शिक्षक, संघ और अल्मोड़ा


प्रांतीय अधिवेशन का मक़सद पूरा हो गया है। अधिवेशन में शामिल प्रत्याशी, प्रतिनिधि और मतदाता शिक्षक भी अब अपने कार्यस्थल पर पहुँच गए हैं। पहली पसंद, दूसरी पसंद, मतों का हिसाब-किताब भी लग चुका है। अत्यधिक बारिश के चलते विद्यार्थी विद्यालयों में नहीं हैं। हम शिक्षक अपने विद्यालयी काम-काज निपटाने के साथ-साथ सम्पन्न हुए चुनाव पर चर्चा कर ही रहे हैं। ऐसे तमाम शिक्षक हैं जिन्होंने अब तक किसी भी प्रान्तीय चुनाव को प्रत्यक्ष नहीं देखा है। कुछ शिक्षक ऐसे हैं जो अब तक के सभी प्रांतीय चुनाव के प्रत्यक्ष गवाह रहे हैं। वे जानते हैं कि अगर सब कुछ ठीक चल रहा होता तो उत्तराखण्ड के राजकीय शिक्षक सन् 2023 में आठवीं प्रान्तीय कार्यकारिणी को चुन रहे होते। कोरोना काल के कारण तो कुछ पदाधिकारियों की हीलाहवाली के साथ-साथ सदस्य शिक्षकों की उदासीनता के चलते शिक्षक समाज अभी-अभी पांचवी राज्य कार्यकारिणी का चुनाव कर अल्मोड़ा से लौट आया है। कूप में भांग पड़ी है। यह कहना उचित नहीं होगा। लेकिन यह भी सही है कि संघ के पदाधिकारियों पर इसका ठीकरा नहीं फोड़ा जा सकता। शिक्षक समाज ने कौन-सा प्रस्ताव-पर-प्रस्ताव पास कर इस आशय के भेजे या भिजवाएं कि चुनाव कराइए-चुनाव कराइए। समय पर चुनाव हो। यह प्रतिबद्धता आम शिक्षक के जे़हन में है क्या?

सांस्कृतिक, साहित्यिक, शैक्षिक और पर्यटक नगरी अल्मोड़ा में कभी ‘बेडू पाको बारामासा, नरेणा काफल पाको चैता मेरी छैला’ गीत सरे आम बजता था। खूब बजता था। आज भी गाहे-बगाहे बजता है। समुद्र तल से 1642 मीटर की ऊँचाई पर बसा अल्मोड़ा कोसी और सुयाल नदी को निरन्तर निहारता है। यह शहर पढ़े-लिखों का शहर है। लगभग 650 साल पुराना यह शहर ऐतिहासिक दृष्टि से भी सैलानियों के लिए अध्ययन का केन्द्र रहा है। चंदवंशियों के साथ यहाँ गोरखा समाज भी है तो व्यापार-वाणिज्य के लिए आए भारतीय समाज की विविधता भी यहाँ है। मन्दिरों के साथ-साथ ब्रिटिशकालीन चर्च भी है। शिक्षण केन्द्र भी हैं तो अत्याधुनिक होटल भी हैं। खीम सिंह की बाल मिठाई भी है तो दही-जलेबी का उपलब्धता भी है। कटारमल का सूर्य मन्दिर और गोविन्द बल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान भी है। नंदा देवी मंदिर तो मल्ला महल भी है। जिला पुस्तकालय भी है। कई किस्से हैं। कहानियां हैं। मिथक भी हैं तो गोल्ज्यू महाराज पर अगाध आस्था भी है। अल्मोड़ा की पारम्परिक वेश-भूषा भी है।

