बाल साहित्य के अध्येता, समीक्षक और वरिष्ठ साहित्यकार सुरेन्द्र विक्रम की कलम से
एक दिन की बात है। बाल साहित्य पर शोध कर रही मुंबई की आशा हेमन्त का फोन आता है। वह अपने शोध में एक हिस्सा ऐसा बनाना चाहती थीं जिसमें मेरे लिखे बाल साहित्य पर अन्य रचनाकारों-पाठकों ने कुछ न कुछ लिखा हो। आशा जी जान तो चुकी थीं कि मैं अभिलेख जुटाने-रखने में बहुत ही लापरवाह हूँ। फिर भी वह बोल पड़ीं-‘‘आपने तो बहुत सारे नये-पुराने रचनाकारों पर बहुत कुछ लिखा है। सकारात्मक भी लिखा है। पत्र-पत्रिकाओं की समीक्षाओं से भी अंतरजाल भरा पड़ा है। आपके और आपके बारे में किसी ने कुछ क्यों नहीं लिखा?’’
मैं निःशब्द हो गया। सोच में पड़ गया। फिर संयत हुआ और कहा-‘‘संभव है कि मैंने ऐसा कुछ भी न लिखा हो। लिखना और लिखवाना में फ़र्क तो होता है। भविष्य में कोई संज्ञान ले ले तो ले। किसी ने रोका थोड़े है।’’ मैंने यह भी कहा कि मैं किसी को अपना लिखा हुआ थोड़े भेजूंगा जो वह उसे पढ़े और फिर मेरे बार-बार याद दिलाने पर कुछ लिख दे। हालांकि ऐसा नहीं भी था कि आज तक किसी ने मेरी रचनाओं पर कुछ बात की ही न हो। लेकिन मैं जुटा नहीं पाया। या यूं कहूँ कि आशा हेमन्त कुछ खोज नहीं पाई। मैंने यह कहकर बात को बदलना भी चाहा कि फेसबुक में मेरी वॉल पर बहुत कुछ मिल जाएगा। समय-समय पर जिन्होंने भी मेरे रचनाकर्म पर बात की होगी वह वहां होगा। खैर. . .।
एक बात तो है सूचना-तकनीक के इस युग में हमें अपने बारे में थोड़े कहे को भी सहेज कर रखना चाहिए। बकौल दीनानाथ मौर्य जी के कि काहे आप लो प्रोफाइल में रहते हो।
अब मुद्दे पर आता हूँ। बाल साहित्य के अध्येता, समीक्षक और वरिष्ठ साहित्यकार सुरेन्द्र विक्रम ने कहानियाँ बाल मन की पुस्तक का अध्ययन किया है। विहंगम दृष्टि से रचनाएं गुजरी हैं।
कहानियाँ बालमन की : मनोहर चमोली ‘मनु’
बालसाहित्य में कविता के बाद सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली विधा कहानी है। बच्चों को कहानी पढ़ने से अधिक आनन्द कहानी सुनने में आता है, इसीलिए बच्चे अपने घर के बड़े-बुजुर्गों दादा-दादी के अतिरिक्त नाना-नानी से भी कहानियाँ सुनकर कभी भाव-विभोर होते हैं, तो कभी खिलखिलाकर और कभी अट्टहास करके कहानियों की जमीन से जुड़ने का सफल प्रयास करते हैं। बच्चे कभी-कभी कहानी में आए पात्रों के बारे में सवाल -जवाब इसीलिए करते हैं कि वे पात्र सिर्फ कल्पना के घोड़े पर भी चढ़कर दौड़ रहा है या हकीकत से भी उसका नाता है। मेरा मानना है कि कहानी कल्पना प्रधान होनी चाहिए लेकिन वह बिल्कुल झूठ का पुलिंदा नहीं होनी चाहिए, इसीलिए बच्चे बार – बार परियों और राजा-रानी की कहानियों को आधुनिक धरातल पर देखना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि अब सामंतवादी व्यवस्था समाप्त हो चुकी है तथा राजा-रानी का भी अस्तित्त्व मिट चुका है। जादू की छड़ी से महल बनाने वाली परियाँ कल्पना में तो हो सकती हैं, लेकिन इस वैज्ञानिक और तकनीकी युग में यह करिश्मा संभव नहीं है।
