बिगड़ते हुए बनने की ज़रूरत: शेखर पाठक के व्याख्यान पर केंद्रित

बिगड़ते हुए बनने की ज़रूरत किताब महज़ शेखर पाठक का व्याख्यान मात्र नहीं है। यह एक दस्तावेज़ बन पड़ा है जो सत्य, कथ्य और तथ्य पर आधारित है। अध्ययन और संकलन से उपजा है।


आज से छब्बीस-पच्चीस साल पहले की बात थी। माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पाठ्यपुस्तकों में पर्यावरण के मुद्दों को समाहित करना था। भीमताल डायट में पहली बार तब शेखर पाठक को सुना था। वे प्रायः अपने संबोधन को एक दस्तावेज की तरह तैयार करते हैं। पूरी तैयारी के साथ बातों को, सन्दर्भों को इतिहास-भूगोल के साथ जोड़ते हैं। यही नहीं वह समकालीन और तत्कालीन राजनीतिक संदर्भों को तथ्य के साथ ऐसे रखते हैं कि श्रोता उस दौर में पहुँच जाता है।


बहरहाल, सुप्रसिद्ध वक्ता, लेखक, संपादक शेखर पाठक इतिहास के अध्येता है। पहाड़ प्रकाशन के बैनर तले उन्होंने हिमालयी विरासत, संस्कृति, विभूतियों को विश्व पटल पर प्रस्तुत करने का महती कार्य किया हैं। यह पुस्तक चन्द्रकला जोशी-शेखर जोशी स्मृति न्यास के तत्वाधान में नवारुण ने प्रकाशित की है।


दरअसल यह किताब चंद्रकला जोशी-शेखर जोशी स्मृति व्याख्यान-1 का संकलन है। शेखर पाठक ने यह व्याख्यान नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में दिया था। इस विद्यालय में लगभग 1300 विद्यार्थी पढ़ते हैं। यह 4 अक्तूबर 2024 की बात है। उत्तराखण्ड के जिला ऊधमसिंह नगर के नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के संस्थापक डॉ॰ कमलेश अटवाल ने विद्यार्थियों के लिए एक अलग तरह का मंच उपलब्ध कराया है। यह स्कूल नर्सरी से बारहवीं तक संचालित होता है। अटवाल जी बताते हैं कि यह विद्यालय सामूहिक प्रयास है जिसे देश के अलग-अलग हिस्सों के संस्थानों और लोगों ने बनाया है, और जिसे अभी भी बनाया जा रहा है। इस विद्यालय के बारे में विस्तार से अलग से चर्चा करने का मन है।


खैर, संभवतः नवीं से बारहवीं के विद्यार्थियों के मध्य यह व्याख्यान रहा। शेखर पाठक ने इस व्याख्यान के केन्द्र में उन्हें रखा जिनकी जिन्दगियाँ कठिन रहीं। सभी गरीबी और गर्दिश में गुजरे। तमाम ठोकरें खाने का उन्हें मौका मिला। सभी बहुत मेहनती थे। महत्त्वाकांक्षी भी थे और उड़ने को बेकरार। अध्ययन और अध्यवसाय के साथ ज़िन्दगी के अनुभवों ने इन्हें तमाम पाठ पढ़ाये। ये संघर्ष और प्रयोगशीलता या सृजनशीलता के बीच संतुलन बनाये रहे। शेखर पाठक ने विलियम मूरक्राफ्ट, एलैक्जैण्डर सोमा द कोरोस, नैन सिंह रावत, जयानन्द भारती, राहुल सांकृत्यायन, सरला बहन, शेरपा तेन्जिंग नोर्गे, बिस्मिल्लाह खाँ, नारायण सिंह थापा, शैलेश मटियानी, खड्ग सिंह वल्दिया, कबूतरी देवी बारह शख्सियतों के बारे में व्याख्यान दिया।


व्याख्यान देने से पूर्व शेखर पाठक ने कहा है-‘‘प्रतिभाओं की ऐसी सघन उपस्थिति कम जमानों में हुई होगी। इन सभी के कठिन या कम कठिन या द्रवित करने वाले बचपन रहे। कोई बच्चा मनपसन्द बचपन नहीं चुन पाता है। उसे परोसा हुआ बचपन झेलना होता है। इसे झेलने से इन्कार करना नई पगडंडियाँ सुझा सकता है। ये पगडंडियाँ, नये शिखरों तक और अनेक बार दर्रों के पार तक ले जाती हैं। ये आपको क्षेत्र से राष्ट्र से बाहर निकाल पृथ्वी माँ का बेटा बना सकती हैं। अपनी माँ, इलाके और देश के बाद आज पृथ्वी माता के बच्चे बनने की चुनौती है। आज धरती की सम्पदाओं की लूट, दोहन और बाजार का वैश्वीकरण हो रहा है। नस्लवाद, साम्प्रदायिकता, जातिवाद और संकुचित क्षेत्रवाद की सोच कहीं से भी कम नहीं हो रही है। जलवायु बदल और एआइ के खतरे राष्ट्र-राज्यों के नियंत्रण से बाहर हैं। ऐसे में प्यार और संवेदना, सम्वाद, भाईचारा तथा पृथ्वी के सभी संसाधनों की साझा हिफाजत को वैश्विक बनाने की कोशिश जरूरी जान पड़ती है। आप चाहेंगे तो इस तरफ जा सकेंगे। हमारी और हमसे पीछे की पीढ़ियाँ सपने बुनते रह गईं। अब इन जिन्दगियों और उनके द्वारा किए गए कामों की तरफ नजर डालते हैं।’’