बहरहाल, उत्तराखण्ड के राजकीय शिक्षक संघ की राज्य कार्यकारिणी का चुनाव सम्पन्न हो गया। लेकिन, इसके लिए शिक्षक साथी गिरीश पनेरू ने बाकायदा हाई कोर्ट से प्रार्थना की थी। हाई कोर्ट के आदेश पर यह चुनाव सम्पन्न हुआ। है न कमाल की बात? यानि शिक्षक समाज और शिक्षकों का शीर्ष नेतृत्व कर रही कार्यकारिणी अभी भी प्रान्तीय चुनाव संविधान की मंशा के अनुसार नहीं करा पा रही थी। कोई विधिक कारण भी नहीं था। खैर…. इस संघ में राजकीय हाई स्कूल और इण्टरमीडिएट विद्यालय के इच्छुक शिक्षक सदस्य होते हैं। इच्छुक का अर्थ यह है कि संघ की सदस्यता स्वैच्छिक है। यह अनिवार्य नहीं है। हर साल शिक्षक को संघ की सदस्यता का नवीनीकरण कराना होता है। विद्यालय स्तर पर शाखा की कार्यकारिणी का गठन होता है। विकासखण्ड स्तर पर एक संघ की कार्यकारिणी बनती है। द्विवार्षिक चुनाव होते हैं और बाक़ायदा सदस्य प्रत्याशियों में से चुनाव करते हैं। इसी तरह जिला स्तर पर संघ का चुनाव होता है। फिर मंडल स्तर पर और फिर राज्य स्तर पर चुनाव होता है। जिला स्तर तक प्रत्येक सदस्य शिक्षक को वोट डालने का अधिकार होता है।

अलबत्ता मंडल स्तर पर और राज्य जिसे प्रान्त कहा जाता है इकाई स्तर से तय शिक्षक ही वोट डालने के अधिकारी होते हैं। संघ के प्रति हम शिक्षक कितने निष्ठावान हैं? सोचनीय है। इस पांचवे अधिवेशन में देखा जाए तो 6300 के आस-पास मतदाता शिक्षक पहुँचने चाहिए थे। यदि इतने मतदाता शिक्षक पहुँचते तो यह संदेश अवश्य जाता कि शाखा स्तर तक संघ के सदस्य हैं। लेकिन सदस्यता के आधार पर और संविधानानुसार 2696 मतदाता ही इस अधिवेशन में रहे। यानि हाई स्कूल और इण्टरमीडिएट विद्यालयों की इकाई शाखाओं के स्तर से मात्र 42 फीसदी सहभागिता रही। इसका सीधा-सा अर्थ यह हुआ कि अभी संघ को विकास खण्ड स्तर पर ही नहीं, इकाई स्तर पर भी अपनी आधार सदस्यता को बढ़ाना होगा। बारह मत अवैध पाए गए। यह उदासीनता है कि लापरवाही? विचार करने की आवश्यकता है। शासन-प्रशासन को साफ संदेश जाता है कि संघ में शक्ति लचर है। आप क्या कहते हैं? तथ्य और तर्क से परे जाने का कोई तुक नहीं बनता। 

यदि संवैधानिक स्तर पर मतदाता शिक्षकों की ही बात करें तो 2696 की संख्या के साथ-साथ लगभग 5000 शिक्षक साथी अधिवेशन में शामिल हुए। यह बड़ी बात है। तीन दिवसीय अधिवेशन की बजाय इस बार दो दिवसीय अधिवेशन होने के कारण शैक्षिक उन्नयन गोष्ठी जैसा कुछ नहीं हो पाया। रही-सही कसर बारिश ने पूरी कर दी। वैसे यह अधिवेशन चार साल पहले हो जाना चाहिए था। समयबद्ध नहीं हुआ। शिक्षकों ने अपना आक्रोश व्यक्त कर ही दिया। प्रान्त की कार्यकारिणी भंग हो चुकी थी और नामांकन प्रक्रिया के बाद प्रत्याशियों को बोलने का अवसर देने का समय था। दो बार हंगामा हो गया। हंगामा करने वाले शिक्षकों को अपने आचरण पर और व्यक्तित्व पर सोचना चाहिए। पहली बार निवर्तमान अध्यक्ष केके डिमरी शांत होने की अपील करने लगे तो शिक्षकों ने उन्हें सुनने से साफ इनकार कर दिया। यही नहीं, जब बतौर अध्यक्ष प्रत्याशी निवर्तमान महामंत्री डॉ॰ सोहन माजिला अपनी बात रखने लगे तो एक मिनट उन्हें बोलने ही नहीं दिया गया। जब वे बोले तो शोर इतना बढ़ गया कि माजिला जी को चीख-चीख कर अपनी बात कहनी पड़ी। कहनी क्या पड़ी! सुनानी पड़ी।