पहले का दौर अलग था, जब राजा-रानी की कहानियों में कल्पनाओं का ऐसा सब्जबाग दिखाया जाता था कि बच्चे कहानियाँ सुनते चले जाते थे, लेकिन आज के बच्चे तो सवालों की झड़ी लगा देते हैं। ऐसा क्यों, वैसा क्यों, यह भी तो हो सकता था जैसे सवालों से मुठभेड़ करके कहानी सुनाने वाले का पसीना निकाल देते हैं। विशेष रूप से इक्कीसवीं सदी के जागरुक बच्चों को आसानी से बहलाया नहीं जा सकता है। इस सदी में कई ऐसे साहित्यकारों ने बच्चों के मन,उनके मनोविज्ञान, उनके परिवेश और उनकी समस्याओं को लेकर कहानियाँ लिखी हैं जो सही अर्थों में बालमन की कहानियाँ हैं।

मनोहर चमोली ‘मनु’ उन्हीं में से बच्चों के लिए डूबकर लिखने वाले रचनाकारों में से एक ऐसे ही लेखक हैं जो बच्चों के दोस्त पहले हैं, रचनाकार बाद में। उनकी पुस्तक ‘कहानियाँ बालमन की’ पढ़ते हुए कम से कम यह अवधारणा तो बनती ही है कि अगर बच्चों के मन को पढ़कर ऐसी कहानियाँ भी उनके लिए लिखी जा सकती हैं, जो समय और परिवेश से सीधा साक्षात्कार करती हैं। 40 कहानियों की इस पुस्तक में विविधताओं के दर्शन होते हैं। पुस्तक में संग्रहीत कहानियों के शीर्षकों को पढ़कर ही पूरी कहानियाँ पढ़ने की जिज्ञासा बलवती हो जाती है। जैसे—ऊँची नहीं फेंकता ऊँट, अब मछली नहीं उड़ती, शेर है तो बिजली है, आग का नाश्ता, कैसी गलती किसकी गलती, मैं भी दूँगा दाना तथा खाना मगर ध्यान से आदि-आदि।
पहली कहानी छोड़ दिया फुदकना में बिल्ली पहले मेढक की तरह फुदकती थी।इस आवाज से उसे शिकार करने में परेशानी होती थी। एक दिन बाज को आकाश में उड़ता हुआ देखकर वह सोचने लगती है कि- ‘ काश! मेरे भी पंख होते। भोजन के लिए इतनी कसरत नहीं करनी पड़ती।’
‘ उड़ने के लिए दो पंख ही चाहिए।’।
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बिल्ली ने सोच तो लिया, सोचने में क्या बुराई है, लेकिन वह व्यवहारिक भी है कि नहीं, इसके बारे में उसने सोचा ही नहीं , तभी तो उसने पेड़ के दो पत्ते उठाए, उन्हें पंजों में जकड़ा और पहाड़ से कूद पड़ी। अब हुआ वही जो होना था, बिल्ली उड़ तो पाई नहीं, हाँ, लुढ़कने अवश्य लगी। उसे चोट अलग से लगी, वह कई दिनों तक चलने -फिरने के लायक भी नहीं रही। उसे भूखा-प्यासा रहना पड़ा। उसे अपनी ग़लती का अहसास हो गया था, तभी तो उसने सोचा कि- ‘अब कभी उड़ने के बारे में सोचूँगी भी नहीं।’
यह कहानी बड़ी व्यावहारिक इसलिए है कि व्यक्ति को भी इतनी ऊँची नहीं सोचनी चाहिए कि वह उसे कर ही न पाए, बल्कि उसका नुकसान अलग से हो जाए।
