-मनोहर चमोली ‘मनु’
भारत को अभी पूर्ण साक्षरता हासिल करने के लिए चालीस बरस और चाहिए। ऐसा माना जा रहा है। यह बुनियादी साक्षरता भी महज़ कक्षा तीन के स्तर की पढ़ाई के अक्षर और अंक ज्ञान हासिल कर लेने तक सीमित है। यदि बाल साहित्य पिक्चर बुक से ही घर-घर में चिप्स-चॉकलेट की तरह उपलब्ध हो तो संभव ही नहीं है कि बच्चे पढ़ने की संस्कृति की ओर न बढ़ें। स्कूल बैग में सभी विषयों की एक अदद किताब से साल भर बच्चे पढ़ने की ललक कैसे हासिल कर सकते हैं? अकेले हिन्दी भाषी राज्यों के सभी बच्चों के हिसाब से उपलब्ध बाल साहित्य एक हजार में एक बच्चे के पास भी नहीं होगा! क्या उपलब्ध बाल साहित्य बालमन के अनुरूप है? इस पार विचार करेंगे तो यह चर्चा ही बदल जाएगी।
बाल साहित्य
जिसे बड़ों के अलावा बच्चे भी आनन्द के साथ पढ़ें। जिसे देखकर-पढ़कर बच्चे मुस्कराएं। थोड़ी देर सोचें। सवाल करें। उसे बाल साहित्य माना जा सकता है। बच्चों को केन्द्र में रखकर लिखी रचना बाल साहित्य है। यह सोचना गलत है। बच्चों के लिए लिखने से पहले बच्चा बनना पड़ता है। यह कहना और मानना भी गलत है। तब? कौन नहीं जानता कि अभी-अभी स्कूल जाने वाला बच्चा कोरी स्लेट नहीं होता। मिट्टी का लोंदा नहीं होता। स्कूल जाने से पहले उसने अपने अनुभव के आधार पर घर-परिवार, पड़ोस और समाज के कुछ कायदे देख-समझ लिए हैं। उसके पास अपनी एक समझ है। भले ही इस दुनिया में आए उसे चार-पाँच साल हुए हैं लेकिन उसने लम्हा-लम्हा जिया है। पल-पल की गणना में उसका तजुर्बा सिफ़र कैसे हो सकता है?
वह साहित्य जो बच्चों में आदर्श भर दे। बच्चों को नई सीख दे दे। बच्चों को आदर्श नागरिक बना दे, वह बाल साहित्य है? यदि हाँ! तो फिर स्कूली किताबें क्या कर रही हैं? घरों में रखे ग्रन्थ क्या कर रहे हैं? इस समाज के तथाकथित बड़े-बुजुर्ग, सरकारें, संस्थाएं क्या कर रही हैं?
वह सब बाल साहित्य है जिसे पढ़ते हुए बाल पाठक आनंदित हो। बाल साहित्य आनन्द से ओत-प्रोत होता है। वह जिज्ञासा जगाता है। उसकी पहली शर्त आनंद है। एक बच्चा जो अक्षरों की दुनिया से अभी वाक़िफ नहीं है। उसने राह चलते एक चित्रात्मक पोस्टर देखा। बशर्ते वह पोस्टर सूचनात्मक-तथ्यात्मक न हो। पोस्टर देखकर उसका अनुभव समृद्ध हुआ। उसे एक नई दृष्टि मिली। समझ का विस्तार हुआ। उसने बड़ों से चर्चा की। सवाल पूछे। इसे आप क्या कहेंगे? सही सोच रहे हैं। यह भी बाल साहित्य है।
बाल साहित्य: क्यों?
