-मनोहर चमोली ‘मनु’
सूचना तकनीक के इस युग में भी पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़-सी आई हुई हैं। मेरी सीमित जानकारी में ही चालीस से अधिक ऐसी पत्रिकाएँ हैं जो बच्चों के लिए साहित्य छापती हैं। हिन्दी में दैनिक अखबारों की सूची में 20 से अधिक प्रमुख हिन्दी पत्र हैं। पारिवारिक पत्रिकाओं की संख्या भी 20 से अधिक हैं। मासिक, त्रैमासिक और छमाही अंकों वाली साहित्यिक पत्रिकाएं 100 से अधिक हैं। शैक्षिक विमर्श की पत्रिकाएं भी 10 से अधिक हैं। अंतरजाल में ठीक-ठाक पढ़े जाने वाली पत्रिकाएं भी 100 से अधिक हैं। ब्लॉगरूपी पत्रिकाएं जोड़ लें तो यह आंकड़ा कम से कम, जी हाँ ‘कम से कम‘ 1000 है। यहाँ में प्रकाशकों को अपनी इस पोस्ट से अलग रखता हूँ। अनियतकालिन पत्रिकाओं की संख्या भी 50 से कम नहीं हैं। कुल मिलाकर कम से कम हिन्दी पट्टी में लगभग 1500 संपादक होंगे। कम से कम लिख रहा हूँ। अब ये सारे के सारे संपादक क्या वाकई संपादक हैं? क्या इन्हें आज के सन्दर्भ में संपादक के दायित्व और फ़न का पता भी है? या बस नौकरी बजा रहे हैं। कुछ होंगे जो स्वयंभू संपादक होंगे। है न?
आगे बढ़ते हैं। मैं लेखन को खासकर ‘मौलिक लेखन‘ को बौद्धिक संपदा मानता हूँ। साहित्य की सभी विधाएँ इसी में आती है। यह ऐसी संपत्ति है जो कोई रचनाकार अपने अनुभव और सोच से अर्जित करता है। तभी इसे ‘मौलिक‘ कहा जाता है। चित्रकार के चित्र भी इसी बौद्विक संपदाओं में एक हैं। अब इसे जब सुनने, लिखने और छपने आदि के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तब रचनाकार को इस संपदा के एवज में सम्मानजनक पारिश्रमिक मिलता है।
यहां विचारणीय यह नहीं है कि यह सम्मानजनक पारिश्रमिक कम हो या अधिक हो। पर बात पर विचार करने से पहले यह समझना जरूरी है कि मौलिक लेखन कॉपी और पेस्ट नहीं है। प्रतिलिपि नहीं है। यही कारण है कि रचनाकार की रचनाएं पत्र-पत्रिकाएं में छपती हैं। पाठक तक पहुंचने से पहले वे संपादक की दृष्टि से गुजरती हैं। पहले पाठक के तौर संपादक ही होता है। ऐसा पाठक जो दूसरे पाठकों से पहले पहुंचने का अधिकारी होता है। यह जिम्मेदारी महती है।
संपादक का दायित्व महान है। बड़ा है। व्यापक है। विहंगम है। यूं भी संपादक का काम किसी मूल रचना में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और कारक के अनुसार रचना को व्यवस्थित करना मात्र नहीं है। यह काम तो किसी अध्यापक से भी या एक बेहतर पाठक से भी कराया जा सकता है। या उससे सेवाएं लीं जा सकती हैं। तो फिर संपादक का काम कुछ और है! क्या है? इस पर विचार करने से पहले मैं अपनी राय व्यक्त कर दूं।
मेरी स्पष्ट राय है कि किसी भी संपादक को यह अधिकार तो हैं कि यदि पहले पाठक के तौर पर उसे रचना ठीक-ठाक लगती है तो वह उसे हू-ब-हू छाप दे। ठीक-ठाक से बेहतर है, या बेहतरीन है या बेहद लचर है तो इसका निर्णय तो पाठक ले ही लेंगे न? पर किसी भी संपादक को यह अधिकार कतई नहीं है कि वह किसी लेखक की मौलिक रचना को जो उसने प्रकाशनार्थ भेजी है, लेखक से बिना पूछे संपादित कर, कुछ अंश हटाकर या जोड़कर प्रकाशित कर दे या प्रसारित कर दे। भले ही वह जिस पत्र या पत्रिका का संपादक है उसकी रीति या नीति कुछ भी हो। संपादक को यदि भाषा-व्याकरण के लिहाज से कुछ बदलाव करना पड़े तो वह भी बहुत हद तक स्वीकार्य नहीं है। यदि कहानी आंचलिकता की पहचान के लिए है तब तो इसे भी न छेड़ा जाए। जैसे बहुत से क्षेत्रों में एक वाक्य बहुतायत सुना जाता है-’रुमाल गिर गई।’ ’स्कूल खुल गई।’ ’नल चला गया।’ ’मैं थका था सो पड़के सो गया।’
अब इन वाक्यों में यदि संपादक ने अपनी विद्वता झाड़कर व्याकरण का पुछल्ला लगा दिया तो पाठक के हाथ आंचलिकता की पकड़ तो भाड़ में गई। मुझे तो इस बात पर भी आपत्ति होगी कि यदि किसी रचना में रचनाकार ने अपने एक पात्र का नाम अब्दुल रखा है और दूसरे पात्र का नाम मारिया रखा है तो भी किसी संपादक को यह अधिकार कतई नहीं है कि वह उस रचना में अपनी मर्जी से इन पात्रों के नाम राम और सीता रख दे या अकारण बदल दे। बदलने का कोई बड़ा मक़सद भी हो तो भी रचनाकर का मंतव्य समझना नहीं चाहिए?
