जिला पौड़ी गढ़वाल के खिर्सू स्थित दो गाँवों में अब भी आयोजित होता है

पुरा काल से ही भारत भूमि में लोक अपने मनोरंजन के कई तरीकों को अपनाता रहा है। अमूमन भारत गाँवों में बसता है। गाँव की रीढ़ खेती है। पशुपालन है। खेती-किसानी का काम ऐसा है कि फसल पकने के बाद ग्रामीण थोड़ा फुरसत में होते हैं। पहाड़ में खेती-किसानी बारिश के भरोसे अधिक है। सिंचित भूमि तो नाममात्र की है।

आज़ाद भारत के दौरान भारत की साक्षरता पन्द्रह फीसदी भी नहीं थी। उससे पहले के कालखंड की स्थिति तो बेहद दयनीय रही है। उस पर प्राकृतिक आपदाएं और गरीबी ने खासकर ग्रामीणों को स्थानीयता के आधार पर अपना मनोविनोद करने के लिए सीमित कर दिया होगा।
उत्तराखण्ड का लोक भी बेहद समृद्ध है। राज्य के सभी तेरह जनपदों में स्थानीय स्तर पर कई रीति-रिवाज अनूठे हैं। बेजोड़ हैं और अपनी अलग कथा कहते हैं। जिला पौड़ी गढ़वाल का एक इलाका खिर्सू है। समुद्रतल से खिर्सू की ऊँचाई लगभग 1700 मीटर है। चीड़,देवदार,बांज,बुरांश,काफल से घिरा यह इलाका पर्यटकों को खूब लुभाता है। ठंडे इलाके के कारण यहां शाक-भाजी,फसलें और स्थानीय दालें मौसमानुसार देर से पकती हैं। खिर्सू विकासखण्ड भी है। इस विकासखण्ड में ग्वाड़ और कोठगी दो गाँव स्थित हैं। यह कठबद्दी मेले के लिए मशहूर हैं।

इतिहास की माने तो इस राज्य के बाशिंदे कई राज्यों से यहाँ आकर बसे हैं। मैदानी इलाकों से वह अपने साथ अपनी संस्कृति, लोक, मिथक और मान्यताएँ भी लेकर आए। कुछ गतिविधियाँ देशकाल, परिस्थितियों और वातावरण के हिसाब से उपजीं।
छापेखाने के आविष्कार से पहले और निम्न साक्षरता दर के चलते दशकों तक समाज में अंधविश्वास, मिथक और रूढ़िगत स्वभाव पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहा। वैज्ञानिक पड़ताल और वैज्ञानिक नज़रिया की चाल सुस्त रही तो मानव भयाक्रांत रहा। उसके आस-पास देवी-देवता,भूत-पिशाच,जादू-टोना-टोटका जैसी अवधारणाएं भी पनप गई।

बहरहाल, आज भी बारिश हो जाए के लिए पूजा-पाठ, ढोल-नगाड़े, यज्ञ आदि किए जाते हैं। संभवतः हर धर्म-समुदाय में ऐसा यदा-कदा सुनने-देखने को मिल जाता है। कोरोना काल में भी मौत के भय से कई टोटके अपनाने की घटनाएं सामने आई हैं। ग्राम ग्वाड़ और कोठगी की ओर लौटते हैं। इन गाँव के इष्ट देव घंडियाल देव माने जाते हैं। इष्ट देव की कृपा बनी रहे तो हर साल उनकी पूजा को एक त्योहार के तौर पर मनाया जाता है। जैसा कि पहले भी कहा है कि खेती-किसानी वालों के पास फुरसता का समय फसल के पकने-कटने के बाद होता है। तब लोक में कई तरह के तीज-त्योहार मनाए जाते रहे हैं। चुनांचे इस इलाके में ग्रीष्म वातावरण धीमा है। हवा और वातावरण में ठंडक ज़्यादा है तो फसलें देर से पकती हैं। तैयार भी देर से होती हैं। ऐसे में फसल को खाद-पानी-हवा मिलती रहे। इसके लिए भी अपने इष्ट देवों को खुश करने की परंपरा है। यह भी कि वह इलाके में बारिश करे। मार्च-अप्रैल का समय ऐसा होता भी है कि कब बारिश हो जाए और कब आंधी-तूफान आ जाए। पता नहीं चलता।

पुराने समाज में जाति व्यवस्था की कुव्यवस्था बेहद जटिल और क्रूर तो थी ही। बताते हैं कि बहुत पहले का समाज दस से बारह इंच मोटी चार सौ-पाँच सौ मीटर लम्बी रस्सी में लकड़ी की घोड़ी बनाते थे। इस काठ की घोड़ी में एक चकरी या गरारी के सहारे बद्दी समाज का आदमी बिठाया जाता था और पहाड़ी से नीचे की ओर उसे फिसलने के लिए कहा जाता था। यह बहुत खतरनाक भी होता था। कई बार अनहोनी भी हो जाया करती थी। कई बार तो ऐसा भी कहा जाता था कि बद्दी को मार दिया जाता था। ऐसा इसलिए किया जाता था कि क्षेत्र में किसी भी तरह की आपदा-बीमारी या चैन-पशु पर कोई संकट नहीं आएगा। बद्दी समाज के बारे में कहा जाता रहा है कि उनका पेशा नृत्य-गायन ही था। वह द्वार-द्वार पर जाकर पर्व-त्योहार में और खुशी के मौकों पर जाते थे और उपहार में नून-तेल-लकड़ी या पका हुआ भोजन या अनाज पाते थे।

कालान्तर में इस तरह के आयोजन बहुत जगह होने लगे और बाद उसके इसे कुप्रथा भी माना गया और पाशविक भी। सुशिक्षित समाज के बाद इस तरह के वास्तविक मानव को रस्सी पर फिसलाना बंद हो गया। अंग्रेज कैप्टन रेपर के हवाले से इस बद्दी मेले का उल्लेख महेश्वर प्रसाद जोशी कृत पुस्तक शूद्रों का ब्राहमणत्व मध्य हिमालय अनुभव में मिलता है। इसी तरह का उल्लेख ट्रेल की पुस्तक में Trail 1828:224-25:Turner 1933:554-55 मिलता है। बताया जाता है।
अब भी यह मेला आयोजित होता है लेकिन अब यह सांकेतिक रूप में है और इसे धरोहर के तौर पर मनाया जाता है। इस अवसर पर प्रवासी ग्रामीण और शहर में जा बसे स्थानीय घर लौटते हैं। घरों मे रंग-रोंगन होता है। स्थानीय पकवान बनाए जाते हैं। ख़ूब रौनक होती है और आपसी मेल-जोल, सौहार्द देखते ही बनता है। आज यह मेला धीरे-धीरे पर्यटकों को भी लुभाने लगा है। इसे मेल-मिलाप का अवसर के तौर पर देखा जाना चाहिए।
सभी फोटोज़ प्रख्यात छायाकार और घुमक्कड़, प्रकृति प्रेमी खिर्सू निवासी प्रीतम नेगी जी ने उपलब्ध कराएं हैं।