अगली कहानी ऊँची नहीं फेंकता ऊँट पहली वाली कहानी का दूसरा पक्ष है , जिससे स्पष्ट है कि अपनी सीमाओं को भूलकर बहुत ऊँचा-ऊँचा नहीं फेंकना चाहिए। ऊँची पीठ वाला ऊँट इसी गुमान में था कि जब उसकी पीठ ऊँची है तो वह ऊँची-ऊँची फेंक भी तो सकता है । बस, वह दूसरे जानवरों का मज़ाक़ उड़ाते हुए कहने लगा कि –’ मैं रेगिस्तान का जहाज़ हूँ। मैं वहाँ आसानी से दौड़ सकता हूँ। बिना रुके और थके।’
उसका छोटी सी गिलहरी से यह संवाद बड़ा रोचक है—-
“ ऊँट भाई! माना कि तुम बहुत बड़े हो, लेकिन कोई बड़ा एक छोटा सा काम भी कर सके, यह जरूरी नहीं।”
ऊँट कुछ समझ न पाया। बोला- “ मैं बच्चों के मुँह नहीं लगता।”
बंदर भी हँसते हुए बोला- “ ऊँट भाई! नाराज क्यों होते हो?”
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बंदर को मज़ाक सूझा, वह कहीं से एक तरबूज अपनी पीठ पर रखकर उठा लाया और ऊँट से बोला—यह लो, तुम्हें मेरी तरह इस तरबूज को अपनी पीठ पर ढोकर लाना है। उठाओ बीस कदम ही सही, जरा चलकर तो दिखाओ। मगर ध्यान रहे तरबूज लुढ़कना नहीं चाहिए।
ऊँट ने तरबूज को अपनी तिकोनी पीठ पर रखने का बहुत प्रयास किया, लेकिन उसे यह काम बहुत मुश्किल ही नहीं असंभव लगा। बस उसी दिन से उसने ऊँची-ऊँची फेंकना छोड़ दिया।
वैसे खूब आता मज़ा कहानी की मूल भावना यही है कि अगर रास्ते पर चलना शुरू कर दिया है तो फिर घबराना नहीं चाहिए। हिम्मत और धैर्य से काम लेने पर मंज़िल मिल ही जाती है। नन्हीं चींटियाँ अपनी माँ को बिना बताए बाहर निकल गई थीं। अँधेरा हुआ तो डरने लगीं। ये तो अच्छा हुआ कि मकड़ी ने उनका हौसला बढ़ाया। उन्हें रात भर रुकने की शरण दी, और अपने जाले में लटक रही ओस की बूँदों से उनकी प्यास बुझाई।
चीटियाँ मकड़ी से बिदाई लेकर सही-सलामत वापस अपनी बिल के पास आ गईं, जहाँ चींटियों का दल उन्हें बेसब्री से खोज रहा था।
पुस्तक में इन छोटी-छोटी कहानियों का प्रस्तुतीकरण, विन्यास और कहन बहुत प्रभावशाली है। छोटे से छोटे विषय को भी बड़ी रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है। मुलाकात और बात में भारी-भरकम हाथी और पिद्दी जैसी चींटी दोनों की मस्ती देखने वाली है। दोनों जब भी मिलते हैं तो एक-दूसरे को चिढ़ाते हैं। चींटी हाथी से अपनी पीठ खुजाने के लिए कहती है तो बदले में हाथी उसे चींटी से गोद में उठाकर झूला झुलाने के लिए कहता है। अगली बार मुलाकात होने पर हाथी चींटी से अपनी नाप लेकर कद बताने की बात करता है। यह सुनकर चींटी को हँसी आ जाती है। अब कमाल यह है कि पेड़ भी हँसने लगते हैं। उनमें से फल टपकने लगते हैं जिससे हाथी शरमा जाता है।
