‘‘बड्डन भाई नमस्ते।’’ राखी नेे भाई को फोन किया।

बलदेव सबसे बड़ा था। बचपन में उसे प्यार से बड्डन कहते थे। मनोज मंझला था, तो प्यार-दुलार में उसे मुंज्जे कहा जाने लगा। छोटेलाल भाईयों में छोटा था, तो वो छुट्टन हो गया। राखी, राखी ही रही। उसका प्यार का नाम नहीं रखा गया। आखिर वो तीन भाईयों के पीछे जो हुई थी। तब तक शायद घर के बड़े-बूढ़ों का प्यार बंट चुका था।


बड्डन ने राखी की बात का जवाब देते हुए कहा-‘‘नमस्ते-नमस्ते। और….क्या हो रहा है राखी?’’


‘‘बस कुछ नहीं। सब ठीक है। वो…मां तीन दिनों से फोन नहीं उठा रही। तुम्हारी बात हुई?‘‘ राखी ने पूछा।


‘‘अब क्या हुआ उन्हें? सात-आठ दिन पहले तो मेरी बात हुई थी।’‘ बड्डन की झुंझलाती हुई आवाज राखी ने सुनी।


‘‘सात-आठ दिन और आज-कल में फर्क होता है भाई। मां की तबियत ठीक कहां रहती है। जानते तो हो। अब मां फोन नहीं उठा रही है तो मैंने सोचा कि तुम्हें शायद कुछ पता हो। चलो कोई बात नहीं। मैं मुंज्जे को पूछती हूं। नमस्ते भाई।’’


यह कहकर राखी ने फोन रख दिया। राखी की उलझन बढ़ने लगी। अब राखी ने मुंज्जे को फोन किया। मुुंज्जे ने फोन पर पूछा-‘‘हॉ राखी बोल। कैसी है?’’
‘‘मैं तो ठीक हूं। मां से बात हुई?’’ राखी ने मुंज्जे से पूछा।
मुंज्जे ने याद करते हुए जवाब दिया-‘‘कई दिन हो गए। क्यूं क्या हुआ?’’
‘‘मां तीन दिनों से फोन नहीं उठा रही है। मुझे तो घबराहट हो रही है।’’ राखी ने मन की बात कह दी।
‘‘अरे! तो क्यों परेशान हो रही हो। वहॉ मौसम गड़बड़ होगा।’’ मुंज्जे ने आसानी से कह दिया।
‘‘नहीं मुंज्जे। मौसम की बात नहीं है। मौसम तो आते-जाते रहते हैं। मुझे तो कुछ गड़बड़ लग रही है। कहीं मां…। मुझे लगता है वो परेशान है। या……’’ राखी ने इतना ही कहा था कि उसके कानों में मुंज्जें की झल्लाहट जोर से आ पड़ी। ‘‘या-वा को छोड़ो। आस-पड़ोस में फोन कर लो।’’


राखी ने भी तत्काल जवाब दिया-‘‘नहीं भाई। मॉ चिढ़ती है न। कहती है कि यहॉ-वहॉ फोन मत किया करो।’’ फिर उदासी से और गहरी सांस छोड़ते हुए राखी ने कहा-‘‘अरे। भाई। लोगों को हमारी बात मां तक पहुचाने में दिक्कत जो होती है। जानते तो हो कि गांव में हमारा घर आबादी से थोड़ा दूर है।’’


मुंज्जे को जैसे बात करने में परेशानी हो रही थी। बोला-‘‘अच्छी तरह जानता हूं । तो। क्या करना है? मेरे पास तो छुट्टी भी नहीं है। बड्डन भाई को फोन करती न। शायद उसे पता हो।’’


