आसमां से आगे: समाज के सच की कहानियाँ

समकालीन कहानीकारों में यथार्थ की सच्ची कहानी कहने वाले कथाकार रामेंद्र कुशवाहा का दूसरा कहानी संग्रह ‘आसमां से आगे’ खूब चर्चा में रहा। संग्रह की बारह कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत हैं। अमूमन किसी एक संग्रह में विविधता से भरे विषयों की कहानियाँ पढ़ने को कम ही मिलती हैं। रामेंद्र आधुनिक समय के कथाकार हैं। उनके लेखन में विविधता है। द्वंद्व है। छटपटाहट है। पीड़ा है। एक इंसान के तौर पर दूसरे के सरोकारों से हमदर्दी है। वह कोरे उपदेश नहीं देते। पात्रों के जरिए घर-घर की पीड़ा को आसानी से पाठकों के समक्ष रखने का कौशल उन्हें आता है।

आसमां से आगे से एक ही कहानी के दो अंश पढ़कर अंदाज़ा लग जाता है कि वह पात्रों के सहारे समाज का सच भी हौले से रख पाने में सफल होते हैं। आप भी पढ़िएगा-


‘अपने खीझे मन को मैं समझाता कि शादी के बाद उसकी आय घर की आय का एक हिस्सा होगी। वह गैर नहीं, अपनी है। उस पर आज किया जा रहा इंवेस्टमेन्ट कल रिटर्न जरूर देगा।’

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‘‘सारे आई०ए०एस० विधायक से छोटे होते हैं। हम इन्हें जैसा चाहें वैसा हाँकते रहते हैं। वे हमारी गुलामी में हमारे आगे-पीछे फिरते रहते हैं।’’ निष्ठा को सम्बोधित माननीय के ये शब्द मेरी पीठ पर चाबुक-सा प्रहार करते रहे। मैं हाथ मलता तेज कदमों से बाहर निकल गया। गेट तक माननीय का अट्टाहस मेरा पीछा करता रहा।

हालांकि आज के कई कथाकार किस्मत, भाग्य, कृतज्ञता के भाव से भरी कहानियों का मोह नहीं छोड़ पाए हैं। लेकिन रामेंद्र ऐसा नहीं करते। वह वैज्ञानिक विचारधारा के पक्षधर हैं और इक्कीसवीं सदी की ध्वनि साफ सुन पाते हैं। इस दौर में वे उन पात्रों को भी सामने लाते हैं जो अपनी बदहाली के कारणों का पता लगाना ही नहीं चाहते बल्कि नियति को स्वीकार कर लेते हैं। रामेंद्र स्वयं एक संवेदनशील व्यक्ति हैं। मनुष्य के दायित्वबोध को जीवन का अनिवार्य अंग समझते हैं और बड़ी दृढ़ता से चाहते हैं कि हर किसी को अपने धर्म का निबाह प्राथमिकता के साथ करना ही चाहिए। वह हर बार छद्म आशावाद के पक्षधर नहीं रहते। वह कामकाजी महिलाओं की उधेड़बुन भी साफ देख पाते हैं। सूक्ष्म चित्रण करने में वह सफल होते हैं। 
पाठक को पढ़ते-पढ़ते उसके सम्मुख पूरा चित्र उभार देते हैं-


‘कंडक्टर की हाँक के साथ ड्राइवर ने बस आगे बढ़ा दी। बस में चढ़ी बबिता देर तक बेहाल रही। बड़ी देर तक वह बस की सीढ़ियों के ऊपर बस के पाइप को थामे खड़ी रही। उसके चेहरे से चूचुहाता पसीना अब बस की फर्श पर टपकने लगा था। उसकी आँखों के सामने अंधेरा-सा छा गया था। तमाम सीट खाली थी। पर उसकी आँखों के सामने आँसुओं का पर्दा पड़ गया था। श्वास धौंकनी की तरह पूरे बदन को हिला रही थी मानो उसके शरीर की धरती पर भूंकप उथल-पुथल मचाकर तबाही की कोई इबारत लिखने को उद्यत था।’