हालांकि अधिकांश शिक्षक साथी इस बात पर सहमत थे कि जो हुआ ठीक हुआ। लेकिन कोई भी संघनिष्ठ साथी यह नहीं कहेगा कि किसी प्रत्याशी को बोलने ही नहीं देना ठीक बात है। सोहन माजिला को मतदान कर दो बार प्रान्तीय महामंत्री शिक्षकों ने ही बनाया। वह अपने शिक्षकों के मध्य इस बार अध्यक्ष पद की दावेदारी कर रहे थे। चुपचाप उनकी बात सुनी जानी चाहिए थी। बहरहाल, उन्हें वैध मतों के हिसाब से डॉ॰ माजिला 18 फीसदी शिक्षकों की पहली पसंद रहे। 20 फीसदी शिक्षकों की पहली पसंद रविन्द्र राणा रहे। वहीं पहली पसंद के तौर पर राम सिंह चौहान को सत्तावन फीसदी मत मिले।


इससे पूर्व महामंत्री पद के उम्मीदवार गिरीश पनेरू अपनी बात रख ही रहे थे। उन्होंने यह कह दिया कि अल्मोड़ा में कुछ शिक्षकों ने बार खोल दिया है तो दूसरे प्रत्याशियों के समर्थक भड़क उठे। असंतुष्ट शिक्षक भी मंच के सामने आकर धक्का-मुक्की करने लगे। विवाद इतना बढ़ गया कि सीईओ अल्मोड़ा को फोर्स बुलानी पड़ी। वहीं मंच पर निवर्तमान अध्यक्ष केके डिमरी शांत हो जाने की अपील कर रहे थे तो इसी शिक्षक समाज ने हूटिंग कर डाली। स्टेज के बांयी और बैठे कई शिक्षक ऐसे थे जो बार-बार प्रत्याशियों के विचार व्यक्त करते हुए यह कहकर व्यवधान डाल रहे थे कि समाधान क्या है ये बताओ। समस्याएं नहीं समाधान चाहिए। चिल्ला-चिल्लाकर समाधान-समाधान की बात करने वाले शिक्षकों को यह भी पता नहीं था क्या कि प्रत्याशियों को बोलने का हक संविधान ने दिया है। यह समय उनको सुनने का है। व्यवधान पैदा करने का नहीं।


अब प्रत्याशियों की बात ले लें। 9 उम्मीदवार कोषाध्यक्ष पद के लिए दावेदारी कर रहे थे। इन्हें अधिकतम 3 मिनट बोलने का मौका दिया गया। लगभग आधा घण्टा इन्हें सुनने में लग गया। संयुक्त मंत्री पद पर 4 प्रत्याशी थे। इन्हें भी 3 मिनट का समय दिया गया। पन्द्रह मिनट से अधिक का समय यहां बीत गया। महामंत्री पद के लिए 7 दावेदार थे। इन्होंने भी आधा घण्टा लेना ही था। लेकिन हो-हल्ला होने की वजह से आधा घण्टा और बरबाद हो गया। 7 उम्मीदवार कोषाध्यक्ष पद पर थे। इन्हें 5 मिनट मिले। इन्होंने 40 मिनट से अधिक का समय खपा दिया। चार उम्मीदवार अध्यक्ष पद पर थे। यहां अंत में वर्णमालानुसार सोहन माजिला सबसे बाद में बोले तो बोलने नहीं दिया गया। एक घण्टा उसमें लग गया। यानि देर रात तक जो घपरौल वहां मची वह देखने लायक थी।


31 उम्मीदवारों ने शिक्षकों को संबोधित किया। लगभग 3 घण्टा 40 मिनट पण्डाल पर शिक्षक बैठे रहे। मंच के ठीक सामने बैठे शिक्षकों ने खूब आनन्द लिया। ठहाके लग रहे थे। तालियां बज रही थीं। प्रान्तीय पदाधिकारियों के लिए दावेदार प्रत्याशी कमोबेश शायरी कर रहे थे। रामलीला का पाठ खेल रहे थे। पुराने पदाधिकारियों को कोस रहे थे। अधिकारियों को कोस रहे थे। ऐसे जुमले बोल रहे थे जिससे दर्शकदीर्घा से बारम्बार ठहाके फूट रहे थे। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम प्रान्तीय कार्यकारिणी के जिम्मेदार पदों पर काबिज होने के लिए आतुर धीर-गंभीर वक्ताओं को सुन रहे हों। लग ही नहीं रहा था कि हमारे 14 साल पुराने संघ ने उतरोत्तर प्रगति की है।

