धर्मवीर बत्तीस साल बाद मिला

धर्मवीर ! कद लगभग छह फुट ! सांवला रंग। दुबला-पतला शरीर। धूप-मिट्टी और रंग बदलते मौसम के साथ घुली-मिली गठी हुई देह। भाल और भौंहे आँखों को सामान्य से अधिक भीतर ले जा चुकी हैं। नाक उभरी हुई है। इतनी कि उसकी ही आँखें अपने होंठों को नहीं देख सकती हैं। धर्मवीर के सिर पर बालों का गुच्छा है। वे एक तरह से चेहरे की छतरी है। चेहरे पर पतली सी मूँछें हैं। मूँछों की सरहद होंठ के दोनों किनारों से आगे तक फैली हुई हैं। माथे से टपकता पसीना लुढ़ककर होंठों तक नहीं जाएगा। गालों से लुढ़ककर ठुड्डी से बहता हुआ ज़मींदोज़ हो जाएगा। अपनी ही देह के पसीने में नमक ज़्यादा होता है। मेहनत-मजूरी करते समय तो मीठा खाने का मन करता है। काश ! पसीने का स्वाद मीठा होता।


मैं धर्मवीर को पहचान नहीं पाया। कैसे पहचानता? तीस-इकतीस साल बाद मुलाकात हुई है। नाम तक भूल गया था।

समय हमारी स्मृति की चादर में धूल की परतें पोत देता है। यदि समय-समय पर यादों के उजाले में नहीं गए तो वही परतें खुरचने पर भी नहीं हटतीं। माँजी ने बताया,‘‘बेटा। धर्मवीर मिलने आया है। खेत में भाई के साथ खड़ा है।’’ मैं मिलने गया। वह खेत में खड़ा हुआ था। दोनों हाथ जोड़कर आँखें झुका ली। मैंने हाथ बढ़ाया। लेकिन उसका हाथ नहीं बढ़ा। उसकी कोहनियों ने हथेलियों को ऊपर उठाया। वह नमस्ते की मुद्रा में एक-दूसरे के साथ चिपक गईं।


मैंने धीरे से पूछा,‘‘कैसे हो?’’ धर्मवीर ने मेरी आँखों में झांकते हुए जवाब दिया,‘‘बहुत अच्छा।’’ मैं चुप था तो वह बोल पड़ा,‘‘मैं तो कई दिन आपके यहाँ आ गया हूँ। आपके घर का खाना खा लिया है। यहाँ कई बार चाय पी ली है। धनिया, मूली, हरी सब्जियाँ ले गया हूँ। बस ! आपसे मिलना चाहता था। भाई साहब ने बताया कि आप आने वाले हो। तो मिलने आ गया।’’ वह चाय पी चुका था। बड़े भाई से बात कर रहा था।


दरअसल। बीती बरसता में खेत के किनारे का पुश्ता गिर गया था। वह लगाया गया तो बहुत-सी मिट्टी बगल के स्वामी के खेत में बिखरी हुई थी। दोनों भाईयों के साथ धर्मवीर ने उसे उठाने का काम किया। खेतों में कई बड़े पेड़ों की डालें छांटने के सिलसिले में उसका हमारे घर आना हुआ था। काम तो खत्म हो गया था लेकिन धर्मवीर की तरफ से कुछ छूटा हुआ था। वह उसे सहेजने आया था।


‘‘तीन दिन तो पेड़ों की कटाई-छंटाई में लग गए। मैंने भाई जी से कह दिया था। मेरे साथ खड़ा रहना। रस्सी है। पाठल है। डाल है। भारी पेड़ थे। कई बातें होती हैं। दोनों भाई साहब भी पूरा-पूरा दिन साथ में लगे रहे। माताजी से भी मुलाकात हो गई थी। बस ! आपसे मुलाकात नहीं हुई थी।’’ उसने अपने आने का कारण बताया।
‘‘आगे भी पढ़ाई की थी?’’
‘‘नहीं गुरुजी। बस ! आपने पांचवी तक पढ़ाया। उसके बाद मैं ही नहीं पढ़ पाया। आपको खूब याद करता हूँ। अबकी जमाने में न वो पढ़ाई है, न वैसे गुरुजी रहे। जाखतों में भी वो बात नहीं रही दिक्खे।’’
‘‘बाल बच्चे कितने हैं?’’
‘‘बस गुरुजी। ऐसा ही कुछ हो गया। गरीबी बहुत थी न। शादी नहीं की। बस, किसी तरह गुजारा हो रहा था। आज भी वैसे ही चल रहा है। हबड़-तबड़ नहीं है। चैन से दिन बीत रहे हैं।’’ यह कहते हुए वह शरमा-सा गया। कुछ झेंप से माथे पर बल पड़ गए।
मैंने बात बदलनी चाही। पूछ लिया,‘‘गाँव का वह सौर ऊर्जा का प्लाण्ट अभी भी है?’’