यह बताना जरूरी होगा कि किताब के तौर पर यह नीरस जीवनी जैसा नहीं आया है। यह अच्छी बात है। इंटरनेट पर या किताबों पर इन सब पर जो कुछ उपलब्ध है उससे हटकर और रोचक, जानने लायक बातें यहाँ शामिल हैं। दुलर्भ फोटोज़ हैं। कुछ दस्तावेज हैं।
एक बानगी किताब से-


पिता द्वारा पैदा की गई विपत्तियों के साथ अपने भूगोल की दुर्गमता को चुनौती देने वाले जसूली तथा अमर सिंह लाटा के बेटे नैन सिंह रावत (1830-1882) तमाम कामों में असफल होते रहे। भागकर मिलम से माणा गए और उमती से विवाह कर घर जमाई बने। लौटकर आने का साहस किया। पशुचारण तथा व्यापार में रमने की कोशिश करने और असफल होने के बाद 1856 में जर्मनी से आए हुए तीन अन्वेषक श्लाजिंटवाइट भाइयों के अभियान में जाना उनके जीवन को बदलने वाला सिद्ध हुआ। पर नैन सिंह को इन अन्वेषक भाइयों द्वारा पसन्द किए जाने के बावजूद चचेरे भाई और अभियान प्रबन्धक मानी सिंह श्कम्पासीश् के कहे अनुसार अभियान छोड़कर भागना पड़ा। श्लाजिंटवाइट उसे इग्लैण्ड ले जाना चाहते थे पर मानी को यह बात पसन्द नहीं आई।

1858 में नैन सिंह को एक अधिकारी हेनरी स्ट्रैची कुली-गाइड बनाकर बागेश्वर से कई गलों में ले गये। उनकी कर्मठता और उत्सुकता स्ट्रैची को भा गई। स्ट्रैची ने अल्मोड़ा जिले के शिक्षा अधिकारी वैबैट को नैन सिंह के बाबत बताया। उन्हें बिना किसी स्कूल में शिक्षित हुए ही अध्यापक बनने का सौभाग्य मिला। उन्होंने पहले जोहार और फिर दारमा (धारचूला) के बच्चों को 1859 से 1862 के अन्त तक शिक्षित किया। यह बहुत मेहनत और समर्पण भरा काम था।

अध्यापकी के वेतन से पुराना कर्जा न चुका पाने की व्यथा स्मिथ को बताने से 1863 में सर्वे विभाग में शामिल होने का रास्ता खुला। हिमालय पार सर्वे के लिए तिब्बती नाक नक्श वाले और भाषा से सुपरिचित हिमालयी नौजवानों की खोज भी हो रही थी। शिक्षा अधिकारी स्मिथ उनके मददगार बने। अंग्रेज अधिकारी नैन की प्रतिभा को जल्दी ही पहचान गए। दो साल से कुछ कम समय वह सर्वे दफ्तर में प्रशिक्षित किये गये। उन्हें 100 दानों वाली माला के मनकों और मणि चक्र के साथ कदम गिनना सिखाया गया और अजनबियों से सहज सम्वाद करना भी। नैन के एक कदम की औसत लम्बाई 31.5 इंच थी और उनके 2000 कदम एक मील तय करते थे।


किताब में इन शख्सियतों के चिर-परिचित और दुर्लभ चित्र भी हैं। बस ! विषय सूची किताब में नहीं है। पेज 2 खाली क्यों छोड़ा होगा? पता नहीं। एलैक्जैण्डर सोमा द कोरोस, बिस्मल्लाह खाँ, कबूतरी देवी, लक्ष्मी आश्रम, कौसानी का चित्र बेहतर ढंग से छप सकता था। छपाई अच्छा है। कागज बढ़िया है। कवर पेज की गुणवत्ता भी बेहतरीन है।

सन् 1767 से लेकर 2008 के कालखण्ड से चुने हुए जनसंघर्षकारों को इस तरह से सामने लाना प्रशंसनीय है।


किताब: बिगड़ते हुए बनने की ज़रूरत
व्याख्याता: शेखर पाठक
प्रकाशक: नवारुण
मूल्य: 50
पृष्ठ संख्या: 64
पहला संस्करण: 4 अक्तूबर 2024
पुस्तक के लिए संपर्क: 9811577426

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By manohar

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