चले साथ पहाड़ या चलें साथ पहाड़। एक ज़रा-सी बिन्दी मान लें या एक-अदद मात्रा। सारा मंतव्य बदल जाता है। जी हाँ। मैं सुप्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार, यायावर और सामाजिक एक्टीविस्ट अरुण कुकसाल की किताब ‘चले साथ पहाड़’ की पुस्तक के हवाले से यह बात कह रहा हूँ।
मैंने जब पहली बार समुद्र देखा था। देखता ही रह गया था। कुछ देर ऐसा लगा कि कोई भी मेरे ख़्यालों-अहसासातों में व्यवधान न डाले। मेरी आँखों के सामने समन्दर का जो साक्षात् रूप था, मैं उसे अपलक निहारना और निहारते रहना चाहता था। एक वाकया और याद आता है। गर्मी के दिनों की बात थी। बिहार से कुछ युवा साथियों को सहारनपुर से देहरादून लाने की जिम्मेदारी मुझे मिली थी। वे पटना से सहारनपुर रेल से आए थे। सहारनपुर से देहरादून मैं उन्हें उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की बस (तब अविभाजित उत्तर प्रदेश) में बिठाकर ले आया। छुटमलपुर-बिहारीगढ़ तक सब कुछ ठीक था। अचानक मोहण्ड की गुफा पार करते ही बस में रोमांचित-उत्तेजना-हो-हल्लाहट से मेरे अलावा भी आँखें मूँदे कई यात्री चौंक पड़े। चालक-परिचालक भी घबरा गए।
मैंने बस में नज़र दौड़ाई। उन बारह युवा साथियों में से अधिकतर बस की खिड़की से अपना चेहरा गरदन समेत बाहर निकाले हुए थे। चालक ने डाँटा ही नहीं बस ही रोक दी। मैंने जोर से सबको हिदायत दी कि अपने चेहरे बस के अन्दर कर लें। अन्यथा दूसरी बस के क्रॉस करने से अनहोनी हो सकती है। दरअसल। बिहार के वे सभी साथी पहली बार छिट-पुट पहाड देख रहे थे। जबकि हमारी बस अभी समुद्र तल से 300 मीटर की ऊँचाई पर भी नहीं दौड़ रही थी। जब मैंने उनसे कहा कि अभी देहरादून में ही हम 400 मीटर से अधिक की ऊँचाई पर होंगे। यह सुनकर वे बहुत हैरान हुए। पटना जो स्वयं समुद्रतल से पचास-पचपन मीटर की ही ऊँचाई पर स्थित है तो उनका हैरान होना स्वाभाविक था। ‘चले साथ पहाड़ में’ लेखक अरुण कुकसाल अपने सहयात्रियों के साथ चार हजार मीटर की ऊँचाई के भी दर्शन कराते हैं तो पाठक इन यात्रावृतों को क्यों कर नहीं पढ़ना चाहेगा?
हम अवगत ही है कि हम हिन्दुस्तानी तमाम मुल्कों के यायावरों की अपेक्षा बहुत कम यात्राएँ करते हैं। यदि करते भी हैं तो उनका लेखा-जोखा हमारे पास नहीं होता। यदि होता भी है तो वे यात्राएँ किताब का आकार अख़्तियार नहीं कर पातीं। इस लिहाज़ से ‘चले साथ पहाड़’ उम्मीद जगाती है कि हम हिन्दुस्तानियों में यात्राओं को सहेजने का दम-खम बचा है।
पुस्तक में चित्र बहुत कम शामिल हो पाए हैं। जो हैं भी वे स्पष्ट नहीं हैं। नौ पेज की शानदार भूमिका स्वयं घुमक्कड़, विज्ञान लेखक एवं साहित्यकार देवेंद्र मेवाड़ी ने लिखी है। बकौल लेखक ने यात्राओं का मक़सद और किताब के उद्भव को अपनी बात में दर्ज़ किया है। अलग-अलग समय में की गई इन यात्राओं में लेखक के साथ कई घुमक्कड़ भी साथ रहे। जिनमें भूपेन्द्र नेगी, सीताराम बहुगुणा, उमाशंकर नैनवाल, राकेश जुगराण, ललित कोठियाल, अजय मोहन नेगी, प्रदीप टम्टा, रतन सिंह असवाल, राजेश जुवांठा, महेश कांडपाल, विजय पाल रावत, हरीश ऐंथानी, ललित फर्स्वाण, उमेश जोशी, देवेन्द्र परिहार, मदन मेहता, शेखर लखचौरा, प्रशांत जोशी, तरुण टम्टा, प्रदीप अधिकारी, रघ्घू तिवारी, भूपेश जोशी, दीना कुकसाल, आशीष घिल्डियाल, अमन कुकसाल, सौम्या घिल्डियाल, शाश्वत घिल्डियाल, इन्द्रेश मैखुरी, नीतू घिल्डियाल और हिमाली कुकसाल भी थीं।