‘‘अजी नहीं। सब खुर्द-बुर्द हो गया। मेरे साथ के कई तो कब के चले गए। उन्हें शराब और एब खा गए। दुख होता है। आपने तो म्हारे गाँव में आकर साक्षरता चलाई। वे बड़े-बूढ़े तो मर-खप गए जिन्हें आप अक्ल देना चाहते थे। लेकिन मेरे जैसे कई हैं जो आपको याद करते हैं। बार-बार याद करते हैं। आप हम बच्चों को एक दिन चिड़ियाघर ले गए थे।’’


मैं तीन दशक पहले के समय में पहुँच गया। गाँव के बुनियादी स्कूल में पढ़ाने के बाद तीन से चार बजे साक्षरता केन्द्र चलाता था। महिलाएँ तो खू़ब आती थीं। पुरुषों को जोड़ने में बहुत मेहनत करनी पड़ी थी। वह कहता जा रहा था। आगे बोला,‘‘यहाँ आता हूँ तो अपनापन-सा लगता है। आपके परिवार के लोग बहुत अच्छे हैं। वैसे, समाज से ऐसा माहौल तो गया वैसे। आपके दोनों बड़े भाई, भाभियाँ भी बहुत अच्छी हैं।’’


‘‘और मैं?’’ उसने फिर से हाथ जोड़ लिए। वह मुस्कराया तो उसकी मूँछे गालों की तरफ फैल गई। करीने से बनाई गई मूँछों के बाल किसी भरी-पूरी फसल की तरह लहरा रहे थे। वह गरदन को नहीं-नहीं में हिलाते हुए बोला,‘‘जी बुरे की तो बात ही नहीं है। हमारे भली के लिए आप पिटाई भी करते थे। आपकी हर बात सच्ची थी। हमी बचपने में थे। क्या करते! गरीबी भी बहुत थी। सुबह का खाना खाते थे। खाते-खाते सोचते थे कि क्या रात को भी खाना मिलेगा? अब तो स्कूल में भात भी मिल रहा है। तब भी सौरे बच्चे पढ़ते ना हैं।’’


साँझ ढल चुकी थी। मेरे ठीक दायीं ओर सूरज ज़रूरत से ज़्यादा बड़ा और लाल दिखाई दे रहा था। वह साल के जंगल के पीछे छिपने जा रहा था।


मैंने पूछा तो वह बोला,‘‘न जी न। गुटखा, बीड़ी, तम्बाकू या शराब को हाथ नहीं लगाता हूँ। जिन्होंने इनकी गैल की वो दूसरी दुनिया में चले गए। मैंने सरोपा के बारे में पूछा ! वह जीवित है। यह जानकर अच्छा लगा। बारह महीने कुरता पहनने वाला सरोपा। आँखें धंसी हुई। चेहरे में पक चुके बालों की बेतरतीब दाढ़ी वाला सरोपा। कमर के नीचे मात्र जांघिया पहनता है। उसे किसी ने जूतों में कभी नहीं देखा। उसके हुलिए से छोटे बच्चे डर जाते थे।
धर्मवीर बहुत धीरे से किस्से सुना रहा था। उसने बताया,‘‘ इक्यावन बीघा वाले बधी की याद है? वो जिसका बाप हुक्का पहनता था। उसने बाप के मरने के बाद सारी जमीन शराब में बेच खाई! हमने उनके खेत्तों में मजदूरी की है। आज उसकी नवी पीढ़ी फटेहाल है। हम तो इज़्ज़त की खा रहे हैं। आजेश जो फफियाता था। वो भी नहीं रहा।’’

