संवैधानिक मूल्य संविधान की आत्मा हैं। मानव शरीर में हर अंग खास है लेकिन सभी अंगों का संचालन मस्तिष्क करता है। यदि मस्तिष्क में विकार आ जाए तो शरीर का संचालन अस्त-व्यस्त हो जाता है। भारतीय संविधान भारत को किस दिशा में ले जाना चाहता है? संवैधानिक मूल्य मशालें हैं। हमारा संविधान चाहता है कि भारत पूर्ण साक्षर हो। नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समानता प्राप्त हो। राजनैतिक तौर पर देखें तो हर वयस्क को वोट देने का अधिकार है। प्रत्येक मतदाता के मत का मोल एक समान है। यह बड़ी बात है।


प्रत्येक नागरिक को अपने हक़-हकूक की रक्षार्थ समान न्याय व्यवस्था है। हमें विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता है। समान अवसर का अधिकार है। संवैधानिक मूल्यों में भाईचारा, बंधुता को बनाए-बचाए रखने का भाव शामिल है। हम सभी धर्म को समान समझते हैं। किसी खास धर्म को बढ़ावा देना संवैधानिक मूल्यों का अपमान होगा।
भारत विविधताओं का देश है। धर्म और आस्था यहाँ कोस-कोस में भिन्न है। यही कारण है कि आम जीवन में धर्म बोध की जड़ें साफ दिखाई देती हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि किसी भी धर्म को श्रेष्ठ मानने-जताने और स्थापित करने का अधिकार संविधान देता है। बल्कि संविधान तो कहता है कि सभी को किसी भी धर्म को अपनाने का अधिकार होगा। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि किसी दूसरे धर्म को दीन-हीन कहने का अधिकार संविधान देता है।


संविधान जब लागू हुआ तब हम सौ में अस्सी अनपढ़ थे। महिलाओं की स्थिति बेहद दयनीय थी। जातिगत समाज का बोलबाला था। असमानता, भेदभाव का बोलबाला था। कुपोषण था। रोटी,रोटी और रहने को छत के संघर्ष बहुत बड़े थे। पिछले सात दशकों में हमने अपनी गति बढ़ाई है। आज पड़ोस में स्कूल हैं। अस्पताल हैं। भेदभाव मिटाने के लिए व्यवस्था है। कानून हैं। अदालतें हैं। स्वस्थ समाज के लिए अभी स्कूलों को और समृद्ध किया जाना है। बच्चों,किशोरों और युवाओं को जाति,धर्म और अवैज्ञानिकता के मकड़जाल से मुक्त करना है। यह सब इतना आसान नहीं है।


एक मनुष्य के तौर पर हमारे भीतर जो मनुष्यता होनी चाहिए वही तो संवैधानिक मूल्य हैं। संवैधानिक मूल्यों में लोकतंत्र में आस्था, जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा व्यवस्था, समान न्याय व्यवस्था, स्वतंत्रता, समानता, बंधुता की व्यवस्था को ही संवैधानिक मूल्य कहा जाए तो गलत न होगा। चींटी से लेकर हाथी को भी मनुष्य की तरह इस धरती में जीने का अधिकार है।
आज जो समाज में असामाजिकता, नफरत और हिंसा दिखाई दे रही है वह एक-दो सालों का परिणाम नहीं है। यदि शिक्षक एक किसान है और बच्चे उसकी फसल हैं तो यह तीन-चार माह में नही पकती। इसे फलने-फूलने और तैयार होने में बीस-तीस साल लगते हैं। स्कूल और शिक्षक ही हैं जिनके स्तर पर संवैधानिक मूल्यों को हाशिए पर रखा गया। पास-फेल का घेरा, मैं और मेरी सफलता मुख्य हो गई लगती है। स्कूल और घर विघटनकारी ताकतों के बढ़ने के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं। स्कूलों में शिक्षकों ने और घर में बड़ों ने अपने दायित्वों को संवैधानिक मूल्यों के आलोक में ठीक से निभाया ही नहीं।


यदि 2050 के बाद का भारत देखना है तो आज के स्कूलों और उन स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों को सबसे ज़्यादा जा़ेर संवैधानिक मूल्यों पर देना होगा। हम स्कूली छात्रों को ऐसे युवा बना रहे हैं जिनका दिमाग रोबोट हो चुका है। जो संवेदना के स्तर पर मशीन हैं। हमारे स्कूलों ने सामाजिकता, भाईचारा, एक-दूसरे का सम्मान करना शायद नहीं सिखाया।