राखी ने जोर देकर कहा-‘‘पहले उन्हें ही किया था। चलो कोई बात नहीं।’’
फोन पर दोनों चुप हो गए। मुंज्जे को लगा कि कुछ गलत कह गया है वो। कहने लगा-‘‘छुट्टन को फोन किया……? या मैं करूं?’’ राखी ने बात को संभालना चाहा हो जैसे-‘‘नहीं रहने दो। वो यूं ही परेशान हो जाएगा। चलो ठीक है। मैं ही छुट्टन से पूछ लेती हूं। देखती हूं। उसे क्या खोज-खबर है मां की।’’ यह कहकर राखी ने फोन रख दिया।
अब राखी ने छुट्टन का नंबर मिलाया। छुट्टन ने छूटते ही कहा-‘‘ अरे। राखी। मैं जरा पार्टी में हूं यार। बाद में बात कर लें? चल छोड़। मैं थोड़ी देर में कॉल बैक करता हूं। वैसे सब ठीक तो है न?’’ राखी की आवाज गले में रुक गई हो जैसे। उसे लगा कि कहीं उसने किसी ओर का नंबर तो नहीं मिला दिया। खुद को फोन पर संभालते हुए बोली-‘‘सब ठीक है। कॉल बैक करने की तो तू बात मत कर। रहने दे तू। तेरी कॉल बैक आज तक तो कभी नहीं आयी। आज क्या आएगी। सुन तो…तेरी मॉ से बात हुई इन दिनों?’’


उधर जैसे छुट्टन कहीं भीड़ में हो या उसे कहीं जाने की जल्दी हो रही हो। राखी ने मानो मां के बारे में नहीं किसी दूर के पड़ोसी के बारे में पूछ लिया हो। वह लापरवाही से बोला-‘‘नहीं यार। चल ठीक है। मैं करता हूं न तेरे को फोन थोड़ी देर में। ठीक है। तब बात करते हैं।’’ राखी हैलो-हैलो करती रही। उधर छुट्टन की आवाज फोन के स्पीकर पर आनी बंद हो गई। राखी ने अपने मोबाइल को ऐसे घूरा, जैसे मोबाइल में कोई तकनीकी खराबी आ गई हो। राखी जानती थी कि फोन कटा नहीं था, काटा गया था। वह धीरे से कुर्सी पर बैठ गई। मां की पुरानी तसवीर पर जमी धूल को देखने लगी।


धूल केवल चीजों पर नहीं जमती। हमारे रिश्तों में भी जम जाती है। ऐसी धूल जिसे जमता हुआ हम देख रहे होते हैं। लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाते कि उस धूल को हटा सकें। राखी की उलझन बढ़ती ही जा रही थी। उसने खुद से कहा-‘‘बचपन मंे हम ऐसे तो नहीं थे। चारों भाई-बहिन एक-दूसरे का कितना ख्याल रखते थे। चेहरा देखकर और आवाज की लय सुनकर जान लेते थे कि कोई क्यों परेशान है। किसी की चुप्पी को भांपकर जान लेते थे कि किसके मन में क्या चल रहा है। कौन क्या सोच रहा है। घर के सभी बड़ों की आदतों, रुचियों की हमें सटीक जानकारी रहती थी। लेकिन अब ऐसा क्या हो गया है। हम इतने बड़े कैसे और क्यों हो गये हैं? आज क्यों एक-दूसरे की चिंता को भांप नहीं पा रहे हैं? या भांप कर भी उस चिंता में साझेदारी नहीं निभा रहे हैं।’’ राखी ने कुर्सी छोड़ी और टहलने लगी। उसने फिर मां को फोन मिलाया। घंटी लगातार जा रही थी। उसे घंटी का स्वर बनावटी सा लगा।


कई बार हम किसी अपने को याद करते हैं। मोबाइल पर उस अपने का सुरक्षित नाम देखकर बात करना चाहते हैं। फिर नंबर डॉयल करते हैं तो एक अजीब-सी अनुभूति होती है। कानों पर बजने वाली कॉलर ट्यून हमें बेहद अपनी सी लगती है। ये अपनापन… उसी अपने के फोन के आने पर महसूस नहीं होता, जितना उसे फोन करने से खुद को महसूस होता है। राखी बार-बार मां को फोन मिला रही थी। कान पर सुनाई दे रही मोबाइल टोन… राखी को डरा रही थी। राखी को लग रहा था, जैसे घंटी बार-बार घनघनाते हुए कुछ और ही सुनाना चाहती है। जिसे उसके तीनों भाई सुनना नहीं चाह रहे थे।


