-मनोहर चमोली ‘मनु’
एक आदमी खुद को कितना अद्यतन रख सकता है? एक समय ऐसा आता है कि वह समझौता कर लेता है। ठूँठ होने लगता है। वहीं नवाचारी, उत्साही और ऊर्जावान व्यक्ति समय के हावी होने की गति को मंद कर देते हैं। वह खुद में बदलाव करते रहते हैं। कुछ कर गुजरने की ललक को ज़िन्दा रखते हैं। मैं ऐसे ही उत्साही व्यक्ति की बात कर रहा हूँ। वह बहती नदी बने रहना चाहते हैं। हर क्षेत्र में दख़लअंदाज़ी करने को आतुर रहते हैं। अनुभवों को समृृद्ध करने की मंशा को कुंद नहीं होने देते। जीवन के सड़सठ वसंत देख चुके दीनदयाल शर्मा राजस्थान के हनुमानगढ़ निवासी हैं। मुझे उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अकबर इलाहाबादी का एक शेर मुफ़ीद लग रहा है।
वह यह है-
‘पूछा अकबर है आदमी कैसा
हँस के बोले वो आदमी ही नहीं।’
जी हाँ। यह शेर अकबर इलाहाबादी का ही है। मुझे यह शेर दीनदयाल शर्मा को समर्पित करने में कोई झिझक नहीं। कारण? एक हो तो बताऊँ। वैसे, आदमी ताउम्र खपता जाता है। चुक जाता है। तब भी आदमी नहीं बन पाता। ज़्यादा हुआ तो किसी एक काम के कारण अपनी एक पहचान बना पाता है। मसलन-नेता है। शराबी है। जुआरी है। व्यापारी है। पनौती है। लेखक है। कवि है। वकील है। सुनार है। बकलौल है। बद्दिमाग है। गुस्सैल है। सज्जन है। तो, दीनदयाल शर्मा क्या हैं? आप ही बताइएगा।
दीनदयाल जी के बारे में यह सूचनात्मक विवरण नहीं है। यह उनके साथ मुंबई में बिताए चार दिन का संस्मरण है। जिसे लिखना मैं अपनी जिम्मेदारी समझता हूँ। यह इसलिए भी लिखना उचित है कि ऐसे विराट व्यक्तित्व से मैं पहली बार मिला हूँ। मैं मुंबई पहली बार जा रहा था। मैं आयोजन से ठीक तीन दिन पहले पहुँच रहा था। चिन्ता थी कि कहाँ ठहरना होगा? परिचित साथी रविन्द्र भण्डारी आई.आई.टी. के अतिथि गृह पर व्यवस्था कर ही रहे थे कि छात्र-प्रोफेसरों के कथित विवाद से परेशानी हो गई। हालांकि उन्होंने आश्वस्त किया था कि कुछ न कुछ बंदोबस्त हो जाएगा। बेधड़क आ जाओ। लेकिन मैं किंकर्त्तव्यविमुढ़ की स्थिति में था।
सफर अभी आरम्भ ही किया था कि वरिष्ठ साहित्यकार समीर गांगुली का फोन आ गया। उनसे पता चला कि राजस्थान से वरिष्ठ साहित्यकार दीनदयाल शर्मा पन्द्रह की सुबह मुंबई पहुँच रहे हैं। मैंने सम्पर्क साधा तो उनके आने की पुष्टि हुई। मैंने उन्हें बताया कि मैं तो चौदह की रात ही पहुँच रहा हूँ। बाद उसके मैंने आयोजक साथियों से बात की तो उन्होंने सीधे आयोजन स्थल पर आने की बात कहकर मेरे मन का बोझ हलका कर दिया।
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खैर . . .। मैं चौदह की रात बारह बजे आयोजन स्थल पर पहुँचा। शंकर भाई ने मुझे किड्स जोन के ए छिहत्तर चारित्र विहार में ठहरा दिया। नींद आते-आते एक बज गया होगा। मोबाइल सिरहाने पर रखा था। दीनदयाल जी सुबह छह बजे आने वाले थे। सुबह उठा। नित्यकर्म करने के बाद मोबाइल पर समय देखा। साढे़ छह बज चुके थे। कोई फोन नहीं आया। मुझे चाय पीने की इच्छा हुई। कैम्पस में घूमा तो भोजनशाला चला गया। 90 रुपए का कूपन लिया। समय देखा तो सात बज चुके थे। फिर दीनदयाल शर्मा को फोन किया। तो वह खिन्न थे। कहने लगे,‘‘तुम्हारा फोन स्विच ऑफ था। मैंने कॉल किया था। मैं नंदनवन के ठीक गेट पर हूँ।’’