संघ के संविधानानुसार पदों के कार्य विभाजन स्पष्ट है। लेकिन इन 31 उम्मीदवारों के भाषणों में अधिकांश भाषण तो ऐसे लग रहे थे जैसे रणभेरी से पूर्व आह्वान हो रहा हो। कुछ शिक्षक साथी तो किसी सरकार के मुखिया की ध्वनि में तब्दील हो गए थे। पूर्व में पदाधिकारी रह चुके कई प्रत्याशियों की ध्वनि में ‘मैं’ की भावना साफ झलक रही थी। कुछ तो पलट-पलट कर मंच पर बैठे प्रत्याशियों को इंगित करने का अवसर भी नहीं चूक रहे थे। जानकार मानते हैं कि संघ की कार्यप्रणाली लगातार पतित होती जा रही है। बावजूद इसके शिक्षकों को संघ की छतरी के नीचे आने की बाध्यता भी है और कहीं न कहीं भरोसा भी है।


अल्मोड़ा चार दिन अत्यधिक दबाव में रहा। होटल कर्मचारी और मालिकों ने सबसे ज़्यादा दो-तीन सवाल ही आगन्तुकों से पूछे। उनसे जो होटल में रात बिताने आ रहे थे। क्या आप शिक्षक संघ के चुनाव में आए हैं? एक रात रुकेंगे या दो रात? आप किसके सपोर्टर हैं? तीसरे सवाल का जवाब देने पर ही रात बिताने का ठिया नसीब हो रहा था। सीधी-सी बात है कि बहुत सारे (सब नहीं) प्रत्याशियों ने अपने समर्थकों के लिए खाने-पीने और ठहरने का इंतज़ाम किया हुआ था। हर होटल में दो-तीन प्रत्याशियों के छह-सात कमरे पहले से ही आरक्षित थे। माल रोड़ पर तो कुछ प्रत्याशियों के दस से बीस कमरे आरक्षित थे। कुछ प्रत्याशियों ने जनपदवार शिक्षक-शिक्षिकाओं के लिए अलग से कमरे आरक्षित करवाए हुए थे। शिक्षक (सब नहीं) प्रत्याशियों से और प्रत्याशियों के कथित पीआरओ से कमरे मांगते नज़र आ रहे थे। वहीं बहुत से शिक्षक ऐसे थे जिन्होंने अपने व्यय पर अल्मोड़ा के आस-पास मँहगी दरों पर भुगतान कर ठहरना उचित समझा। बहुत से ऐसे शिक्षक थे जिनका स्वाभिमान किसी की कृपा नहीं चाह रहा था। लेकिन छह की दोपहर बाद अल्मोड़ा में ऐसी स्थिति आ गई कि शिक्षकों को पूर्व से आरक्षित प्रत्याशियों के होटलों में शरणागत होना ही पड़ा। अल्मोड़ा के स्थानीय पियक्कड़ों को तीन रात बहुत ही परेशानी का सामना करना पड़ा। उनके नियमित ठियों पर अल्मोड़ा से बाहर के साक़ी लबालब भर-भराने को आतुर मिले। स्थानीय नियमित पियक्कड़ अपने ही शहर में अजनबी से हो गए।