बच्चों के लिए भी साहित्य हो। ऐसा हम बड़ों ने सोचा। यह सोच सौ-डेढ़ सौ साल से अधिक पुरानी नहीं है। भारत की बात करें तो ऐसा सोचने वाले भी बामुश्किल पाँच-सात फीसदी ही रहे होंगे। भारत में तो पचास के दशक की चुनौतियाँ ही कुछ और थीं। गुलामी से मुक्ति के बाद राष्ट्रवाद सिर चढ़कर बोल रहा था। बोलता भी क्यों नहीं! अकाल, भूखमरी और बीमारियाँ तब चहुँ ओर पसरी हुई थी। साठ-सत्तर के दशक में देश रोटी, कपड़ा और मकान की आधारभूत समस्याओं के हल पर जुटा हुआ था। अस्सी के दशक में भारत को महसूस हुआ कि सबसे पहले तो साक्षरता ज़रूरी है। जनता पढ़ी-लिखी हो। इक्कीसवीं सदी तक आते-आते हम कहाँ पहुँचे? हम मानते हैं कि अंकों और अक्षरों की साक्षरता से रोजगार मिल सकता है। लेकिन हम यह भी समझने लगे हैं कि साझा जीवन, मानवीयता, संवेदना और सामूहिकता के लिए मानवीय संवेगों-मूल्यों को प्रगाढ़ करना और भी ज़्यादा ज़रूरी है। अब जाकर महसूस हो रहा है कि भारतीय बच्चों की विविधता भी तो वृहद है। पहाड़ और मैदान के बच्चे। देहात के बच्चे। फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे। घुमन्तु बच्चे। वन गूजरों के बच्चे। बाढ़, भूकंप, भूस्खलन आदि के बाद दंगों-युद्धों से उपजे शिविरों में रहने वाले बच्चे। महानगरों के बच्चे। गाँव के बच्चे। कभी न स्कूल गए बच्चे। बीच में स्कूल छोड़कर जाने वाले बच्चे। यह सूची लंबी है। सोचिए। इन बच्चों के पास स्कूली पाठ्यपुस्तकों के अलावा साहित्य के नाम पर कुछ किताबें हैं? यदि हैं तो वह विविधता से भरी हैं? उनकी पसंद की किताबें हैं? क्या हर बच्चे की पहुँच में हैं? इन सब सवालों के जवाबों के आलोक में यह तो तय है कि बाल साहित्य की महत्ता का पता चलता है।
बाल साहित्य के आयाम
यह अनंत है। कोई तयशुदा चौखट बनाना बच्चों की कल्पनाशक्ति को सीमित करना होगा। बाल साहित्य को किसी लंबाई, चौड़ाई या ऊँचाई में भला कौन रख सकता है ! इसकी थाह पाना मुश्किल ही नहीं असंभव है। बाल साहित्य एक खिड़की है। इस खिड़की से बच्चे दुनिया में झांकने का शऊर सीखते हैं। झांकने की ललक यदि जग गई तो फिर बच्चे खुद-ब-खुद साहित्य के सहारे समूची दुनिया तक पहुँच जाते हैं। बाद उसके वह दुनिया को बेहतर बनाने में भी भागेदारी करते हैं। हर बच्चा अनूठा है। दूसरे से अलग है। विशेष है। प्रत्येक बच्चा इस दुनिया में एक नई दुनिया रचना चाहता है। वह इसे और बेहतर बनाना चाहता है। बशर्ते हम बड़े बच्चों को उनके सपने पूरे करने दें। क्या हम बच्चों को उनकी नज़र से सपने देखने की आज़ादी देते हैं। बाल साहित्य ऐसी आजादी देता है। वह बच्चों को और रचनात्मक बनाने की ताकत देता है।
बाल साहित्य: कैसा?
