर जाता वहीं से भगा दिया जाता। मैदानों से आए कबीलों ने पहले ही आसान पहुंच वाली पहाड़ियां कब्जा ली थीं।

भागता-हांफता पम्पा कई पहाड़ियां लांघकर बहुत दूर चला आया। अंततः वह जहां पहुंचा वह ठंडा इलाका था। हिमालय वहां से साफ़ नज़र आता था। पगडंडी के एक तरफ़ भागीरथी बह रही थी तो दूसरी तरफ पहाड़ी ढलान पर भारी – भरकम पत्थर बिछे थे। पत्थरों के पटी उस ढाल पर छोटी प्रजाति के पेड़-पौधे उगे थे और जगह – जगह गोह रेंग रही थीं। ढलान के शीर्ष पर आसमान छूते देवदार उगे थे। वहीं कहीं ऊपर से निकलकर नहर के माफिक उतरती गोहधारा ढाल उतरकर भागीरथी में मिल जाती थी।

पम्पा ने इलाके का जायज़ा लिया। वहां पानी मौजूद था और दूर-दूर तक कोई गांव नहीं दिखाई देता था। उसने बसने के लिए यह जगह चुन ली थी लेकिन तभी पत्थरों के बीच से एक मोटा साधु प्रकट हुआ। काले कंबल का लबादा ओढ़े उस साधु ने सिर पर चमड़े की एक टोपी पहनी थी जिसके बीच में गोह के मुख की आकृति बनी थी। पम्पा मंगोल चेहरे और तांबई रंग के उस साधु को देखते ही डरकर पीछे हट गया। उसकी हथेलियां और पैर के पंजे लंबे और नोकीले नाखूनों से पटे थे ……बिल्कुल गोह की तरह। अच्छी बात उसमें यही थी कि उसकी आवाज़ बड़ी मीठी थी।

“डरो नहीं राहगीर…। मैं गोहराव गुरुंग हूं। लोग मुझे गोहराव बाबा कहते हैं। बताओ, तुम्हारी क्या मदद करूं?” दांतकुतरनी से दांतों के बीच फंसा कबाड़ निकालते हुए उसने पूछा। पम्पा ने उसको अपनी समस्या बताई और वहां रहने की इज़ाजत मांगी। गोहराव बाबा ने कहा – “यह गोह का इलाका है। ये जितने पत्थर तुम देख रहे हो, सभी गोह के बसेरे हैं। दिनभर वो इन पत्थरों पर लेटकर धूप सेकती हैं और रात में इनकी ओट में बनी गुफाओं में चली जाती हैं। तुम यहां रह सकते हो पर घर बनाकर नहीं रह सकोगे। तुमको मेरी तरह इन पत्थरों की ओट में रहना होगा और यहां हो -हल्ला मचाने से बचना होगा।इस तप्पड़ में केवल एक आवाज़ सुनाई देती है और वह भी तब जब भरी दोपहर में मैं गोहगीत गाता हूं।”

पम्पा ने देखा कि ढलान के पत्थरों में कुछ पत्थर पूरी तरह ज़मीन में धंसे हुए थे लेकिन कइयों का एक सिरा ज़मीन पर चिपका था, दूसरा हवा में लटका था। पत्थरों की छत के नीचे बने उन गुफानुमा कोटरों में रहने के लिए पर्याप्त जगह थी। वहां गाेह के कुनबों ने कब्ज़ा जमा रखा था। पम्पा ने अपने लोगों को काम पर लगा दिया। आसपास बिखरे छोटे-छोटे पत्थरों से उन्होंने भारी पत्थरों के नीचे बनी खुली जगहों को दीवारों से चिन लिया। अंदर बाहर आने-जाने के लिए दीवारों के बीच द्वार बनाए और इस तरह पम्पा के कुनबे को दो बसेरे नसीब हो गए।

