चनक्या : कहानी
किसी ने धाद दी। चनक्या ने सुना। उसने हथेली दायें कान पर लगा दी। जवाब में चनक्या भी भटयाणे लगा,‘‘हाँ ओ। रे, हो।।’’ धाद लाखी ने दी थी। लाखी हाँफते हुए पहाड़ी के तप्पड़ पर आ पहुँचा। एक परदेसी भी साथ था। वह लाखी के पीछे दौड़ता हुआ-सा चला आ रहा था। चनक्या को देखते ही लाखी ने कमर पर हाथ रख लिए। दम लेने लगा। जब सांस धीमी हुई, वह तब बोला,‘‘ओ चनक्या। अजकाल तेरे पास कितने जीवन हैं रे?’’ चनक्या ने जवाब दिया,‘‘पच्चीस-बीस ढेबरे और दस-आठ बाखरे हैं।’’ लाखी ने पीछे मुड़कर देखा। उसे हाथ के इशारे से बुलाया। चनक्या और लाखी बात करने लगे।
‘‘मुझे तो ज़्यादा दिखाई दे रहे हैं।’’ लाखी हैरान था। चनक्या ने लंबी सांस लेते हुए बताया,‘‘तीन-एक तो बाघ के लिए रख छोड़े हैं। सात-पाँच बिकाई के लिए हैं। उन्हें क्यों गिनना ठैरा?‘‘ लाखी ने हाँ में सिर हिलाया। कहा,‘‘फिर भी तू बहुत कम बता रहा है। बाखरे-खाडू ही बीस से ऊपर हैं। तू पच्चीस-बीस क्यों बोलता है? बीस-पच्चीस बोला कर।‘‘ चनक्या ने आसमान की ओर देखा। दाएं हाथ की अँगुलियाँ घुमाने लगा। मानो आकाश स्लेट हो और अँगुली उसकी खड़िया। कहने लगा,‘‘बड़े जीवनों को पहले ही तो गिनूँगा। बड़ों की पूछ करो तभी कुनबा बढ़ता है। बड़े-बूढ़े तो पुराने ढुंगे हो जाते हैं। नामालूम कब लुढ़क जाएँ। उन्हें भी क्या गिनना!‘‘ लाखी ने गरदन झटकते हुए बताया,‘‘तेरे पास बीस-पच्चीस से ज्यादा तो ढेबरी और बाखरी ही हैं।’’
चनक्या ने जोर देकर कहा,‘‘ढेबरी-बाखरी तो जननी हैं। मैं उन्हें कभी नहीं बेचता।’’ यह कहकर चनक्या रेवड़ की बकरियों-भेड़ों को देखने लगा। वहीं परदेसी की साँसें अभी भी तेज चल रही थी। वह किसी तरह से इतना ही बोल पाया,‘‘मुझे सारे बकरे खरीदने है। दाम बता।’’ चनक्या ने बताया,‘‘दो ही दे सकूँगा।’’ परदेसी बोला,‘‘नहीं। सारे दे दे।’’ चनक्या ने एक पल की भी देरी नहीं की। जवाब दिया,‘‘क्या ढेबरा और क्या बाखरा! बाघ के लिए हर कोई शिकार है। सारे बाखरे तुम्हें दे दूँ लेकिन मेरा कुनबा थम गया तो? एक-दो बाखरे तो हर साल ढंगार से गिर जाते हैं। देबी-देबत्यों को भेंट में बकरा चढ़ाने वाले बहुत हैं। कोई आया तो उन्हें क्या दूँगा?‘‘ परदेसी ने जेब से रुपए निकालते हुए कहा,‘‘अरे छोड़। जो दाम चाहिए। बोल।’’ चनक्या रेवड़ को हांकता हुआ आगे बढ़ गया। परदेसी हैरान था। उसने लाखी से कहा,‘‘ये क्या आदमी है! लक्ष्मी ठुकरा दी!’’
