कोविड 19 ! जी हाँ। याद रहेगा। जनवरी 2020 में हम लोग इसे इतनी गंभीरता से नहीं ले रहे थे। लेकिन ट्रम्प नमस्ते कार्यक्रम के बाद हलकेपन ने करवट बदली और हम गंभीर हो गए। आज कोरोना का प्रभाव भारत में धीरे-धीरे कम होने लगा है। यह सुःखद है। लेकिन कोरोना ने हमारे बहुमूल्य बारह महीने छीन लिए हैं। पीछे मुड़कर देखें तो पूरा साल बेहद अस्त-व्यस्त रहा। अभी भी हमारा सामान्य जन-जीवन पटरी पर नहीं लौट सका है। साल दो हजार बीस का सिहांवलोकन करें तो हिन्दी पट्टी ही नहीं, समूचा देश ही नहीं दुनिया के कई मुल्कों में पढ़ने-लिखने की संस्कति प्रभावित हुई है। हालांकि पढ़ना-लिखना कम नहीं हुआ। वह तो बढ़ा ही है। माध्यम बदल गए हैं। लेकिन हम तो छपी हुई सामग्री की बात कर रहे हैं। छपी हुई सामग्री बच्चों के लिए सबसे कारगर है। ई पत्र-पत्रिकाएं,इंटरनेट,मोबाइल के माध्यम से पढ़ना-लिखना बच्चों के लिए विकल्प हो सकता है लेकिन इसे प्राथमिक माध्यम नहीं बनाया जाना चाहिए। इन पिछले आठ महीनों में आँखों की समस्याएं बढ़ी हैं। बच्चों की आँखों में तकलीफें भी ख़ूब बढ़ी हैं।
कोरोना के दौरान हिन्दी पट्टी से निकलने वाली कई पत्रिकाएं बंद हुई हैं। भारत भर में ही नहीं कई देशों में बच्चों का प्रकाशन बंद हुआ। इंटरनेट पर प्रकाशन होता रहा। मौटे तौर पर हम मानते रहे कि बच्चों के पास पढ़ने-लिखने की सामग्री जाती रही। लेकिन हम भारत की बात करें तो भारत में लगभग 25 करोड़ परिवार हैं। भारत के लगभग छह करोड़ परिवार तो अक्षर ज्ञान से वंचित हैं। सवा अरब की आबादी में औसतन पचास फीसदी परिवारों में इंटरनेट की रोजमर्रा की सहूलियत है ही नहीं। ऐसे में यह सोचना बेमानी है कि भारत के बच्चे पढ़ रहे हैं। ऐसे में बाल साहित्य की ज़रूरत और अधिक है।
आज भी जब हम बच्चों से,किशोरों से और यहां तक कि वयस्कों से कविता-कहानी की चर्चा करते हैं तो नब्बे फीसद मामलों में उन कविताओं-कहानियों पर चर्चा होती है जिन्हें उन्होंने स्कूली किताबों में पढ़ा होता है। एक साल के लिए एक हिन्दी की स्कूली किताब में पूरा साहित्य है?