धर्मवीर बीते तीस-बत्तीस सालों का एक-एक पन्ना पलटना चाहता था। मैंने पूछा,‘‘यहाँ के काम की मजूरी मिल गई?’’
‘‘हाँ। वो तो भाई साहब ने आज सुबह ही दुकान पे दे दी थी। मैं तो आपसे मिलने आया था।’’
‘‘कितनी दी?’’
‘‘बस जी दे दी। पूरा हिसाब हो गया। ऐसी कोई बात ना है।’’
धर्मवीर ने बताया नहीं। शायद सात-एक दिनों का हिसाब था। उसने लेन-देन की निजता का मान रखा। मुझे क्यों नहीं बताया? मैं नहीं समझ पाया। मैंने भी कहा,‘‘यहाँ अलग कुछ नहीं है। एक ही बात है।’’ उसने माँजी की तरफ देखते हुए कहा,‘‘हाँ जी। जानू हूँ।’’ वह दाँए पैर के जूते से मिट्टी कुरेदने में व्यस्त हो गया। मेरे और अपने समय के किसी दिन को याद करने लगा।
फिर कहने लगा,‘‘मुन्ना मास्टर जी के जाने के बाद आप आए थे। लेकिन किरन बैनजी मुझे क़तई अच्छी नहीं लगती थी। बहुत ही ऊँट-पटांग बोलती थी। आपसे डरते थे सारे बच्चे। लेकिन आपकी बातें ध्यान से सुनते थे। मन लगा रहता था।’’
मैंने उसके हाथ पर सौ रुपए के दो नोट रखने चाहे। उसने मुट्ठी भींच ली। मैं मुट्ठी खोलकर वह दो नोट रखना चाहता था। लेकिन पत्थर-सी हो गई मुट्ठी खोल न सका। मैंने उसके जैकेट की जेब में वह रुपए रख दिए। उसने भी दोनों हाथ अब जैकेट की जेब में रख दिए।
मैंने कहा,‘‘कुछ मीठा खरीदना या अपने लिए सब्जी-दाल। अब पीते-खाते तो उसका इन्तजाम करता।’’
‘‘कैसी ठिठोली कर रहे हो! इस घर से शराब नहीं मिल सकती।’’ मैं उसे छोड़ने रास्ते तक गया। मेरे हाथ में उसके हाथ का स्पर्श मुझे अलग-सी अनुभूति दे गया। यह कुछ वैसी नहीं थी, जैसी किसी दूध पीते बच्चे की देह से आती है! लेकिन कुछ ऐसी थी जिससे छिटकना नहीं चाहता हूँ।
हाँ! लिखते समय कुछ विलक्षण-सा महसूस कर रहा हूँ। वह शान से सीना चौड़ा किए हुए लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ चला गया। जैसे, कोई जागीर मिल गई हो।
‘‘आते रहना। मेरे भाई-भाभियाँ तो इसी घर में ही हैं।’’
‘‘जी। अपना घर है। यहाँ आने के लिए पूछना थोड़े पड़ेगा। अच्छा गुरुजी नमस्ते।’’ धर्मवीर चला गया।


बहुत जोर डालने पर भी धर्मवीर का चौथी-पाँचवी कक्षा में पढ़ते समय का हुलिया उभर नहीं रहा है। वहीं मैं धर्मवीर की ज़िन्दगी में अब तक शामिल हूँ। वह चाहता तो तीस-बत्तीस साल के अन्तराल को बनाए रख सकता था। उसने अपनी कहानी में मेरे किरदार को क्यों रखा? हम तो तनिक-सी बात पर रिश्तों को छिटक देते हैं! मैं यही सोच रहा हूँ।

(वाकया, साझा करने का मकसद यही है कि कितनी बातें-मुलाकातें-यादें होती हैं जो याद आती हैं। तीस-बत्तीस साल पहले मैं संघर्षरत था। तब शिक्षण के तौर-तरीके भी पता नहीं थे। फिर भी बच्चे याद रखते हैं। संभव है हमारी बचकानी बातों पर हँसते भी होंगे।)
फोटो: बिटिया विदुषी ने ली है।

#संस्मरण

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By manohar

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