रामेंद्र कुशवाहा एक ओर आशा, उम्मीद, उत्साह, सकारात्मकता का दामन नहीं छोड़ते हैं तो दूसरी ओर वे अपने पाठकों को समाज की सचाई से भी अवगत कराना अपना धर्म समझते हैं। इस संग्रह की कहानियों में कई पात्र ऐसे हैं जिनके सहारे पाठक विचारमग्न होेने लगता है। इन कहानियों को पढ़ने के बाद वह स्वयं का सिंहांवलोकन भी करने लगता है। कहना उचित होगा कि इन कहानियों में प्रेमिका की याद में आतुर प्रेमी, कल्पना लोक के अलौकिक घटनाएं और फंतासी उल्लेख नहीं मिलता। अलबत्ता पाठक को समाज का ऐसा सच पढ़ने को मिलता है जिसमें वह कई बार चकित होता है। कई बार हैरान होता है। परेशान भी होता है। पात्रों के साथ-साथ पाठक भी उदास होने लगता है। पात्रों के साथ गलत घटता हुआ पढ़ते हुए पाठक भी आवेश में आ जाता है। इसी संग्रह से एक अंश-


सारी रात करवटों में बीत गई। दूर कहीं मुर्गे की बाग ने सुबह का आभास करा दिया। कल्लन चारपाई से उतरकर बाहर आ गई। पौ अभी फटी नहीं थी। मंद-मंद हवा के झोंकों से वह नहा उठी। प्रातः का प्रकाश तिमिर से उलझता हुआ अपनी विजय यात्रा पर निकल पड़ा था। तिमिर पस्त हो विलुप्त होने की कगार पर था।
कल्लन जोर-जोर से लम्बी-लम्बी श्वास अपने अन्दर भरने व निकालने लगी। उसमे थोड़ी ताजगी का संचरण हुआ। वह आगे बढ़ी, बढ़ती ही गई- निरुद्देश्य । चलते-चलते वह नदी तट पर आ गई। नदी वेग से हलाहल बह रही थी, जैसे चलना ही नदी की पहचान है, अन्यथा वह
ठहरा पानी का तालाब भर हो कर रह जायेगी।
नदी से सटे एक ऊँचे टीले पर चढ़कर कल्लन सोचने लगी,‘‘उसकी तरह नदी के साथ भी लोग कितना दुष्कर्म करते हैं। फिर भी नदी रुकती नहीं। लोगों के सारे पाप-गंदगी को पीते हुए निरन्तर आगे बढ़ती जाती है।’’ उसने दोनों हाथ नदी के सामने फैला दिया मानो नदी की प्रेरणादायी शाक्ति को अपने अन्दर भर लेना चाहती हो

अक्सर कहानीकार अपने अनुभवों से उपजी कहानियाँ आज के सन्दर्भ में लिखते हैं जिनका कथ्य लुंज-पुंज इसलिए भी रह जाता है कि वह देशकाल और वातावरण के साथ वर्तमान पाठकों के साथ सामंजस्य बिठाने का उपक्रम नही ंकर पाते। लेकिन रामेंद्र अपने अनुभवों से यथार्थ के उस सच को कहानी के तत्वों में ऐसे पिरोते हैं जिससे वह ठूंसा हुआ तथ्य नहीं लगता। यह संग्रह भी इस लिहाज से समृद्ध है। पाठक को किसी प्रकार का मुगालता कहें या भ्रम नहीं होता कि वह किस काल खण्ड की कहानी पढ़ रहा है। कहानी में यदि दंबग चैधरी या लठैत का ज़िक्र है तो पाठक सामंती समय में स्वतः चला जाएगा। यदि रामेंद्र की कहानी का पात्र बस में सफर कर रहा है और समाज में संघर्ष कर रहा है तो पाठक स्वतः अनुमान लगा लेता है कि यह कहानी किस समाज और किस काल का प्रतिनिधित्व कर रही है।
एक अंश ऐसा भी-