अब सवाल उठता है कि क्या किसी रचना में मात्र दो पात्रों के नाम बदल देने से क्या फर्क पड़ जाता है? शेष रचना में तो संपादक ने एक शब्द न हटाया न जोड़ा। फिर?
मेरा जवाब है कि संभव है वह रचना किसी ख़ास मज़हब, जाति और आंचलिकता पर केंद्रित रही हो। जिसका मूल मंतव्य वह रचनाकार जानता था। संपादक ने मात्र नाम बदलकर उसका कबाड़ा कर दिया। ये ठीक उस तरह की बात हुई कि रचना समुद्र के तट के किनारे की थी, और संपादक ने उसे हिमालय की कहानी बना दिया। क्या किया? कुछ भी नहीं? बस वर्णन में जो समुद्र के तट की बात रचना में थी उसे हिमालयी क्षेत्र का कर दिया। शेष कुछ नहीं संपादित किया। क्या आप कह सकते हैं कि पाठक इस रचना को समुद्र के तट के किनारे की रचना ही महसूस करेगा?
एक उदाहरण और देता हूँ। एक नामचीन पत्रिका है। उसमें एक कहानी छपी थी। वह अखरोट के पेड़ पर आधारित थी। दिल्ली के एक चित्रकार ने जो चित्र रचना के साथ बनाया वह चित्र अखरोट के पेड़ का था ही नहीं। ऐसा लग रहा था कि वह कागजी नीबू का विशालकाय पेड़ हो। आप कह सकते हैं कि उस चित्रकार ने अखरोट का पेड़ कभी देखा नहीं होगा, सो ऐसा बना दिया। कागज़ी नींबू का पेड़ पीपलनुमा बनाने का औचित्य भी समझ में नहीं आया। नींबू और अखरोट का अंतर तो छोडि़ए। आप यह भी कह सकते हैं कि वे पाठक जिन्होंने अखरोट का पेड़ नहीं देखा है वह भी उस कहानी के साथ छपे चित्र को देखकर विचलित कहाँ होंगे? पर क्या अनुमान और कल्पना की आड़ में कुछ भी परोस देना चलेगा? यह जिम्मेदारी किसकी है कि रचना अंतिम पाठक तक कैसी महसूस होवे?
संशोधन की ज़रूरत यदि संपादक को लगती है तो वह ज़रूरत क्या है? यह तो समझना होगा? मैं यह कहना चाहता हूं कि रचना किसी रचनाकार की संतान की तरह है। जैविक संतान की तरह। सिर से पैर, बाहरी ढांचा और आंतरिक ढांचा भी। रचना में एक संतान के बरअक्स माता-पिता की छवि के तौर पर रचनाकार के प्राण बसते हैं। बच्चे के नाखून और बाल काटते समय भी माता-पिता बेहद तनाव में आ जाते हैं। अंग के कटने-छीलने की तो बात ही अलग है। इसी तरह रचनाकार की रचना भी है। संपादक ने संपादित करते हुए किसी पंक्ति, शब्द, अनुच्छेद को ही हटा दिया या अपनी ओर से जोड़ दिया! क्या यह सही है?