एक ओर हैरानी वाली बात है। अध्यापकों का साहित्य से विमुख रहना। साहित्य पढ़ाने वाले विषय अध्यापकों में बहुत बढ़ा हिस्सा सूर, तुलसी, कबीर और प्रेमचन्द से आगे नहीं बढ़ पाया है। समकालीन साहित्य और साहित्यकारों पर चर्चा करें तो संवादहीनता की स्थिति आ जाती है। ऐसे में नितांत ज़रूरत इस बात की है कि सरकार के साथ-साथ अभिभावक,शिक्षक और प्रकाशक भी बाल साहित्य को बढ़ावा दें। यही नहीं हो रहा है जो सबसे अधिक होना चाहिए।
साहित्य और बाल साहित्य का प्रभाव का एक उदाहरण लेते हैं। विदेशी साहित्य और साहित्यकारों पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि प्रतिष्ठित साहित्यकार वही है जिसने बाल साहित्य लिखा हो। खूब लिखा हो। भारत में ऐसा है? विदेशी साहित्य विज्ञान,तकनीक,यथार्थ और वैज्ञानिक नज़रिए से ओत-प्रोत है। भारत में ऐसा है? भारत में खासकर हिन्दी पट्टी में इम्तिहान देते जाते बच्चों को सिर झुकाने या मीठा खाने जैसे टोटको से बढ़ा किया जाता है। भाग्य,किस्मत,कुण्डली,इबादत,ज्योतिष,परी कथाएं-राजा-रानी की कथाएं,तिलिस्म कथाओं से बचपन गुजारा जाता है। इसका असर दिखाई देता है। यही बच्चे बड़े होकर दो भागों में बंट जाते हैं। विज्ञान और वैज्ञानिक विचारधारा की छाया में पले-बढ़े बच्चे देश के उन्नत विभागों में सेवाएं देते हैं। भाग्य,मिथक और टोटकों में बड़े हुए बच्चे नियति को स्वीकार कर भाग्यवादी और किस्मत के भरोसे जीवन यापन करते हैं।
बाल साहित्य सार्वजनिक शिक्षा के साथ-साथ नौनिहालों के प्रति सजग रहता है। कितना अच्छा होता कि कोरोना काल में बाल पत्रिकाओं के एक से बढ़कर एक विविध क्षेत्रों में प्रवेशांक निकलते। क्या भारत के पूंजीपतियों को, कारपोरेट जगत के अरबपतियों को और सम्पन्न घरानों को नहीं चाहिए था कि पत्रिकाओं और पत्रों के नए प्रकाशन पर सोचते? उलट इसके पिछले ग्यारह महीनों में प्रकाशन जगत से कई चौंकाने वाली ख़बरें हमने सुनी हैं। नन्हें सम्राट और नंदन बाल पत्रिकाएँ बंद हो गई हैं। कई पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद रहा। कई मासिक से तिमाही हो गई। यही नहीं हजारों कलमकारों की नौकरी चली गई।
हम सब जानते हैं कि आजाद भारत के समय भारत की साक्षरता दर अठारह फीसदी भी नहीं थी। सौ में अठारह व्यक्ति ही पढ़े-लिखे थे। इन तिहत्तर सालों में हम अब सौ में चौहत्तर पढ़े-लिखे मुल्क के बाशिंदे हो गए हैं। एक अनुमान के अनुसार सम्पूर्ण साक्षरता हासिल करने के लिए अभी हमें बीस साल और लगेंगे। आज हम एक अरब चालीस लाख की आबादी का आंकड़ा पार कर चुके हैं। ऐसे मुल्क में किसी भी समस्या से निजात पाना आसान काम नहीं। भारत में हर साल दो करोड़ बच्चे पैदा होते हैं। भारत में अकेले कुपोषण से एक साल में लगभग दस लाख बच्चे काल के गाल में समा जाते हैं। लगभग दस करोड़ बच्चे अभी भी स्कूल नहीं जा पाते। भारत में आज भी बारहवीं कक्षा तक अनवरत पढ़ते रहने वाले बच्चे मात्र तीन फीसदी हैं। भारत में लगभग सोलह करोड़ बच्चे हैं। यह संख्या छःह साल से कम उम्र के बच्चों की है। दुनिया में हर पाँचवां किशार भारतीय है। दस साल से उन्नीस साल के इन बच्चों की आबादी पच्चीस करोड़ से अधिक है।