खैर….संघ के संविधान में स्पष्ट लिखा गया है कि प्रान्त के संघ का कार्यकाल दो वर्ष का होगा। अपरिहार्य परिस्थितियों में प्रान्तीय कार्यकारिणी का कार्यकाल अधिकतम एक शिक्षा सत्र तक बढ़ाया जा सकता है। सामान्यतः कार्यकाल न बढ़ाया जाय। लेकिन दूसरा प्रान्तीय चुनाव भी एक साल आगे खिसकाया गया। प्रान्तीय चुनाव अब तक चार बार हुए हैं। लेकिन इस बार यानि पांचवी बार विभाग द्वारा तीन दिवसीय की जगह इसे दो दिवसीय कर दिया गया। यही नहीं, इस बार की व्यवस्था में सिर्फ मतदान करने वाले शिक्षकों को हो अधिवेशन में जाने का आदेश कर दिया गया। जबकि संविधान में स्पष्ट है कि अधिवेशन में विद्यालय स्तर की शाखा से 10 सदस्यों में 01 मत देने का अधिकार होगा। 11 से 20 सदस्यों तक 02 मत देने और 21 से 30 सदस्यों तक 03 मत देने का अधिकार होगा। संविधान की धारा 9 क में साफ लिखा है कि अधिवेशन में भाग लेने वाले सदस्य जिन्होंने निर्धारित सदस्यता एवं प्रतिनिधि शुल्क जमा कर दिया हो, प्रतिनिधि माने जायेंगे। अधिवेशन में भाग लेने वाले प्रतिनिधि और मतदान के अधिकारी शिक्षक अलग हैं। लेकिन, इस बार संघ को और कमजोर करने बाबत यह आदेश निकलवाया गया या निकला पर शिक्षकों में रोष व्याप्त हो गया।

इतिहास पर नज़र डालें तो पहला प्रान्तीय अधिवेशन-अध्यक्ष भीम सिंह और महामंत्री लक्ष्मण सिंह बिष्ट निर्वाचित हुए। यह अधिवेशन 27 से 29 अगस्त 2009 में रा॰इं॰कॉ॰ अल्मोड़ा में सम्पन्न हुआ।

दूसरा प्रान्तीय अधिवेशन-अध्यक्ष करनैल सिंह और महामंत्री सरदार सिंह चौहान निर्वाचित हुए। यह अधिवेशन 28 से 30 अगस्त 2012 में क्षितिज पैलेस, कोटद्वार में सम्पन्न हुआ।

तीसरा प्रान्तीय अधिवेशन-अध्यक्ष राम सिंह चौहान और महामंत्री डॉ॰ सोहन माजिला निर्वाचित हुए। यह अधिवेशन 15 से 17 नवम्बर 2015 में ए॰एन॰झा रा॰इं॰कॉ॰ रुद्रपुरा में सम्पन्न हुआ।

चौथा प्रान्तीय अधिवेशन-अध्यक्ष कमल किशोर डिमरी और महामंत्री डॉ॰सोहन माजिला निर्वाचित हुए। यह अधिवेशन 22 से 24 नवम्बर 2017 में श्री लक्ष्मण विद्यालय इं॰कॉ॰ देहरादून में सम्पन्न हुआ।

पाँचवा प्रान्तीय अधिवेशन-अध्यक्ष राम सिंह चौहान और महामंत्री रमेश चंद्र पैन्यूली निर्वाचित हुए। यह अधिवेशन 6 और 7 जुलाई 2023 में में रा॰इं॰कॉ॰ अल्मोड़ा में सम्पन्न हुआ।


शैक्षिक उन्नयन के लिए समय ही नहीं रखा गया। ऐसे में शिक्षा पर क्या खाक विमर्श होता! अधिवेशन से एक दिन पूर्व ही बारिश के होने से सारी व्यवस्था चरमरा गई। इतनी बारिश हुई कि माननीय शिक्षा मंत्री जी का संबोधन कॉलेज के छोटे से सभागार में करना पड़ा। जहाँ बमुश्किल 100 शिक्षक भी श्रोता के तौर पर नहीं बैठ पाए। नामांकन प्रक्रिया भी इसी सभागार में हुई। व्यवस्था कुव्यवस्था में बदल गईं। पूर्व शिक्षक नेता नवेन्दु मठपाल को याद दिलाना पड़ा कि मौजूदा कार्यकारिणी को भंग तो करो। अल्मोड़ा, पौड़ी, गोपेश्वर जैसे शहरों की एक जैसी प्रकृति है। अल्मोड़ा में पर्यटकों की वजह से माल रोड़ पर अत्याधुनिक होटल हैं। हमारे प्रान्तीय अधिवेशन ने समूचे अल्मोड़ा की रोजमर्रा की यातायात व्यवस्था की कमर तोड़ दी। सारी पार्किंग गाड़ियों से अटी पड़ी थी। यहां तक कि शहर को जोड़ने वाले सभी बाहरी मार्ग के दोनों किनारे चौपहिया वाहनों से संकरे हो गए।

