आठ मार्च अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस को याद करते हुए सामाजिक संस्कृतिकर्मी,पत्रकार, संपादक एवं कवयित्री गंगा असनोड़ा ने कहा कि महिलाएं शिक्षित हो रही हैं। अपने अधिकारों को जान-समझ रही हैं तो मुखर होना स्वाभाविक है। इसे उनकी जिद नहीं समझा जाना चाहिए। लेकिन अभी बराबरी के समाज के लिए उसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। बहुत कुछ हासिल करने के लिए लगातार संघर्षरत् होने की आवश्यकता है।
रीजनल रिपोर्टर की सम्पादक गंगा असनोड़ा आज यहाँ महिलाओं के लिए समानता के अवसर और चुनौतियाँ पर बोल रही थीं। अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, पौड़ी के सभागार में स्वैच्छिक शिक्षक मंच के साथ इस संध्या में सबसे पहले गंगा असनोड़ा का परिचय रखा गया। तत्पश्चात गंगा असनोड़ा ने उपस्थित शिक्षकों,युवाओं और आमंत्रित नागरिकों के समक्ष अपनी बात रखी।
एक दैनिक अखबार में पत्रकार और कालान्तर में उप संपादक का काम देख चुकी गंगा असनोड़ा ने कहा कि मार्च के प्रथम सप्ताह में चारों और महिला सशक्तिकरण का एक तरह शोर सुनाई पड़ता है। इस शोर में अधिकतर वे ही शामिल होते हैं जो सशक्तिकरण के मायने भी नहीं समझते। आज भी अगर महिलाओं को बुनियादी अधिकार मिल जाएं तो ये बड़ी बात है। इस राज्य के सन्दर्भ में देखें तो जंगल जा रही औऱ कामकाजी महिलाएं भी आज भी सुबह उठने से लेकर रात सोने तलक अपने हिस्से का ही नहीं घर-परिवार का काम भी करती आ रही हैं। अभी हाल ही में हेलंग में घसियारी से घास छीनने की घटना ने यह साबित कर दिया है कि हालात बहुत बदले नहीं है। राज्य के लिए उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान बयालीस शहादतें हुई हैं। लेकिन उत्तराखंड में आज भी बेरोजगारों पर लाठी चार्ज हो रहा है। आज राज्य में रोजगार के अवसर सीमित होते जा रहे हैं। योग्यता के अनुरूप नौकरियाँ सिमट गई हैं।
समाज कल्याण में परास्नातक गंगा असनोड़ा ने कहा कि बतौर लेखिका, पत्रकार और घर के काम-काज संभालते हुए मुझे यह बात समझ आ गई है कि आज भी महिलाओं को उनके अपने हिस्से से किए गए काम और उपलब्धियों से कम परिवार और परिवार के पुरुषों के हिसाब से आंका जाता है। मैं अपने पत्रकार-संपादक भवानी शंकर की मृत्यु से पहले भी लगभग बारह सालों से रेखांकित किए जाने योग्य पत्रकारिता करती आ रही थी लेकिन भवानी शंकर के चले जाने के बाद मुझे और मेरे काम को सलाम करने वालों की बाढ़ आ गई। मुझे सम्मानित और पुरस्कृत करने वाले अवसर तेजी से बढ़ गए। हालांकि मैंने कई सम्मान लिए भी हैं। लेकिन पिता, पति और ससुर चूँकि पत्रकार-लेखक रहे हैं तो मुझे यह बात कई बार पीड़ा भी देती रही कि मुझे मेरे काम से जाना-पहचाना जाता तो यह आयोजन बहुत पहले मेरे लिए आयोजित हो सकते थे। तो इसका क्या आशय है? इसका अर्थ कदापि यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि मैं जो कुछ हूँ उसमें किसी की आभा नहीं है। मेरे पिता ने मुझे बनाया। उनके व्यवहार,आचरण और सिद्धांत ही हैं जिनका मैं निर्वाह कर रही हूँ। पिता खड़े रहें। इसके लिए मैंने सम्मान-पुरस्कार प्राप्त किए। उन्हें अपार प्रसन्नता होती थी। लेकिन पीछे मुड़कर देखती हूँ तो याद आता है कि आज भी लड़की के पैदा होते ही घर-परिवार और समाज उसके साथ जो व्यवहार करता है वह बहुत बदल गया है। ऐसा नहीं है।