बताते हैं कि गोहराव बाबा ने पम्पा की बिरादरी को पथरियाल नाम दिया।पथरियाल यानी पत्थरों में रहने वाले पत्थर जैसे मज़बूत लोग । रेगिस्तान की धूप ने पथरियालों को ख़ूब तपाया था। उन्होंने ढलान पर सीढ़ीनुमा छोटे – छोटे खेत काटे। भेड़, घोड़े, पहाड़ी कुत्ते और मुर्गियां पालना शुरू किया। फिर उन्होंने इन जानवरों का व्यापार करना शुरू कर दिया। इस धंधे में उन्होंने ख़ूब धन कमाया पर गोहराव बाबा को दिए गए भरोसे के मुताबिक़ अपने बसेरों को यथावत रहने दिया। यहां तक कि जानवरों के बसेरे भी उन्होंने पत्थरों की ओट में बनाए। उन्होंने गोहराव बाबा से गोहगीत सीखा जिसमें यह प्रार्थना दर्ज़ होती थी कि प्रकृति उनको भी गोह जैसी सामर्थ्य प्रदान करे।

लेकिन धनवान बनने के बाद पम्पा के बिरादरों को गोहतरा की प्रस्तर-गुफाओं में गोह-समूह के साथ रहना खलने लगा था। उन्होंने तय किया कि कहीं अन्यत्र जाकर बसा जाए जहां वह अपनी पसंद के घर बना सकें और उन घरों में तमाम तरह की सुविधाएं जुटा सकें। उन्होंने पम्पा से अपनी इच्छा व्यक्त की। पम्पा ने उनको जाने की इज़ाजत दे दी लेकिन ख़ुद गोहतरा में रुक गया।

गोहराव बाबा के साथ पम्पा पथरियाल की ख़ूब जमी। गोह बिरादरी के साथ उसके रिश्ते गहराते चले गए। बताते हैं कि गोहतरा में इतनी विशाल गोह भी थीं कि वह घुरड़ों और काकड़ों को मार डालती थीं। इलाक़े के लोगों की कई बकरियां भटककर गोहतरा के जंगल पहुंचती और वहां से गायब हो जाती थीं। यूं पहाड़ी गोह मेंढक,चूहे, सांप और पंछियों के अंडे खाकर काम चला लेती हैं लेकिन इलाके के लोगों के अनुसार गोहतरा की विशाल गोह बड़े जानवरों को भी निगलकर मय हड्डी पचा लेती थीं। बहरहाल….।

पम्पा के मुर्गी बाड़े में अंडे बिखरे पड़े होते थे जिनको गोह शौक से खाती थीं लेकिन मुर्गियों पर गोह के हमलों की बात कभी नहीं सुनी गई। लोग कहते हैं कि ये जानवर एक-दूसरे से अपने रिश्ते को जानते थे। बाड़े में मुर्गे – मुर्गियां उन्मुक्त घूमते थे पर कभी नहीं सुना गया कि किसी जंगली बिलौटे या सियार ने कोई चूज़ा भी मारा हो। गोह की मज़बूत रक्षा – पंक्ति को भेदना शातिर शिकारी के लिए भी संभव नहीं हो पाता था।

घोड़े और भेड़ें पम्पा ने अपने बिरादरोंं को दे दिए थे लेकिन मुर्गियां उसने अपने पास ही रखीं क्योंकि उनसे गोह का आहार जुड़ा था। कहते हैं कि उसके मुर्गे शुतुरमुर्ग के माफिक भागते थे और मुर्गियां मोरनी की तरह खूबसूरत होती थीं।

गोहराव बाबा के मरने की ख़बर इलाक़े के लोगों को तब लगी जब पम्पा पथरियाल ने गोहतरा में उनकी समाधि बना दी। इसके बाद की बात कस्बे वालों को पता नहीं थी। वह बताते थे कि गोहतरा में आज भी गोह का कब्ज़ा है। उत्तरकाशी जाते हुए अक्सर वो ढाल से फिसलकर सड़क तक पहुंचने वाले पम्पा के गाए गोहगीत के स्वर सुनते थे लेकिन पम्पा किस हाल में है , इसकी उनको ज़्यादा जानकारी नहीं थी। गोहराव बाबा के पास तो वो छठी -छमाही में कभी जाते भी थे लेकिन पम्पा को उन्होंने सालों से नहीं देखा। लोगों के मुताबिक तो वह सौ साल की उमर पार कर गया होगा।

अब मेरी समझ में आया कि गोहतरा में उस दिन गूंजने वाली उस खांसी का राज क्या था! कस्बे से वापस लौटकर आया और गाड़ी उसी जगह खड़ी की जहां आते समय की थी। उसी चढ़ाई को दोबारा नापा और उसी बड़े पत्थर के पास पहुंच गया। आश्चर्य कि पत्थर के अंदर से फिर वही जानी -पहचानी खांसी फूट पड़ी…जैसे कोई उम्रदराज बूढ़ा गले में फंसी बलगम खंखार रहा हो। लेकिन इस बार मैं डरा नहीं। मुझे पता था कि यहां कोई इंसान है। वह कहां है, यह जानने के लिए मैं उस विशाल शिला के ओने-कोने टटोलने लगा।