इन आँकड़ों का सीधा सम्बन्ध बाल साहित्य से क्या हो सकता है? प्रत्यक्ष तौर पर कहा जा सकता है कि संभवतः नहीं। लेकिन थोड़ा ठहरकर विचार करने पर जवाब हाँ में आने लगता है। कारण? स्पष्ट है कि बच्चों की शिक्षा, पालन-पोषण, सही परवरिश बेहद ज़रूरी है। यह तब और ज़रूरी है जब बच्चे ही कल देश की प्रगति में शामिल होने वाले सकारात्मक नागरिक बनते हैं।
आजाद भारत में रहते हुए भी हम अभी सम्पूर्ण साक्षर वाला मुल्क नहीं बन पाए हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि जब तक समूचा भारत साक्षर नहीं हो जाता तब तक विकास की नीतियाँ और शिक्षित समाज के लिए ठोस नीतियाँ नहीं बन सकती। इसका अर्थ यह नहीं है कि जब तक एक-एक गांव में बिजली और सड़क नहीं बन सकती तब तक देश में अत्याधुनिक शहरों का निर्माण न हो। हर परिवार को रोटी,कपड़ा और मकान का लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है। यह बात सही है। लेकिन इसका अर्थ यह भी कतई नहीं है कि भारत दुनिया को बचाए-बनाए रखने के कार्यक्रमों में भागीदारी न करे।
यही कारण है कि कोई भी मुल्क विकास के पथ पर आगे बढ़ते हुए वर्तमान ज़रूरतों के हिसाब से नई सूचना, तकनीक और कार्यक्रमों में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करता है। आज पूरे विश्व में प्रगतिशील और विकसित देश बच्चों के सर्वांगीण विकास में अधिक ध्यान दे रहे हैं। यह ज़रूरी भी है। आजाद भारत के बाद साक्षरता के साथ-साथ बच्चों की शिक्षा पर भी ध्यान दिया गया। पत्र-पत्रिकाओं ने रचनाकारों के माध्यम से बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के साथ-साथ उनमें तर्क और कल्पना के घोड़े दौड़ाने के लिए खूब साहित्य प्रकाशित किया। लेकिन जब उन पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने वाले बच्चों की संख्या कम थी। उससे पहले तो गरीबी,बेकारी,भुखमरी सहित स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं मुँह बाएं खड़ी थीं। आज भारत उन्नत देश की ओर अग्रसर है। आज हर परिवार अपने नौनिहालों को पढ़ाना चाहता है। अपनी बदहाली के कारणों को जानने के लिए ही सही पढ़ना आवश्यक है। घर के बड़े-बुजुर्ग और मुखिया जानते हैं। ऐसे में बाल पत्रिकाएं और बाल साहित्य सामग्री किसी पौष्टिक खुराक से कम नहीं। ये ओर बात है कि बाल पाठकों के लिए कैसी सामग्री रचनाओं के तौर पर प्रकाशित हों।
हर पत्र-पत्रिका की अपनी रीति-नीति होती है। होनी भी चाहिए। लेकिन बच्चों के लिए रचना सामग्रियों में कुछ सतर्कता तो बरतनी ही चाहिए। बच्चों की लिखी रचनाओं को भी स्थान मिले लेकिन बच्चों के लिए लिखी गई रचनाओं को भी भरपूर स्थान मिले। पिछले दस-पन्द्रह वर्षों से प्रकाशित अमूमन सभी बाल पत्रिकाएँ मैं पढ़ रहा हूँ। पाता हूँ कि बाल पत्रिकाओं के नाम पर इन अधिकतर पत्रिकाओं में लेखक के रूप में बड़े-बुजुर्ग ही लिख रहे हैं। अब यदि बच्चे नहीं लिख रहे हैं तो क्या बड़ों का लिखा बच्चे पढ़ रहे हैं? ऐसी कुछ-एक पत्रिकाएँ हैं, जो बड़ों-बच्चों को एक ही अंक में स्थान दे रही है। अब ऐसी पत्रिकाओं की सामग्री की पठनीयता पर आते हैं। बड़ों का तो मैं क्या कहूँ? लेकिन बच्चे पहले बच्चों का लिखा हुआ ही पढ़ते हैं। क्यों? बड़ों का लिखा हुआ अमूमन बच्चे पढ़ते ही नहीं। अपवाद छोड़ दंे तो, ऐसा क्यों है? क्या नामचीन बाल साहित्यकारों ने कोई रचना पत्रिका में भेजने से पहले बच्चों को पढ़वाईं? जँचवाई?