राखी ने अपने छोटे बच्चे को सहेली के यहां छोड़ा। पति को मनाया कि मां से शायद ये अंतिम मुलाकात हो। कुछ रुपए और मां की जरूरत का सामान जुटाया। मां की जरूरत का सामान जुटाने में उसे अच्छा-सा लगा। एक ऐसा भाव जो अपने बच्चों के लिए प्यारी चीजे़ं खरीदते समय भी कभी नहीं आया। इन सब झंझावतों में दस दिन और गुजर गए। पौ फटने से पहले ही राखी बस अड्डे पहंुच गई। पहाड़ी गीत उसके कान में बजने लगे। उसे अच्छा लगा। जैसे अपने इलाके में पहुंच गई हो। अचानक उसकी नजर टार्च और पारंपरिक लालटेन पर गयी। दुकानदार बोला-‘‘अब तो टार्च और लॉलटेन का जमाना नहीं रहा बहन जी। मोबाइल में ही टार्च के बराबर रोशनी होती है। चार्जर वाली टार्च ने तो लालटेन और चिमनी वाले लैंप बाजार से बाहर कर दिये हैं। ये लालटेन भी मेरे पास बरसों से पड़ी है। मैं बिका हुआ सामान वापिस नहीं लूंगा।


राखी ने थोड़ी देर सोचा, फिर कहा-‘‘भैया। दे दो। जब तक बड़े-बूड़ें जिंदा हैं, उनके जमाने की चीजांे में ही उन्हें अपनापन नजर आता है। नई तकनीक के चीज़ें कब धोखा दे दें, कुछ पता नहीं। पर ये पुरानी चीज़ें कभी धोखा नहीं देतीं।’’ दुकानदार ने हां में सिर हिलाया। बस चालक ने हार्न बजाया। राखी बस में बैठ गई। देर शाम तक ही मैं मां के पास पहुंचुंगी। राखी ने सोचा।


पहाड़ी रास्तों में चलने वाली बसें भी पहाड़ी हो जाती हैं। कंडक्टर क्या और चालक क्या। सवारियों से घुल-मिल जाते हैं। पहाड़ के बाजार दो-चार दुकानों वाले भी होते हैं। इन छोटे-छोटे स्टेशनों पर सवारी के कहने से पहले ही बस खुद-ब-खुद थम जाती है। इक्का-दुक्का सवारियां या तो उतरती हैं या चढ़ती हैं। शहर से गांव में पहुंचने वाले बाजारी सामान से बस लदी होती है। कौन सा सामान किसका है, किस दुकान के पास उतारना है। कंडक्टर के साथ-साथ सवारियां भी जानती हैं। एक ही रूट पर चलने वाली बसों में बैठने वाली सवारियां भी रूटीन की ही होती हैं। राखी की तरह ऐसी सवारियां कम ही होती हैं जो सालों बाद बस पर बैठ रहे होते हैं।

राखी ने महसूस किया कि सवारियों से लबालब भरी बस को कोई जल्दी नहीं है। कोई भागम-भाग नहीं। सब साप्ताहिक चक्कर लगाते ही हैं। गांव से नाता नहीं टूटा है। आना-जाना लगा रहता है। साठ से सत्तर फीसदी सवारियां एक-दूसरे को जानती हैं। राजी-खुशी पूछ रही हैं। शहर में तो ऐसा नहीं होता। ऑटो हो या बस या रेल। सवारियां एक दूसरे से कहां बतियाते हैं। इस बस में तो पल भर में सवारियां एक-दूसरे से परिचित हो जा रही हैं। बातों-यादों का सिलसिला चल निकला है। कंडक्टर सहित चालक भी उनकी बातों में आनंद ले रहे हैं।


