किताब का आवरण और किताब का शीर्षक भले ही एक नज़र में पाठकों को यह दृष्टि दे जाए कि यह किताब शोधपरक रिपोर्ट का दस्तावेज है। इस किताब में आंकड़े हैं। कुछ गाँव की तथ्यात्मक जानकारी है। लेकिन पाठक जैसे-जैसे पन्ने उलटता-पलटता है तो उसे लगने लगता है कि नहीं यह मात्र शोध कार्य नहीं है। यह किताब मात्र शोधार्थियों के लिए नहीं है। पुस्तकालयों में खपाने और सजाने वाली किताब मात्र नहीं है। शनैः शनैः पाठक जब कुछ पन्ने पढ़ने लगता है तो उसे इस किताब में संस्मरण, आत्मकथ्य, विवरणात्मक शैली, यात्रा वृतान्त के साथ-साथ गांवों के ही नहीं व्यक्तियों के रेखाचित्र भी मिलने लगते हैं।
जी हाँ। मैं तीन दशक के अंतराल की दो शोध यात्राओं पर आधारित किताब ‘ उत्तराखण्ड का पर्वतीय समाज और बदलता आर्थिक परिदृश्य’ की ही बात कर रहा हूँ।


जनवरी 1986 से जून 1986 के मध्य अब उत्तराखण्ड में शामिल 76 गाँवों की यात्राओं को एक बार फिर तीस साल बाद यानि अक्तूबर 2016 से मार्च 2017 के मध्य उन्हीं गाँवों तक की गई यात्राओं का जीवंत चित्रण एक किताब में मिल जाए तो यह छोटी बात नहीं है। हालांकि तीस साल के अंतराल पर पहले ये यात्री सात से दो ही रह गए। लेकिन छिहत्तर गाँव में फिर से सैंतीस गाँव में तीस साल बाद पहुँचना अपने आप में उल्लेखनीय कार्य ही है।


यायावर प्रदीप टम्टा, प्रो.मनोज कुमार अग्रवाल, डॉ.दीवान नगरकोटी, मंगल सिंह ‘उत्तराखण्डी’ अब दिवंगत हरिशंकर तिवारी के साथ अरुण कुकसाल और चंद्रशेखर तिवारी 1986 की यात्रा में साथ थे। तीस साल बाद यानि 2016-17 में दो यात्री अरुण कुकसाल और चंद्रशेखर तिवारी ने फिर से मोर्चा संभाला।
यह किताब कई मायनों में बेहद महत्वपूर्ण बन पड़ी है। तीस साल में पर्वतीय समाज कहाँ से कहाँ पहुँचा है? इस बात की पड़ताल और झलक इस किताब से मिल सकती है।


अविभाजित उत्तर प्रदेश में आज का उत्तराखण्ड पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था। उसमें भी एक ओर विभाजन था-पर्वतीय जिले।
जब यह यात्रा 1986 में की गई थी उसके 14 साल बाद नया सूबा उत्तराखण्ड बना। उत्तराखण्ड बनने के 6 साल बाद का बदलाव भी इस किताब में देखा जा सकता है। यदि बदलाव को विकास की दृष्टि से देखा जाए तो गाँवों के विकास के लिए रुपयों/बजट की मात्रा बढ़ी ही है कम नहीं हुई।


इस किताब को वर्तमान में पढ़ते समय पाठक तीन तरह का विश्लेषण कर सकता है। आज 2021 की सूरत-ए-हाल के बरअक्स 6 साल पहले गाँवों की सूरत क्या थी? और उन्हीं गाँव की सूरत 35 साल पहले क्या थी?
किताब में उत्तराखण्ड के 10 जिलों के 14 विकासखण्डों के 76 गाँवों से सूबे के हालात का मोटा-माटी जानकारी मिल सकती है। यह बड़ी बात है।
देखा जाए तो यह किताब न सिर्फ जानकारों के लिए ही नहीं अनजान पाठकों के लिए भी बहुत खास बन पड़ी है। किताब मात्र गांवों का कच्चा चिट्ठा नहीं है न ही तथ्यों-आंकड़ों का पुलिंदा है। किताब में तो जगह-जगह की माटी की खुशबूएं हैं। लोक जीवन है। व्यक्तियों की चर्चा हैं। राजा-रजवाड़ों से लेकर प्रकृति की खासमखास जानकारियां हैं। राज्य के महान व्यक्तित्वों की चर्चा है। सूबे की समस्याएं भी हैं तो सूबे की खूबियां भी इंगित हैं। रहन-सहन,खान-पान,तीज-त्योहार के साथ ऐतिहासिक,सांस्कृतिक,सामाजिक,कृषि और रोजगारोन्मुखी सुझाव भी हैं।


