अंधेर नगरी चौपट राजा से अभिप्राय तो यही है कि जिस राज्य में कानून और व्यवस्था चौपट हो। चौबीस घण्टे अज्ञान और अन्याय का राज हो। लेकिन साहित्य, कला, संगीत के जानकार-मर्मज्ञ भी इस मुहावरे को चरितार्थ करने लगें तो सोचिए कि हम किस ओर बढ़ रहे हैं।
‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कृत बेहद मशहूर नाटक है। यह नाटक हास-व्यंग्य से सराबोर है। इतना ही नहीं यह सामाजिक और राजनीतिक तौर पर भी तीखे व्यंग्य करता है। मूर्ख और नशेबाज राजा और उसके चाटुकार कैसे न्याय करते हैं, उस पर इससे धारदार, असरदार और बोधगम्य नाटक दूसरा नहीं मिलता। मजेदार बात यह है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने इसे 1880-81 के दौर में लिखा था। सांकेतिक तौर पर अंग्रेज़ी हुकूमत पर यह प्रहार करता था। भले ही पात्र एवं उनका चित्रण विःशुद्ध एक अंचल का प्रतिनिधित्व करता रहा है। बाद उसके इस नाटक को खेलने पर ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबन्ध भी लगाया था। कौन नहीं जानता कि भारतीय रंगमंच के इतिहास और वर्तमान में इस नाटक का हजारो-हजार बार मंचन हुआ है। लेकिन यह नाटक छःह अंकों में मूल रूप से जितना कारगर और असरदार आज भी है उतना इसका पुनर्कथन संस्करण असरदार नहीं लगता। सैकड़ों रंगमंचीय संस्थाओं ने इस नाटक से प्रेरित होकर आज के सन्दर्भ में नए नाटक सृजित किए हैं, जिन्हें दर्शकों ने खूब सराहा भी है। मूल्यहीन, अराजकता, अमानवीयता से ओत-प्रोत नाटक को यदि संशोधित कर खेला जाए तो किसे आपत्ति है। किन्तु भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को नेपथ्य में रखकर नाटक का नाम बदलकर कोई इसका रूपांतरण और निर्देशन कर खुद को बड़ा रंगकर्मी मानने का मुगालता पाल ले तो इसे टका सेर भाजी, टका सेर खाजा ही कहा जाएगा।
हाल ही में सूबे की राजधानी में ऐसा ही प्रयास किया गया। बाहर पेजों की रंगीन विवरणिका प्रकाशित की गई। मुखपृष्ठ पर नाटक का नाम ही अजब गजब तरीेके से बदल दिया गया। रूपांतरण और निर्देशन को उकेरा गया। लेकिन कहीं भी मूल नाटक का उसके नाटककार का नाम नहीं दिया गया। छठे पेज पर निर्देशक ने पहले तो यह लिखा कि बच्चों के लिए नाटक लिखा गया। बाद उसके यह लिखा है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र लिखित नाटक अंधेर नगरी से प्रेरित होकर रूपातंरण किया है। यदि यह रूपान्तरण है तो इससे लचर रूपान्तरण कोई ओर क्या ही हो सकता है।
आज के सन्दर्भ में यदि बदलाव किया जाना ही था तो राजा की जगह राजनेताओं को रखा जा सकता था। देश-काल और परिस्थितियां यदि राजा-रजवाड़ों की रखना बाध्यता है तो फिर बोली-भाषा में अंग्रेज़ियत की क्या आवश्यकता था। पारम्परिक मेले हैं तो उनकी वेशभूषा में अत्याधुनिक चमक-दमक कमजोर दृष्टि और सूझबूझ ही दर्शाता है। इसे बच्चों का नाटक कहना ही अजग गजब लगा।
हाँ ! यह कहा जा सकता है कि बत्तीस से पैंतीस मानव श्रम मंच में और नेपथ्य में इस नाटक को मंचित करने में सराहनीय भूमिका में दिखाई दिए। विद्यार्थी कलाकारों ने शानदार अभिनय किया। जैसा बताया गया कि लगभग दस दिन के पूर्वाभ्यास से नाटक तैयार हुआ है वह काबिल-ए-तारीफ है। लगभग पचास मिनट मंच से दर्शकों को बांधे रखना आज के दौर में वाकई चुनौतीपूर्ण है। एक-दो अवसरों को छोड़ दे ंतो सभी ने अपने किरदार और संवाद से प्रभावित किया। पार्श्व मंच की भूमिका भी सराहनीय रही।
आज जब हमारे आस-पास रील्टे, ड्रीम इलेवनिए और माई इलेविनिए दूब की तरह बढ़ गए हैं। फेसबुकिए तय करने लगे हैं कि क्या खाना चाहिए और क्या नहीं। सोशल मीडिया में मिलने वाल लाइक और रीच कम होने पर बढ़ता ब्लड प्रेशर चिंता का विषय हो गया है तो यह एक सुखद अहसास तो है ही है कि कुछ जुनुनिए रंगमंच का ऑक्सीजन प्रदान कर रहे हैं। उनके प्रयासों को लाखों सलाम भेजे जाने चाहिए।