मैं जब तक वहां ई-रिक्शा लेकर पहुँचा तो वह वहाँ नहीं थे। उन्हें फिर फोन किया तो उन्होंने कहा,‘‘आयोजक आ गए थे और वह मेरी व्यवस्था ए एक सौ सोलह, चारित्र विहार में कर रहे हैं।’’ मैंने कहा,‘‘ठीक है। मैं वहीं पहुँच रहा हूँ।’’ मैं नाश्ता आधा-अधूरा छोड़कर दीनदयाल को दिए गए ठिए पर पहुँचा।’’
वह बाहर ही खड़े थे। पहली बार मुलाकात हो रही थी। अलबत्ता फोन पर कई बार बातें हुई थीं। आयोजक चाभी लेने गए हुए थे। मुलाकात हुई। सफर से थके हुए भी लग रहे थे। आते हुए बेटे ने स्टेशन से ही ऑटो ऑनलाइन करवा दिया था। आते-आते विश्राम स्थल तक लगे समय से वह परेशान लगे। चाभी आईं। ठिया खुला। उन्होंने कहा,‘‘नहा-धोकर तरोताज़ा हो लूँ।’’
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मैंने कहा,‘‘ठीक है। फिर जैसा हो। बताइएगा। मैं ज़रा आयोजन स्थल पर घूम-फिर लूँ।’’ यह कहकर मैं बाहर आ गया। मुझे लग गया था कि वह आठ-नौ बजे तक ही स्वतंत्र होंगे। थकान मिटाना चाहेंगे तो और समय लेंगे। मैं मुंबई घूमने का समय निकालना चाहता था। तेज कदमों से नंदनवन के परिसर से बाहर निकल गया।
बीती रात ऑटो चालक ने बताया था कि पुणे रोड़ पर लगभग छह-सात किलोमीटर आगे समुद्र किनारा है। सी शोर। गायमुख चौपाटी। मैं उस ओर जाना चाह रहा था कि तभी समीर गांगुली जी का फोन आ गया। उन्होंने अपने घर आने का निमंत्रण दिया। दीनदयाल शर्मा के बारे में बात हुई तो मैंने उनसे कहा कि वे अभी-अभी ही आएं हैं। आप उनसे पूछ लें। उन्होंने पूछा तो दीनदयाल जी भी तैयार हो गए। लेकिन नंदनवन से समीर गांगुली जी के घर की ओर रवानगी होते-होते पौने दस के आस-पास हो गए। बहरहाल, यह अच्छा ही हुआ। एक से भले दों हम दो हो गए। दो अजनबी एक नए शहर में। वह भी मुंबई। लगा ही नहीं कि हम आपस में पहली बार मिल रहे हैं। बस ! फिर क्या था? बातों का सिलसिला चल पड़ा। दीनदयाल जी बोले,‘‘मैं तीसरी बार मुंबई आ रहा हूँ। लेकिन आज की यह सुबह जैसी कोई नहीं।’’
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मैं मुस्कराया। मैं इस शहर की चाल-ढाल समझना चाहता था। देखना चाहता था। इस शहर की आबो-हवा, फितरत समझना चाहता था। अब तक देखे-भाले गए शहरों से इसका मूड अलग कैसे और क्यों है? यह समझना चाहता था। वहीं दीनदयाल जी भी अपने मोबाइल के कैमरे से कुछ भी नया-सा या अच्छा-सा महसूस कर रहे थे कैद करते जा रहे थे। हम एक-दूसरे को भी समझ रहे थे। मैं समझ गया था कि मुझे मोबाइल में तसवीरें लेने की आवश्यकता नहीं। शायद, दीनदयाल जी समझ रहे थे कि उन्हें अब यह चिन्ता नहीं कि कहाँ जाना है। क्या याद रखना है। कैसे जाना है? यही हुआ। हम दोनों ने एक-दूसरे से बिना कहे यह समझ विकसित कर ली। पन्द्रह का पूरा दिन, पूरी रात, सोलह और सत्रह के दिन क्या और शाम तक हम अधिकतर समय साथ रहे। समूह में रहे। दूसरे दिन हमें दूसरी जगह 2032 अर्हम विहार में ठहराया गया।