‘माँ का तन बड़ी माँ के उतरन से ढका जाता। मैंने भी जीवन में कभी नए कपड़े पहनने का अनुभव नहीं प्राप्त किया है। मुझसे उम्र में बड़े बड़े पापा के पुत्र के पहने पुराने घिसे कपड़े ही मुझे पहनने को मिलते जो हमेशा मेरे दुबले-पतले शरीर पर बेतरतीब झूलते रहते किसी बिजूका की तरह । कपड़ों की वजह से मैं हमेशा हंसी का पात्र बनता, पर चुप रहता। बड़े पापा के पास इतना पैसा था कि दस प्रतिशत प्रतिमाह की व्याज दर से उधार लेने वालों का ताँता लगा रहता। उधार के बदले जरूरत मंद मजबूर लोगों के घरों की कीमती वस्तुएं बड़े पापा के घर में भरती जा रही थीं। गाँव के गरीब जरूरत मंद व्यक्तियों के सोने-चांदी के गहने, बर्तन, कीमती सामान यहाँ तक कुछ लोगों के खेत घर भी अब उनके पास नहीं रहे। एक बार उधार लिया तो गिरवी रखी वस्तु कभी कोई छुड़ा न पाया। ब्याज का पैसा चुकाते-चुकाते ही कमर टूट जाती मूल धन हमेशा ज्यों का त्यों खड़ा रहता। रेहन रखे खेत घर या अन्य वस्तुओं की वापसी की उम्मीद वे छोड़ देते थे। गाँव के गरीब पहले से ज्यादा गरीब होते गए, बड़े पापा बड़ी तेजी से पहले से ज्यादा अमीर हो गए। उनका बड़ा सा घर-आँगन अब पहले से ज्यादा चटक रंग रोगन से पुत गया। घर-आंगन का कोना-कोना बिजली के तेज रोशनी वाले बल्बों से जगमगाता रहता। घर जैसी चमक बड़े पापा के चेहरे पर भी आती गई। लोगों का रक्त पान कर के भी बड़े पापा लोकसेवक और गरीबों के मसीहा के रूप मे ख्यात होते गए। लोगों के बुरे वक्त में बड़े पापा का उधारी का धंधा चल पड़ा।’पाठक कोई भी हो। रामेंद्र की कहानी कोई भी हो। पाठक किसी भी वय वर्ग का हो। वह कहानी पढ़ते-पढ़ते सायास ही कहानी का संबंध तत्कालीन समाज और समय के साथ आसानी से जोड़ लेता है। रामेंद्र कहानियों में समाज में आ रही विकृतियों, चुनौतियों और मानसिक द्वंद्वों का पात्रों के साथ ऐसा चित्रण कर देते है कि पाठकों को कहानी पढ़ते-पढ़ते पात्र अपने सम्मुख जीवंत से लगते हैं। वह हाशिए के समाज की ओर खड़े मिलते हैं। एक अंश-

पाठक कोई भी हो। रामेंद्र की कहानी कोई भी हो। पाठक किसी भी वय वर्ग का हो। वह कहानी पढ़ते-पढ़ते सायास ही कहानी का संबंध तत्कालीन समाज और समय के साथ आसानी से जोड़ लेता है। रामेंद्र कहानियों में समाज में आ रही विकृतियों, चुनौतियों और मानसिक द्वंद्वों का पात्रों के साथ ऐसा चित्रण कर देते है कि पाठकों को कहानी पढ़ते-पढ़ते पात्र अपने सम्मुख जीवंत से लगते हैं। वह हाशिए के समाज की ओर खड़े मिलते हैं। एक अंश-


‘रात के बारह बज रहे थे। फुटपाथ पर सोने के लिए एक अदद महफूज जगह तलाशते हुए फकडू सोच रहा था,‘‘निर्धनों को लूट कर ही लोग धनवान बन रहे हैं। कोई उनका श्रम लूटता है तो कोई धन। क्या मालूम ये धनी-दबंग खानदानी कुबेर निर्धनों की बहू-बेटियों की इज्जत-आबरू भी लूटते हों ! सारे धनवान लूटेरे होते हैं। यही वजह है कि निर्धन कभी अपनी निर्धनता से उबर नहीं पाते।’’


रामेंद्र कुशवाहा समाज के कड़वे सच को, यथार्थ को, शोषण को और वीभत्स हो चुकी सच्चाईयांे को पाठक के सामने रखते हैं। वह कई बार कोई समाधान नहीं सुझाते। हर कहानी का आदर्श और सुखान्त अंत वह नहीं करते। अलबत्ता हर कहानी कहीं न कहीं आशावाद बनाए रखती है। हर कहानी चाहती है कि पाठक भी चिन्तन करे। सकारात्मक और सुखद परिणाम के लिए पाठक भी मगजमारी क्यों न करे?