उस पत्थर को देखते हुए मुझे एक नई बात पता चली जिसके बाबत पहले किसी ने नहीं बताया था। वहां कई पत्थरों की बनावट गोह के मुंह, पैर,पूंछ या पेट की आकृति से मिलती – जुलती थी। प्रकृति भी कभी ग़ज़ब कमाल करती है। पत्थर के ऐन बगल पर जहां मैं खड़ा था, वहां एक खिड़कीनुमा द्वार नज़र आया। एक मोटे तख्ते के दरवाजे से द्वार ढका था। दरवाजे के ठीक बगल पर हवा आने-जाने के लिए आले जैसे छोटे-छोटे कई छेद बने थे। खांसी वहीं से फूट रही थी।

मैंने द्वार पर दस्तक दी। कुछ देर बाद एक बूढ़ा आदमी अंदर से प्रकट हुआ। उसके चेहरे को देखकर मैं सन्न रह गया। इतना बूढ़ा आदमी मैंने इससे पहले कभी नहीं देखा था। उसके चेहरे पर असंख्य झुर्रियां लटक रही थीं जैसे अपने अंदर सैकड़ों वर्षों का इतिहास समेटे बैठी हों। उसकी सफेद दाढ़ी में हल्का पीलापन था। उसने ढेर सारे ऊनी कपड़ों के बाहर काले कंबल का एक लबादा ओढ़ा था और सिर पर चमड़े की टोपी सजा रखी थी जिसके बीच में गोह के मुख की आकृति बनी थी। अपने बुढ़ापे के बावजूद वह तनकर मेरे सामने खड़ा था।

“कौन हो राहगीर? कहो, क्या मदद चाहिए?” उसने पूछा।

“क्या आप पम्पा पथरियाल हैं?” मेरे प्रश्न पर वह कुछ ठिठका और फिर हामी भरते हुए उसने सिर हिलाया।

“तुम यहां क्या करने आए हो? यह गोह का इलाका है। आदमी यहां नहीं आते।” पम्पा ने कहा।

“मुझे केवल एक रात आपके बसेरे पर आपके साथ रहना है। क्या इज़ाजत है?” मेरी बात सुनकर बूढ़े पम्पा के चेहरे पर मुस्कान तैरती देखकर मुझे लगा जैसे रेगिस्तान में जलकुंड मिल गया हो।

उस छोटे-संकरे द्वार से मैं पम्पा के पीछे-पीछे उस गुफानुमा घर में प्रविष्ट हुआ। बाहर से भारी – भरकम, बड़ौल नज़र आने वाला पत्थर का वह ढांचा दरअसल अंदर से एक शानदार बसेरा था। वहां पर्याप्त जगह थी। एक कोने पर चूल्हा था, दूसरे पर पम्पा का बिस्तर। बिस्तर क्या था… पुआल की परत पर कंबल बिछाया गया था। एक आले पर डिबरी जल रही थी। कक्ष में घुएं और तंबाकू की मिलीजुली गंध भरी थी। लगता था जैसे सदियों से यहां चूल्हा सुलग रहा हो।

पम्पा ने बताया कि इस ठंडे इलाके में चूल्हे की आग ही शरीर को ताप देती है। यह कोठरी को गर्म बनाए रखती है और इससे भी बड़ी बात ये कि धुएं की गंध से गोह दूर रहती हैं। उसके गुरु गोहराव बाबा ने यह धूनी रमाई थी। तब से लेकर आज तक डेढ़ सौ साल हुए, इसकी आग नहीं बुझी। बातचीत के क्रम में यह पता चला कि गोहतरा से जाने के बाद उसके बिरादर लौटकर उसको पूछने नहीं आए। गोहराव बाबा के निधन के बाद इलाक़े के लोगों ने भी गोहतरा से दूरी बना ली । छठी -छमाही में कभी कोई आता भी है तो मुर्गियां खरीदने या फिर वह स्वयं सौदा-पत्ता लेने हर्सिल बाज़ार जाता है तो ही मनुष्यों के चेहरे देख पाता है।