तो दीनदयाल जी शर्मा ने साधारण जीवन जिया। लगन और ललक के साथ सफलताएं अर्जित की। बचपन, युवावस्था, अध्यापकी, लेखकीय जीवन और अब साठ के बाद के जीवन के हजारों किस्से उनके पास हैं। वह बड़ी सरलता और साफगोई से अपने अंतरंग जीवन के धागे खोलते चले जाते हैं। उनकी आँखें हर समय नाचती-सी हैं। उनके अनुभव हम जैसों को सावधान, सतर्क और आगे बढ़ने के लिए बेहद काम के हैं। देर रात तक हम बातें करते रहें। खू़ब साहित्यिक चर्चा हुई। बड़े नामचीनों के बारे में भी चर्चा हुई। आदत, व्यवहार, कर्म और कारगुजारियों के बारे में भी पता चला। मैं हैरान हूँ। दीनदयाल शर्मा जी के दिल-ओ-दिमाग में एक बाल मन भी है। सच्चा, सीधा-सरल। बेलाग-लपेट वाला। दो-तीन बार मैंने चेताया तो कहने लगे,‘‘तुमसे कोई भय नहीं। तुम ऐसे-वैसे नहीं हो।’’ मैं हैरान। पहली मुलाकात में इतना भरोसा ! कोई कैसे कर सकता है? कर सकता है क्या?
वैसे, वह वरिष्ठ साहित्यकार हैं। चुटीले व्यंग्यकार भी हैं। दशकों अध्यापकी की है। अब स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अध्यापकी से पहले सक्रिय पत्रकार रहे हैं। राजस्थानी भाषा के मर्मज्ञ हैं। अध्येता हैं। राजस्थानी भाषा का अन्य भाषाओं में और अन्य भाषाओं का राजस्थानी से मेल कराते रहते हैं। कवि भी हैं। कहानीकार भी हैं। बाल साहित्य में बेहद-बेहद सक्रिय भी हैं। बच्चों का पाक्षिक अखबार टाबर टोली निकालते हुए उन्हें बीस बरस हो गए हैं। आजकल सप्ताह में तीन दिन ‘दीनदयाल की चौपाल’ नाम से फेसबुक लाइव कर रहे हैं। आजकल का मतलब जनवरी दो हजार बाईस से लगातार लाइव आते हैं। बुधवार को हिंदी बाल कहानी का वाचन करते हैं। गुरुवार को हिंदी बाल कविता का वाचन करते हैं। शुक्रवार को राजस्थानी बाल साहित्य लेकर लाइव आते हैं।
कई नामी-नवोदितों की रचनाओं का आस्वाद लाइव के माध्यम से दुनिया को करा रहे हैं। सिर्फ अपनी नहीं हांकते। हर बार ‘मैं-मैं’ में नहीं टिके रहते। सामने वाली की बात गौर से सुनते हैं। मनन करते है। बात जंचती है तो जमकर तारीफ भी करते हैं। कहना उचित होगा कि वह आत्मश्लाघा में नहीं रमे हुए हैं। औरों को मंच उपलब्ध करा रहे हैं। यही नहीं। टाबर टोली अखबार का ब्लॉग भी संचालित करते हैं। अपना यू-ट्यूब चैनल भी चलाते हैं। दीनदयाल शर्मा के लेखन से परिचित हैं। यह शायद असाधारण या खास बात नहीं भी हो सकती है। लेकिन इतना तो तय है कि यह आम बात है। यह कहना गलत होगा।