एक दिन तो हद ही हो गई। जब हाथी ने चींटी से कहा कि मुझे नहाने जाना है तो चींटी ने उसे छाया में रुकने के लिए कहा, जबकि वहाँ दूर-दूर तक कोई छाया नहीं थी। चींटी का जवाब तो सचमुच हँसा-हँसाकर लोटपोट कर देने वाला था जब उसने कहा कि मेरी छाया में आ जाओ। यह सुनकर बादल हँसने लगे। खूब हँसे, इतने हँसे कि पानी बरसने लगा। चींटी तो पत्ते के नीचे चली गई और हाथी बरसते पानी में नहाने लगा।
चपड़ी मौसी ही सही अर्थों में बिल्ली मौसी है। दूध के लालच में उसने शेर से दुश्मनी मोल ले ली। शेर द्वारा जंगल के सभी जानवरों को दूध इकट्ठा करके दही की दावत देने की तैयारी थी। दूध से भरी कड़ाही को देखकर बिल्ली को लालच आ गया और उसने धीरे-धीरे दूध पीकर उसमें पानी मिलाती गई। दावत वाले दिन जब कड़ाही में कड़छी डाली गई तो पता चला कि दूध में तो छेड़छाड़ की गई है, तो दही जमने का सवाल ही नहीं उठता। शेर को जैसेहि हकीकत का पता चला, तभी से शेर उस चपड़ी बिल्ली को खोज रहा है और जंगल के सारे जानवर शेर की दावत का इंतजार कर रहे हैं।
एक कहावत है —आधी छोड़ सारी को धावै/ सारी मिले न आधी पावै। यही सबक है उस कहानी का जिसका नाम है–ऐसे मिला सबक। चूहा एक को छोड़कर दूसरे को पाने की लालच में दौड़ता रहा। अंत में उसे साँप के रूप में अपनी मृत्यु सामने दिखी। यह तो अच्छा हुआ कि उसी समय बाज आकर अपने पंजों में साँप को जकड़कर उड़ गया। चूहे की जान में जान आई और वह अपने घर की ओर दौड़ पड़ा। बिल्कुल सही कहा गया है अधिक लालच नहीं करना चाहिए।
हवाई सैर कहानी में बरगद इस बात को लेकर चिंतित था कि सभी लोग मेरे ऊपर तो लदे हुए हैं, लेकिन कोई मेरी परवाह नहीं करता है। इसके बाद एक-एक कर तितली, गिद्ध, बया, उल्लू और मधुमक्खी ने तितली के हवाई सैर का इंतजाम किया तो तितली ने सभी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा कि—–”आप सब कितने अच्छे हो। ये बरगद का पेड़ ही तो है, जिसमें हम सभी मेलजोल से रहते हैं।”
अब बरगद को अपनी अहमियत का पता लग गया था —- “ मैं भी केवल अपने बारे में सोच रहा था। मेरी शाखाओं पर तो पूरी दुनिया बसती है। मुझे और क्या चाहिए।”
(पृष्ठ 24)
एक से एक हजार एक कहानी इस बात पर बल देती है कि बड़े को हमेशा छोटों की कीमत कम नहीं समझनी चाहिए। हर बड़ा नोट छोटे नोट को बौना समझकर उसकी अवहेलना कर रहा था, लेकिन सबसे छोटे एक के नोट ने सभी नोटों की आँखें खोल दी। सभी नोटों की चर्चा के बाद दो हजार के नोट ने एक रुपए के नोट के महत्त्व को इस प्रकार बताया —-” यह एक रुपए का नोट सही कहता है। मैं अपने आप में भले ही दो हजार रुपए हूँ, लेकिन इस एक रुपए के नोट के साथ में दो हजार एक हो जाता हूँ।
(पृष्ठ 27)
हालांकि जब यह कहानी लिखी गई थी, तब दो हजार रुपए के नोट का जलवा हुआ करता था। यह अलग बात है कि अब यह नोट बंद होकर इतिहास में दर्ज हो गया है।