बड़ों का कहना होता है कि बच्चे कैसे हमारे लेखन का आकलन कर पाएँगे। बाल-लेखन है तो बच्चों के लिए और हम यह कहते फिरे कि बच्चे उसका आकलन नहीं कर सकते। फिर वह रचना बाल पत्रिका में क्यों? किसके लिए? अधिकतर बाल-साहित्यकार बच्चों के लिए लिखते समय बच्चे को बोदा-भोंदू-कोरा स्लेट, अज्ञानी, कच्ची मिट्टी का घड़ा आदि मानकर रचनाएँ लिखते हैं। खुद को बड़े के स्तर पर रखकर लिखते हैं? बहुत हुआ, तो अपना जिया बचपन याद करते हुए लिखते हैं। क्या इस तरह से मानकर कुछ लिख लेना बाल-साहित्य का भला करेगा? कितना अच्छा हो कि पहले हम बड़े बच्चों के साथ समय बिताकर जीवन का आनंद लें। उनके साथ घुले-मिले। उनके अपने समाज में बच्चा बनकर रहें। तब भला क्यों कर अच्छी रचना नहीं बन सकेगी? एक बात ओर। बच्चों के लिए लेखन सरल हो। पर यदि बच्चा पाठक है। उसमें पढ़ने की ललक है तो फिर रचना छोटी ही हो ज़रूरी नहीं। हाँ वह रोचक हो। बच्चा क्यों पढ़े? यह सवाल रचनाकार के मन में ज़रूर रहे।
एक मित्र ने कहा कुछ कविताएँ भेजिए। मैंने आठ-दस कविताएँ भेज दी। कुछ दिनों बाद उनका फोन आया कि आपकी दो रचनाएँ बच्चों ने स्वीकार कर ली हैं। मैं चौंका। पूछा तो उन्होंने बताया-‘‘दरअसल। रचनाओं का चुनाव बच्चे ही कर रहे हैं। जो उन्हें पहले वाचन में पसंद आ रही हैं। उसे वह बड़े समूह में दे रहे हैं। अधिकतर जब उसे पठनीय मान रहे हैं, तब ही उसे स्वीकार किया जा रहा है। मेरी भूमिका तो बस उनके साथ सहायक-सी है।’’ इसे आप क्या कहेंगे? ऐसा नहीं है कि वे बच्चे कक्षा तीन-चार में पढ़ रहे हैं। वे बच्चे पढ़ने-लिखने की दिशा में आगे बढ़े हुए बच्चे हैं। वे जानते हैं कि बच्चों को क्या पढ़ना पसंद आएगा? बस इतनी सी बात है। यदि पत्रिका या पत्र यह महसूस करना जानते हैं कि बच्चे क्या पढ़ना पसंद करेंगे तो समस्या है ही नहीं। एक बात ओर। बच्चों को क्या पसंद करना चाहिए। यह भी ज़रूरी है। वे क्या पढ़ना चाहते हैं? यह तो ज़रूरी है ही। उन्हें पढ़ने को क्या दें? यह भी ज़रूरी है।
एक संपादक का फोन आया कि कुछ भेजिए। मैंने कहा-‘‘बच्चों जैसा या बच्चों का या बच्चों के लिए?’’ वह कहने लगे-‘‘मतलब?’’ मैंने जवाब दिया-‘‘यही कि जिस स्तर के बच्चे हैं। वह जो सोचते हैं, जैसा सोचते हैं। उसके आस-पास लिखने वाला बच्चों जैसा हुआ। जिस स्तर के बच्चे हैं, उन्हीं से लिखवाया जाए तो बच्चों का और मैं जो सोचता हूं कि यह रचना बच्चों के लिए होनी चाहिए, वह बच्चों के लिए हुई।’’
वे कहने लगे जो आप सोचते हैं कि वह बच्चों के लिए होनी चाहिए, वे भेज दीजिए.