बाल साहित्य कैसा हो? इसका नपा-तुला जवाब नहीं हो सकता। पढ़ना क्रिया है। इसे करते हुए स्थिति, परिस्थिति, देशकाल और मिज़ाज भी आनंद की सीमा को निर्धारित करता है। कोई एक रचना सभी बच्चों को पसंद आ जाए। ऐसा कैसे हो सकता है ! विविधता से भरी रचनाओं की महती आवश्यकता है। साहित्य में बात सुई से लेकर हाथी तक की होनी चाहिए। भूतल, सागर ही नहीं अंतरिक्ष की बातें भी बच्चों की दुनिया में शामिल होनी चाहिए। बच्चे इसी दुनिया का हिस्सा है। यह बच्चों के मतलब का नहीं है। यह बहुत लापरवाही से दिया गया कथन ही तो है। हाँ साहित्य में बच्चों की आवाज़ें हों। उनकी शब्दावली हो। वह सब हो जिनके लिए बच्चे जाने-पहचाने जाते हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से ओत-प्रोत विषय भी बच्चों के लिए है। गर्भ में शिशु कैसे बनता है? उसका जन्म कैसे होता है? किन्नरों की दुनिया क्या है? समलैंगिकता क्या है? यह विषय भी बच्चों के लिए हैं! यह रोचकता के साथ बच्चों के लिए लिखे जाएं। यह चुनौती है। ‘फलां विषय बच्चों के लिए नहीं है!’ यह हम किस आधार पर तय कर लेते हैं? हम बड़ों को यह बात समझ लेनी चाहिए कि बाल साहित्य बच्चों को कल्पना और यथार्थ से बुनी ऐसी सामग्री देता है जो किसी नीति, धर्म और नैतिक शिक्षा की किताब का हिस्सा नहीं होती। हाँ! बाल साहित्य बच्चों को आतंकवादी बन जाने की प्रेरणा तो नहीं दे सकता।
बाल साहित्य बच्चों में कैसी सोच विकसित करे? यह बाल पाठक पर छोड़ना उचित होगा। एक छोटी-सी कविता और कहानी क्या एक ही विचार देती है? क्या कोई एक रचना पढ़ने के बाद सभी पाठकों में एक ही दृष्टि बनती होगी? उत्तर होगा-नहीं। दीगर बात यह है कि बाल साहित्य से प्रेरणा पाकर कोई पाठक दुनिया को तबाह करने वाला नायक बनने की कसम खा सकता है? बस ! ऐसा नहीं होना चाहिए। यानी नकारात्मकता और विध्वंस की ओर बढ़ाने वाला साहित्य हम नहीं लिखें। नकारात्मकता और अराजकता सही है। हम यह स्थापित नहीं करें। हम बड़ों को उस बच्चे के बारे में सोचना चाहिए जिसके सामने हर रोज़ जीवन की कई परतें रहस्य की तरह खुलती हैं। उसके सवालों को बचकाना माना जाता है। बच्चों को देखते ही हम तुतलाने लगते हैं। बनावटी भाषा बोलने लगते हैं। क्या कोई बच्चा हमें ऐसा करने को कहता होगा? ऐसे में हम बड़ों के अनुभव बच्चों के लिए एक और दुनिया का किस्सा हो सकते हैं। वह हम बड़ों का लिखा हुआ पढ़ते हुए अपने अनुभवों को समृद्ध करता है। है न दिलचस्प? लेकिन बाल साहित्य भी तो दिलचस्प होना चाहिए! हम बड़े बच्चों को बोदा समझते हैं। हमें समझना चाहिए कि बच्चों को अच्छे से पता है कि पेड़ नहीं बोलते। वह भी जानते हैं कि किसी चिराग़ को घिसने से जिन्न नहीं आता। ऐसा जिन्न जो हमारी सभी इच्छाएं पूरी कर दे। बच्चे जानते हैं कि सुबह-सुबह मीठा खाने से परीक्षा का पर्चा अच्छा नहीं हो जाएगा। वह भी जानते हैं कि परियाँ नहीं होती। लेकिन, उनकी रचनाशीलता और कल्पनाशीलता ही है जो उन्हें खिलंदड़ी जीवन जीने को उकसाता है। बाल साहित्य को चाहिए कि वह बच्चों की कल्पनाशीलता का सम्मान करे। इससे आगे वह उसकी कल्पना को पंख भी दे और उड़ान का हौसला भी दे।