छुट्टी नहीं करता सूरज कहानी में सूरज, चाँद और पृथ्वी की आपसी लागडाट में सूरज बहुत दूर चला गया।इतना दूर कि वह एक छोटे से बिन्दु के रूप में दिखाई देने लगा। उसके जाते ही सब उल्टा-पुल्टा हो गया, अंत में हवा जाकर सूरज को मनाकर वापस ले आई। वापस आते समय सूरज न चाहते हुए भी एक जगह टिक गया,जिसका परिणाम आज भी हमारे सामने है —–
“ इतना जरूर हुआ कि धरती सूरज के चक्कर लगाने लगी। धरती का जो भाग सूरज के सामने आने लगा, वहाँ उजाला रहने लगा। अब उस उजाला भरे समय को दिन कहा जाने लगा है। अब धरती के जिस भाग पर सूरज की रोशनी नहीं पहुँचती, वह अँधेरा रहता है। अब उसे रात कहा जाने लगा है। सूरज ने भी ठान लिया कि अब वह छुट्टी नहीं करेगा।”
(पृष्ठ 31)
चख लिया शहद कहानी में भालू को तितली से शहद के बारे में पता चला कि शहद तो फूलों के रस से ही बनता है और मीठा भी बहुत होता है—” हाँ, शहद, यह तो स्वाद में और भी मीठा होता है। शानदार! लाजवाब! मज़ेदार! मधुमक्खियाँ मेरी तरह फूलों के मकरंद से मधुरस तैयार करती हैं।”
(पृष्ठ 33)
अब मछली नहीं उड़ती शीर्षक से ही ध्वनित हो रहा है कि पहले मछली अवश्य उड़ती रही होगी। मछली स्वभाव से सभी का ध्यान रखने वाली थी। बगुला, मोर, चुहिया,गिलहरी आदि जब भोजन की तलाश में या किसी और काम से निकलते तो उनके पीछे मछली उनके अंडों-बच्चों का ख्याल रखती थी। एक दिन साँप ने उसे बहका दिया कि तुम किसी की नौकर तो हो नहीं जो सबकी सुरक्षा में लगी रहती हो। मछली साँप के बरगलाने में आ गई, और अगले दिन से लापरवाह हो गई। साँप तो इसी मौके की तलाश में था, उसने बगुला, मोरनी,गिलहरी यहां तक की चुहिया के अंडों तक को एक-एक कर अपना निवाला बना लिया।
जब यह बात सभी को पता चली तो चुहिया ने गुस्से में मछली के पंख कुतर डाले और बगुले ने पानी में भी उसे नहीं छोड़ा। उसने किसी तरह तालाब की गहराई में जाकर अपनी जान बचाई।
जरूरी हैं सब कहानी में रोहू,महाशीर,कतरा,नैन, स्टारफिश, गोल्डनफिश, डॉल्फिन और शार्क मछलियों ने आतंक मचा रखा था, जिससे घबराए हुए सभी पशु-पक्षियों के सामने तालाब छोड़ने का संकट उत्पन्न हो गया था, लेकिन गौरैया की सूझबूझ से किंगफिशर, बगुले, साथ, पेंग्विन, पेलिकन और सारस ने मछलियों पर धावा बोलकर उनके छक्के छुड़ा दिए। अब मछलियों ने भी मान लिया था कि तालाब केवल उन्हीं का नहीं बल्कि सबका है।

अन्य कहानियों-ज़रूरी हैं सब,मुकाबला अब कभी नहीं, शेर है तो बिजली है, अनुभवों का स्कूल,नई दीवाली, मज़ाक अब नहीं, मैं हूँ दोस्त तुम्हारी, बीस रुपए के लिए तथा भूल सुधार में भी कहीं जंगली जानवरों के बहाने छोटी-छोटी बातों को कहानी का विषय बनाया गया है तो कहीं सुधारवादी आंदोलन को गति दी गई है। तथ्य तो यह भी है कि जीवन में बिना संघर्ष के कुछ भी नहीं मिलता है।