आलम यह हुआ कि सात जुलाई की सुबह ग्यारह बजे चारों और गाड़ियों से जाम लग गया। अल्मोड़ावासी पांच जुलाई की सुबह तक सामान्य थे। पांच की शाम आते-आते शहर की दीवारें, बिजली के खंबे और खासकर माल रोड़ फलैक्सियों-पोस्टरों से अटा पड़ा था। छह की शाम से ही अल्मोड़ा के स्थानीय बाजार में खासकर चाय-पान की दुकानें, रेस्टोरेन्ट और होटल से स्थानीय ग्राहक धकिया दिए गए। वे खुद ही नेपथ्य में चले गए! व्यापारी समाज भी अजगजा गया। खीमसिंह बाल मिठाई वाले के घर में किसी परिजन की मौत दो-तीन दिन पूर्व हो चुकी थी तो माल रोड़ पर ही दीवान स्वीट्स के साथ एक और बाल मिठाई की दुकान की जैसे लाटरी लग गई। क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अल्मोड़ा शहर से कितनी बाल मिठाई खरीदी गई होगी? लगभग दस हजार किलो बाल मिठाई इन चार दिनों में बिकी होगी। लगभग चौंतीस लाख की मिठाई अल्मोड़ा से पूरे राज्य में फैल गईं। अमूमन हर शिक्षक साथी दो-एक किलो बाल मिठाई साथ में ले गये हैं। कुछ उदारवादी शिक्षकों ने अपने लिए और अपने रिश्तेदारों के लिए भी बाल मिठाई खरीदी। खूब खरीदी।

वैसे, कुछ परम्परा संघ को आरम्भ करनी चाहिए। जैसे-निर्वतमान कार्यकारिणी पंजीकरण के दौरान हर प्रतिनिधि और मतदाता को एक किलो बाल मिठाई दे सकती थी। पंजीकरण शुल्क में 100-200 रुपए और ले लिए जाते तो कम से कम हजारों शिक्षक माल रोड़ पर मिठाई नहीं खोज रहे होते। आप क्या कहते हैं? होटलों-रेस्तराओं की भी बात कर लेते हैं। लगभग एक लाख रुपए से अधिक की तो शिक्षक समाज चाय पी गए। लगभग दस लाख रुपए की आमदनी भोजन से भी हुई होगी। पीने का तो कोई हिसाब नहीं। अलमोड़ा में पन्नी की बरसातियां खत्म हो गईं। छतरियाँ छोटी-बड़ी सब खत्म हो गईं। कुछ दुकानदार भवाली तक से स्टाक सामान खरीद कर अल्मोड़ा ले आए। खाड़-कबाड़ सब बिक गया। बारिश से कुछ-एक की तो दीवाली हो गई। यह सब लिखने का अभिप्राय यह है कि शिक्षक समाज किसी भी शहर का और किसी भी व्यवसाय की आर्थिकी की रीढ़ है। कोई तो यह तक कहने लगा कि हर साल चुनाव होना चाहिए। हर दो साल के अंतराल पर तो होना ही चाहिए।

अल्मोड़ा के राजकीय इंटर कॉलेज परिसर में पहले दिन घुसते ही शानदार चाय मिली। मिलती रही। पानी भी मिलता रहा। डिस्पोज़ल गिलास ऐसे ज़ाया हो रहे थे जैसे वे पतझड़ में गिरे पत्ते हों। दोपहर को शानदार झोली-भात, दाल, पूरी और सब्जी थी। अल्मोड़े की खट्टी हरी चटनी ने स्वाद बढ़ाया। कई शिक्षक लाईन तोड़ते आगे प्लेट पर भिड़ते नज़र आए। बारिश ने सारा गुड़ गोबर कर दिया। अन्यथा फौरी व्यवस्था ठीक-ठाक थी। अपराह्न के बाद तो प्रत्याशियों का संबोधन पंडाल के नीचे ही हुआ ठैरा। लगभग रात्रि नौ बजे तक कॉलेज में खूब गहमा-गहमी रही। हजारों मोबाइल कैमरों की क्लिकें बता रही थीं कि शिक्षक-शिक्षिकाओं में सेल्फी का शौक चरम पर है। यह मौका भी था और दस्तूर भी। ऐसे कई शिक्षक थे जिन्हें वोट देते-देते यह पता तक नहीं था कि कौन किस पद पर उम्मीदवार है। मत देते समय बहुत सारे शिक्षक ऐसे थे जिन्होंने औसत से बहुत अधिक समय प्रत्याशियों के नाम के आगे सम्मुख खाने में टिक लगाने में बिताया। अमूमन शिक्षकों के मोबाइल की गैलरी लबालब हो गई। बस खींची हुई फोटोज़ पानी में नहीं बही।