बाल साहित्य: चुनौतियाँ
बाल साहित्य अभी अपने बाल्यकाल में है। अब बच्चे अपने लिए तो बाल साहित्य लिख नहीं सकते। जाहिर-सी बात है कि बड़े ही बच्चों के लिए बाल साहित्य लिख रहे हैं। लेखन कला के विकास के हिसाब से बाल साहित्य को देखें तो वह अत्यल्प है। जो लिखा हुआ है उसमें अधिकतर बच्चों को आदर्शवाद का पाठ ज़्यादा पढ़ा रहा है। अधिकांश बाल साहित्य बनावटी दुनिया को बनावटी भाषा में पिरोता हुआ दिखाई देता है। बच्चे अनुमान और कल्पना का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन, वह जीते तो यथार्थ में ही हैं। परियों की रोचक कहानियों से किसे इनकार है ! लेकिन हम उन्हें स्थापित कर रहे हैं तो गलत है। भूत, प्रेत, गड़ा हुआ खजाना पर भरोसा कराती हुई कहानियां गलत उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। कर्म से अधिक किस्मत-भाग्य पर भरोसा कराता हुआ साहित्य बच्चों का भला नहीं कर पाएगा। ऐसा बाल साहित्य बच्चों को किस ओर ले जाएगा? यह सवाल ही डराता है। परी और भूत के किस्से बच्चों को हैरान करते हैं। तो कराइए न ! लेकिन उन्हें इस तरह से प्रस्तुत तो मत कीजिए कि बच्चे यह मान ही लें कि भूत होते हैं। परियां आती है और सारी समस्याएं चुटकी में हल कर देती हैं। इस बचकाना नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? झूठ की दुनिया दिखाता हुआ बाल साहित्य क्या उचित है? जहाँ दुःख और संघर्ष की कोई जगह नहीं है। इतिहास उठा लें। कोई राजा अच्छा हुआ? हुआ होगा क्या? लेकिन वह जुल्म, शोषण, बेगार, आम और खास की दूरी पाटने वाला तो नहीं ही होगा। ऐसे में बाल पाठकों को भला राजा जैसा नायक दिखाकर कैसे भला होने वाला है?
बाल साहित्य के नाम पर बच्चों को पात्र बनाकर साहित्य रचने वाले मानते हैं कि केन्द्र में बच्चा होना चाहिए। इसके ठीक उलट केन्द्र में कुछ भी हो। वह बच्चे के मन में कौंधे। बच्चा मुस्कराए। सोचे। विचार करे। अपना अनुमान लगाए। कल्पना के घोड़े दौड़ाए। अपने अनुभव के आधार पर मन-मस्तिष्क को खगाले। कुछ शानदार उदाहरणों से बात को आगे बढ़ाते हैं। मुझे कक्षा में ग्रीन बोर्ड पर छोटी-छोटी कहानी या कविताएँ लिखना अच्छा लगता है। उन्हें पढ़ना और फिर विद्यार्थियों से पढ़वाना भाता है। उसके बाद जो बातचीत होती है। वह बहुत ही शानदार होती है। छठीं कक्षा से लेकर बारहवीं कक्षा के विद्यार्थियों की मिली-जुली राय सामने आती है। यह सोचना कि छोटे बच्चे ही बाल साहित्य पसंद करते हैं। गलत है। मासूम और रचनात्मक राय छोटे बच्चे ही रखते हैं। यह सोचना भी गलत है। जब हम विद्यार्थियों से यह कहते हैं कि अब तुम इस कहानी-कविता के घेरे को तोड़कर कहाँ तक सोच-समझ सकते हो तो मजेदार बातें सामने आती हैं।
एक छोटी सी कहानी आप भी पढ़िए-
