हिन्दी बाल – साहित्य

हिन्दी बाल साहित्य: छोटे बच्चों के लिए लेखन
-मनोहर चमोली ‘मनु’
हिन्दी में बाल साहित्य खूब लिखा जा रहा है। यह सच है। यह भी सच है कि छोटे बच्चों के लिए सार्थक लेखन बहुत कम हुआ है। बच्चों के लिए अर्थपूर्ण लेखन चुनौतीपूर्ण है। तेजी से बदलते परिवेश और ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए विविधता से भरा लेखन आज की मांग भी है। बाल साहित्य को सरसरी तौर पर बच्चों का, बच्चों के लिए और बच्चों के द्वारा मान लेना गलत है। प्रौढ़, महिला-पुरुष से इतर बच्चों के वय वर्ग में इतनी विविधता है कि रचनाकारों को सजगता से रचनाकर्म करने की आवश्यकता पड़ती है।
अभी-अभी स्कूल जाने वाले बच्चों की मनःस्थिति अलग होती है। जो बच्चे पढ़ना जान चुके हैं। पढ़ने का अभ्यास कर चुके हैं। लय और गति से अभ्यस्त हो चुके बच्चों के लिए अलग रचना सामग्री जरूरी है। जिन बच्चों को पढ़ने का चस्का लग चुका है उनके लिए लिखना अलग बात है। वहीं वह बच्चे जो अभी स्कूल ही नहीं गए हैं उनके लिए चित्रात्मक लेखन तो और भी चुनौतीपूर्ण है।
हिन्दी में लिखी अधिकांश रचनाएँ पाठकों को एक ही लाठी से हाँकती हुई दिखाई पड़ती हैं। वय वर्ग के हिसाब से लिखी गईं रचनाएँ प्रायः कम लिखी जाती हैं। वे बच्चे जो अभी घर में हैं। अक्षरों की दुनिया से वाकिफ़ नहीं हैं उनके लिए आनन्ददायी लिखना पहली शर्त है। आनंददायी तत्व तो प्रत्येक रचना के लिए अनिवार्य शर्त माना जाना चाहिए। बहरहाल, जो बच्चे अब स्कूल जाने लगे हैं। स्कूली किताबों में माथापच्ची कर रहे हैं। स्कूली ढर्रे पर ढल रहे हैं। तब उन्हें रुचिकर पढ़ने को न मिला तो वे साहित्य से दूर होते चले जाएँगे।
मान लेते हैं कि इन सभी बातों को ध्यान में रखा जा रहा है। तब रचनाओं की शब्द संख्या पर ध्यान देना भी बहुत जरूरी है। बाल साहित्य में बाल पाठकों को ध्यान में रखकर शब्द संख्या का तालमेल बहुत गड्डमड्ड दिखाई पड़ता है। सोलह, बीस या चौबीस पृष्ठों की चित्रात्मक किताबों में हजार, बारह सौ कहीं-कहीं पन्द्रह सौ शब्द संख्या ठूंसी हुई मिलती रहती हैं। वय वर्ग पर ध्यान दे ंतो दस-बारह साल के बाल पाठकों को दो सौ पृष्ठों की किताब पढ़ने के लिए देना उचित नहीं है। सोलह, बीस या चौबीस पेज की चित्रात्मक किताब किसी भी पाठक को दी जा सकती है। यदि रोचकता होगी तो पाठक उसे पढ़ना चाहेगा। तब वय वर्ग की बात करना निरर्थक लगता है।
हिन्दी बाल साहित्य की अधिकतर पत्रिकाएं पढ़ने की ललक नहीं जगाती। बाल साहित्य के नाम पर छपी किताबों का भी यही हाल है। स्कूल पूर्व, अभी-अभी स्कूल जाने वाले, पढ़ना सीख चुके, अर्थपूर्ण पढ़ना सीख चुके और किताबों से दोस्ती कर चुके बच्चों के लिए विविधता भरी किताबें होनी चाहिए। इस बात से असहमति संभवत किसी को भी नहीं हो सकती। कोई किताब या पत्रिका सभी बच्चों के लिए है। यह मान लेना अच्छा नहीं है।
एक ही किताब छोटे, बड़े, किशोर बच्चे भी पढ़ सकते हैं। युवा और प्रौढ़ भी पढ़ सकते है। यह पढ़ते हुए अच्छा लगता है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। तब तो बिल्कुल भी नहीं है जब पढ़ने के लिए परोसी गई सामग्री तीव्र सीखों, संदेशों, आदर्श की अतिरंजनाओं, उपदेशों से अटी पड़ी हों। अच्छी छपाई, आकर्षक भरे-पूरे चित्र, साफ-सुथरा फोंट पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। इन सब खास बातों का ध्यान रखने के बावजूद कहानियों का अंत या कहा जाए सोचा-समझा लक्ष्य पढ़ने का आनन्द खत्म कर देता है। बाल पाठक भी ठूंसे गए लेक्चर को समझ जाते हैं।