‘‘अच्छा चुप भी हो जाओ, नहीं तो माँ जी आ जायेंगी।’’
‘‘आ जाने दो माँ जी को।’’ बबिता फिर भड़क उठी। ‘‘उनका जानना भी जरूरी है कि मैं क्यों ठंडी औरत बन गई हूँ। तुमने मुझे ठंडा बनाया है। तुम्हारी हरकतों ने मुझे निस्तेज, नाऔरत बना दिया है। सबकी मुझसे ढेरों अपेक्षाएं हैं। जिसे संतुष्ट नहीं किया वही नाराज हो जाता है मुझसे। मेरी तो किसी को परवाह ही नहीं है।’’ बबिता आगे और बोल न सकी। दिल का बचा गुबार अब मुँह के बजाए आँखों के रास्ते निकलने लगा। वह फूट-फूट कर रोने लगी। आँखों को कुहनियों से पोछा तो पाया वह कमरे में अकेली रह गई थी।


रामेंद्र के इस संग्रह में सार रूप में निष्ठुरता, चपलता, चालाकी से भरा समाज दिखाई देता है। इस विकृत हो चुके समाज में कैसे आम, मध्यमवर्गीय परिवारों के भीतर खास रिश्ते दरक रहे हैं उनका चित्रण भी मिलता है। अधिकांश कहानियां भावपूर्ण हैं और पाठक की मानवीय संवेदनाओं को उकेरने का सफल प्रयास भी करती हैं। दिलचस्प बात यह है कि बतौर लेखक की दृष्टि समाजवादी लगती है। वह कहीं भी पूंजीवाद के पक्ष में नहीं दिखाई देती। वह बड़े सलीके से छल, कपट और स्वार्थी लोगों की मज़म्मत भी खूब करते हैं। उपभोक्तावाद की संस्कृति ने जो भारतीय परिवारों का सत्यानाश कर दिया है उसकी ओर भी रामेंद्र इशारा करते हैं। वह अवसरवादी और कामुक पुरुषों को भी नहीं बख़्शते। पाठकों को भी शोषितों के पक्ष में खड़े होने के लिए बाध्य कर देते हैं। इस संग्रह से एक अंश-


‘बबिता बड़ी कठिनाई मे ड्राइवर और दो सवारियों के बीच फंसी हुई बैठी थी। ड्राइवर जब गियर बदलता तो उसे अपनी टांग उठाकर ऊपर हवा में खड़ा करना पड़ता। दाहिनी तरफ से बार-बार ड्राइवर के गियर बदलने में उसका हाथ उसकी दाहिने जांघ को छू जाता तो वह असहज हो जाती थी, पर बेबसी में शांत रहती। बायीं तरफ बैठा यात्री उसकी जांघ से अपनी जांघ सटाकर बैठने का बहाना पा गया था। उसका बांया हाथ भी बबिता की पीठ पर चला जाता तो वह ‘सारी’ बोल देता। बबिता मन मसोस कर रह जाती। उसका दम घुटता-सा हो जाता। खिन्न मन से सोचती कैसी त्रासद यात्रा है! हर बार ऐसा ही होता है।’


भारत पूंजीवादी व्यवस्था के साथ औपनिवेशिकवाद का शिकार हो चुका है। ऐसे समय में यदि ऐसी कथाएं सामने आती हैं जो शोषक और शोषित का नए संदर्भ में रेखाचित्र खींचे और मनुष्यता की बात करे इससे बेहतर बात क्या हो सकती है! वह शोषित को जागरुक होता हुआ भी दिखाते हैं। केवल समस्या खड़ा करना उनका मक़सद नहीं हैं वह चाहते हैं कि सुधार हो। बदलाव हो। उनकी छटपटाहट कैसे पात्र का मन बनकर आई है-