अपने पिता पुरुषोत्तम असनोड़ा को याद करते हुए वह बताती हैं कि भ्रूण हत्याएं बढ़ रही हैं। महिलाओं के साथ होने वाले अपराध कम नहीं हो रहे हैं। गैर सरकारी और सरकारी संस्थानों में मात्त्व अवकाश को लेकर भी एक तरह की चिढ़ देखने को मिलती है। शादीशुदा महिलाओं को नौकरी देने में झिझक कम नहीं हुई है। आज राज्य में रोजगार के अवसर कम हो गए हैं। परीक्षाएं देर से हो रही हैं। हो रही हैं तो निरस्त हो रही हैं। चयनितों को बहुत विलम्ब से नौकरियों पर रखा जा रहा है।
मास्टर डिग्री इन जर्नलिज़्म एण्ड मास कम्यूनिकेशन गंगा थपलियाल ने कहा कि पिता के कहने पर ही मैं पत्रकारिता में आई। पति भवानी गुरु भी रहे। उन्होंने खूब जीना सिखाया। यदि मैं भावनात्मक रूप मात्र से ही जुड़ी होती तो शायद काम नहीं कर पाती। फिर 2017 के बाद के चुनावों ने मुझे बहुत सिखाया। कई तरह के प्रलोभन आए। लाखों रुपए के विज्ञापनों का प्रस्ताव आया। लेकिन जनसरोकारों की पत्रकारिता को नज़रअंदाज़ कैसे कर सकती थी? रीजनल रिपोर्टर सरोकारों से साक्षात्कार की पत्रिका रही है। उसके ठीक उलट कैसे काम कर सकती थी। पत्रिका के डिजायन के काम ने सिखाया। पहले भी रात-रात जागकर पत्रिका तैयार करते थे। भवानी के जाने पर काम बढ़ गया। हालांकि कोरोना के बाद से अब हार्ड कॉपी नहीं निकाल पा रहे हैं। लेकिन श्रीनगर के लोगों ने पत्रिका को थामा। भरपूर सहयोग समाज से ़मिला। अनुभव से यह तो कह ही सकती हूँ कि कामकाजी महिलाओं पर पर तिहरी जिम्मेदारी होती है। महिला नेतृत्व को अभी सहजता से स्वीकार करने की आदत समाज में नहीं है। समाज और साथ में काम कर रहा पुरुष वर्ग कई तरह से काम में बाधा डालता है। हालांकि अब तेजी से बदलाव आ रहा है।
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख-कविताएं लिखती रहीं गंगा थपलियाल ने कहा कि चुनौतियाँ हम सबके आसपास ही होती हैं। उन्हें लपकना पड़ता है! उनसे मुंह मोड़कर नहीं रहा जा सकता है। आत्म विश्वास बड़ी चीज है। यदि यह है तो सारी बातें गौण हो जाती हैं।
इस अवसर पर सवाल भी आए। सवालों का जवाब भी गंगा थपलियाल ने दिया। दो घण्टे बीत गए और होली मिलन समारोह के साथ विराम देना पड़ा। शिक्षक साथियों में कमलेश बलूनी, कमलेश मिश्रा, रोशनी कुंवर, श्वेता बिष्ट ने भी अपनी बात रखी। कुल मिलाकर इस बात पर सहमति अधिक दिखाई दी कि महिलाओं को समाज में रूढ़िगत बातों, विश्वासों, मान्यताओं से ऊपर उठकर तार्किक और विज्ञान सम्मत बातों की ओर जाना होगा। भ्रूण हत्या पर महिलाओं को एकजुट होकर मुखर होना होगा।
गोष्ठी में कमलेश कुमार मिश्रा, महेशानन्द, कमलेश बलूनी, पुष्पा असवाल, ऊषा रावत, अंजलि डूडेजा, सुमंगली सिंह, रोशनी कुंवर, राजू नेगी, कुसुम, बलवीर सिंह कुंवर, अशोक बौड़ाई, भारती, आरती बहुगुणा, स्वयंका रावत, निशा रावत,अभिषेक किमोठी, पूजा, श्वेता कठैत, अजय सेमवाल, गणेश बलूनी शामिल रहे। संचालन गणेश बलूनी ने किया।