लाखी ने हथेली माथे पर दे मारी। बोला,‘‘ढेबरिया है। इसके बाप-दादा भी यही काम करते थे। बाल न बच्चे, सारे दिन अच्छे। इन ढेबरियों की दुनिया अलग ही होती है। तुम अपनी सोचो। पैसों की धौंस इनकी जूती में। अब तुम्हें बकरे क्या उनकी बू-बास भी नहीं मिलेगी। चलो। अब पहाड़ी उतरो।’’ परदेसी चनक्या को गौर से देख रहा था। पूछने लगा,‘‘इसकी शादी हो गई?’’ लाखी जोर से हँसा,‘‘ढेबरिया क्या बरनारायण बनेगा? इसने गयेरबारा का मोटर मार्ग तक तो देखा नहीं है। दूल्हे का कोट क्या होता है! इसे क्या पता!’’ परदेसी तो कुछ और ही सोच रहा था। पूछने लगा,‘‘इसके आगे-पीछे कोई नहीं है? तब भी इतना बड़ा रेवड़ बढ़ा रक्खा हैगा?’’
लाखी और परदेसी बात करते-करते उलटे पांव लौट गए। चनक्या को उनकी बातें पहाड़ से उतरती हुई नज़र आ रही थीं। पहाड़ी तप्पड़ पर सांय-सांय करती हवा के साथ चनक्या अकेला रह गया। उसने दोनों हथेलियों को होंठों के दोनों ओर रखा। लाखी और परदेसी अब उसे दिखाई नहीं दे रहे थे। वह चिल्लाया,‘‘भै-बन्दो! क्या कोई ढेबरिया बरनारायण नहीं बन सकता? नहीं बन सकता तो न बने। लेकिन वह कोट ज़रूर पहन सकता है। मैं कोट सिलवाऊँगा और कोट पहनकर अपना रेवड़ संभालूँगा।’’ लाखी और परदेसी की बातचीत उसके कान में जाकर बैठ गई थी। चनक्या भीतर तक हिल गया था। उसकी जिकुड़ी बैठ गई। बस फिर क्या था। चनक्या सब कुछ भूल गया। लेकिन उसे कोट याद रहा। वह बुदबुदाया,‘‘चाहे कुछ भी हो। देस जाकर कोट के लिए कपड़ा खरीदना है। दर्जी से सिलवाना है।’’
चनक्या ने स्कूल का मुँह नहीं देखा था। देखता भी कैसे! तब उसे धौली, गौरी, हिंवाली और गागरी कौन पार कराता। गेहुआ रंग, लंबा-चौड़ा कद। काले-घने घुंघराले बाल वाला चनक्या कभी-कभार ही गयेरबारा की पहाड़ी उतरता। गाँव पहुँचता तो लोग-बाग उसे घर का रसद दे देते। वह नमक, तेल, माचिस खरीदता और फिर पहाड़ी तप्पड़ पर लौट आता।
एक दिन लाखी फिर किसी व्यापारी को लेकर आया। चनक्या ने व्यापारी को दो नहीं चार बकरे बेच दिए। लाखी ने पूछा,‘‘चनक्या। इतने रुपयों का क्या करेगा? वो भी नकद! तेरा ओढ़ने-बिछाने का तो कोई ठौर नहीं है। रुपए कहाँ धरेगा?’’ चनक्या ने रुपए डांगरी के खिसे में रखते हुए जवाब दिया,‘‘यहाँ रखूँगा।’’ व्यापारी चार बकरों को लेकर पहाड़ी उतरने लगा। वह भागा, जैसे फुटबाल ढलान की ओर लुढ़कती है। चनक्या उसे भागते हुए देख रहा था। वह जोर-जोर से हँस रहा था। लाखी बोला,‘‘सहारनपुर से गयेरबारा पहुँचने में पन्द्रह घंटे लगते हैं। व्यापारी का ठेला सड़क पर खड़ा है। वहाँ पहुँचने में उसे एक घंटा लगेगा। कहीं तू सौदा रद न कर दे। इसलिए वह उलटे पाँव दौड़ रहा है। तू भी गाँव से ठेठ दूर इस पहाड़ी में दिन भर कैसे रहता है? क्या तूझे भूख-तीस नहीं लगती? तिरपाल के तंबू में जाड़ा नहीं लगता?’’ चनक्या ने खिसे से पाँच सौ का एक नोट निकाला। लाखी के हाथ पर रख दिया। फिर वह अपने रेवड़ में जाकर घुल-मिल गया।