‘पिता की पुश्तैनी जमीन पर मालिकाना हक भी नेता का। जहाँ मैं और मेरे जैसे उच्च शिक्षित-प्रशिक्षित दर्जनों युवा अपनी ऊर्जा झोंक रहे हैं वहाँ का मालिक भी एक नेता है। हम सब मजबूर उसके मजदूर हैं। यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति फैक्ट्री मालिक बना बैठा है और तकनीकी दक्ष मजदूरी करते फिर रहे हैं! मेरी नौकरी भी तो मजदूरों जैसी दिहाड़ी करना ही है।
घर की तंगहाली से परेशान पत्नी बेवजह झल्लाती रहती है। सुबह-सुबह फैक्ट्री की बस पकड़ने की हड़बड़ी में घर से निकला ही था कि पीछे से वह चिल्ला पड़ी, “टिफिन तो लेते जाओ।’’
‘‘हाँ… हाँ…’’ कहते हुए मैं पलटा और झटके से टिफिन लेना चाहा।’

कथाकार पाठकों के सामने अपने चरित्रों के ज़रिए बदहाली के कारणों और शोषकों का चरित्र भी रखते हैं। वह बड़ी सरलता से बार-बार यह कहना नहीं भूलते कि सम्मानजनक स्थिति में आम आदमी को पहुंचा नहीं पाने के लिए मुट्ठी भर लोग ही शोषक हैं। वह पाठकों को यह भी अहसास कराना चाहते हैं कि आम समाज का आम आदमी अनपढ़ है लेकिन बेवकूफ नहीं। वह अब जानने लगा है कि व्यवस्था उसे बदहाल ही रहने देना चाहती है। आम आदमी का गुस्सा गाहे-बगाहे फूटता भी है। चिन्तन बौद्धिक वर्ग की बपौती नहीं है। आम मजदूर दिहाड़ी करने वाला वर्ग भी चिन्तन करता है। नतीजे पर पहुँचता है-


‘बाहर की जान लेवा गर्मी से फकडू को राहत मिली। उसने सोचा सभी कारें ऐसी ही ठंडी और नर्म सीट वाली होती होंगी। अब तक वह सोचता था कि गर्मी-सर्दी तो सभी को सताती होगी। चाहे लोग अमीर हों या गरीब। पर आज वह यह अनुभव कर हैरान था कि पैसे वालों ने प्रकृति के प्रकोप को भी परास्त कर दिया है। प्रकृति का कहर तो बस गरीबों-बेसहरों पर बरपता है। सर्वत्र गरीब ही निशाने पर होते हैं। प्रकृति, समाज, सरकार, मालिक, दुकानदार सब निर्धन को ही नोचते-निचोड़ते हैं। इस लिए निर्धन हमेशा निर्धन ही बना रहता है जबकि धनवान की दंबगई उसे पहले से ज्यादा धनवान बना देती है।’

कथाकार रामेंद्र बुराई का हश्र भी दिखाते हैं। वह भी समय को बलवान मानते हैं। उनकी कथाएं आश्वस्त करती हैं कि जैसा जो कुछ है वैसा नहीं रहता। आम और हाशिए का समाज धीरे-धीरे ही सही एक दिन खड़ा होता है और अत्याचारियों के खिलाफ बिगुल फूंकता है। जमीनी स्तर पर संघर्ष कर रहा समाज भी अपनी बदहाली के कारणों को समझने लगा है। उसके अंदर का जागरुक इंसान धीरे-धीरे आकार ले रहा है। तभी तो वह पात्रों के जरिए यह कहलवाते हैं-


“कैसा अंधेर है!” मैंने गहरी श्वास ली,‘‘इस लूट में बेईमान-कामचोर पनप रहे हैं। धरती-पुत्र दाने-दाने को तरस रहे हैं। मेरी भूमि मजबूरी में ऐसे ही लोगों के हाथों में चली गई। आज हम चाकरी-गुलामी करने को विवश हैं।’’

