प्रेमचन्द की 143वीं जयंती की पूर्व संध्या पर विशेष
इसीलिए, प्रेमचंद साप्ताहिक पखवाड़े के तहत आज पाँचवे दिन स्वैच्छिक शिक्षक मंच ने अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन के सहयोग से प्रेमचंद के साहित्य पर चर्चा करते हुए उसे वर्तमान सन्दर्भों के साथ जोड़ने का सफल प्रयास किया। पौड़ी स्थित अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन के टीचर लर्निंग सेन्टर सभागार में वक्ताओं ने प्रेमचन्द के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से चर्चा की।
पौड़ी के पारिवारिक न्यायालय में अधिवक्ता राकेश चंदोला ने प्रेमचन्द कृत उपन्यास निर्मला, शिक्षिका राजू नेगी ने प्रेमचन्द कृत कहानी परीक्षा, युवा कवयित्री रश्मि ने प्रेमचन्द कृत कहानी ठाकुर का कुआं, शिक्षिका स्वाति ने प्रेमचन्द कृत कहानी घासवाली और शिक्षिका अंजलि ने प्रेमचन्द कृत कहानी हिंसा परम धर्म पर अपनी बात रखी।
रविवार तीस जुलाई दो हजार तेईस की सुबह ग्यारह बजे संवाद गोष्ठी का आरम्भ अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के विकास ने यह कहकर किया कि प्रेमचन्द के साहित्य को यदि आज के संदर्भ में देखें तो वह आज भी प्रासंगिक है। वह कल्पना और यथार्थ के समन्वय से जिस तरह सामाजिक सरोकारों को हमारे सामने रखते हैं वह चौंकाता है।
राकेश चंदोला ने अपनी बात रखते हुए कहा कि उस दौर का निर्मला उपन्यास महिलाओं की स्थिति और मनोविज्ञान का पहला उपन्यास है। उस दौर में सामाजिक विषमता, महिलाओं की स्थिति, दहेज प्रथा, पिता की आयु के व्यक्ति से विवाह पर केन्द्रित है। प्रेमचन्द पुरुष होकर जिस तरह निर्मला के चरित्र को रेखांकित करते हैं यह चौंकाता है। निर्मला कमोबेश उस दौर की महिलाओं खासकर युवतियों की दयनीय हालत को दिखाता है। उसकी पति के प्रति प्रेम और परायणता भी शक के घेरे में आ जाती है। वह विपरीत परिस्थितियों से जूझती हुई अंततः मर जाती है। सहमति के बिना किया या करवाया गया विवाह किस कदर जीवन बर्बाद करता है। यह इस उपन्यास को पढ़ते हुए समझ में आता है। आज पारिवारिक न्यायालयों में शिक्षित समाज के युगल विवाह विच्छेद को आते हैं। यह मामले बढ़ते ही जा रहे हैं जो आज की सामाजिक स्थिति पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हैं।
राजू नेगी परीक्षा कहानी पर बोलते हुए कहती हैं कि देवगढ़ के दीवान सुजान सिंह बूढ़े हो गए थे। राजा ने उन्हें ही नए दीवान को चुनने की जिम्मेदारी सौंपी। नया दीवान बनने के लिए कई उम्मीदवार थे। परीक्षा का तरीका अलग था। एक महीने उन्हें देवगढ़ में रहना पड़ा। कोई भी उम्मीदवार ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता था जिससे उसका चयन कमजोर न पड़े। एक दिन वे सभी हॉकी खेले। हार-जीत तो हो नहीं पाई। लेकिन वह सब थक गए। वह लौट रहे थे तो रास्ते में एक नाला था। एक बूढ़ा किसान अनाज से भरी गाड़ी लेकर आ रहा था और उसकी बैलगाड़ी कीचड़ में फंस गई। उस किसान ने सहायता के लिए पुकारा लेकिन वे सब आगे बढ़ गए। लेकिन उनमें एक लंगड़ाता हुआ युवक जो खेलते समय घायल हो गया था वह मदद करता है। उसकी मदद से बूढ़ा किसान अपनी बैलगाड़ी कीचड़ से निकाल पाने में सफल हो जाता है। बाद में चयन के दिन सुजान सिंह कहते हैं कि हमें दीवान के रूप में दयावान और आत्मबल वाला वीर चाहिए था। कर्तव्य पालन, दया और उदारता के लिए वह उस युवक जानकीनाथ को कीचड़ में फंसी बैलगाड़ी का किस्सा याद दिलाते हैं। राजू नेगी ने कहा कि भले ही यह कहानी राजा और उसके राजकाज के काल की है लेकिन इस कहानी में जीवन मूल्यों की कहानी है। आज जब हम अपने चारों ओर देखते हैं तब दया, साहस, मदद, सामूहिकता की हमें सबसे ज़्यादा जरूरत है। आज तो हमें जानकीनाथ जैसों की अधिक जरूरत महसूस होती है।