आज पूर्णिमा का चाँद आसमान पर था। चनक्या ने झोला-डण्डा उठाया। एक-एक बकरी की गरदन थपथपाई। अपना ख़याल रखना। जैसे यह कह रहा हो। वह फिर पहाड़ी उतरकर गाँव से होता हुआ गयेरबारा मोटर मार्ग पर जा पहुँचा। उसे तो पहाड़ से मोटर मार्ग साँप की तरह दिखाई देता था। आज वह उसकी पीठ पर चल रहा था। पहाड़ों में रात को मोटर मार्ग सूने रहते हैं। पौ फटते ही आवाजाही शुरू हो जाती है। वह पैदल चलता रहा। रात बीत गई। वह फिर भी चलता रहा। किसी गाड़ी के आने की आवाज़ आ रही थी। उसने हाथ दिया तो गाड़ी रुक गई। ट्रक था। चनक्या ट्रक में चढ़ गया। ड्राइवर ने कहा,‘‘चनक्या तू ! इतनी सुबह-सुबह? मुझे पहचाना? यार, मैं मस्ताना हूँ। एक बार हलीम ठेकेदार के साथ आया था। तू गयेरबारा की धार वाली तप्पड़ पर मिला था। भेड़-बकरियाँ चरा रहा था। तूने हलीम को दो ही बकरे दिए थे। मोटे-तगड़े। वैसे, तेरी तैयारी?’’ चनक्या ने हाँ में बस सिर ही हिलाया। मस्ताना ने पूछा,‘‘थैले में बकरी के बच्चे तो नहीं हैं? गाड़ी में चौपाया ले जाना मना है। चालान कट जाता है।’’ चनक्या ने बताया,‘‘नहीं कोई जीवन मेरे साथ नहीं है। मुझे अपने लिए कोट सिलवाना है।’’ चनक्या जानता था कि डांगरी से ही नहीं उसके बदन से भी बकराण आती है।
मस्ताना बोला,‘‘पलटन बाज़ार। मैं उसके नजीक ही जा रहा हूँ। रतब्याणी का टैम हुआ है। ब्यखुनी तक पहुँचेंगे।’’ गयेरबारा से देहरादून तेरह घण्टे का सफर रहा। वे बतियाते रहे। दो-एक जगह चाय पी। तीन धारा में खाना खाया। जैसे ही ट्रक पर बैठे। चनक्या बोला,‘‘ककड़ी, भाँग और जख्या से बना पीला रायता बरसों बाद खाने को मिला।’’ मस्ताना हँस दिया। ट्रक के साथ बातें भी चल रही थीं। कोट का किस्सा सुनकर मस्ताना ने कहा,‘‘हम ड्राइवरों की सारी जिनगी तो स्टेयरिंग घुमाते-घुमाते कट जाती है। नींद भी गड्डी में ही पूरी कर लेते हैं। तू तो बहती नदी है। मस्त रह। अरे! कोट का दम-खम तेरे खाडू-बाखरे तो देखेंगे। मेरी मान एक नहीं दो कोट सिलवाना।’’
देहरादून पहुँचे तो शाम ढल चुकी थी। मस्ताना ने ब्रेक लगाए। बताया,‘‘ये रहा पल्टन बाज़ार। जा। मनपंसद कपड़ा खरीद। यहाँ कई टेलर हैं। नाक की सीध में जाना। यही रास्ता सीधे प्रिंस चौक जाता है। वहां कई होटल-धरमशालाएं हैं। कहीं भी एक कमरा कर लेना। रात को खा-पी कर सो जाना। सुबह यहीं आ जाना। वापसी साथ हो जाएगी। ध्यान रखणा, सात बजे से पहले अइयो।’’ चनक्या उतरा तो मस्ताना ने अपना ठेला आगे बढ़ा दिया। पलटन बाज़ार रंगीली-पीली रोशनी में नहा चुका था। चमचमाती, सजी-धजी चुंधियाने वाली दुकानें देखकर चनक्या हैरान था। उसने एक दुकान से काले रंग का कपड़ा खरीदा। फिर वह एक दर्जी की दुकान में घुस गया।