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जयपुर से हनुमानगढ़ की दूरी लगभग चार सौ किलोमीटर है। ठेठ राजस्थानी लहज़ा उनकी वाणी से झरता है। तल्लीनता से काम में जुटते हैं। कभी चॉकलेटी चेहरा रखते थे। फिर मूँछे रखने लगे। अब चेहरे पर फ्रेंच कट दाढ़ी रखते हैं। सिर के बाल तो रंगते हैं पर दाढ़ी को प्राकृतिक तौर पर ही उगने देते हैं। एक माली की तरह उसकी काट-छांट करते रहते हैं। देह पर विभिन्न शैली के परिधान ओढ़ने के शौकीन हैं। देश-काल और परिस्थितियों के अनुसार चरण-पादुकाएं पहने का शौक भी है। एक शौक और है। सेल्फी लेने का। लेकिन यह सेल्फी हमेशा निजी हो। ऐसा नहीं है। साथियों के साथ सामूहिक सेल्फी के वह वाकई विशेषज्ञ हैं। कहा जा सकता है कि दीनदयाल शर्मा कई व्यक्तियों से बना एक व्यक्तित्व है। ऐसा व्यक्तित्व जिससे हम अपने बेढ़ब जीवन के ढब को बदल सकते हैं।
उनकी साहित्यिक यात्रा स्वान्तः सुखाय नहीं है। समाज के प्रति उनकी जिम्मेदारी है। वह जीवन के संघर्षों से तपकर निकले हैं। जीवन की, धन की, परिवार की और समाज की महत्ता जानते हैं। वह जानते हैं और मानते हैं कि हर व्यक्ति का अपना निजी जीवन संघर्षों का बयान है। हर अनुभव से सीखा जा सकता है। अपने अनुभवों को, किस्सों को, कथा-कहानियों में बदला जाए। वह यह बात बखूबी जानते हैं।
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सम्मान-पुरस्कार उनकी झोली में इतने है कि उनका वर्णन अलग से किया जा सकता है। मैं उन्हें आज में जीने वाला व्यक्ति मानता हूँ। वह अपने अनुभवों के आधार पर आगे बढ़ते हैं। आने वाले कल की कोई योजना नहीं बनाते। यही कारण है कि उन्हें जो कुछ नागवार गुजरता है उसे किस्से-कहानी में ढाल देते हैं। यह मुलाकात एक-दूसरे को समझने में कारगर रही। हालांकि हर वरिष्ठ आदमी एक-एक वसंत जीते हुए सैकड़ों अनुभवों से दो-चार होता है। लेकिन उन अनुभवों की याद और उनसे आगे बढ़ने-बढ़ाने वाले विरले ही होते हैं। इस लिहाज़ से दीनदयाल शर्मा जी बेजोड़ हैं। ऐसे बेजोड़ समाज की थाती है। हम जैसों को दीनदयाल शर्मा जी जैसों के सामने बैठना चाहिए। उन्हें सिरहाने में बिठाना चाहिए। उन्हें सुनना चाहिए। मुझे खुशी है कि मैंने उन्हें सुना। समझा। हमने एक-दूसरे को सलाहें भी दीं। सुझाव भी दिए।
खैर….। अब लिखते हुए यह पहली मुलाकात हो जाने का सप्ताह बीतने वाला है। लगता है बस अभी-अभी अपने गंतव्य को रवाना हुए हों। जैसे अभी हमने एक-दूसरे को कहा हो-‘‘मिलते हैं फिर।’’
ज़रूर! पक्का। फिर दूसरी मुलाकात होगी। तय नहीं पर होगी। ज़रूर। दीनदयाल शर्मा से आप उनके मोबाइल नंबर 9414514666 या 861932845 पर सम्पर्क कर सकते हैं।
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मनोहर चमोली ‘मनु’. सम्पर्क: 7579111144
यात्रा संस्मरण: 15 से 17 नवम्बर 2023, नंदनवन, निकट फाउण्टेन होटल, सी एण्ड रॉक होटल के बाजू में, मुंबई।
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बहुत सुंदर रहा दीनदयाल जी के विषय में जानना। आपने सही कहा कि हमें उन्हें सुनना चाहिए। उनके अनुभवों से सीखना चाहिए।
ji shukriya.
आपका बहुत बहुत आभार और धन्यवाद प्रिय भाई मनोहर चमोली मनु जी। ख़ूबसूरत संस्मरण के लिए आपको ढेरों बधाई।