कुछ बाल कहानियों के अंत आज भी इस प्रकार से होते हैं।
‘हनी ने प्रधानाध्यापक जी के पांव छुए और भविष्य में उनकी सीख पर चलने का दृढ़ संकल्प लिया।’ ‘मोहन की बात का रोहित पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसका जीवन एकदम बदल गया। अब रोहित अनावश्यक समय बर्बाद नहीं करता बल्कि वह नियमित पढ़ाई करता और एक दिन आया जब वह भी बोर्ड की परीक्षा में अच्छे नंबरों से पास हुआ।’ ‘इसी तरह हम दुनियावी कर्मों को प्रभु को समर्पित कर प्रभु की दी हुई जिम्मेदारी समझकर करें तो हम तनावमुक्त और सुखपूर्वक जीवन जीते हैं।’ ‘बंटी बतख ने हल्के से टिंकू कबूतर की पीठ ठोंक दी-‘अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखना…।’ यह सुनकर टिंकू कबूतर ने आभार में अपना सिर झुका लिया।’ ‘बुरे आदमी का उपकार करना भी उतना ही बुरा है जितना सज्जन की बुराई करना।’ ‘जिसके कुल-शील और स्वभाव का पता न हो, उसे कभी भी शरण नहीं देनी चाहिए।’ ‘हाँ, मम्मी! नीलू ने स्वीकारा और फिर जिद्द न करने की कसम खाई!’ ‘दूसरों पर भरोसा करना सदा धोखा देता है। अपनी सहायता स्वयं करनी चाहिए।’
यह कुछ कहानियों के अंत थे। पाठक अंत तक पढ़ते-पढ़ते समझ जाता है कि पूरी कहानी यही सिद्ध करने के लिए गढ़ी गई हैं। यह तरीका अभी भी चला आ रहा है। पाठक इन्हें फार्मूला टाइप कहानी कहते हैं।
अब कुछ कहानियों की बात कर लेते हैं जो कथ्य, भाषा और विषय के स्तर पर शानदार होती हैं। फिर भी वह अपना वह प्रभाव नहीं जमा पाती, जो जमा सकती थी। लचर चित्र कहानी के प्रभाव को धुंधला कर देते हैं। यदि कहानी के साथ उसी अनुपात में प्रभावी चित्र शामिल हो तो कहानी पाठक के मन में बैठ जाती है। चित्र कहानी का सहायक नहीं होता। वह कहानी को विस्तार देता है। कहानी जो कुछ नहीं कह पाती चित्र उससे आगे की कहानी का बयान होता है। कुछ ऐसी कहानियों का उल्लेख जरूरी है जो प्रभावी हैं लेकिन चित्र उन्हें ज़्यादा विस्तार नहीं दे पाए।
‘छोटा सा मोटा सा लोटा’ सुबीर शुक्ला की एक कहानी है। कहानी बहुत शानदार है। एक छोटा सा मोटा लोटा है। वह एक लंबे खंभे पर चढ़ता है। उसकी यात्रा में कुछ पात्र मिलते हैं। अंत में लोटा यानि मटका चूर-चूर हो जाता है। इस कहानी में आनंद है। कौतूहल है। रोमांच है। लेकिन यह सब चित्रों की सहायता से बढ़ सकता था। इस कहानी के चित्रों पर बेहतरीन काम हो सकता था। इसी तरह ‘मकड़ी और मक्खी’ सुशील शुक्ल कृत एक कहानी है। एक मक्खी अक्सर मकड़ी के जाले के आस-पास आ जाती है। एक दिन मकड़ी मक्खी को पकड़ लेती है। मक्खी कुछ ऐसी बात कह देती है कि मकड़ी की आँखों में हँसते-हँसते आँसू आ जाते हैं। मौके का फायदा उठाकर मक्खी भाग जाती है। इस चित्रात्मक पुस्तक में भी सार्थक और प्रभावी चित्रों की अपार संभावना थी।