10 अक्तूबर 1990 से लेकर 2020 के मध्य कई अलग-अलग सहयात्रियों के साथ पहाड़ की यात्राओं का बेमिसाल,सरल और प्रवाहमयी वर्णन इस किताब में है। कितना अच्छा होता यदि यह कालखण्ड के हिसाब से क्रमवार ही होता। बहरहाल पाठकों को इस किताब में कई यात्राओं का वर्णन-किस्से-जानकारी और यात्राओं की खूबसूरती मिल रही है। किताब के कुछ अंश यहाँ इसलिए भी दिए जा रहे हैं ताकि पाठक जान सकें कि यह किताब किस मिज़ाज़ की है। कुछ अंश-
14 जुलाई, 2018
“आज मौसम पैदल चलने के लिए बिल्कुल ठीक है, हल्के बादल हैं, इसलिए घाम नहीं होगा। बारिश शाम को आएगी तब तक आप मध्यमहेश्वर पहुँच जाएँगे” – सुबह की चाय देते हुए राणाजी फरमाते हैं ।
रांसी पहाड़ की धार का गाँव है, परन्तु उसका फैलाव समतल घाटी जैसा है। बकौल राणाजी रांसी गाँव में राकेश्वरी देवी (पार्वती) का प्राचीन मन्दिर है। राणा, नेगी और बिष्ट लोगों के इस गाँव में वर्तमान में 150 परिवार हैं, जिनकी कुल आबादी 800 के करीब है। खेती-बाड़ी और पशुपालन मुख्य पेशा है। प्रत्येक परिवार से कोई न कोई सेना में अवश्य है। गाँव में सड़क आई पर रोजगार कुछ बढ़ा नहीं। नतीजन, इसी सड़क से लोग देहरादून और अन्य मैदानी शहरों की ओर सरकने लगे हैं। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद से इन 18 सालों में 28 परिवार यहाँ से पूरी तरह पलायन करके देहरादून जा बसे हैं। ये प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है ।
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बणतोली के बाद का पहला पड़ाव खण्डारा चट्टी (समुद्रतल से 2000 मीटर ऊँचाई) सामने है। लम्बी चढ़ाई चढ़ते हुए, बैठने की जगह जब दिखने लगती है, तो चाल को तेज़ करने के लिए कितना ही ज़ोर लगा लो पर थका शरीर आगे बढ़ने में साथ नहीं देता है ।
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बारिश की रुमुक-झुमुक मैखम्बा से एक किलोमीटर दूर कनू चट्टी (समुद्रतल से 2780 मीटर ऊँचाई) में जाकर थम गई है। यहाँ से मध्यमहेश्वर 3 किलोमीटर है। मध्यमहेश्वर जाने का यह अंतिम पड़ाव है। रास्ते के ऊपर की ओर ’शिखर प्रिंस होटल’ हिन्दी और बंगाली में लिखा है। महेश पंवार अपनी धर्मपत्नी सीता पंवार के साथ इसका संचालन करते हैं ।
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श्रीनगर से अल्मोड़ा वाया सोमेश्वर 21 सितम्बर, 2019
श्रीनगर, गढ़वाल से अल्मोड़ा की ओर भोर में चले हैं। नींद से जागती हुई प्रकृति का सौंदर्य और उसमें मानव, पशु-पक्षी और पेड-पौधों की सुबह-सुबह की हलचल को चलती गाड़ी से देखने का आनंद ही कुछ और है। श्रीनगर बांध के पानी में कोहरे की चादर बिछी हुई है, जो धीरे-धीरे ऊपर उठती जा रही है। कुछ ही समय में सारी श्रीनगर घाटी को यह कोहरा अपनी आगोश में ले लेगा। कोहरा छटने के बाद एकदम दिन का अहसास होता है। श्रीनगर से कर्णप्रयाग (66 किलोमीटर) जाते हुए गाड़ी की रफ़्तार का मुकाबला हमारे विपरीत दिशा में बहती अलकनंदा नदी से हो रहा है। सड़क खाली और सुनसान है। अलकनंदा के बहते पानी और सड़क पर दौड़ती हमारी गाड़ी का एकसार शोर ही वातावरण की नीरवता को को तोड़ते हुए हमारे साथ-साथ है।