रात को पम्पा ने मुझे अंडे और मंडुए की रोटी की दावत दी। उसने छंग पेश की लेकिन मैंने पीने से इंकार कर दिया। मुझे उसकी गंध अच्छी नहीं लगी। खा पीकर चिलम पीने के बाद पम्पा सो गया। मुझे उसने अपने पैताने सोने के लिए कहा लेकिन मुझे रात भर नींद नहीं आई। पम्पा के खर्राटों से जैसे गुफा हिल रही थी।

अगली सुबह मैंने पम्पा के साथ गोहतरा का जायज़ा लिया। उसने मुझे पत्थरों के नीचे बने वह दो बसेरे दिखाए जो कभी उसने अपने और अपने बिरादरों के लिए बनाए थे। अब उनमें गोह का कब्ज़ा हो चला था। वहां मुर्गे और मुर्गियां बेखौफ घूम रहे थे। पत्थरों की ओट में मुर्गियां अंडे दे रही थीं और घात लगाए बैठी गोह उन अंडों को चट कर जाती थीं। एक बूढ़ी और विशालकाय गोह को पम्पा ने अज़ीब सी आवाज़ निकालकर अपने पास बुलाया तो मैं दंग रह गया।

पम्पा के साथ चलते – चलते जब मैं गोहतरा के शिखर के क़रीब पहुंचा तो हवा में एक अज़ीब सी दुर्गंध महसूस हुई। आसमान में उड़ते गिद्ध गर्दनें घुमाते हुए जैसे कुछ तलाश रहे थे। पम्पा ने कहा – “लगता है, फिर कोई गोह मरी है। चलो, हाडधार में देख आएं।” कुछ क़दम और चढ़ाई नापकर हम धार में पहुंच गए। पहाड़ में धार उस शीर्ष को कहा जाता है जहां पहाड़ी की ऊंचाई समाप्त हो जाती है और वहां से पहाड़ के दूसरे तरफ़ का इलाका नज़र आने लगता है। यही हाडधार था। वहां का दृश्य डरावना था। दूर तक पसरी ढलान पर गोह के सैकड़ों कंकाल बिखरे थे ….कुछ साबूत, कुछ पंजर। उन कंकालों के बीच एक बूढ़ी और विशाल गोह की निष्प्राण देह पड़ी थी। उसको देखते ही पम्पा ने मेरी पीठ पर धौल जमाते हुए कहा -“मैंने कहा था न ! फिर कोई गोह मरी है।”

“क्या गोह मरने यहां आती हैं?” आश्चर्य से मैंने पूछा।

“हां…। मेरे देखते आज तक कोई गोह नीचे, अपने कुनबे में मरी नहीं मिली।” पम्पा ने कहा।

गोहतरा का जायज़ा लेने के बाद मैंने पम्पा पथरियाल से विदा ली। निशानी के रूप में उसने अपने हाथ से लोहे का एक कड़ा उतारकर मुझे भेंट किया। वही कड़ा पुराने संदूक को कबाड़ में देने से पहले सामान चुनते हुए मुझे आज मिला। इस कड़े में जंग जम गई लेकिन यह सलामत है!गोहतरा की स्थिति क्या है – मुझे जानकारी नहीं। पम्पा यकीनन अब नहीं होगा। वह तभी सौ साल पार कर चुका था। गोहतरा की देखभाल अब कौन करता होगा ! सुनता – पढ़ता हूं कि दुनिया भर में गोह की प्रजाति तेज़ी से गायब हो रही है। इसकी खाल से बाजों की पूड़ियां बनाई जाती हैं और इसके अंगों से तमाम तरह की दवाएं बनती हैं। कई जगह तो गोह के शोरबे को ताक़त और रोग प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने के लिए चाव से पिया जाता है। गोह के तस्करों के पकड़े जाने की ख़बरें आए दिन अख़बारों में छपती रहती हैं।

ऐसे में क्या गोहतरा की ढलान पर आज भी गोहगीत के स्वर गूंजते होंगे? वहां की विशाल गोह, शुतुरमुर्ग के माफिक भागते वो मुर्गे और मोरनी जैसी खूबसूरत मुर्गियां अब किस हाल में होंगी ! कभी आपका उस तरफ़ जाना हुआ तो ख़बर लेकर आना ज़रूर ।

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By manohar

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