कोरोना काल ने साबित कर दिया कि स्कूलों का विकल्प खोखला है। चलताऊ है। कमचलाऊ है। बहुत जोर-शोर से कहा गया कि शिक्षकों की अब ज़रूरत ही नहीं है। बच्चे ऑनलाइन सब कुछ सीख तो रहे हैं! ल्ेकिन, लाकडाउन के बाद ऐसी सोच के परिणाम भी दिखाई दे रहे हैं। घर, परिवार, दोस्त, पड़ोस और समाज की अपनी सीमाएं हैं। स्कूल एक अलग तरह की संस्था है। स्कूल में लगभग एक उम्र के बच्चे एक कक्षा में पढ़ते हैं। निचली और अगली कक्षा में छोटी उम्र और बड़ी उम्र के बच्चे पढ़ते हैं। स्कूल अपने आप में एक समाज है। जहाँ सामाजिकता, सहयोग,सहभागिता और सामुदायिकता बगैर किसी भेदभाव के पढ़ना-लिखना सीखते हैं। जीवन जीने का समान भाव से कायदा सीखते हैं। घर-परिवार-पड़ोस का जीवन और स्कूल अवधि में सहपाठियों के साथ का जीवन में अन्तर करना सीखते हैं। अपने लिए अपने अनुभवों के आधार पर एक रास्ता स्कूल में रहकर बनाते हैं। फिर आगे चलकर इन बच्चों ने घर-परिवार-समाज-दुनियादारी चलानी है।


संविधान के मूल्य कहीं भी यह इशारा नहीं करते कि समाज में गलाकाट प्रतिस्पर्धा हो। मैं और मेरा इंटरनेट वाली भावना हो। धर्म के नाम पर प्रतीकों के लिए दूसरे धर्म के मानने वालों की हत्या कर दो। सामाजिक सद्भाव की जगह नफरत का प्रसार हो। फिर ठीक उलट क्यों समाज में स्थापित हो रहा है? कौन है जिम्मेदार?
शिक्षा को बाज़ार किसने बना दिया? सारा ज़ोर स्कूली किताब के पढ़ने पर है। जबकि पढ़ना-लिखना तो बच्चे सीख ही लेते हैं। संवैधानिक मूल्यों को समझना-समझाना जरूरी और पहला काम है। ये ओर बात है कि अभी यह काम प्राथमिकता में नहीं है।


निजी स्कूल हो या सार्वजनिक। एक ही कक्षा में विविध वर्ग, जाति, धर्म, परिवेश, ग्रामीण-शहरी बच्चे पढ़ रहे हैं। कहीं तो ननिहाल में रहकर पढ़ने आए बच्चे भी होते हैं। अनाथ बच्चे भी होते हैं। मौसी के यहाँ रह रहे बच्चे भी होते हैं। इतनी विविधता लिए हुए बच्चे एक ही कक्षा में पढ़ रहे होते हैं। खान-पान, रीति-रिवाज, भाषा और पारिवारिक पृष्ठभूमि में भी भिन्नता होती है। वे पिछले चार-पांच साल के अपने जिए-भोगे अनुभव लेकर आते हैं। अब तो परिवार में इकलौता बच्चा है। इकलौता बालक है या इकलौती बालिका है। कहीं-कहीं दोनों बहने हैं। कहीं दोनों भाई हैं। परवरिश में कामकाजी माता-पिता हैं। जिद्दी, हिंसक, एकाकीपन और अन्तर्मुखी स्वभाव वाले बच्चे भी हैं। कई बार मैं की भावना साफ दिखाई देती है। दब्बूपन और कोने में सिमटा हुआ बचपन भी कक्षा में दिखाई देता है। हिंसक स्वभाव, चीखना-चिल्लाना भी दिखाई देता है। जाति का श्रेष्ठता बोध लेकर भी बच्चे आते हैं। खान-पान, छुआछूत का भाव भी लेकर आते हैं। अब तो मध्याह्न भोजन से बहुत अन्तर आया है। लेकिन बहुत जल्दी बच्चे यह समझ जाते हैं कि स्कूल में घर की जीवन शैली नहीं चलती।