पूरे परिसर में संगठन के प्रति निष्ठावान शिक्षक भी मिले। बेहद अनुशासित, जानकार और संघनिष्ठ साथी भी मिले। असंतुष्ट शिक्षक साथी भी मिले। झल्लाए और पूर्व पदाधिकारियों को धिक्कारते हुए शिक्षक भी मिले। पहले दिन और दूसरे दिन मत देने के लिए पँक्तिबद्ध शिक्षकों में ऐसे शिक्षक भी मिले जो मुँह में मानो नुवान का कुल्ला किए हुए हों। पोलिंग बूथ परिसर में एक दीवान जी ऐसे मिले जो बार-बार बड़ी निष्ठुरता से और पुलिसिया अंदाज़ में प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार कर रहे शिक्षकों पर खूब बरस रहे थे। उनसे ऐसे बात कर रहे थे जैसे वे चोर उचक्के हों। कई शिक्षकों की कमीज में टंगे बैज-बिल्ले और सिर पर चुनावी प्रचार टोपी इन दीवान जी ने निष्ठुरता-कड़कता के साथ उतरवा दी। मतदान के बाद घण्टों तक कार्यमुक्ति का प्रमाण-पत्र खोज रहे शिक्षक झल्लाए हुए मिले। जिला स्तरीय सांगठनिक साथियों के काम में सामंजस्य नहीं दिखाई दिया।

तेरह कमरों में जनपदवार मतदाताओं की सूची बनाना आसान काम नहीं है। अकेले मंत्री और अध्यक्ष की यह जिम्मेदारी नहीं होती। कुछ ब्लाक अध्यक्ष पहले भी निठल्ले थे वह यहां इंतजामात में भी निठल्ले ही दिखाई दिए। लेकिन पंजीकरण-नामांकन को कहीं न कहीं सूचना तकनीक का बेहतर उपयोग कर सरल बनाया जा सकता था। अगस्त 2009 से आरम्भ हुई शिक्षक संघ की यात्रा ने कई पड़ाव देखे। आज जुलाई 2023 है। अल्मोड़ा, कोटद्वार, रुद्रपुर, देहरादून और फिर अल्मोड़ा। हम हर बार इस चुनाव को भव्य बनाते जा रहे हैं। ऐसी भव्यता जिसमें भौंण्डापन और कच्चापन ज़्यादा दिखाई देता है। क्या हमारे हर आगामी चुनाव में पिछले चुनाव से निरन्तर सादगी बढ़नी चाहिए थी। हमारे संघ के चुनाव अधिकाधिक सरल होते जाने चाहिए थे। हम इसे कुटिल-जटिल क्यों बनाते जा रहे हैं?

हमे चाहिए था कि हम इसे बहुप्रतीक्षित बनाते। यह सकारात्मक होता चला जाता। प्रेरणादायक होता। हमें आशान्वित बनाता। हम इसका हिस्सा बनते हुए गौरवान्वित होते। हर बार यह हमें तरोताज़ा करता। इस तरह की बहस करने का अवसर देता कि हम अपने नेतृत्व से सवाल पूछते। हम पूछते कि बताइए हम आपको अपनी पहली पसंद क्यो बनाएं? लेकिन हो क्या रहा है? लगातार द्विवार्षिक अधिवेशन हमें नकारात्मक उत्तेजना से भर रहा है। हम घटियापन आचरण पर उतर जा रहे हैं। भद्दे विचार व्यक्त कर रहे हैं। अशिष्ट आचरण सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित कर रहे हैं। कुपित स्वभाव और दूसरे पर व्यंग्यपूर्ण वाक्यों की बौछारें कर रहे हैं। हमने संविधान में अब तक एक भी संशोधन नहीं किया। क्या वाकई हमारा संविधान त्रुटिमुक्त है। क्या किसी भी तरह के सुधार की हमें आवश्यकता नहीं? यही नहीं, मूल संविधान की प्रति भी पता नहीं किसी प्रान्तीय कार्यकारिणी ने दोबारा प्रकाशित की हो!