चनक्या को देखकर दर्जी चौंक गया। उसने नाक-भौं सिकौड़ी। यह आदमी भेड़-बकरियाँ ले आया है क्या! दर्जी यही सोच रहा था। तभी चनक्या बोल पड़ा,‘‘कोट सिलवाना है।’’ दर्जी ने हैरानी से पूछा,‘‘किसका?’’ चनक्या ने जवाब दिया,‘‘अपना। ये लो कपड़ा और सिलाई के रुपए।’’ दर्जी ने पाँच सौ के नोट गिने। वे आठ थे। बोला,‘‘कोट की सिलाई दो हजार है। बाकि ये रुपए वापिस रखो। वैसे तुम कहाँ से आ रहे हो?’’ चनक्या ने एक सांस में बता दिया,‘‘पिण्डर घाटी से आया हूँ। मैं पालसी हूँ। बुग्यालों में रहता हूँ। बोगट्या और खाडू बेचता हूँ। मतलब बकरे और भेड़ा।’’
दर्जी मुस्कराया। बोला,‘‘अच्छा। वैसे इस समय तो तुम मेरे ग्राहक हो।’’ दर्जी नाप लेने लगा। चनक्या ने पूछा,‘‘कल सुबह तक कोट मिल जाएगा?’’ दर्जी ने हँसते हुए जवाब दिया,‘‘कल कैसे मिल जाएगा? आज नवम्बर की दो तारीख है। एक महीना लगेगा। दिसम्बर में कभी भी आ जाना। रसीद संभाल कर रखना।’’ चनक्या ने दर्जी से प्रिंस चौक का पता पूछा। फिर वह दुकान से बाहर निकल गया।
सुबह हुई। मस्ताना का ट्रक घण्टाघर चौक पर खड़ा था। उसने कई बार हॉर्न बजाया। साढ़े सात बज चुके थे। दस मिनट रुकने के बाद मस्ताना ने ट्रक बढ़ा दिया। मस्ताना ट्रक चलाते हुए झल्लाया,‘‘कल शाम चनक्या अपना झोला-डण्डा सीट पर भूल गया। किसी लौटते फेरे में गयेरबारा की धार जाना पड़ेगा। इस बहाने देख भी लूंगा कि कोट पहनकर चनक्या कैसा लग रहा है!’’
फिर एक दिन की बात है। मस्ताना का ट्रक गयेरबारा जाने वाली सड़क पर दौड़ रहा था। गयेरबारा की धार आई तो मस्ताना ने ट्रक एक किनारे खड़ा कर दिया। चनक्या का झोला-डण्डा सीट के नीचे रखा था। उसने झोला-डण्डा निकाला और गयेरबारा की धार चढ़ने लगा। गाँव पार किया। पानी का धारा आया। उसने पानी पिया। गाँव का सरपंच मिल गया। चनक्या के बारे में पूछा तो जवाब मिला,‘‘चनक्या का ठिया तो डांडा के तप्पड़ में ही है। वो इधर गाँव में कम ही आता है। महीना भर से तो मैंने भी उसे नहीं देखा।’’ मस्ताना आगे बढ़ गया। जैसे-तैसे तप्पड़ पर पहुँचा। यह क्या! भेड़-बकरियाँ मिमियाते हुए उसकी ओर आने लगीं। मस्ताना चनक्या के रेवड़ से घिर गया। मस्ताना बुदबुदाया,‘‘तो क्या इस झोले-डण्डे में चनक्या की खुशबू है?’’
मस्ताना ने तप्पड़ के दो चक्कर लगाए। खड़ीक का पेड़ था। उसके नीचे एक तिरपाल बिछी थी। कुछ बरतन थे। गांधी आश्रम की रजाई लिपटी हुई रखी थी। एक कंटर था। कंटर में माचिस, तेल की शीशी, नमक की थैली थी। बस! चनक्या नहीं था। उसने चनक्या का झोला-डण्डा वहीं रख दिया। वह वापिस धार उतरने लगा। उसे पिण्डर घाटी पहुँचना था। चनक्या कहाँ गया? क्या वह देहरादून में ही रह गया? वह तो कोट सिलवाने गया था! वह इन सवालों में खो गया। अब वह गयेरबारा गाँव से गुजर रहा था। कोई चिल्लाया,‘‘क्या चनक्या ने अपना रेवड़ बेच दिया?’’ मस्ताना जैसे सोकर जागा हो। उसने पीछे मुड़कर देखा। गयेरबारा की धार से ढलान पर सफेद-काली भेड़ उतर रही थी। मस्ताना को लगा कि फेन बह रहा हो। चनक्या का रेवड़ उसके पीछे-पीछे आ रहा था।
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-मनोहर चमोली ‘मनु’,गुरु भवन,पौड़ी,246001.उत्तराखण्ड, सम्पर्क : 7579111144