संपादकीय अधिकार क्या होता है? इस पर आगे चर्चा जरूरी होगी। आप भी जोडि़एगा। फिलहाल रचनाकार के मंतव्य को ठीक से समझने के लिए रचना को दस बार पढ़ने से भी सही अंदाजा हो जाए संभव नहीं। एक रचना हज़ार निष्कर्ष निकालने की ताकत रखती है। सौ पाठक पढ़ेंगे तो सौ हजार बातें व्यक्त कर सकते हैं। ये है किसी भी रचना की ताकत। तो उसमें रद्दोबदल के लिए आवश्यक है कि रचनाकार को पूछा जाना चाहिए।
एक और उदाहरण देता हूं। माना कि एक रचना है। उसमें एक लड़की है। उसे बहुत शूशू आती है। कारण है कि वह खूब पानी पीती है। सुबह से शाम तक वह स्कूल में है या बाज़ार में। ज़ोर से लगने पर वह कहीं भी चली जाती है। वह सार्वजनिक टॉयलेट के भरोसे नहीं रहती। वह होटल का वॉशरूम भी उपयोग कर लेती है। प्रधानाचार्य का टॉयलेट भी उपयोग कर लेती है। अब संपादक इस रचना में कुछ भी संपादित नहीं करता लेकिन लड़की को लड़का बना देता है। तो क्या आप कहेंगे कि उसने हीरा तराश लिया?
एक उदाहरण और देता हूं। मेरे पास एक रचना आती है। रचना में एक बच्चा दूसरे बच्चे को वॉशिंग मशीन में बंद कर देता है और वॉशिंग मशीन चला देता है। जब तक घर के बड़े आते हैं तब तक बच्चा चोटिल हो जाता है। मैं इस कहानी में वॉशिंग मशीन का प्रकरण हटा कर बच्चे को बाथरूम में बंद कर देने वाला बना देता हूं। मेरा संपादकीय कौशल यह कहता है कि ऐसी कहानी बाल प्रकृति को हिसंक बना देगी। यह हमारे अख़बार की नीतियों के विरूद्ध है। सो मैंने संपादकीय अधिकार का उपयोग किया और कहानी को तराश दिया। क्या मैंने ठीक किया? क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि मैं इस कहानी को छापता ही नहीं। या लेखक से इसे संशोधित करने के लिए कहता। मैंने जो किया क्या वह परिमार्जन की परिधि में आता है? क्या ऐसी रचनाएं जो वास्तविक धरातल के आधार पर बनी हैं, उन्हें पाठकों के लिए नहीं आना चाहिए।
एक और उदाहरण देता हूं। मेरे संपादकत्व में एक रचनाकार की रचना छपी। रचना में राधिका असलम से प्रेम विवाह कर लेती है। दोनों दूसरे शहर में जाकर रहने लगते हैं। दोनों परिवार के लोगों में ठनी रहती है। कई बार पुलिस कचहरी हो गई है। फिर अकस्मात् दोनों परिवार का कोई रिश्तेदार राधिका और असलम को उस शहर में देख लेता है। बात इतनी बढ़ जाती है कि उस शहर में दंगा हो जाता है। कहानी का अंत दोनों की लाशों को अपने-अपने घर ले जाने से होता है। अब मेरा संपादकीय कौशल देखिए! मुझे लगा कि यह अपने-अपने धर्म पर कायम रखने की वकालत करती सीख और संदेश वाली कहानी है। यह जरूर छपनी चाहिए। मैं यह भूल गया या शायद मुझे यह इल्म ही नहीं कि हमारे संवैधानिक मूल्य क्या कहते हैं? सद्भाव और उन्माद में मुझे कोई अंतर नज़र नहीं आता। अब आप ही बताइए। यदि इस रचना को छापना ही है और यह छप भी सकती है। लेकिन इसमें संपादकीय कौशल लेकिन रचनाकार की सहमति से लेकर दिखाया जा सकता है। यही कहानी उन्माद से परे होकर एक सामाजिक और संवेदनशील कहानी बन सकती है।
मेरे पास एक बार एक ऐसी रचना आती है जो गोरे को उजला और काले को निकृष्ट घोषित करती है। गोरा और महान बन जाता है और काले रंग के व्यक्ति को क्योंकि उसने चोरी की थी, बहिष्कृत किया जाता है। यह कहानी चोरी करना ठीक नहीं है पर केन्द्रित है। लेकिन रचनाकार ने न जाने क्यों इसमें गोरे को स्थापित किया और काले रंग के व्यक्ति को बुरा घोषित किया। ज़रा सी बात करने पर रचनाकार मान गए कि हां यह तो रंग भेद को स्थापित कर रही है। यदि उन दो पात्रों को नाम से और उनके कर्म से ही स्थापित किया जाए तो रंग कहीं भी मुख्य नहीं है। ज़रा से संशोधन से कहानी की मूल आत्मा वही रहती है और वह शानदार कहानी बन जाती है। कई कहानियाँ ऐसी होती हैं जिसमें गांव बदहाल होता है और शहर से कोई आता है और वह गांव को खुशहाल कर देता है। यह क्या है? इस तरह की कहानियां खूब छप रही हैं! लेखक धड़ल्ले से ऐसी रचनाएं लिख रहे हैं और मेरे जैसे संपादक इसे खूब छाप रहे हैं। कोई दृष्टि है या नहीं?