‘प्यारे भैया’ राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार प्राप्त स्वीटी पर आधारित एक कहानी है। रजनीकांत की यह कहानी प्रेरणास्पद है। रोचकता के साथ आगे बढ़ती है। शब्द सीमा के स्तर पर बहुत लंबी है। फिर चित्रों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। आकार पर भी ध्यान नहीं दिया गया। एक अकेला चित्र बेहद नीरस और बेढब प्रतीत होता है। बाल भारती में पूर्वाेत्तर राज्यों की कहानियाँ ‘कहानियाँ सात बहनों से’ के अन्तर्गत प्रकाशित हुईं।
डॉ॰ सुनीता कृत कहानी ‘और सामने था पहाड़’ मेघालय के एक बरगद के पेड़ पर केन्द्रित है। बरगद के पेड़ का फैलाव बहुत था। धूप न आने की चर्चा उठी और उसे काटने का निर्णय हुआ। कहानी बेहतरीन भाव-बोध के साथ आगे बढ़ती है। लेकिन कहानी को जिस प्रभावी चित्र की दरकार थी वह उसे नहीं मिला। परिणाम कहानी का जो फैलाव हो सकता था वह सिमट गया।
चित्र कई बार पन्ने उलटने पर बाध्य कर देते हैं। ठीक उलट कुछ चित्र पन्ने पर ही टिके रहने के लिए विवश कर देते हैं। टिके रखना चित्र का काम नहीं होता। वह तो ठहरकर रचना को पढ़ने के लिए ऊर्जा देते हैं। पवित्रा अग्रवाल कृत कहानी ‘माँ’ भी भावपूर्ण कहानी है। लेकिन चित्र उतने ही बेनूर और अप्रभावी बने हैं। खाना-पूर्ति करते चित्र कहानी की आभा को भी प्रभावित करते हैं। ऐसा नहीं है कि सभी अनाकर्षक चित्र से ढकी कहानी पाठक पढ़ ही नहीं पाते। पढ़ते हैं लेकिन वह स्मृति में उभरी रहे, संभवतः जवाब नहीं में होगा। दूसरे शब्दों में कहें कि वह कहानी पढ़ी तो जाती है पर मन-मस्तिष्क में ताज़ा और ज़िन्दा भी रहेगी, कहना मुश्किल होगा।
हिन्दी भाषी पत्र-पत्रिकाओं के संपादक और प्रकाशकों में सभी की ऐसी दृष्टि है। यह नहीं कहा जा रहा। चुनिंदा ही सही लेकिन हैं, जो संजीदगी से श्रमसाध्य कार्य कर रहे है। रंगीन, प्रभावी और व्यावसायिक चित्रकारों से कहानियों पर चित्र बनाना आसान कार्य नहीं है। पर्याप्त समयपूर्व रचनाओं का न आना और चित्रकारों को भी भरपूर समय न मिल पाना बड़े कारण हैं। चित्रों का तय समय पर बनाने और पत्र-पत्रिका-पुस्तक का प्रकाशित होने का दबाव भी रहता है। चित्रों के लिए सम्मानजनक पारिश्रमिक देना अभी स्वस्थ कार्यसंस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाया है। हिन्दी भाषी परिवारों में जन्मदिवस पार्टी, रेस्तराओं में लंच-डिनर, मँहगे खिलौनों और ऑन लाइन शॉपिंग पर खूब खर्च करने का चलन है। यह बढ़ता ही जा रहा है। लेकिन बच्चों के लिए आकर्षक, अर्थपूर्ण किताबें खरीदने का बजट नहीं बढ़ रहा है। यह आदत भी बढ़ती हुई नहीं दिखाई देती। परिवारों में कहीं छोटा सा पुस्तकालय तो दूर रैक भी नहीं दिखाई देता।
भाव-बोध-कथ्य से प्रभावी कहानियों और उनके चित्रों पर बात भी की जानी चाहिए। बहुत से प्रकाशन हैं जो बाल साहित्य को भव्यता के साथ प्रकाशित कर रहे हैं। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत, चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट, एकलव्य, इकतारा, प्रथम, रूम टू रीड़, तूलिका की दर्जनों किताबें हैं जो इस लिहाज से पढ़ी जानी चाहिए। पढ़ने के लिए खरीदी जानी चाहिए। उपहार में देने के लिए प्रोत्साहित की जानी चाहिए। चुनिंदा उदाहरणों से इसे समझने का प्रयास करते हैं। अरशद खान कृत चूहा और थानेदार कहानी है। चूहा थानेदार के पास जाता है कि उसे साँप से डर है। बिल पर साँप कब्जा भी कर सकता है और उसे गड़प भी सकता है। थानेदार ने एक बिल्ली और नेवले को बिल के बाहर तैनात कर दिया। बित्ती भर की कहानी पर बने चित्र भी शानदार हैं।