पुरानी बात। एक बिल्ली थी। एक दिन उसने ऊन का गोला निगल लिया। उसके बाद उसके बच्चे हुए। वह सभी स्वैटर पहने हुए थे।
बस! इतनी-सी यह कहानी है।
यह कहानी बच्चों को अनुमान और कल्पना के सागर में न जाने कितने गोते लगाती है। बच्चे कई बार ठहर-ठहर कर इस कहानी के बारे में सोचते हैं। ऐसा कब से होने लगा होगा? बिल्ली चूहे छोड़कर ऊन का गोला क्यों कर खाने लगी होगी? बिल्ली के पेट में सलाई में फन्दे किसने डाले होंगे? क्या बिल्ली के पेट में स्वैटर बुनने का कारखाना होता होगा? बिल्ली के पेट में ठंड होती होगी क्या? बच्चे स्वैटर पैदा होने के बाद भी तो पहन सकते थे। ऐसे अनगिनत सवाल बच्चे खुद से पूछते हैं। वह बिल्ली के करीब होते हैं। वह इस दुनिया में हर जीव के बच्चों से प्यार करने लगते हैं। कोई उपदेश नहीं। कोई नसीहत नहीं। कोई सीख-हिदायत नहीं है। और हाँ! इस अनाम लेखक की कहानी के पात्र में कोई बच्चा नहीं है। दूसरी बात यह कहानी तो मुझे भी अच्छी लग रही है।
दो पँक्ति की एक कविता भी अनाम कवि की है।
‘बिल्ली का दिल कहता है।
हर बिल में चूहा रहता है।’
मेरे जैसे इस कविता में रस, छंद, अलंकार और लय खोजते रहें। लेकिन यह बच्चों की ज़बान पर चढ़ी है। वह आए दिन इसे गाते फिरते हैं। यह जो बिल्ली का यकीन यहाँ झलक रहा है। वह बच्चों को शानदार लगता होगा। उनके भीतर भी कुछ यकीन पैदा होते हैं। झाँकने में जो आनंद बच्चों को मिलता है उसकी हम कल्पना कर सकते हैं? यह दिल कहता है या दिमाग कहता है? कब कहता है? और यदि किसी बिल में चूहा नहीं हो तो? तब क्या बिल्ली अपनी धारणा बदलेगी? ऐसा कैसे हो सकता है कि बिल्ली यह मान ही ले कि हर बिल में चूहा है। यह इस बात का प्रतीक है कि बिल संभवतः चूहे ने दिल से बनाया है। उसे बनाने में अपनी जान झोंक दी है तो रहेगा भी। एक ऐसी ही छोटी-सी कविता है। आप भी गौर कीजिएगा।
‘चूहा निकला बिल से। हैप्पी दीवाली दिल से।’
इस कविता के कई आयाम बच्चों के सामने आते हैं। बच्चों की राय जो सामने आती है वह बड़ी दिलचस्प है। यथा-चूहा डरपोक नहीं होता। वह भी दीवाली के मजे लेना चाहता है। चूहे को पता होता है कि अमावस कब आती है। दीवाली सभी की है। यानी रोशनी सभी को चाहिए। चूहे को भी पता है कि दीवाली कैसे मनानी है। त्योहार उदासी दूर करने के लिए आते हैं। त्योहार मिल-जुलकर मनाने चाहिए।
कवि प्रभात की एक छोटी-सी कविता है। इसे विद्यार्थियों से साझा किया तो वह मुस्कराने लगे। बहुत देर सोचने लगे। पहले कविता आप भी पढ़िए। ‘मिल गया तो चूहों ने, अखरोट खा लिया। ना मिला तो पतलून, कोट खा लिया।’ इस कविता में बच्चों को भाँति-भाँति के रंग दिखाई दिए। चूहों को भी जीने का हक है। यदि चूहों को खाने को पर्याप्त मिले तो वह हमारे कपड़े नहीं कुतरेंगे। चूहा जंगली होता है उसे घरों में नहीं आना चाहिए। चूहा घर में आकर पता नहीं क्या खोजता रहता है। चूहा अपने दाँत पैने करता है। उसे कुतरने को नई-नई चीजे़ं चाहिए। चूहे जानबूझकर आदमियों के घरों में घुसते हैं। चूहे को साँप से दोस्ती कर लेनी चाहिए। चूहे जानते हैं कि कोट, जूते और रजाई उनके लिए नहीं बने हैं। तभी वह उन्हें कुतर डालते हैं।