एक कहानी प्रकाशनार्थ आती है। अनावश्यक विस्तार है। यह अनावश्यक विस्तार पात्रों के चरित्र पर कोई अन्तर नहीं डाल रहा। यदि उसे हटा दिया जाता है तो भी कहानी के मायने नहीं बदलते। उस अनावश्यक विस्तार को हटाने से देशकाल भी प्रभावित नहीं हो रहा। कहानी का द्वंद्व भी नहीं मरता। वह मात्र वर्णन है। ऐसा वर्णन जिसमें चेतना और संवेदना पर भी कुछ विशेष प्रभाव नहीं पड़ रहा। ऐसा अनावश्यक विस्तार हटाया जा सकता है। कहानी की मूल आत्मा जिसकी बुनियाद पर कहानी खड़ी है वह चरमराती नहीं।
अब आता हूं संपादक के छोटे-मोटे परिवर्तन पर। क्या होता है छोटा-मोटा परिवर्तन? बात छोटे या बड़े परिवर्तन की नहीं है। बात है रचना कैसी ध्वनि दे रही है? रचना क्या स्थापित कर रही है। ऐसी कई रचनाएं खूब पढ़ता हूं। भूतों की। भूत आते हैं और डराते हैं। चमत्कार करते हैं और अंत में वह रहस्य बना रहता है कि भूत थे भी या नहीं। लेखक क्या और संपादक क्या। पूरी दुनिया में भूतों की माया से चमत्कृत हैं। ऐसी बहुत कम रचनाएं आती हैं जो इस तरह के चमत्कारों से परदा उठाती हैं। भूतों के बहाने कोई बुराई या अच्छाई का अनादर-समादर हो रहा हो और पाठक उससे खुद में बदलाव महसूस करे तो बात बने।
देवों की, मसीहों की, सान्ता क्लॉज की खूब रचनाएं छप रही हैं। संपादक छाप रहे हैं। बगैर चेतना के बगैर वैज्ञानिक सोच के और अध्ययन की तो क्या ही कहिए! हैरानी होती है! एक रचना है जो हलवाई के जीवन चरित्र को उद्घाटित करती है। लेकिन उसमें हलवाईयों को पेटू घोषित कर दिया है। यह रचना किसी धर्म विशेष की ओर भी इंगित कर रही है। उसके पहनावें-रहन-सहन और आचार-व्यवहार की चर्चा भी रचना में है। यानि ऐसे हलवाई जो पूजा पाठ करते हैं। तिलक लगाते हैं। जनेऊ पहनते हैं। वे मिठाई बनाते हुए गप्प से अक्सर मिठाई मुंह में डाल लेते हैं। ऐसी ध्वनि जा रही है। यदि इसमें एक हलवाई ऐसा भी कर दिया जाए, तब यह ध्वनि बदल जाती है। तब पाठक आसानी से यह आत्मसात् कर लेता है कि हलवाईयों में ऐसा एक हलवाई भी हो सकता है जो पेटू हो सकता है और मिठाई बनाते-बनाते खा भी लेता है। मात्र ’एक’ शब्द जोड़ देने से रचना किसी धर्म, जाति को फोकस नहीं करती और वह संकीर्ण से सार्वभौमिक हो जाती है। सौतेला भाई, सौतेली माँ, भेडि़यों, लकड़बग्घों और साँपों को तो मनुष्यता के लिए खतरनाक बताने वाली रचनाएं कौडि़यों के भाव छप रही हैं। प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भी छप रही हैं। सामंती सोच को स्थापित करने वाली रचनाओं की भरमार है। यही कारण है कि पढ़े-लिखे नागरिक भी गणेश की पत्थर की मूर्तियों को दूध पिलाने लगते हैं। अब देखिए न। मैंने भी पढ़े-लिखे का उल्लेख कर अनपढ़ों को यहां विवेकहीन बता दिया।
एक पत्रिका के संपादक अभी हाल ही में मूर्तियों के गिराने की बात पर एक कमेंट पर लिखते हैं कि त्रिपुरा में मूर्ति गिराने पर विधवा विलाप क्यों? ज़रा सोचिए। ‘विधवा विलाप’ दो शब्द हैं। एक वाक्य उन संपादक ने लिखा-‘त्रिपुरा में मूर्ति गिराने पर विधवा विलाप क्यों?‘ मानसिकता देखिए। विधवाओं का रोना विलाप हो गया। बढ़ा-चढ़ाकर हो गया। रोने को भी विवाहित-अविवाहित-विधवा-सधवा से जोड़ दिया। कल ऐसे संपादक तो नवजात के हंसने को हिन्दू की हंसी या मुसलमान की हंसी बना देंगे। ऐसे संपादकत्व से कैसी रचनाएं समाज में जाएंगी? समाज का हश्र क्या होगा? आसानी से समझा जा सकता है।