ऊँट का पॉवरहाउस कहानी में अपने कूबड़ का रहस्योद्घाटन ऊँट खुद करता है –” जिसे तुम कूबड़ कह रहे हो, वह मेरा चलता- फिरता पॉवरहाउस है। मेरे इस कूबड़ में वसा जमा रहता है। यह वसा भोजन के पोषक तत्व और पानी से बनकर कूबड़ जैसा दिखता है।”

(पृष्ठ 84)
भालू तभी से शहद खाने के लिए लालायित रहने लगा। वह छत्ते का पता लगाकर रानी मधुमक्खी से शहद माँगने के लिए कई बार उसके पास गया, लेकिन हर बार उसे टका सा जवाब मिल जाता। एक दिन तितली ने जब भालू से मुलाकात होने पर शहद के स्वाद के बारे में पूछा तो वह झल्ला गया। वह गुस्से में पेड़ के ऊपर जाकर शहद के छत्ते को देखा तो वहाँ सन्नाटा था। मधुमक्खियाँ अपने परिवार सहित उड़ गई थीं, वहाँ केवल कच्चा मोम बचा था। उसने आगे से निर्णय लिया कि अब शहद माँगेगा नहीं, खुद ही ले लेगा। तभी से भालू पेड़ों पर चढ़कर मधुमक्खियों के छत्ते तोड़कर शहद खाने लगा।
छोटी जो बड़ी वो,इंटरवल, मनाएँगे हर त्योहार,कॉफी के बदले, भूख से आगे तथा बदल लिया मन कहानियों में बच्चों की रुचियों, उनकी समझदारी और कहीं -कहीं उनकी मेधा का कमाल भी देखने को मिलता है। अभिभावकों का भी दायित्व है कि वे बच्चों के मन को टटोलें और उसी के अनुरूप उनके साथ व्यवहार करें।
भूतों को लेकर तरह-तरह की किंवदंतियाँ हैं। कुछ लोग भूतों में विश्वास करते हैं तो कुछ लोग भूतों के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर देते हैं। पिछले दिनों बालसाहित्यकार समीर गांगुली की पुस्तक भले भूतों की कहानियाँ भी प्रकाशित हुई है जिसमें भूतों को बिल्कुल नए ढंग से प्रस्तुत किया गया है। मनोहर चमोली ‘मनु’ ने भूत था क्या! कहानी में सवालिया निशान खड़ा किया है। सिया को भूत के नाम से ही डर लगता था, लेकिन एक दिन उसकी बहन माही ने वास्तविकता से उसका सामना कराकर उसके वहम को खत्म कर दिया, अब उसे भूत से डर नहीं लगता था।
आग का नाश्ता कहानी में कुछ वैज्ञानिक कथा है। चौराहों पर तमाशा दिखाने वाले कभी साँप-नेवले को लड़ाने की बात करते हैं तो कभी आग को खा लेने का नाटक करते हैं। इस कहानी में आग खाने के बहाने कपूर की प्रकृति पर प्रकाश डाला गया है —” कपूर एक कार्बनिक पदार्थ है। यह गर्म होने पर द्रव में नहीं बल्कि सीधे गैस अवस्था में बदलता है। कपूर को जलने के लिए ऑक्सीजन चाहिए। चौकोर आकार के कपूर पर एक तरफ ही आग लगती है। जैसे ही आग दूसरे छोर की ओर फैलती है तो जानकार इसे अपनी दूसरी हथेली में रख लेता है। जब आग कपूर के चारों ओर फैलने लगती है तो उसे मुँह में रख लिया जाता है। मुँह में लार होती है। होठों को बंद कर देने से कपूर को ऑक्सीजन नहीं मिलती और कपूर बुझ जाता है। मुँह के भीतर की कार्बन डाइऑक्साइड भी कपूर को बुझाने में मदद करती है।”
(पृष्ठ 112)