इस संग्रह की पहली कहानी ’अच्छा पड़ोसी’ है। यह एक साथ भलमनसाहत और चालाकी के पात्रों के सहारे अच्छी कहानी बन पड़ी है। कैसे इस समय में दूसरा आपके भोलेपन, सादगी का भरपूर फायदा उठाता है और क्यों अवसरवाद के साथ एक बड़ा तबका खड़ा हो जाता है। आज के समय में लड़के ही नहीं लड़किया भी प्यार की आड़ में फायदा उठा रही हैं और मौका देखते ही पाला बदल लेती हैं। रामेंद्र कथा को बगैर उदासीन किए एक साथ कई सारी समस्याओं को करीने से कहानी में पिरो देते हैं। एक ओर साधारण और मानवीय मूल्यों के साथ पलता-बढ़ता परिवार और दूसरी ओर अवसरवाद के साथ जीवनयापन करने वाली निष्ठा भी है। इस कहानी में यह कहने की कोशिश भी की गई है कि योग्यता के बलबूते अच्छी नौकरी पाना अलग बात है और राजनीति के सहारे अयोग्य व्यक्ति कैसे योग्य व्यक्तियों पर हावी हो जाते हैं! यह कहानी सत्ता और रसूखदारी को सबसे ऊपर रखने वाले पिताओं की सोच को भी रेखांकित करती है। पाठक मन्थन करता है कि क्या सही है और क्या गलत। आत्मकथात्मक शैली में लिखी कहानी का नायक देर से ही सही औजार के रूप में इस्तेमाल हो चुकने के बाद असल बात समझ जाता है।

संग्रह की दूसरी कहानी ’आसमां से आगे’ है। यह एक शानदार कहानी है। कामकाजी स्त्री घर में तो खटती ही है साथ ही कार्यस्थल की त्रासदी में भी हर रोज झुलसती है। कहानी के केन्द्र में बबिता है। आरम्भ में ऐसा लगता है कि वह दब्बू किस्म की महिला है। अन्तर्मुखी है। आम महिला है। हर स्थिति-परिस्थिति को अपनी नियति मानकर चुपचाप स्वीकारोक्ति करना उसका गुण हैं। लेकिन जैसे-जैसे पाठक कहानी में आगे बढ़ता है तो उसे बबिता की सास, पति और बच्ची पर गुस्सा आने लगता है। उसे लगता है कि कहानी यूँ ही समाप्त हो जाने वाली है। लेकिन कहानी अमूमन अंदाज़ के विपरीत दिशा में बढ़ने लगती है। कथाकार किसी सूरज की मानिंद आकाश से धरती में विचरण करने वाले जीव-जन्तुओं को देख रहा हो जैसे। रामेंद्र कहानी के पात्रों से क्या कहलवाना चाहते हैं। उनका ध्येय स्पष्ट है। वह सताए हुए सच्चे किरदारों में विद्रोह के आंसू भी भर देते हैं। जब वे निकलते हैं तो मात्र विलाप का सूचक नहीं होते। हालांकि कथाकार कथाकार होता है उसे स्त्री कथाकार और पुरुष कथाकार के सांचे में नहीं बिठाना चाहिए। तो इसके माने क्या? एक कथाकार कथाकार होता है बाद में पुरुष-स्त्री होता है। प्रेमचंद ने निर्मला लिखा तो पाठक हैरान हुए कि एक पुरुष होते हुए कोई किशोरी-युवती की पीड़ा-वेदना का मनोवैज्ञानिक चित्रण कैसे कर सकता है? आसमां से आगे इस तरह की ही कहानी है। बबिता का चित्रण भी और एक नारी घर-परिवार और कार्मिकों के साथ कैसे सन्तुलन साधती है? कैसे वह समाज जो कुसमाज हो चला है का सामना करती है। यही नहीं यह कहानी पाठकों को अपने भीतर झांकने के लिए बाध्य कर देती है। पाठक कोई भी हो। उसे लगता है कि उसके भीतर भी बबिता है। उसकी सोच भी भावेश जैसी तो नहीं है?संग्रह में एक कहानी ’भूभक्षी’ है। यह सार्वभौमिक कहानी है। शहर कोई भी हो। राज्य कोई भी हो। हर जगह भू माफियों का मकड़जाल फैला हुआ है। मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग में शामिल होने के लिए छटपटाता हाशिए का समाज किस तरह भू माफियाओं की गिरफ्त में आता है? इस सवाल का जवाब खोजती यह कहानी है। कथाकार ने एक नया शब्द दिया है-भूभक्षी। आत्मकथात्मक शैली की यह कहानी कहानी के दूसरे पात्र सतीश के जरिए जमीन की खरीद-फरोख़्त के जाल को शानदार तरीके से प्रस्तुत करती है। इस कहानी का अंत बड़ा ही शानदार है। यह कहानी के मुख्य पात्र से यह भी कहलाता है-‘‘अब मैं पूर्व की भांति शाम का वक्त बिट्टू को पढ़ाने में इनवेस्ट करूँगा। बिट्टू ही हमारी प्राॅपर्टी है, मुझे उसे संभालना है।’’ इस तरह की सोच कमोबेश आज भी मध्यमवर्ग के अधिकांश अभिभावकों की है।