रश्मि ने ठाकुर का कुआं कहानी का सन्दर्भ देते हुए कहा कि उस दौर में शिक्षा की कमी थी। गंगी को यह तो पता था कि बदबूदार पानी नहीं पीना चाहिए। लेकिन वह यह नहीं जानती थी कि उसे उबालकर पिया जा सकता था। उस दौर में छूआछूत, महिलाओं की स्थिति और सम्पन्न लोगों के घरों में भी महिलाओं की जो स्थितियां थीं उस पर यह कहानी बहुत ही सटीक बैठती है। आज यह कहना कि भेदभाव नहीं है। छूआछूत नहीं है। गरीबी मिट गई। दलितों पर कोई अत्याचार नहीं होते। ऐसा नहीं है। आज भी स्थिति नहीं बदली है। आज तो समाज में विघटन और अधिक दिखाई देता है।
स्वाति ने घासवाली के सन्दर्भ में कहा कि उस दौर में मुलिया और महावीर जैसे-तैसे अपना गुजारा करते हैं। मुलिया घास बेचकर गुजारा कर रही है। चैनसिंह मुलिया का हाथ पकड़ लेता है और वह उसे डांट देती है। मुलिया जिस तरह से तर्कों के साथ चैनसिंह को जवाब देती है उससे चैनसिंह का मन बदल जाता है। वह अपने नौकरों के प्रति भी बदल जाता है। वह महावीर के इक्के को चलते रहने के लिए उसकी सेवाएं लेता है। मुलिया और उसकी सास सहित महावीर का जीवन बताता है कि कैसे गरीबी में हाशिए का समाज जीवन यापन करता है और इस कहानी में सवर्ण और हाशिए के समाज का जो चित्रण आया है वह विचार करने योग्य भी है। आसक्ति भी मन बदलती है और चैनसिंह को मुलिया का बाजार में घास बेचना अच्छा नहीं लगता। बाद में मुलिया जब चैन सिंह से मिलती और कहती है कि तुमने जो मेरी बाँह पकड़ी थी कैसे भूल सकती हूँ। उसी की लाज निभा रहे हो। तुमने मुझे बचा लिया नहीं तो गरीबी आदमी से जो चाहे क्या न करा दे। यह कहानी गरीबी, मजदूरों की स्थिति, सम्पन्न लोगों की सोच और प्रभाव, महिलाओं के प्रति समाज का नजरिया, आसक्ति के साथ तार्किकता को भी पर्याप्त स्थान देती है।
अंजलि ने हिंसा परमो धर्मः कहानी पर चर्चा करते हुए कहा कि जामिद हर किसी के लिए हर दम मदद को तैयार रहता था। लोग समझाते कि दूसरों के लिए अपना सब कुछ खपाने का कोई मतलब नहीं। एक दिन वह सब छोड़कर एक शहर चला गया। वह देखता है कि सब लोग मज़हब के पक्के हैं। ईमान के पक्के हैं। वह एक मंदिर की सफाई करने लगता है। उसके आस-पास लोग खड़े हो जाते हैं। वह जवाब देता है कि ठाकुर जी तो सबके ठाकुर हैं। क्या हिन्दु क्या मुसलमान। उसका उपयोग किया जाने लगा। अब वह मन्दिर में जाकर कीर्तन करता। उसका खूब सम्मान हुआ और वह भक्तों का चहेता बन गया। फिर एक दिन किसी बूढ़े को एक युवक मारता है तो जामिद उसकी मदद को उलझ जाता है। जामिद की जमकर पिटाई होती है। फिर उसे अहसास होता है कि उसके बचाव को भीड़ ने किस तरह लिया। रात भर कराहता रहा। सुबह उठा तो वही बूढ़ा मिला। जो मौका पाते ही भाग गया। अब वह काज़ी साहब की बात करने लगा। अब वह जामिद को काज़ी साहब के घर ले गया। काजी साहब इस्लाम कूबूल करवाने के लिए कर रहे हैं यह जानकर उसे हैरानी होती है। वह किसी तरह उस महिला को उसके पति के पास पहुंचा देता है। बाद में जब वह यह कहता है कि उस शरारत का बदला किसी गरीब मुसलमान से न लीजिएगा। इसके साथ ही जामिद शहर से अपने गांव यह महसूस करते हुए लौटता है कि उसके यहां मजहब का नाम सहानुभूति, प्रेम और सौहार्द है वहीं शहर में धर्म और धार्मिक दूसरे मज़हबी लोगों से घृणा करना है यह सोचकर उसे घृणा हो गई। यह कहानी आज बढ़ रहे साम्प्रदायिक तनाव पर भी प्रासंगिक है। आज मनुष्यता धर्म के खांचों में बंट गई है। यह दुखद है।
संवाद और विचार गोष्ठी में बिमल नेगी, श्वेता, पूजा, देवेन्द्र, प्रदीप रावत, मुकेश धस्माना, अंकिता, विश्वनाथ, मानवी, अंकिता, सुभाष, मनोहर, मृगांक, अनुभव, मनोहर ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
प्रस्तुति : मनोहर चमोली