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कलियासौड़ के आगे सड़क के बायें पुलिस की चैक पोस्ट और दायें शराब की दुकान है। रुद्रप्रयाग की ओर जाने वालों के नाम-पते दर्ज हो रहे हैं। लॉकडाउन में मिली छूट से छोटी गाड़ियाँ और बाइकों की भीड़ सड़कों पर अचानक दिखने लगी है। ऐसे ही जैसे शैम्पेन की बंद बोतल का ढक्कन एक झटके में खोलने से आया अनियंत्रित झाग बाहर बिखर जाता है। पुलिस चैक पोस्ट पर लम्बी लाइन है तो शराब की दुकान पर भी अच्छी-खासी भीड़ है। दोनों जगह गहमा-गहमी है, फर्क यह है चैक पोस्ट पर तटस्थता है, तो शराब की दुकान पर बेसब्री। कोरोना से उपजा लॉकडाउन आम आदमी के लिए आपदा है, तो शराब कारोबारी और सरकार के लिए अवसर।
गुलाबराय आने को है और हिमाली सड़क किनारे स्थित आम के पेड़ के नीचे की एक छोटी सी घेरबाड़ नीतू को दिखाना चाहती है जहाँ पर प्रसिद्ध शिकारी जिम कार्बेट ने आदमखोर बाघ को मारा था।
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मेरे दिमाग में इस जगह के बारे में रखी जानकारियाँ भी चलायमान होने लगी हैं।
ज्ञातव्य है कि सन् 1920-30 के दशक में नरेन्द्रनगर को बसाने के लिए एक तरफ रवांई इलाके के मजबूत इमारती जंगली पेड़ों को काटा गया। दूसरी तरफ् स्थानीय ग्रामीणों को उनके जंगलों के बुनियादी हक-हकूकों से बेदखल किया गया। नरेन्द्रनगर को टिहरी रियासत की राजधानी बनाने के पीछे साल में एक बार कर वसूली के लिए आने वाले अंग्रेज़ अधिकारियों को वहीं से टरकाने की मंशा थी ताकि टिहरी तक जाने पर रियासत की ग़रीबी और कष्ट उन्हें न दिख पाए । आज जहाँ नरेन्द्रनगर बसा है, उस जगह को पहले उड़ाथली कहा जाता था। इस स्थल पर हवा बहुत तेज़ चलती है। कहते हैं एक बार तेज़ तूफान में यहाँ से एक भैंस ही उड़ गयी थी। तभी से इस स्थल को उड़ाथली कहा जाने लगा। इसी जगह पर नरेन्द्रनगर बनने को हुआ तो राजा ने फरमान जारी किया कि अब इसको नरेन्द्रनगर कहा जाये, कोई भी उड़ाथली न कहे। कहने पर जुर्माना और कैद भी हो जाती थी। पर राजा से खुचांग (भिड़ने) वाले उस समय भी इस जगह को उड़ाथली ही कहते थे। आज भी कुछ लोग नरेन्द्रनगर को यदा-कदा उड़ाथली ही कहते हैं।
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दुनिया सरनौल तक उसके बाद बडियाड़ है
उत्तराखण्ड में उत्तरकाशी जनपद की पश्चिमोत्तर दिशा में स्थित संपूर्ण यमुना घाटी की ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पहचान रवांई नाम से विख्यात है दूसरे शब्दों में नौगाँव, पुरोला एवं मोरी विकास खण्डों के संयुक्त भू-भाग को रवांई कहा जाता है। गढ़वाल के इतिहास में ’रवांई’ को ’रांई गढ़’ कहने का भी उल्लेख है। कहा ये भी जाता है कि ऊनी वस्त्रों को बनाने और उनको रंगने में रवांईजन सिद्धहस्त रहे हैं। रंगवाई से रवांई हुआ होगा। रवांई रणबाकुरों का मुल्क है। रणवाले से रवांई होने की भी संभावना है। इस तथ्य में दम है, क्योंकि रवांई के लोगों का आदि काल से ही राजसत्ता के प्रति हमेशा पंगा रहा है। ’रयि’ शब्द प्राकृतिक एवं धन्य-धान्य से धनी क्षेत्र के अर्थ में भी है। इसलिए ’रयि’ से रवाई होने की भी गुंजाइश है।