यह कुछ झलकियाँ हैं। ऐसा साहित्य बच्चों को लुभाता है। वह भी इस दुनिया में अपने अस्तित्व को महत्व देने लगते हैं। वहीं बाल साहित्य के नाम पर ऐसी सामग्री भी है जो बालमन की अहमियत को आए दिन मसलती रहती हैं। उनमें तार्किकता से परे नकारापन, दब्बूता और निराशा परोस रही है। ऐसी रचना सामग्री पढ़कर बच्चे निराश होते हैं। वह भी एक ढर्रे की सोच के आदी होने लगते हैं। कुछ उदाहरणों से आगे बढ़ते हैं। ‘एक था पेटू। उसका पेट घड़े से भी बड़ा था। उसे पचास रोटियाँ नाश्ते में चाहिए होती थीं। . . . ।’ सोचिए। ऐसे बच्चे जिनके घरों में बड़े पेट वाले होंगे। यह भी कि अच्छी खासी-ख़ुराक क्या अपराध है। इस तरह की सामग्री पाठक को साहित्य के करीब लाएगी? गुदगुदी पैदा करना साहित्य का लक्षण है लेकिन किसी वर्ग, जात, समूह, लक्षण या आदत की खिल्ली उड़ाना साहित्य का मक़सद नहीं।
‘एक साँप था। वह बहुत ही दुष्ट था। आए दिन चिड़ियों के अंडे खा देता था। एक दिन . . . ।’
लगता है कि ऐसी सामग्री साँप को घास खाने के लिए बाध्य कर ही देगी।
‘एक धूर्त कौआ रोज़ाना रोहन की छत पर आकर बीट कर देता। काँव-काँव की कर्कश आवाज़ से उसका सिर दर्द कर देता। रोहन ने सोचा . . .।’ किसी जीव की ध्वनि को हम कैसे कर्कश कह सकते हैं। लगता है कि जीवों के लिए भी शौचालय बनाए जाने चाहिए।
‘राम और श्याम दो भाई थे। दोनों जुड़वा थे। अभी वह चौथी कक्षा में पढ़ते थे। राम बहुत दयालु था। श्याम बहुत ही लालची था। श्याम अपने बड़े भाई राम से जलता था। वह चोर भी था। घर में ही चोरी कर देता था। श्याम से हर कोई परेशान था। . . . .।’
कहानी के इस अंश से बच्चों के प्रति हम बड़ों की सोच का पता चलता है। चौथी में पढ़ने वाले बच्चे को हमने चोर घोषित कर दिया। हम न्यायधीश बन बैठे हैं। भाई-भाई या बहन में प्यार-तकरार मानवीय स्वभाव का हिस्सा है। तो हम यह कहने के अधिकारी बन बैठे हैं कि फलां फलां से जलता है। फिर कहानी के अंत में हम यह स्थापित कर देते हैं कि अब वह चोरी नहीं करता। अब उसके भीतर से ईर्ष्या हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गई।
यह कुछ उदाहरण हैं। साहित्य को पाठ्यपुस्तक -सा बनाने की बड़ों की जिद ने पढ़ने की ललक को कुंद ही किया है। पंचतंत्र का मक़सद कुछ और था। उसी ढर्रे पर हम इक्कीसवीं सदी के बाल पाठकों को बहला नहीं सकता। यह बहलाना कोई ठगाना नहीं है। यहाँ बहलाने का अर्थ यह है कि अभी तो उन्हें पाठक बनाने की ओर उन्मुख करना है। यदि बाल साहित्य ललक या चस्का नहीं जगा सका तो बाल पाठक साहित्य से दूर बहुत दूर चले जाते जाएंगे। हाँ एक बार वह साहित्य को पढ़ने के प्रति संजीदा हो गए तब आप कुछ भी परोसिए। वह अपनी तार्किकता और अनुभव से दूध का दूध और पानी का पानी कर ही देंगे।
-मनोहर चमोली ‘मनु’
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