और अंत में यह कहना जरूरी होगा कि तमाम असहमतियों के हम आम शिक्षक अपने में से ही कुछ शिक्षकों को विकासखण्ड स्तर पर, जिला स्तर पर, मंडल स्तर पर और प्रान्त स्तर पर इसलिए खास नहीं बनाते कि वे संघ के उद्देश्यों-कार्यो की ओर पीठ कर लें। हम और आप सिर्फ अपने नेतृत्व को कोसने के लिए भी नहीं हैं। हम निरन्तर उनसे सवाल करें। उनसे पूछे कि बताइए आपने संघ के लिए क्या किया? आपकी संघीय पोलिटिक्स क्या है? इससे बड़ी बात यह है कि हम हर बार अपने अनुभवों से सीखें। योग्य उम्मीदवार को पहली पसंद बनाएं। किसी के झांसे में न आएं। किसी की सुविधा और प्रलोभन को नहीं स्वीकारें। हमें याद रखना होगा कि प्रलोभन और सुविधा लेने के बाद हमें आसानी से गुमराह किया जा सकता है। नाहक सुविधाएं लेने के बाद हम गुमराह हो जाते हैं। कई बार हम सही-गलत का निर्णय करने पर समझौतावादी हो जाते हैं।

इस बार भी हमने पंजीकरण, नामांकन के दिन, मतदान के दिन और मतदान के बाद अल्मोड़ा को क्या दिया? आयोजन स्थल को, आयोजकों को कहीं ठेस तो नहीं पहुँचाई? अल्मोड़ा बाज़ार में हम शिक्षक के तौर पर नज़र आए? अल्मोड़ा हमारे कृत्यों से अनुगृहीत हुआ होगा? हमारे अल्मोड़ा से जाने के बाद कोई भावुक हुआ होगा? स्थानीय स्तर पर विभाग, प्रशासन, शासन और अल्मोड़ावासी आश्वस्त हुए होंगे कि हमारे हाथों में नौनिहालों का भविष्य सुरक्षित है? इन सवालों का जवाब मिले तो लिखिएगा। और अंत में। हर बार उम्मीद जगती है कि चुनाव हो गए। सब मिलकर संघ को मजबूत करेंगे। इस बार मुख्य पदों के इन 31 साथियों को कांधे से कांधा मिलाकर हम देखना चाहेंगे।उन्हें भी जो सिर्फ संघ को कोसते हैं। संघ के लिए समय नहीं निकालते। आइए। हम सब मिलकर अपने संघ को मजबूत बनाएं।

क्या ऐसा कभी हो कि हमारे प्रत्याशी मतदाता शिक्षकों को रिझाने के लिए जो भी सुविधाएं मुहैया कराएं और हम सब उसे एक सिरे से ठुकरा दें? सोचिए! फिर क्या होगा? हमने तो यहां तक भी सुना है कि दूसरी-तीसरी-चौथी पसंद पर रहे उम्मीदवार कहते फिरते हैं कि फलां को हमने खिलाया-पिलाया और वह फिर भी फलां का हो गया। इसमें कितनी सच्चाई है? कौन जाने। लेकिन यह उतना ही सच है कि अल्मोड़ा में प्रतिनिधियों-मतदाता शिक्षकों के लिए निःशुल्क आवासीय-भोजन और आवाजाही का हर्जा-खर्चा कई प्रत्याशियो के द्वारा वहन किया बताया जा रहा है।

-मनोहर चमोली ‘मनु’

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By manohar

2 thoughts on “आइए, अपने गिरेबान में झाँके..!”

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