इस किताब में अरुण कुकसाल और चन्द्रशेखर तिवारी का अनुभव भी लगभग चार हजार शब्दों में शामिल है। वह भी बेहद पठनीय,मननीय और चिन्तनीय भी है। लेखक एवं यात्रीद्वय ‘कहो! कैसे हो पहाड़’ के तहत बहुत सारी बातें रेखांकित करते हैं। कुछ बानगी-
‘कुल मिलाकर यह कहना होगा कि पहाड़ों में सड़कों के जाल ने गांवों तक सम्पर्क सुविधाओं का विस्तार कर दिया है। गांव में अब सड़क से सटाकर ‘नीचे दुकान-ऊपर मकान’ बनाने की प्रवृति बढ़ती जा रही है। यथार्थ में मोटर सड़कों ने गांवों का सामाजिक,सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनैतिक परिदृश्य ही बदल डाला है। बिडम्बना यह है कि पहाड़ी गांवों में पहुंचना तो आसान हो गया है परन्तु ग्रामीण जीवन और जीवकोपार्जन के हालात नहीं सुधरे हैं। गांवों में सुविधाओं का विकास और विस्तार हुआ है, लेकिन जीवनीय संसाधनों में कमी देखने में आई है। जीवनीय संसाधनों में कमी आने से इन्हीं सम्पर्क सड़कों के जरिए ग्रामीण लोग मैदानों की ओर अधिक संख्या में पलायन करने लगे हैं। गम्भीर बात यह है कि यह पलायन अस्थाई नहीं, वरन् हमेशा के लिए गांवों से विदा लेने की मानसिकता के साथ नजर आने लगा है।’
‘स्थानीय लोगों की जागरूकता और अपेक्षाओं का स्तर उक्त सुविधाओं के वर्तमान स्तर से कहीं अधिक है। गांवों में लोग बदहाल शिक्षा व्यवस्था व लचर स्वास्थ्य सेवाओं की समस्याओं से सर्वाधिक त्रस्त हैं। नतीजन, ग्रामीणों का इनके प्रति मोहभंग हो रहा है।’
‘राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड के मैदानी नगरों (देहरादून, हल्द्वानी, कोटद्वार, टनकपुर, रुद्रपुर, रामनगर, विकासनगर आदि) में बहुतायत ग्रामीणों की बसने की अभिरुचि कदाचित इन्हीं वजहों से बढ़ रही है।’
‘हमारा मानना है कि इन गांवों में विगत तीस सालों में कृषि और पशुपालन में 70 प्रतिशत की कमी आई है। पशुपालन जो कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मूल आधार था, वह अब हाशिए पर आ गया है। पशुओं में भैंस और बैलों की संख्या विगत तीस सालों में मात्र 20 प्रतिशत के करीब रह गई है।’
अब किताब की मूल आत्मा की ओर लौटते हैं। वह है प्रस्तुतिकरण। कुछ बानगी-
‘देर शाम चकराता (2250मी.) पहुंचे। अंग्रेजों द्वारा इस खूबसूरत हिल स्टेशन पर सैनिक छावनी बनाई गई थी। तीस साल पूर्व के सर्वे में हम सरदार जी के होटल में ठहरे थे तब एक दिन का किराया 20 रुपए था। पूर्व की यात्रा रिर्पोट में हमने लिखा था ‘ समुद्रतल से लगभग 2250 मी. की ऊंचाई पर बस हुआ चकराता बहुत रमणीक स्थान है। चीड़, बांज, देवदार के घने जंगल के बीच बस स्टेशन के समीप चाय की दुकान है। पूछने पर पता चलता है कि बाजार यहां से लगभग 1 किमी. ऊपर की ओर है।’