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चौखुटिया घाटी अब सिमटती नज़र आ रही है। चढ़ाई वाली सड़क के फेर छोटे होने लगे हैं। चौखुटिया से 19 किलोमीटर की सीधी चढ़ाई चल कर पंडुवाखाल पहुँचे हैं। कुमाऊं और गढ़वाल की सीमा पर पहाड़ की चोटी में पंडुवाखाल (समुद्रतल से ऊँचाई 1750 मीटर) बसा है। पंडुवाखाल आधा कुमाऊं में और आधा गढ़वाल में है। एक ही भवन के निचले तल पर सड़क किनारें की दो दुकानें दिखाई दे रही हैं। दायीं ओर की ’संगिला एजेन्सी’ कुमाऊं में और बायीं ओर की ‘मोहित जनरल स्टोर’ गढ़वाल में है। कुमाऊं की ज़मीन पर सीताराम और गढ़वाल की ज़मीन पर ललित को खड़ा करके कुमाऊं-गढ़वाल के दोस्ताना संबंधों के प्रतीक स्वरूप मेरे फोटो लेते ही दुकानों के आस-पास के लोगों की गड़गड़ाती तालियों से पंडुवाखाल में खुशनुमा माहौल हो जाता है।
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25 मार्च, 2018
समुद्रतल से लगभग 1885 मीटर ऊँचाई पर स्थित रानीखेत की बसासत बांज, बुरांस, चीड़ और देवदार के पेड़ों से घिरी है। यहाँ से पंचाचुली, नंदादेवी, चौखम्बा आदि हिमालयी चोटियाँ नज़र आती हैं। रानीखेत का गोल्फ मैदान एशिया में सर्वोत्तम माना गया है। शताब्दियों पहले राजशाही के दौर में कुमाऊं के राजा-रानियों के आमोद-प्रमोद की मनपसंद जगह रानीखेत थी। रानीखेत नाम को इसी संदर्भ से जोड़ा जाता है। वायसराय लार्ड मिंटो ने सन् 1869 में कुमाऊं रेजीमेंट का मुख्यालय रानीखेत में स्थापित करके इसे आधुनिक पहचान दी थी। वर्तमान में रानीखेत से 10 किलोमीटर दूर चौबटिया (समुद्रतल से 2016 मीटर की ऊँचाई) में भी सैनिक छावनी है। अंग्रेज़ शासकों की मनपसंद जगह होने के कारण रानीखेत में 9 विशाल चर्च बनाए गए थे। इसी कारण रानीखेत को तब ’सिटी ऑफ चर्चेज’ भी कहा जाता था। रानीखेत से अल्मोड़ा 50 किलोमीटर और नैनीताल 90 किलोमीटर पर स्थित है। अंग्रेज़ी राज में एक बार इसे शिमला के स्थान पर भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने के प्रस्ताव पर विचार किया गया था।
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आज चैत्र मास की अष्टमी का मेला है। देघाट बाज़ार मेले से सजा-धजा है। रंग-बिरंगे परिधानों में ग्रामीण महिलाएँ और बच्चे देवी मन्दिर की ओर जा रहे हैं। लगभग हर बच्चे के हाथ या मुँह में पिपरी बाजा है। मेले में जगह-जगह लगे जलेबी के थालों का अपना जलवा ज़रूर है पर मेले को जीवन्त तो बच्चों के पूं-पूं बाजे की इकहरी लम्बी आवाज़ ही कर रही है। कम ही सही पर कई महिलाएँ पहाड़ी आभूषणों को पहनकर मेले में आई हैं। असली जेवर पहन कर बेफिक्री से बाज़ार में घूमने का आनंद पहाड़ में ही संभव है।
देघाट से आगे की ओर अष्टमी के मेले की धूम-धाम जारी है। “मुझे पिपरी बाजा खरीदना है” दृ मैंने कहा। लेकिन, हमारे ड्राइवर साहब हैं कि गाड़ी रोकते ही नहीं। पत्थरखोला, उरमरा, भकौड़ा के बाद आया स्यालदे।
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कहो, कैसे हो रानीखेत ?