राखी ने देखा कि गांव-दर-गांव पानी आ गया है। बिजली है। कोर बैंकिंग सेवा देने वाले बैंक खुल गए हैं। छिटपुट दुकानें ही सही, लेकिन शहर की दुकानों में दिखने और बिकने वाला सामान यहां भी बिक रहा है। मोबाइल टॉवरों से पहाड़ रंगे हुए हैं। बस में हर पांच-सात मिनट में कोई न कोई मोबाइल घनघना रहा है। वो भी कई बार मां का नंबर मिला चुकी है। कानों में घुल चुकी रिंग टोन सुनकर वह उदास हो रही है। राखी सोच रही है कि काश! उसकी मां भी फोन कर उसे पूछती कि बता कहां तक पहुंची है अब। जैसे दूसरी सवारियों के परिजन बार-बार फोन कर के पूछ रहे थे। फिर उसे याद आया कि मां को मोबाइल चार्ज करना भी कहां आता है। नंबर मिलाना भी नहीं। वो तो गांव का कोई उस तरफ आ जाता होगा तो मान-मनुहार कर अपना मोबाइल दिखवा लेती होगी। कई बार तो छाती से चिपका हुआ मोबाइल स्विच ऑफ हो जाता है मां का। कई बार बैटरी लो हो जाती है। राखी यह सब सोच कर मुसकराई, फिर परेशान भी हो गई।


राखी ने इस बार तय कर लिया था कि वो मां को मोबाइल के कई फंक्शन सीखाएगी। दो-तीन दिन रहकर उसकी जरूरत का और सामान खरीदकर घर भर देगी। अपनी सारी उलझनें दूर करके ही वापिस लौटेगी। क्या पता अब कब आना होगा। बस। मां की सेहत ठीक होनी चाहिए। वो कहीं बीमार न हो। उसका मन बार-बार कह रहा था कि सब कुछ ठीक नहीं है। मां को तकलीफ है। अब मां कान भी कम सुनती है। आंख भी कम देखती है। बस लगभग पांच बजे के आस-पास गांव की सड़क के किनारे पर रुकी।

राखी ने अपने तीनों नग उतारे। बस आगे निकल गई। धार से नीचे राखी का मायका दिखाई दे रहा था। गांव से दूर उसका बचपन का घर धुंधलाता हुआ दिखायी दिया। जैसे उसे चिढ़ा रहा हो। राखी और उसके भाईयों का बचपन उसी घर में तो बीता था। उसे याद था कि जब वो पिछली बार आई थी तो आसमानी रंग की पुताई कर के गई थी। लेकिन उसे घर का रंग-रोगन गहरे हरे रंग का दिखाई दे रहा था। तभी तो पेड़-पौधों के बीच गौर से देखने पर ही उसे अपना घर दिखायी दिया। अचानक उसे बड्डन, मुंज्जे और छुट्टन की याद हो आयी। कल जब उसने तीनों को फोन कर के बताया कि वो गांव जा रही है। तो तीनों उसे नसीहत देने लगे। ये करना, वो मत करना। ये ले जाना। ठीक से जाना। बस का पता कर लेना। आदि-आदि।


राखी सोचने लगी। कैसे तीनों भाई ये बताना नहीं भूले कि वो मां के एकाउंट में हर महीने एक-एक हजार रुपया डालते हैं। जो नियमित कंप्यूटराइज्ड मां के एकाउंट में चले जाते हैं। छुट्टन ने तो यहां तक कह दिया कि वो इस महीने तक के हिसाब से बत्तीस हजार रुपये भेज चुका है। क्या मां को रुपए भेजना और उसे याद रखना अच्छा है? क्या मां को वक्त-जरूरत पर अपने बच्चों का संग-साथ नहीं चाहिए? क्या कोई मां सिर्फ रुपयों से जीवन काट सकती है? क्या हमारा जीवन इतना अहम् हो गया है कि जिसने हमें जीवन दिया, हम उसके लिए समय न निकाल सकें? राखी इन सवालों का जवाब खुद से पूछती हुई आगे बढ़ रही थी।


जाड़े के दिनों में दिन छोटे हो जाते हैं। रात जल्दी अपने पैर पसार लेती है। दिन की धूप अच्छी लगती है और रात को जल्दी से बिस्तर में घुस जाना भाता है। कई बार रात को नींद उचट गई तो जागते हुए भी बिस्तर छोड़ने का मन नहीं करता। हवा तेज बहने लगी थी। राखी का शरीर कांपने लगा था। उसे पता ही नहीं चला कि वो ठीक अपने घर के दरवाजे के सामने खड़ी है। दरवाजे पर सांकल चढ़ी थी और सांकल पर ताला जड़ा था। राखी खलिहान पर ही पसर गई थी। पैरों में करंट सा दौड़ रहा था। अंधेरा होने को था और मां का कुछ पता नहीं। आस-पास कोई घर भी तो नहीं। वो गांव के रास्ते से नहीं आयी। धार-धार होकर आयी थी। अन्यथा गांव में तो पता चल ही जाता कि मां है कहां। उसने आस-पास नजर दौड़ाई। एक बण्ठा और केतली बाहर थी। लोटा जल से आधा भरा था। पुरानी चप्प्लें, मां की पुरानी साड़ी तार पर बंधी थी।