‘बिशोई जौनसार का विख्यात गांव है। महासू देवता का यहां पर प्राचीन मंदिर है जिसे कुछ वर्षों से भव्य रूप दिया जा रहा है।’
‘हिंडोलाखाल जाते हुए सड़क के दोनोंओर सूखे खेत और वीरान पड़े डांडे नजर आ रहे हैं। दुकान के उपयोग के लिए बनाये गए भवन अपनी दयनीय स्थिति को बयान कर रहे हैं।’
‘माना जाता है कि सन 1512 ई. में चांदपुर गढ़ के राजा अजयपाल ने 52 गढ़ों को एकसूत्र में मिलाकर गढ़वाल राज्य की स्थापना की और उसकी प्रथम राजधानी देवलगढ़ में स्थापित की थी।’
‘सुबह 8 बजे श्रीनगर से पौड़ी की ओर चलना हुआ। श्रीनगर से पौड़ी 30 किमी. है। पौड़ी नगर को सन् 1969 में गढ़वाल मंडल का मुख्यालय बनाया गया। ब्रिटिश गढ़वाल के नाम से यह नगर जिला मुख्यालय 1840 में बन गया था।’
‘कर्णप्रयाग से ग्वालदम 70 किमी के करीब है। 30 साल पहले इधर की सड़क पर चलना जान जोखिम में डालने जैसा ही था। यद्यपि अब काफी सुधार आया है। वर्ष 2013 की आपदा के कारण इस इलाके में सबसे ज़्यादा सड़के ही क्षतिग्रस्त हुई थी, जिसके निशान अभी तक हैं। कर्णप्रयाग से 7 किमी पर सिमली है।’
‘गरुड़ से कौसानी 15 किमी है। सड़क के दोनों ओर की जगहें अब नये-नये टूरिस्ट रिसॉट और चाय बागानों में बदल गई हैं। रास्ते में लौबांज और द्योराड़ा (बारिश से खिसका हुआ)गांव आते हैं। यहां की लाल गडेरी और लाल मूली प्रसिद्ध है।’


कुल मिलाकर पढ़ने-लिखने,नया जानने-समझने, घुमक्कड़ी वाले पाठकों को भी यह किताब पसंद आने वाली है। अलबत्ता काफी मेहनत से बनाए गए रेखाचित्र प्रकाशीय नासमझी के कारण बेहद फीके और महत्वहीन हो गए हैं। इस पर ध्यान देने की ज़रूरत थी। पेज डिजायन भी अच्छा है। काग़ज की ठीक-ठाक है। आवरण में व्यावसायिक दक्षता की कमी साफ दिखाई देती है। किताब का नाम और भी लुभावना रखा जा सकता था। ‘कहाँ पहुँच चुके हैं गाँव‘, ‘गाँव तब और तीस साल बाद’ जैसे शीर्षक हो सकते थे। मौजूदा शीर्षक नीरस है और किताब की ओर कोई ललक पैदा नहीं करता। प्रकाशकों में अभी वह पेशेवर दृष्टि नजर नहीं आती जो किसी भी किताब की असल तसवीर पाठकों के समक्ष पैदा कर सके।


किताब : उत्तराखण्ड का पर्वतीय समाज और बदलता आर्थिक परिदृश्य
लेखक : अरुण कुकसाल एवं चन्द्रशेखर तिवारी
मूल्य : 180
पृष्ठ : 166
वर्ष : 2021
आवरण : अजय कन्याल-अमित साह
रेखांकन : नंदकिशोर हटवाल-निधि तिवारी
प्रकाशक : दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र एवं समय साक्ष्य
लेखक सम्पर्क : 9412921293,9410919938
प्रस्तुति : मनोहर चमोली ‘मनु’
सम्पर्क : 7579111144

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By manohar

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