हैरानी की बात है कि बच्चे स्कूल के द्वार के भीतर घुसते ही बनावटी जीवन जीने लगते हैं। दोहरा जीवन जीना घातक है। हर परिस्थितियों में हमारा व्यवहार एक समान होना चाहिए। इस बात को समझाने के लिए स्कूल असफल हुए हैं। स्कूली जीवन ही समाज का जीवन होना चाहिए। बच्चे स्कूल से बाहर निकलते ही फिर से समाज की भाषा बोलने लग जाते हैं। कुछ बच्चे स्कूली जीवन के बाद स्कूल को ही हेय दृष्टि से देखने लगते हैं। स्कूल की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं। यह सब विचलित करता है। कई बार असामान्य व्यवहार करने वाले बच्चे को समाज का ही कोई व्यक्ति यह कहते हुए अक्सर सुनाई देता है-‘‘क्यों भई? स्कूल में यही सब सिखाया जाता है?’’
स्कूल कोई प्रशिक्षण स्थल नहीं होता। ड्राइविंग सेन्टर नहीं होता। स्कूल व्यावसायिक स्थल भी नहीं होता। स्कूल घर भी नहीं होता। स्कूल सीखने-सिखाने का, दो-तरफा संवाद और तार्किक जीवन शैली की ओर बढ़ाने वाला स्थल होता है। लेकिन स्कूल आज के दौर में कर क्या रहे हैं? स्कूल बुराईयों को दूर करने का सुधार गृह भी नहीं होता। अलबत्ता बालपन और किशोरावस्था को एक ऐसा माहौल देने की व्यवस्था देता है जिसमें बच्चे साथ-साथ सीखते हैं। वह तो एक बागीचा होता है। उस बागीचे में सीाी को अपनी सामर्थ्य, विशेषता और समझ अनुसार खिलने-बढ़ने-महकने का अवसर मिलता है। स्कूल कोई बौनसाई नहीं है। जहाँ बच्चों की प्रतिभा को रोका-टोका जाए। काटा-छांटा जाए। लेकिन क्या स्कूल अपनी भूमिका समझ पा रहे हैं?


यदि हाँ तो स्कूलों में बच्चों-अध्यापकों का सामान चोरी क्यों होता है। बस्तों-कॉपियों को क्षति पहुंचाने की घटना होती रहती है। बिना पूछे सहपाठियों की कॉपी-किताबें घर ले जाना आम बात है। आगे-पीछे बैठने को लेकर बोलचाल,झगड़ा होता है। जातिसूचक शब्दों का उपयोग होता है। लड़कियों की उपेक्षा होती है। उनके ही बालक सहपाठी अलग तरह का व्यवहार करते हैं। बड़ी कक्षाओं के बच्चे तो पुरातन पारिवारिक और सामुदायिक परम्पराओं को सही बताते हैं। अंधविश्वासों को मानते हैं। उनका अनुसरण करते हैं।
केवल स्कूल को दोष देना उचित है? क्या घर-परिवार और समाज की जिम्मेदारी नहीं? समाज भी तो अपनी भूमिका समझे! कई बार समाज बच्चों पर निगरानी रख पाता है तो कई बार नहीं भी। सूचना-तकनीक के युग में समाज अपनी जिम्मेदारी से विमुख होता दिखाई दे रहा है। समाज को लगता है कि आज के बच्चे समझदार हैं। उनकी निजी ज़िन्दगी में ज़्यादा रोक-टोक ठीक नहीं। किसी घर में परिजन की मौत हो जाती है। जाति-धर्म के आधार पर अंतिम संस्कार की परंपरा है। अमूमन बच्चों को मौत के समाचार से और अंत्येष्टि से दूर रखा जाता है। यह क्या है? बच्चे भी इसी दुनिया के हैं। उन्हें आगे चलकर इसी दुनिया में संघर्ष करना है। वहीं किशोरियों में आ रहे बदलावों को आज भी वैज्ञानिक तरीके से देखने वाले परिवार कम ही हैं। आज भी टोने-टोटकों,पूजा आदि से निपटाने पर यकीन करते हैं। मासिक धर्म के दौरान बालिकाओं को लेकर कई तरह की गलतफहमियां चलती रहती हैं। बहुत कम परिवार के अभिभावकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिखाई देता है। अन्यथा स्कूल में भी अध्यापकों में अपने धर्म-जाति को लेकर तीव्र श्रेष्ठता बोध दिखाई देता है। यह कहना कि तसवीर जस की तस है। ठीक नहीं होगा। हां बदलाव की गति धीमी जरूर है।