राखी को यह समझने में देर तो नहीं लगी कि मां सुबह तो यहीं थी। आंगन पर रखे झाडू को देखकर राखी ने अनुमान लगा लिया कि उस झाडू से सुबह साफ-सफाई की गई है। इसका मतलब मां बिस्तर पर तो नहीं है। पर ये भी संभव है कि बहुत बीमार हो और किसी के घर पर लेटी हो और घर की सफाई किसी बच्चे से करवाई हो। तभी खलिहान की ओर आते रास्ते में एक साया सा मंडराया। अब लगभग अंधेरा हो ही चला था। साये को देखकर राखी ने पूछा-‘‘मां?’’


‘‘हां मेरे बच्चे। मैं ही हूं।’’ राखी की मां ने ही कहा। मां दौड़कर आयी और राखी से लिपट पड़ी। राखी को लगा जैसे धूप में सूखाए रजाई-गद्धों की गरमाहट मां की देह से आ रही हो। दोनों फूट-फूट कर रोने लगे। किस बात पर। ये दोनों नहीं जानते थे। जी भर कर रो लेनेे पर अब सिसकियों की बारी थी। सिसकियों के बाद आसंूओं को पोंछने की। फिर नाक में भर आये पानी से चिपकती हुई हवा को संभालने की। मां ने कहा-‘‘चल बेटा। पहले रोशनी करती हूं। कितने सालों बाद आयी मां की याद? है न? तूने कितने फोन किये रे मुझे। सब पता है मुझे। कितनी बार मन किया कि फोन उठा लूं। पर नहीं उठाया। मैं जानती थी, तभी तू आएगी। नहीं तो तेरा शहर और शहर की गृहस्थी कहां छोड़ते तूझे। बस तेरा ही मन करता है मुझसे बात करने को। और कोई नहीं रहा मेरा क्या? वो क्या कहते हैं इसे? मिसस कॉल न?’’

यह कहकर हंसने लगी। फिर बोली-‘‘जल्दी से हाथ-मुंह धो ले। वो पीछे एक गागर और रखी है। घाम से उसमें गरम-गरम सा होगा पानी।’’ यह कहकर उसने जल्दी से चाबी निकाली और दरवाजा खोलने लगी।


राखी ने हाथ-मुंह धोया। वो घर के चारों ओर का मुआयना करने लगी। तभी उसकी मां चाय बना कर ले आयी। अब बाहर घुप्प अंधेरा पसर चुका था। दोनों भीतर वाले कमरे में चले गए। राखी ने कमरे को गौर से देखना चाहा। वो जताना नहीं चाहती थी कि उसे कमरे की एक-एक चीज की टोह लेनी है। एक कोने पर टी.वी. रखा था। जो कभी पहले नहीं था। मां ने कभी फोन पर बताया भी नहीं। एक पुराना रेडियो ही रहता था मां के पास। अब तो टी.वी. के पास ही दूसरा एफ.एम.वाला नया रेडियो भी रखा हुआ था। पुरानी लालटेन एक तार में बंधी थी। मेज पर बैटरी वाली लालटेन रखी थी। बैटरी वाली टार्च भी मौजूद थी।


मां जैसे सब जान रही थी। बोली-‘‘अब अकेले मन नहीं लगता तो ममता रख गई इस टी.वी.को। अरे। ममता राजू की बहू। वही राजू ….जो तेरी चोटी खींचा करता था। वो तो दिल्ली है। वहीं से ममता के लिए रंगीन टी.वी. ले आया, बस वो इस टी.वी.को यहां रख-छोड़ गई। कहने लगी, घर में पड़ा था, यहां काम आएगा। मैंने पैसों की बात की तो नाराज हो गई। आए दिन आ जाती है। यहीं सो जाती है। मेरा खूब ख्याल रखती है। बड़ी होशियार है।’’