अब आप बताइए। मैं जो सोचता हूँ या आप जो सोचते हैं, वह बच्चों के लिए हो सकता है? शायद कुछ-कुछ। या कभी कुछ भी नहीं। ये भी संभव है कि बहुत कुछ। लेकिन हम यह मान लें कि हमने जो लिखा है, वह संपूर्ण हैं-पर्याप्त है? कहने का अर्थ यही है कि हम बड़े बच्चों के लिए जो कुछ घर बैठकर अपनी सोच से लिख रहे हैं, वह जरूरी नहीं कि वह बच्चों को मुफीद भी लगे। बच्चे उसे पहले ही वाचन में खारिज भी कर सकते हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं कि हम लिखना ही छोड़ दें। भाव यही है कि क्या हम किसी भी रचना का निर्माण करते समय यह सोचते हैं कि जिस पाठक के लिए हम लिख रहे हैं, उसकी सोच, दायरा, मन, इच्छाएँ, सपने और परिस्थितियाँ रचना को आत्मसात् करने वाली है भी या नहीं।
साहित्य को पढने वाला बाल पाठक आपके क्षेत्र-विशेष, अंचल और आपके स्थानीय परिवेश को महसूस कर पाता है? रचनाकार का यह भी धर्म है कि देश-दुनिया को अपने स्थानीय परिवेश से भी परिचय कराए। दुनिया भर के बच्चे अपनी दुनिया को आपकी दुनिया से जोड़कर देखना चाहते हैं। वे रचनाकार बधाई के पात्र हैं जिनकी अधिकतर रचनाओं में उनका अंचल झलकता है। उनके परिवेश के बच्चों का चित्रण होता है। मेरा मानना है कि गिलहरी हर जगह नहीं होती। समुद्र पहाड़ के बच्चों के लिए विहंगम-अद्भुत और हैरत में डालने वाला होता है। ठीक उसी प्रकार जब हमने पहली बार हाथी देखा हो। पहली बार रेल देखी हो। आज भी पहाड़ के बच्चों के लिए हवाई जहाज इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना रेल के बारे में सोचना उसे देखने की इच्छा का प्रबल होना। जहाज तो वह अपने आसमान में दूर से ही सही,यदा-कदा देखते ही रहते हैं।
हम सब बाल पत्रिकाओं में बच्चों की भावनाओं को भी उकेरें। उनके लिखे हुए को प्रोत्साहित करें। हर बच्चे को प्रथम,द्वितीय और तृतीय की कसौटी पर न रखें। उसके लेखन का बढ़ाने में सहायता दें। ऐसी बहुत कम पत्रिकाएँ हैं, जो बच्चों के लिए हैं। जो बच्चों के लिखे हुए को ज्यादा स्थान देती है। हास्यास्पद बात तो यह है कि इन पत्रिकाओं को बचकाना,कूड़ा-कबाड़ करार दिया जाता है। इन्हें उद्देश्यहीन घोषित कर दिया जाता है। यह घोषणा भी वे करते हैं, जो बड़े हैं। जिन्हें बच्चों से बात करने का सलीका भी नहीं आता है। बाल-साहित्य में खुद को तराशना बड़ी बात है। जो कुछ लिखा जा रहा है, वह बच्चों के लिए कारगर नहीं है। बच्चे उसमें रम नहीं रहे हैं। आनंदित नहीं हो रहे हैं। तभी तो पढ़ नहीं रहे हैं। पढ़ रहे हैं तो गुन नहीं रहे हैं। उससे बड़ी बात आनंद नहीं ले रहे हैं। कई बाल पत्रिकाएं सूचना,ज्ञान और जानकारी से ठूंसी हुई हैं। अगर देखा जाए तो स्कूल भी सूचना, ज्ञान और जानकारी दे रहा है। घर पर अभिभावकों का सारा जोर पाठ्य पुस्तक और परीक्षा है। तो क्या यही मकसद पत्रिका का हो? अखबारों में से तो साहित्य गायब होता ही जा रहा है। बाल अभिव्यक्ति या बच्चों के लिए साहित्य अखबारों से लगातार कम होता जा रहा है।
अधिकतर पत्रिकाएं खुद को बाल पत्रिकाएँ कहती हैं। लेकिन बच्चों की लिखी गई रचना के लिए उनमें तीन-चार पेज ही हैं। क्या इन्हें बाल पत्रिकाएँ कहेंगे? संपादकों का कहना है कि जरूरी नहीं कि बच्चे अच्छा स्तर का लिखे। उनका हर कुछ लिखना बाल साहित्य कैसे हो सकता है? एक उदाहरण देना चाहूँगा। हम बाजार में सब्जी खरीदने जाते हैं। एक ही स्टॉल पर विविधता भरी सब्जियाँ लाते हैं। स्वाद, रुचि और इच्छा के अनुसार जो हमें नहीं जंचती,वह तरकारी हमारे झोले में नहीं आती। फिर हम बच्चों को बच्चों की पत्रिकाओं में अधिक स्थान देने से क्यों बचते हैं?क्या बच्चों की पत्रिकाएं हम बड़ों के लिए तो नहीं हैं? क्या बच्चों की पत्रिकाएं बच्चों के लिए हैं भी या नहीं?