24 मार्च, 2018
श्रीनगर से सुबह 4 बजे चलकर खण्डाह के पास सड़क पर चहल कदमी करते गुलदार (बाघ) को देखकर सीताराम बहुगुणा ने हड़बड़ी में गाड़ी रोकी तो गुलदार ने एक तीख़ी नज़र भर हमको देखा जैसे कह रहा हो- “इतनी भोर में कहाँ जा रहे हो ?” और, फिर आराम से नीचे गधेरे की ओर चल दिया है। बाघ के लिए यह सामान्य बात है पर हमारे लिए जीने-मरने की घड़ी आ गई। थोड़ी देर ही सही पर तन-बदन झुर्र तो हो ही गया।
“चलो, यात्रा की बौणी (शुभारंभ) अच्छी हो गई“ दृ मैंने कहा
“किसकी बौणी अपनी तो सूख गई थी गौलि (गला)“ -सीताराम ने गाड़ी की स्पीड बढ़ा ली है।
मुझे याद आया कि पौड़ी से दशकों पहले मित्रों के साथ पैदल श्रीनगर आते हुए इस जगह के आस-पास बाघ से ऐसे ही मुलाकात हुई थी।
पौड़ी पहुँचे तो ललित कोठियाल और अजय मोहन नेगी को साथ लेने के इंतजार में लगा कि पहाड़ियों के पाँच मिनट का इंतजार पचास मिनट में भी पूरा हो जाये तो गनीमत समझो।
हम श्रीनगरवासियों के लिए साफ़ मौसम में ’सुबह का पौड़ी’ जन्नत ही समझो। नज़रें हैं कि हिमालय की चोटियों से हटती नहीं। और फिर सुबह-सुबह पौड़ी से बुवाखाल होते हुए खिर्स वाली सड़क पर जाना हो तो सुभानअल्लाह! क्या कहने।
बताता चलूँ कि चले साथ पहाड़ पुस्तक लेखन ने प्रिय भाई अरविंद कुकसाल को समर्पित की है। और हाँ! किताब के यात्रा वृतों में मध्यमहेश्वर, रानीखेत, बडियाड़, रुद्रनाथ, दानपुर, सुन्दरढुंगा ग्लेशियर, देवाधिदेव केदारनाथ, कार्तिकेय की ओर जाते हुए घिमतोली, कनकचौंरी, श्रीनगर,अल्मोड़ा,सोमेश्वर,तुंगनाथ,गुप्तकाशी, चन्द्रशिला के दर्शन, वर्णन और वस्तुस्थिति का आकलन पाठक कर सकेंगे। लेखक आम पाठक के स्वभाव से बखूबी परिचित हैं। सो, वे अति साहित्यिकता और भारी भरकम वर्णन का मोह नहीं रखते। मुझे लगता है यही बात इस किताब की सफलता में सहायक होगी। हालांकि कहीं-कहीं बहुत लम्बे वाक्य भी अनायास आ गए हैं जिनसे बचा जा सकता था। पता नहीं यह कैसे संक्षिप्त नहीं हो पाए।
लेखक के पास समृद्ध, विपुल और जन-लोक भाषा के शब्द हैं। शैली भी है और हुनर भी है। बहरहाल ऐसे वाक्यों यथा-‘‘मुझे वह किस्सा भी याद आ रहा है कि जब सन् 1942 में मेरठ के मिलैट्री अस्पताल में जिम कार्बेट के सामने द्वितीय विश्व युद्ध में बुरी तरह घायल रुद्रप्रयाग क्षेत्र के किसी गाँव का सैनिक उस वक्त अति खुशी से जोर-जोर से रो पड़ा जब उसे मालूम चला कि कारबेट साब (जेम्स एडवर्ड कॉर्बेट याने जिम कॉर्बेट का आमजन में यही नाम था) से सचमुच वह मिल रहा है।
स्टील नगरी कभी हरिपुर तो कभी पंचशील नगर तो फिर हापुड़ से जानी जाने लगी। हापुड़ के हींग लगे पापड़ आज भी मशहूर हैं। किताब में भले ही हापुड़ के ट्यूब की रोशनी न हो, लेकिन पन्ने दूधिया सफेद हैं। सम्भावना प्रकाशन,हापुड़ भले ही दिल्ली से साठ-पैंसठ किलोमीटर ही दूर है लेकिन प्रकाशन की गुणवत्ता बताती है कि यह किताब सम्भावना प्रकाशन के काम की सम्भावनाओं को एक लपाग और ही बढ़ाएगी। फोंट अच्छा है। उम्मीद की जाती है कि पाठक इस किताब का भी आनन्द लेंगे। प्रकाशक और लेखक को ढेर सारी शुभकामनाएँ।
पुस्तक : चले साथ पहाड़
लेखक : अरुण कुकसाल
विधा : यात्रा वृत
मूल्य : 250
पृष्ठ : 208
आकार : डिमाई
प्रकाशक : सम्भावना प्रकाशन,रेवती कुंज,हापुड़ 245101,फोन-7017437410
लेखक सम्पर्क : 9412921293
प्रथम संस्करण : 2021
प्रस्तुति : मनोहर चमोली ‘मनु’