फिर समाधान क्या है? स्कूलों को ही अपनी भूमिका ठीक से निभानी होगी। इसका अर्थ यह नहीं कि घर, परिवार, पड़ोस, समाज अपनी भूमिका का निर्वहन ठीक से कर रहे हैं। लेकिन स्कूलों को अब अपनी भूमिका को नए सिरे से परिभाषित भी करना होगा और अपने दायित्वों को कमर कसकर पूरी शिद्दत के साथ निभाना होगा ही।
स्कूल को प्रातःकालीन सभा से लेकर छुट्टी का घंटा बजने तलक कमोबेश पुरातन परम्पराओं से इतर समानता का आचरण करना ही होगा। प्रायः स्कूल विभागीय आदेशों का पालन करता दिखाई देता है। बहुत कम संस्थाध्यक्ष हैं जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मनुष्यता को प्राथमिकता देते हैं। उन्हें लगता है कि वह रूढ़िगत परम्पराओं के खिलाफ नहीं जा सकते। विभागीय नियमों का अक्षरशः पालन करना ही प्राथमिक दायित्व समझते हैं। पहल करने का साहस प्रायः कम दिखाई देता है। राजनैतिक हस्तक्षेप के कारण भी ऐसा हुआ है।


प्रातःकालीन सभा के कार्यक्रम को निपटाने के लिए कुछ बच्चों की प्रतिभागिता को हर बच्चे की सहभागिता के तौर पर बदला जा सकता है। कक्षावार बच्चों को नेतृत्व बदल-बदल कर दिया जा सकता है। स्कूल स्तर पर साप्ताहिक, मासिक, पर्वो पर आयोजित गतिविधियों में प्रत्यके बच्चे की उसकी योग्यता, रुचिनुसार सक्रियता बढ़ाई जा सकती है। लड़के अलग बैठते हैं और लड़कियां। इसे तोड़ा जा सकता है। मध्याह्न भोजन और विभिन्न अवसरों पर टिफीन शेयरिंग के कार्यक्रम किये जा सकते हैं। दादा-दादी, नाना-नानी और माता-पिता का स्कूल स्तर पर समागम होना चाहिए। औपचारिक पेरेन्ट्स टीचर्स एसोसिएशन को सक्रिय किया जा सकता है। सब धर्म समभाव सिर्फ पाठ को पढ़ाने मात्र से नहीं आएगा। कक्षा की दीवारों में लिख देने मात्र से काम नहीं चलने वाला है। शैक्षिक भ्रमणों की संख्या बढ़ानी होगी। बच्चों के साथ टीचर्स को पारिवारिक माहौल देने की जरूरत है। सप्ताह में एक दिन मध्याह्न भोजन बच्चों के साथ टीचर्स भी अनिवार्य तौर पर करें। ऐसा प्रावधान किया जाना चाहिए।


बच्चे परिवार से ही सब कुछ लेकर स्कूल नहीं आते। स्कूल से भी बहुत कुछ लेकर जाते हैं। जहाँ मात्र अध्यापिकाएं हैं या जहाँ मात्र अध्यापक हैं। अलग-अलग स्थितियां दिखाई देती हैं। जहां पुरुष-महिला दोनों अध्यापक हैं वहां अलग माहौल बना हुआ है। कई तरह के गुट अध्यापकों के बने हुए हैं। विज्ञान वर्ग, मानविकी वर्ग, कला शिक्षक, व्यायाम शिक्षक। बच्चे शिक्षकों का आपसी व्यवहार पढ़ लेते हैं। स्कूल में सभी शिक्षकों को स्वयं से लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करना होगा। आए दिन उनके मतभेद सार्वजनिक होते हैं। यह अच्छा नहीं है। शिक्षकों में जो निजी शैक्षिक योग्यता, जाति,धर्म का श्रेष्ठता बोध है, वह दिक्कत पैदा करता है।


स्कूल एक समान गणवेश निर्धारित करने से, समयबद्ध टाइम टेबिल और नपे-तुले नियम बना देने से अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता। सही बात तो यह है कि हर कक्षा में चार-पाँच बच्चों को अधिकाधिक अवसर देना एक बुरी परिपाटी है। ‘कमजोर’ बच्चे घोषित कर देने से ही सब गड़बड़ है। अभी स्कूल प्रत्येक बच्चे में वो ललक पैदा करने में समर्थ नहीं है जिसके कारण बच्चे लपक कर स्कूल आना चाहें। हमें यह समझना होगा कि छुट्टी का घण्टा बजने पर बच्चे उत्साहित क्यों होते हैं? स्कूल समान रूप से सीखने-समझने का प्रांगण नहीं बन पाया है। एक तरफ स्कूल की दिवारों पर संवैधानिक मूल्यों से संबंधित नारे लिखे हुए हैं। संविधान की उद्देशिका चस्पा है और दूसरी तरफ स्कूल ही गैर बराबरी, जेण्डर, कमजोर-मेधावी जैसे तमगे बांट रहा है! यह कैसे उचित माना जा सकता है। हर साल परीक्षा के बाद कक्षावार प्रथम,द्वितीय और तृतीय का प्रमाण-पत्र देना और शेष बच्चों को कमतर घोषित करना संविधान सम्मत है?