अधिकतर पत्रिकाएँ बच्चों को नौसिखिया ही मानती है। रंग भरो प्रतियोगिता, शीर्षक आधारित प्रतियोगिता, बूझो तो जानें, आप कितना जानते हैं? ऐसे कई स्तंभों से पत्रिकाएँ भरी पड़ी हैं, जो हर अंक में बच्चों को खुद को साबित करने की होड़ में लगी है। तीन-चार प्रविष्टियों को पुरस्कृत कर देने भर से बाल विकास हो रहा है? एक संस्था हैं वह हर साल किसी के जन्मदिवस पर चित्रकला प्रतियोगिता कराती है। हर साल पाँच सौ से अधिक बच्चे उस प्रतियोगिता में सहभागी बनते हैं। उसी स्पॉट पर उसी दिन प्रथम,द्वितीय,तृतीय और तीन सांत्वना पुरस्कार देकर यह संस्था सोचती है कि वह बच्चों को चित्रकार बना रही है। क्या वाकई यह संस्था बाल विकास में कुछ कर रही है? जिन्हें पिछले दस सालों में (लगभग साठ बच्चों को) जिन्हें चित्रकला के नाम पर संस्था ने पुरस्कृत किया होगा उनमें एक भी चित्रकला की दिशा में आगे बढ़ पाया? यह शोध का विषय हो सकता है।
यही हाल बाल साहित्य लिखने का है। क्या बाल-साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़कर या बाल पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ छप जाने भर से बच्चों में सकारात्मक बदलाव आया है? यह विमर्श का विषय है।
आज नहीं तो कल हमें अपनी दिशा तय करनी होगी। वह बाल-साहित्य कपोल-कल्पना ही होगा। निरर्थक ही होगा, जिसके केन्द्र में बच्चे नहीं है। जिनका सरोकार बच्चों से नहीं है। सीख, उपदेश और नसीहत देते रहने का हश्र शायद वही होगा, जो हर साल रावण का पुतला जला देने से हो रहा है। रामलीला में आदर्श अभिनय कर देने भर से हम आदर्श और अनुकरणीय नहीं हुए। ठीक उसी तरह से बाल-साहित्य में भी ‘चाहिए-चाहिए’-‘ऐसा करो-ऐसा करो’ चिल्लाने भर से बच्चों का भला नहीं होने वाला है। अब समय आ गया है कि इक्कीसवीं सदी के बाल साहित्य में हम कम से कम एक-एक रचना ही ऐसी सृजित करे जो भविष्य में रेखांकित हो। जिसका उल्लेख किया जा सके। जिसे पढ़क्र बच्चे आनंदित हो। मनन की स्थिति में हों। अन्यथा….आलेख के आरम्भ में चिंतनीय लेकिन तथ्यात्मक आंकड़े दिए ही गए हैं।
उम्मीद की जानी चाहिए कि कोरोना से उबरने के बाद हम भारत के लोग बाल साहित्य की दिशा तय करेंगे। हर क्षेत्र से नई-नई पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू होगा। ऐसी पत्रिकाएं और पत्र प्रकाशित होंगे जो बच्चों में लोकप्रिय हो सकेंगे। बच्चों में पढ़ने-लिखने की संस्कृति का विकास करेंगे।
हमें यह समझना होगा कि अथक प्रयासों के बाद भी भारत को सम्पूर्ण साक्षर होने में बीस साल से अधिक का समय लगेगा। ऐसे में परिवारों में पहली-दूसरी पीढ़ी का इक्कीसवीं सदी में साक्षर होना हमारी धीमी प्रगति का लिखित और प्रत्यक्ष साक्ष्य है। ऐसे में वे मुल्क जिनके बच्चों के घरों में बाजार से बना-बनाया जंक फूड नहीं छपी हुई बाल पत्र-पत्रिकाएं आती हैं वे बच्चे अक्षरों की दुनिया से भाव-बोध,यथार्थ-कल्पना की उड़ान भरकर बड़े होकर विज्ञान,तकनीक,सूचना और ज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान क्यों कर न करेंगे?
-मनोहर चमोली ‘मनु’.
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