आज यह कहना कि हमारे पास सैकड़ों रचनाएं आती हैं। पढ़ने में ही समय निकल जाता है। एक-एक का जवाब कहां देते फिरें? यह अकर्मण्यता है और अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना है। संपादक अपने लिए काम बढ़ाता जाता है। हर बार एक रचनाकार की रचना पर उसे समझौता करना पड़ता है। यदि संपादक अपने नियमित रचनाकारों से मेल से, फोन से संवाद करे तो दो तीन रचनाओं के बाद उसे उसी रचनाकार से बेहतरीन और शानदार रचनाएं मिलने लगेंगी।
मुझे यह याद रखना होगा कि मैं भले ही कितना बड़ा संपादक हूँ। सालों से संपादन करता हूँ। मेरे संपादकत्व में 40,000 रचनाओं से छन कर 400 रचनाएं ही छनकर पत्र-पत्रिका में छप पाई हैं। लेकिन यदि थोड़ा सूझ-बूझ और सहभागिता से मैं काम ले लूँ तो यह छनकर आने वाली रचनाएं 4000 हो सकती हैं। यही नहीं आने वाले चार-दस सालों में छनकर छपने वाली रचनाएं 20,000 हो सकती हैं। मेरे संपादकत्व में 40 सालों में भले ही मेरे द्वारा लाखों रचनाएं पढ़ी गई हों और हजारों रचनाएं छपी हों लेकिन पाठक अंततः रचना को याद करते समय रचनाकार को ही कमोबेश याद करता है।
रचनाकार ही रचना का मूल स्वामी है। यदि मैं संपादक जो अपनी संपादकी में हजारों रचनाओं में से उत्कृष्ट सैकड़ों रचनाओं का संपादन करता हूं तो दर्जन भर रचनाएं उसके खाते में मूल रचनाओं की हैं? वह पढ़ते-पढ़ते लिखने का कौशल क्यों नहीं हासिल कर सका? एक अच्छा रचनाकार संपादक तो देखे हैं। पर एक अच्छा संपादक फिर अच्छा रचनाकार बना होगा। कहना मुश्किल है। अरे! यह क्या! मैंने भी अच्छा और बुरा संपादक और रचनाकार रेखांकित कर दिया! यही है, शब्दों का चयन और शब्दों के मायने। इतना यह तय है कि मेरी पारखी नज़र ने कई रचनाओं को छापा होगा। रचनाकार को खूब यश-मान सम्मान दिलवाया होगा। लेकिन किस कसौटी पर। रचना के अंतस में छिपे मूल भावों की रोशनाई में न? दूसरा पक्ष यह भी न जाने कितनी हजारों-लाखों रचनाएं थोड़े से संपादन और रचनाकार के पुनः उस पर काम करने के अभाव में काल के गाल में पाठकों के हाथों में पहुंचने से रह गई होगी। मैं फिर कहता हूं कि संपादक एक माली तो हो सकता है लेकिन किसान नहीं। ऐसा माली जो बीजों का निर्माण नहीं करता न ही उन्हें पोषित करता है और न ही संरक्षित करता है। उन्नत पेड़ पौधों की संभावनाएं और स्रोत अंततः रचनाकार ही है।
यह सब उपक्रम पाठकों के लिए है। पाठकों के आनंद के लिए है। पाठक रचना पढ़ने से पहले जहां खड़ा है, रचना पढ़ने के बाद आगे बढ़ा हुआ महसूस करे। रचना लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ाती हो। हमारे संवैधानिक मूल्यों से पर न जाती हो। मनुष्यता को पालती-पोषती हो। यदि यह नहीं हुआ तो रचनाकार से अधिक गुनहगार संपादक है। और पाठक….? पाठक मानव न बना और विध्वसंकता को आत्मसात् करे तो कैसा रचनाकार और कैसा संपादक?
क्यों?
(एक पाठक की नज़र से-मनोहर चमोली ‘मनु’)
शोभनम् !
आभार !