इस ढर्रे पर चलने की बाध्यता को समाप्त करना होगा। इसे इस तरह से समझ लेना ठीक होगा। ज़ैड एक शिक्षक हैं। बच्चे ज़ैड के पास ही क्यों अपनी शिकायतें लेकर जाते होंगे? ज़ैड का किताबी कोर्स कभी भी पूरा नहीं होता। क्यों? ज़ैड जिस कक्षा में पढ़ाने जाते हैं वहाँ या तो सन्नाटा छाया रहता है या हंसी के ठहाके गूंजते हैं। अभिभावक कभी स्कूल में आते हैं तो ज़ैड से मिलना चाहते हैं। बावजूद इसके अक्सर आगे की सीट पर बैठने को लेकर कुछ खास वर्ग-समझ के बच्चे जिद करते हैं। कोने में या सबसे पीछे बैठने वाले बच्चे आगे नहीं बैठना चाहते। उनसे आग्रह करो, तब भी नहीं। पाठ्य सहगामी गतिविधियों में भी कई बार कुछ खास बच्चे ही हिस्सा लेते हैं। रंग,लंबाई,छोटे बच्चे-बड़े बच्चे को लेकर एक ढर्रा चला आ रहा है। तय हो गया है। ऐसा कहकर या अगली बार उन्हें अवसर दिया जाएगा, कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है। ज़ैड जैसे शिक्षकों के साथी शिक्षक और स्कूल नेतृत्व भी ऐसे शिक्षकों को दरकिनार कर देता है।


कई बार स्कूल आधारित कई समितियों में वरिष्ठ-विषय शिक्षक का हवाला देकर तार्किक बातों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। बच्चों में घुलने-मिलने के अवसर देने के बावजूद एक खिंचाव दिखाई देता है। ज़्यादा खोजबीन करने पर पता चलता है कि बच्चों को दूसरे बच्चों की जाति-धर्म की वजह से घर से मना किया गया है। प्रातःकालीन सभा में भी कक्षावार कद के अनुसार खड़े रहने की व्यवस्था पर भी कुछ बच्चे अपने ही सहपाठियों के साथ खड़ा नहीं होना चाहते। यह सब क्या है? बहुत-सी बातें हैं जिन्हें समाज की व्यवस्था कह देने से ढका दी जाती है। अलबत्ता जिन बच्चों के हक की बात ज़ैड तरह के शिक्षक करते हैं वे बच्चे स्कूल से चले जाने के बाद भी इस बात को महसूस करते हैं कि उनकी आवाज़ को सुनने वाला, समझने वाला शिक्षक कौन था। शादी या घरों के उत्सवों में भी ऐसा है। स्कूल जाति, धर्म, हैसियत देखकर प्रतिभाग करता है। कुछ ही शिक्षक सिर्फ नियमित छात्र मानकर सेवित क्षेत्रों के उत्सवों में शामिल होते हैं। लेकिन ऐसे शिक्षकों को स्कूल में उपेक्षित किया जाता है। एक ही गांव में एक ही तरह के कार्यक्रम अलग-अलग स्थानों पर क्यों होते हैं? एक ही गांव में शादियों के स्थल अलग-अलग क्यों हैं? गांव एक है लेकिन शादी में न्यौता छांट-छांट कर दिया जाता है। यह सब चुनौतियां हैं। एक ही गांव है। गांव वालों के लिए पानी के धारे अलग-अलग क्यों हैं?


शहरों में सब कुछ सुविधाजनक लगता है। लेकिन छोटे-छोटे कामों के लिए भी बाज़ार पर निर्भर रहना पड़ता है। यूज़ एण्ड थ्रो संस्कृति हावी है। किसी तरह की सहभागिता-सामुदायिकता नहीं दिखाई पड़ती। हम कैसा समाज बना रहे हैं? हम किस समाज में जी रहे हैं? आखिर आने वाला समाज कैसा होगा? एक बार संविधान की उद्देशिका पढ़ने के बाद अपने आस-पास के समाज का परिदृश्य देखने की कोशिश करते हैं तो भय लगता है।

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By manohar

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