चाय का गिलास हाथ में लिए राखी अब रसोई में चली गई। स्टोव की जगह अब गैस रखी थी। सोलर लालटेन, दो प्रेशर कुकर, तांबे की गागर नई थी। मां भी पीछे-पीछे चली आयी। कहने लगी-‘‘अरे कुछ खास नहीं है तेरी मां के पास। अब रहना है, तो जीना है। जीना है तो खाना है। खाना है तो सामान तो चाहिए न। अब नहीं होता मुझसे। बुढ़ापा भारी है। तीन महीने पहले तक तो गाय थी। कुछ बकरियां भी थीं। सब बेच दिया मैंने।’’ राखी कुछ न बोली। अदरक, काली मिर्च और तुलसी के पत्तों में बनी चाय से उसकी सारी थकान दूर हो गई थी। मां के दोनों कंधों पर हाथ रखते हुए राखी ने धीरे से कहा-‘‘चल मेरे साथ। कब तक अकेली रहेगी यहां।’’


मां ने राखी के सिर पर हाथ रखते हुए कहा-‘‘जब जाना था, तब नहीं गयी। अब नहीं। इस घर में तेरे पिताजी की, तेरी और तेरे भाईयों की ढेर सारी यादें जुड़ी हैं। जब तक चलूंगी….. तब तक चलूंगी। वहां शहरों में शरीर से कौन चलता है। मेरा चलना बंद हुआ तो मेरी सांस भी बंद हो जाएगी। चल…. मैं खाना बनाती हूं। तू थकी होगी। तू टी.वी. देख। यहां सारे चैनल आते हैं। तेरे शहर वाले सारे। मर्जी का देख ले।’’


‘‘नहीं मां। दोनों बनाते हैं न कुछ मिलकर। बातों ही बातों में खाना बन जाएगा।’’ राखी ने कहा। दोनों वहीं रसोई में पटरियों में बैठ गए। राखी ने मां को गौर से देखा-‘‘सत्तर से अधिक वसंत देख चुकी थी उसकी मां। चेहरे और माथे पर झुरिर्यों की कई लाईने एक-दूसरे पर चढ़ गयी थीं। मगर आवाज में झोल नहीं था। कमर झुकी नहीं थी। देह का रंग काला नहीं पड़ा था। चलते-फिरते और उठते-बैठते हड्डियां चरमरा नहीं रही थीं। राखी को लगा कि वो जो सामान शहर से लायी है, मां के लिए अब बेकार है। मां की जरूरतें अब वो नहीं, जो वो सोचती रही है। वो तो जमाने के साथ चल रही है। वो ही अपनी मां से कोसों दूर पीछे रह गई है।


दोनों ने मिलकर खाना बनाया और खाया। बरतन मांजे। दूध पिया। दीवान पर एक साथ लेटे और बातें करते रहें। बातें थीं कि खत्म ही नहीं हो रही थीं। कभी मां शुरू करती तो कभी राखी। देर रात राखी की आंख लग गई। तब जाकर बातों का सिलसिला टूटा। सुबह राखी उठी तो मां चाय बना कर ले आयी थी। घर-आंगन की सफाई कर चुकी थी। खलिहान के पास ही नल लग चुका था। दो गागर ताजा पानी ला चुकी थी। बाहर चूल्हे पर रखे कंटर से भाप निकलने लगी थी। रसोई में सब्जी के पकने की खुशबू बता रही थी कि मां को कहीं जाने की जल्दी है। राखी ने चाय पी और बिस्तर छोड़ा। गरम किये गए पानी से नहा-धोकर वह तरोताज़ा हो गई। रसोई में गई तो मां रोटियां बना चुकी थी। राखी ने कहा-‘‘ये क्या मां। इतनी सुबह? मैं बना लेती न। अभी तो मैं यही हूं।’’


‘‘मुझे काम पर जाना है। दिन में आऊंगी एक घंटे के लिए। तू भात बना कर रखना। फिर पांच बजे के बाद ही लौटूंगी न।’’ मां ने नजरे बचाते हुए कहा। ‘‘मतलब? इतनी सुबह कहां जा रही है?’’ राखी चौंकी।