इस वृहद संकलन की अन्य कहानियों में कम कमाया अधिक गँवाया अधिक लालच करने का दुष्परिणाम है। कुमार भी अपनी गाय से अधिक दूध निकालने के चक्कर में जब उसे ऑक्सीटोसीन इंजेक्शन लगाने लगा तो एक समय ऐसा भी आया जब गाय के थन में इंफेक्शन हो गया। उसी गाय के दूध को ही अपना संपूर्ण भोजन बनाने वाले कुमार की सेहत बिगड़ने लगी। उसे डॉक्टर ने समझाया —-” हम कपड़े धोते हैं। सूखाने से पहले उन्हें निचोड़ते हैं। निचोड़ते रहेंगे, निचोड़ते रहेंगे तो एक सीमा के बाद कपड़ा ही फट जाएगा। ऑक्सीटोसीन के इंजेक्शन ने तुम्हारी गाय के साथ यही किया। साल भर दूध की चाह ने तुम्हारी गाय की औसत उम्र को भी काम कर दिया है।”
(पृष्ठ 127)
कुमार ने गाय के दूध से जितना कमाया था, उससे कहीं अधिक उसके इलाज में खर्च हो गया। सेहत खराब हुई अलग से।
पुस्तक की लगभग सभी कहानियों में ऐसे-ऐसे विषयों को उठाया गया है जो कहीं रोजमर्रा की जरूरतों से जुड़े हुए हैं तो कहीं आम जीवन से संचालित होते हैं। सॉरी साजिया, मैं भी दूँगा दाना,कैसी गलती किसकी गलती,परी सब ठीक कर देगी ऐसी ही कहानियाँ हैं। लगन शीर्षक से ही स्पष्ट है कि लक्ष्य को प्राप्त करने में लगन की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। मुस्कराना हमेशा -में मुस्कराहट से दूसरों का दिल जीता जा सकता है। हमेशा रोने-धोने से अच्छा है कि जीवन में मुस्कराहट का ही वरण किया जाए। इससे मन भी टूटने से बचा रहता है। खाना सेहत के लिए आवश्यक है, मगर महत्त्वपूर्ण बात यह में कि हम खाने को पेट भरने के लिए खाते हैं या जो भी पाते हैं, का लेते हैं। ऐसा खाना सेहत के लिए कितना फायदेमंद है, इसका ध्यान ही नहीं रखते हैं। अंतिम दो कहानियाँ ऐसे ध्यान लगाना और असली हीरो में शिक्षा और पारिवारिक दायित्व के बीच में संतुलन बनाने की बात की गई है।
कुल मिलाकर 192 पृष्ठों की इस पुस्तक में शीर्षक के अनुरूप बालमन की कहानियों को ही प्राथमिकता के आधार पर संकलित किया गया है। कुछ कहानियों की विषयवस्तु अलग होते हुए भी कहीं न कहीं बच्चों की समझ, उनकी समस्याओं और पारिस्थितिकी को भी इंगित करती नजर आती हैं। कहानियों को विस्तार देने में अनुप्रिया के चित्रों ने भी अहम भूमिका निभाई है। इन श्वेत -श्याम चित्रों में अधिकांश को ब्लैक बैकग्राउंड में उभारने का जो प्रयास किया गया है उनकी शैली में अद्भुत पकड़ है। विशेष रूप से जानवरों के चित्रों को बड़े करीने से सजाकर प्रस्तुत किया गया है। विस्तृत होते हुए भी इन कहानियों को पढ़ते हुए पाठक कम से कम ‘बोर’ तो नहीं होंगे, ऐसा मुझे पूरा विश्वास है।यह संभव हो सकता है कि पाठक इन कहानियों को एक ‘सिटिंग’ में न पढ़ सकें , लेकिन इनका ताना-बाना ऐसा बुना गया है कि पाठकों की जिज्ञासा बराबर बनी रहेगी और वे इन्हें पढ़ने से नहीं चूकेंगे।

© प्रो. सुरेन्द्र विक्रम
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