उत्तराखण्ड बोर्ड ने गत वर्ष से भाषाई विषयों में 20 अंक आंतरिक मूल्यांकन के लिए निर्धारित कर दिए हैं। सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना कौशलों की जांच भी है। पिछली बार भी विद्यार्थियों ने अच्छा किया था। इस बार सोचा अभिलेखीकरण किया जाए। इकतारा प्रकाशन से एक किताब आई है सप्पू के दोस्त ! लेखक हैं स्वयं प्रकाश ।
स्वयं प्रकाश कृत नेताजी का चश्मा से हमारे बच्चे इसलिए भी परिचित हैं क्योंकि दसवीं में वह पाठ के तौर पर शामिल है।खैर, इस किताब में 11 कहानियाँ हैं ! कमाल !पुस्तकालय में यह किताब बहुत से बच्चों के दिल के करीब है। इम्मी,इंटरवल, चुवकू कहाँ गया रे तू कहानियां सच्चा बयान है। विद्यार्थी इन्हें ख़ूब पढ़ते हैं ! कक्षा में कहानी पढ़कर सुनाई जाती है। विद्यार्थी सुनते हैं। फिर स्मृति पर आधारित कहानी को अपने शब्दों में लिखते हैं। यानी उतारना नहीं होता ! उन्होंने जो समझा-महसूस किया, वही लिखने का आग्रह है तो धीरे-धीरे बात आगे बढ़ रही है।
नई शिक्षा नीति 2020 भी दोहराती है कि भाषा की कक्षा में एक अकेली पाठ्य पुस्तक के सहारे शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति संभव नहीं। बाल साहित्य का अनवरत् उपयोग कक्षा-कक्ष में आवश्यक है।
अपने दो दशक के शैक्षणिक अनुभव के आधार पर मैं स्वयं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि स्कूली किताब के अपने उद्देश्य होते हैं। यही कारण है कि किसी भी कक्षा में दस-पन्द्रह पाठों में कहानी-कविता-संस्मरण मात्र ललक जगाने के मक़सद से रखे गए हैं। इसी के आलोक में पुस्तकालय की किताबें विद्यार्थियों के लिए बेहतरीन इंसान बनाने में सहायक हो सकती हैं।
व्यवस्था ही ऐसी है कि अभी भी स्कूली किताबों के अलावा अलग से पढ़ने के लिए कोई विशेष व्यवस्था स्कूल में नहीं है। होमवर्क के नाम पर हम बहुधा लिखित कार्य देते हैं। क्या हमने कभी पढ़ने का होमवर्क दिया है? पढ़ना ही समझना है। यदि समझ बनती है तो हम सोच पाते हैं। समझते हुए खुद के व्यवहार का आकलन कर पाते हैं। विश्लेषण कर पाते हैं।
मुझे अपने स्कूली दिन याद हैं। निबन्ध लेखन में हमें पश्चिमी संस्कृति को कोसना सिखाया गया है। हम भारतीय परम्पराओं के गुण गाते थे। आज देखें तो हमारे लोक व्यवहार में भारतीय कितना बचा है। खान-पान, पहनावा, बोलचाल के साथ-साथ कॅरियर भी हमारा पश्चिमी हो चला है। क्या हमें कभी भूगोल के हिसाब से यह बताया गया कि हम नक्शे में पश्चिम किसे कहते हैं? दिशा को? विश्व के नक्शे में पश्चिमी देश कौन से हैं? हमारे स्कूलों ने कभी हमें बताया?
कहने का अभिप्राय यह है कि हम कर क्या रहे हैं? क्या आज भी हम विद्यार्थियों को अंकों की दौड़ में जुतवा नहीं रहे हैं? क्या हमारे बच्चे स्वतंत्र अभिव्यक्ति कर पाते हैं। अपना रचनात्मक और मौलिक लिख पाते हैं?