संग्रह में एक कहानी ’भूभक्षी’ है। यह सार्वभौमिक कहानी है। शहर कोई भी हो। राज्य कोई भी हो। हर जगह भू माफियों का मकड़जाल फैला हुआ है। मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग में शामिल होने के लिए छटपटाता हाशिए का समाज किस तरह भू माफियाओं की गिरफ्त में आता है? इस सवाल का जवाब खोजती यह कहानी है। कथाकार ने एक नया शब्द दिया है-भूभक्षी। आत्मकथात्मक शैली की यह कहानी कहानी के दूसरे पात्र सतीश के जरिए जमीन की खरीद-फरोख़्त के जाल को शानदार तरीके से प्रस्तुत करती है। इस कहानी का अंत बड़ा ही शानदार है। यह कहानी के मुख्य पात्र से यह भी कहलाता है-‘‘अब मैं पूर्व की भांति शाम का वक्त बिट्टू को पढ़ाने में इनवेस्ट करूँगा। बिट्टू ही हमारी प्राॅपर्टी है, मुझे उसे संभालना है।’’ इस तरह की सोच कमोबेश आज भी मध्यमवर्ग के अधिकांश अभिभावकों की है।


आसमां से आगे की कहानी ‘लुटेरे’ आज के समकालीन कथाकारों की कलम से जन्म ले रही है। यह चैंकाने वाली बात है। आज जब हर आदमी उपभोक्तावाद की संस्कृति के ग्लैमर में फंस चुका है। घर-घर में विलासितापूर्ण वस्तुओं की भरमार है। हर व्यक्ति पूंजीवाद के पक्ष में खड़ा हुआ दिखाई देता है। ऐसे में एक कथाकार आम मजदूर के हक की बात करता है। उसकी पीड़ा बयां करता है। यह काबिल-ए-दाद है। कहानी का कहन शानदार है। एक मजदूर की भावनाएं वातानुलूकित कक्ष में बैठकर नहीं लिखी जा सकती हैं। इसके लिए अनुभवों की ताप चाहिए या सूक्ष्म अवलोकन वाला नजरिया। यह कहानी यह भी इंगित करती है कि जैसे-जैसे हम सम्पन्न होते जाते हैं आम समाज से दूर होते चले जाते हैं। यह एक मार्मिक कहानी भी बन पड़ी है।


संग्रह की कहानी ‘मुक्ति’ हाशिए के समाज, अपवंचित वर्ग की प्रतिनिधि कहानी कही जा सकती है। इस कहानी में जिस तरह से समाज में छल, धोखाधड़ी, साजिशें बढ़ रही हैं उसका प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। यह कहानी फिर भी मानवीय मूल्यों को स्थापित करती है। यह बड़ी बात है।


संग्रह में एक और आशावादी और उम्मीद जगाती कहानी है। ‘ईमान का मसीहा’ इस कहानी का नाम है। आज जब चारों ओर सम्पन्न होने की चाह है। अकूल दौलत और स्टेटस सिंबल के लिए लग्ज़री वस्तुएं जमा करने की होड़ मची हो ऐसे में सादगी, सरलता और निष्ठा से जीवन यापन करना बड़ी बात है। यह कहानी भी शानदार बन पड़ी है।


‘उसकी ताकत’ समाज के भयावह चेहरे की ओर इशारा ही नहीं करती बल्कि सोचने पर बाध्य करती है कि बलात्कार के मामले में परिवार का पुरुष समाज पीड़िता की तरह आवाज़ क्यों नहीं उठाता? लोग क्या कहेंगे? सामाजिक प्रतिष्ठा की आड़ में परिवार में इस तरह के कृत्यों के बाद भी पीड़िता के साथ दमदार तरीके से खड़ा नहीं दिखाई देता। यह कहानी मानसिक प्रताड़ना के साथ मानवीय दुर्बलताओं की बानगी है। कहानी अकेली पड़ चुकी पीड़िता के पक्ष को असरदार तरीके से रखती है। पीड़िता भी स्वाभिमान की लड़ाई लड़ती है और अंत में दोषियों के खिलाफ कार्रवाई कराने में सफल हो जाती है।