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत ने गिजुभाई का गुलदस्ता में दस पुस्तकों का सेट प्रकाशित किया है। यह सभी किताबें बेमिसाल हैं। गुलदस्ता तीन में एक ‘चिरौटा चार सौ बीस’ एक कहानी है। इस गुलदस्ते को प्रख्यात चित्रकार आबिद सुरती ने अपने बहुविविध फन से सजाया है। कुछ कहानियों में लोक तत्व शानदार है।
पढ़ना है समझना के तहत एन.सी.ई.आर.टी. ने बुनियादी स्कूलों के वय वर्ग पाठकों के लिए चालीस पुस्तकों का सेट तैयार किया है। इसे बरखा सीरीज केे नाम से खूब प्रसिद्धि मिली है। पुस्तकमाला निर्माण समिति के लेखकों ने तैयार किया है। ‘मीठे-मीठे गुलगुले‘ में मदन और जमाल ने भी गुलगुले बनाना सीखा। बच्चों की कल्पनाशीलता को किसे अंदाज़ा नहीं है! श्याम दस साल का छात्र है। उसे अपनी ख़ामियाँ पता हैं। लेकिन उसकी कल्पना के घोड़े खूब डग भरते हैं। ‘क्या होता अगर?’ हरि कुमार नायर की कहानी है। इसे प्रथम बुक्स ने प्रकाशित किया है। चित्र भी बेहतरीन ढंग से कहानी को विस्तार देते हैं। पाठक किसी भी वय वर्ग का हो, इस किताब के पढ़कर मुस्कराएगा भी और हैरान भी होगा। मेहा अपनी माँ के बारे में डायरी लिखती है। मेहा की माँ अपनी माँ के घर से लौटी है। छोटी-सी कहानी में बहुत-सी बातें छिपी हैं। चित्र उसे बहुत बड़ा फलक देता है।
इन किताबों की यात्रा खूब आनंद देती है। इनसे गुजरते हुए लगता है कि बच्चों की आवाज़ें बाल साहित्य में धीरे-धीरे ही सही, सही तौर पर दर्ज़ हो रही हैं। आइए! आबादी का एक चौथाई हिस्सा बच्चों का मान लेते हैं। एक चौथाई में हिन्दी में पढ़ने वाले बच्चों का अनुमान लगाते हैं। यह अनुमान पच्चीस करोड़ से अधिक का है। पच्चीस करोड़ बच्चों की विविधता पर गौर करें तो लाखों-लाख कहानियों की ज़रूरत है। देश, काल, परिस्थितियाँ और वातावरण जोड़ ले तो नित नई विविधता परोसने वाली कहानियाँ लिखना-कहना चुनौतीपूर्ण है। इस चुनौतीपूर्ण कार्य में लगे साहित्यकारों-चित्रकारों-प्रकाशकों को सलाम कहना तो बनता ही है। इन सभी के साझे प्रयासों को पंख देने का काम ही पुस्तक संस्कृति को आगे बढ़ाना है। ॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’
1-सुबीर कृत कहानी ‘छोटा सा मोटा सा लोटा’ प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत
2-सुशील कृत कहानी ‘मकड़ी और मक्खी’ प्रकाशक: रूम टू रीड, इंडिया
3- रजनीकांत कृत कहानी ‘प्यारे भैया’ प्रकाशक: मासिक पत्रिका देवपुत्र
4-पवित्रा अग्रवाल कृत कहानी माँ प्रकाशक: बाल वाणी दुमाही पत्रिका
5-डॉ॰सुनीता कृत और सामने था पहाड़, प्रकाशक: बाल भारती
6-अरशद खान कृत चूहा और थानेदार, प्रकाशक: प्लूटो
7- गिजुभाई बधेका कृत ‘चूहा सात पूंछों वाला’ प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत
8-एन.सी.ई.आर.टी. कृत मीठे-मीठे गुलगुले’ प्रकाशक: एन.सी.ई.आर.टी.नई दिल्ली
9-हरि कुमार नायर कृत क्या होता अगर? प्रकाशक: प्रथम बुक्स
10-मेहा कृत आज की डायरी प्रकाशक: प्लूटो, इकतारा प्रकाशन।
नोट: यह लेख पुस्तक संस्कृति, के अंक जुलाई-अगस्त 2023 में प्रकाशित हुआ है।

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By manohar

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