‘‘अरे। घर में खाली कब तक बैठना है। गांव में सौ दिन का रोजगार लगा है। सौ रुपये एक दिन के मिलते हैं। दस हजार कम नहीं होते। मेरे लिए काफी हैं। मैं शाम को जल्दी आने की कोशिश करूंगी।’’ मां ने हंसते हुए कहा। राखी को गुस्सा-सा आ गया-‘‘मां कितना पैसा चाहिए तूझे हां? मैं भी कुछ न कुछ तेरे एकाउंट में डालती हूं। तीनों भाई भी हर महीना हजार-हजार रुपया तूझे भेजते हैं। क्या वो सब काफी नहीं है तेरे लिए? हैं?’’
मां पहले तो मुस्कराई फिर उदास हो गयी। धीरे से बोली-‘‘कल तुम लोग पैसा भेजना बंद कर दो तो? तब क्या करूंगी मैं! और फिर मैं यहां किसी से भीख नहीं मांग रही हूं। कमर तोड़ मेहनत करती हूं। सारा गांव जानता है कि मैं किसी से एक पाई भी नहीं लेती। कोई मुझ पर चार पैसे खर्च करता है तो मैं उस पर आठ खरच देती हूं।’’ मां फिर सामान्य हुई। प्यार से बोली-‘‘तू चिंता मत कर। अभी सब ठीक है। जिस दिन शरीर साथ नहीं देगा तो फिर मेरे आठ-आठ हाथ हैं तो। हैं कि नहीं?’’


राखी के पास मां की बातों का अब कोई जवाब नहीं था। राखी सोचने लगी कि मां को औसतन चार हजार रुपये महीना हम लोग भेजते हैं। उन रुपयों का मां करती क्या है। मां की पासबुक देखनी पड़ेगी। मां काम पर जाने लगी। जाते-जाते कह गयी-‘‘दिन में हो सके तो बैंक चली जाना। जहां तुम्हारी बस रूकी थी न, वहीं पास में ही बैंक है। संदूक में पास बुक रखी है। बैंक न जाने कब से नहीं गई हूं। संदूक में दस-एक हजार रुपए हैं। वो जमा कर देना। घर में पैसे रखना ठीक नहीं है।’’


राखी मां के बारे में सोचने लगी। मां शरीर से बुढ़ा गई है लेकिन दिल और दिमाग से चुस्त है। हम लोग मन ही मन में जो कुछ भी सोचते हैं,उसे भांप लेती है। झट से वही बात कह देती है या उसके आगे की बात कह देती है। राखी ने संदूक से पासबुक निकाली। पास बुक में कई महीनों से लेन-देन ही नहीं हुआ था। राखी को विश्वास नहीं हुआ। जमा धनराशि के कॉलम में भाईयों के भेजे गए एक-एक हजार रुपये का विवरण था। राखी दंग रह गई कि मां ने अपने इस खाते से कोई भी निकासी नहीं की है। उसने हिसाब लगाया कि आखिरी एन्ट्री की अंकना तीस माह पहले की है। आखिरी एन्ट्री में दस हजार जमा किये गए थे। कुल जमा धनराशि पैसंठ हजार रुपये थे। राखी खुद हर महीने हजार-दो हजार रुपए भेजती ही है। कम से कम एक लाख बीस हजार रुपए की एन्ट्री अभी दर्ज होनी बाकी है। इस हिसाब से मां के एकाउंट में कम से कम एक लाख पिचासी हजार रुपए तो जमा हैं ही। राखी बड़बड़ाई-‘‘ये मां भी न। मरने के बाद और उलझनें पैदा करेगी। ’’


राखी धम्म से फर्श पर बैठ गई, जैसे पका हुआ आम धरती पर टपक पड़ा हो।
॰॰॰

-मनोहर चमोली ‘मनु’

मेरी उलझन

सरिता जनवरी (प्रथम) 2013

-मनोहर चमोली ‘मनु’

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By manohar

3 thoughts on “मेरी उलझन”
  1. बहुत ही सुंदर भाव प्रधान रचना । आँखें नम हो गयी ।

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