संग्रह की बारह कहानियों में एक कहानी ‘खुशियों की सवारी’ है। सरकारी योजनाओं का हश्र और विपन्नता का रेखाचित्र खींचती यह कहानी पाठक में खीज पैदा करने में सफल है। मजदूर की पीड़ा का गहरा चित्रण इस कहानी में हुआ है। मजदूर की बेटी संघर्ष और मुश्किलों में आईएएस अधिकारी बनती है। उसके संघर्ष का चित्रण दिल को छू लेता है।


कथाकार कहीं भी सम्पन्न, खाये-अघाये लोगों और रसूखदारों का महिमा-मण्डन नहीं करते। उनकी कहानियों के मुख्य पात्र हाशिए का समाज है। उनकी कहानी आम आदमी की कहानी हैं। ‘न्यायी का न्याय’ में घर से बेटा अपने पिता को घर निकाल देता है। न्यायधीश, भीखू और उसका पुत्र पर केन्द्रित कहानी न्याय पर अगाध विश्वास पैदा करती है।


संग्रह की ‘घुटन’ कहानी पाठकों को अवश्य पसंद आएगी। कहीं न कहीं हर पाठक इस कहानी में अपना संघर्ष देख सकेगा। बेरोजगारी क्या-क्या न करवा दे? क्या-क्या महसूस न करा दे। पूरा परिवार, मित्र और यह समाज भी बेरोजगारी में संघर्ष कर रहे इंसान को किस दृष्टि से देखता है? यह किसी से नहीं छिपा है।


कथाकार रामेंद्र ने पारिवारिक रिश्तों का सूक्ष्म वर्णन अपनी कहानियों में किया है। ‘परिवर्तन’ ऐसी ही कहानी है। विशेषकर पति-पत्नी के रिश्तों को महसूस कराती यह कहानी कहीं न कहीं पुरुष के दंभी चरित्र का खाका खींचती है। संदेह करना ऐसा प्रतीत होता है कि कमोबेश पुरुष का स्वभाव हो गया लगता है। मात्र इस कमजोरी से परिवार कितना और किस तरह से दरकता है? इस पर केन्द्रित कहानी महिला चरित्र की चिंता का बयान भी है।


कहानी ’दंश’ भी पारिवारिक कहानी कही जानी चाहिए। यह मनोदशा की कहानी है। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की कहानी है। परिवार की स्थितियों-परिस्थितियों की कहानी है। परिवार में आ रहे उतार-चढ़ाव की कहानी है। यह कहानी एक समझदार परिवार को क्या करना चाहिए? इस ओर भी इशारा करती है। आवरण मशहूर चित्रकार कुँवर रविंद्र ने बनाया है। किताब पैपर बैक में हैं। डिमाई आकार है। काग़ज़ की गुणवत्ता अच्छी है। फोंट भी अच्छा है। प्रुफ की गलतियां सामान्य से भी बहुत कम हैं। अनुक्रम के बाद एक पेज कोरा छोड़ दिया गया है। वह अखरता है। कथाकार की पूर्व पुस्तक के कुछ अंश यहाँ दिए जा सकते थे। बहरहाल, कुल मिलाकर भाषा की दृष्टि से, देशकाल और परिस्थिति की दृष्टि से यह संग्रह खूब पढ़ा जाएगा। बतौर कथाकार सोच, विचार, भाव-बोध, संवेदनशीलता के साथ सौंदर्यबोध की गहराई के लिए कहानियों के कुछ अंश पढ़कर आप इस किताब तक अवश्य पहुँचना चाहेंगे।

किताब: आसमां से आगे
विधा: कहानी
लेखक: रामेंद्र कुशवाहा
मूल्य: 175 रुपए
पेज संख्या: 146
आवरण: कुँवर रविन्द्र
प्रकाशक: समय साक्ष्य
लेखकीय सम्पर्क: 9410549727
पुस्तकीय सम्पर्क: 0135 2658894
प्रकाशकीय मेल: mailssdun@gmail.com
ISBN 978.93.90743.1.1
प्रस्तुति: मनोहर चमोली मनु
सम्पर्क: 7579111144

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By manohar

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