पास था फेल बताया

-मनोहर चमोली ‘मनु’
‘‘हाँ भई। मनोहर का के। अठारह अठे?’’ रतन गुरुजी ने मुझसे पूछा। वह हमेशा हम बच्चों के नाम के आगे ‘का’ और ‘के’ जरूर लगाते थे। यह उनका तकिया कलाम था। मैं अठारह का पहाड़ा आरंभ से मन ही मन दोहराने लगा। अभी अठारह का पहाड़ा अपने पाँचवें हिस्से तक ही पहुँचा था कि तभी मेरे बाँए गाल पर झन्नाटेदार थप्पड़ आ कर लगा। इस थप्पड़ की गूँज कान की गहराई तक पहुँची-‘‘कऽऽन्न्न्न्न्न्न्नऽऽऽ।’’ मैं अपना सन्तुलन खो बैठा। मैं ‘धम्म’ से शैलजा के ऊपर जा गिरा था। मेरे इस अप्रत्याशित धराशायी होने से बेख़बर शैलजा चीख पड़ी।


‘‘हाँ भई। शैलजा का की। खड़ी हो जा। अब तू बता। उन्नीस पंजे?’’ रतन गुरुजी ने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया। अब वह मेरी सहपाठी शैलजा से उन्नीस का पहाड़ा पूछने लगे। बस फिर क्या था। क्लास के सहपाठी एक के बाद एक खड़े होते रहे। गुरुजी उन्हें पीटते रहे। रतन गुरुजी का रंग साँवला था। उनके चेहरे पर चेचक के दाग थे। कद लंबा, बड़ी-बड़ी आँखें और सिर गँजा था। वह फिर भी सिर पर सरसों का तेल लगाकर आते थे। वह जब धूप में बैठते थे, तो उनका गँजा सिर चमकता था। ऐसा लगता था कि एक सूरज उनके सिर पर जा बैठा है। सर्दी हो या गर्मी। वह ऊनी स्वेटर पहन कर जरुर आते थे।
गणित की किताब खोलने से भी मुझे डर लगता था। उसमें भी भिन्न और भाग के सवाल से तो मेरा सिर चकराने लगता था। शैलजा मेरी सहपाठी थी। वह गणित में होशियार थी। बस उसी के सहारे कक्षा चार तक की गणित तो मैंने पार कर ली। हम दरी पर एक के पीछे एक लाईन में पालथी लगाकर बैठते थे। शैलजा मेरे आगे बैठती थी। वह अपनी कॉपी अपने दाँये घुटने पर रख देती थी। मैं उसकी कॉपी से सवालों के जवाब हू-ब-हू उतार लेता। कक्षा पाँच में आते ही सब कुछ उलटा-पुलटा हो गया। गुरुजी ने लड़कों को लड़कियों से अलग बिठा दिया। मेरे तो आँसू छूटने लगे।


एक दिन गुरुजी ने कहा-‘‘पाँचवीं में बोर्ड की परीक्षा होगी। कॉपियाँ भी बाहर जँचने जाएगी। मेहनत कर लो। यदि कोई फेल हुआ तो टी.सी. काटकर हाथ में रख दूँगा। याद रखो। फेल हुए तो कहीं ओर एडमिशन भी नहीं मिलेगा।’’ हम औसत से नीचे दरजे के छात्र डरते-डरते दिन काट रहे थे। छमाही इम्तिहान हुए। होना क्या था? गणित में पचास में से मेरे तीन नंबर आए थे। घर में जो पिटाई हुई, सो हुई। स्कूल का घण्टा बजाने वाला लकड़ी का हथौड़ा हमारा इंतजार कर रहा था। उस हथौड़े से फेल सहपाठियों के सिर पर दो-दो हथौड़े लगे। सिर पर आम की गुठली-सी निकल आई थी। हम साठ-पैंसठ छात्रों में लगभग पन्द्रह छात्र ऐसे थे, जिनके गणित में पाँच से कम नम्बर आए थे। उन दिनों माहौल ही कुछ ऐसा हुआ करता था। यदि घर में पता चला कि आज स्कूल में फलाँ की पिटाई हुई तो, फलाँ के घर के बड़े-बुजुुर्ग भी फलाँ पर हाथ साफ करते थे। उस पर आस-पड़ोस की आण्टी-ताई भी फलाँ की माँजी से आकर कहती-‘‘अरे! सुना है तुम्हारे फलाँ की आज स्कूल में पिटाई हुई। क्या हुआ था?’’ बस फिर क्या होता था? फलाँ अपनी माँ का कितना भी लाडला हो, खूब पिटता। फलाँ की माँजी के हाथों में काँच की चूडि़याँ तक टूट जाती थी। आसानी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि स्कूल से पिटने के बाद घर की पिटाई की कल्पना तक करने से दिल कितना धड़कता होगा!


रतन गुरुजी ने हम सभी को सारा दिन खड़ा रखा। खड़े-खड़े ‘पढ़ना’ और ‘लिखना’ अपने आप में एक दण्ड था। हम में से जिस किसी की पीठ दीवार का सहारा लेती, तो उसकी फिर पिटाई होती। जब ये दण्ड गुरुजी को कम नज़र आता तो वे कक्षा के मॉनीटर हरजीत को पुकारते। कहते-‘‘अरे भई। हरजीत का के। ज़रा गंगाराम को तो ले आ।’’ हरजीत दौड़कर जाता और पल भर में गंगाराम को ले आता। दरअसल गंगाराम एक बाँस का मोटा लट्ठ था। इस गंगाराम को देखते ही क्लास में हम फूऽऽऽ,हाऽऽऽहूऽऽऽहाऽऽऽय करने लग जाते। हमें अपनी दोनों हथेली गंगाराम के आगे करनी होती थी। गंगाराम चट्-चट करता और हथेलियाँ सीऽऽऽसीऽऽऽ।


फिर एक दिन अचानक रतन गुरुजी कक्षा में आए। हाजिरी रजिस्टर को देखकर गुरुजी ने लगभग आधी कक्षा को खड़ा कर दिया। हाजिरी रजिस्टर में नज़रे गढ़ाए बोले-‘‘तुम सबको ट्यूशन पढ़ने की जरूरत है। अब भी वक्त है। तीन महीनें ट्यूशन पढ़ लो। नहीं तो नैया पार होनी मुश्किल है। घर में बता देना। बीस रुपया महीना ट्यूशन फीस है। ये जो बैठे हुए हैं। इनसे पूछ लो। यह शुरू से ट्यूशन पढ़ते हैं। तुम सब सुबह नौ बजे मेरे घर में आ सकते हो। एक-आध घण्टा पढ़ोगे तो भेजे में कुछ घुस जाएगा।’’ यह सुनकर हम सब हैरान थे। हमारी संख्या चालीस से कम तो नहीं थी। हम अपराधी की तरह कक्षा में खड़े किये गए थे। हमें यकीन ही नहीं हुआ। मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं था कि हमारी आधी कक्षा सत्र के आरंभ से ही गुरुजी के घर जाकर ट्यूशन पढ़ रही है। इंटरवल हुआ। हर कोई दूसरों से इस बात की तसदीक कर रहा था। आखिरकार गुरुजी की बात सही निकली।


‘हम ट्यूशन पढ़ते हैं।’ यह बात सहपाठियों ने छिपाए क्यों रखी? मैं छुट्टी का घण्टा बजने तक लगातार यही बात सोच रहा था। घर आया तो ट्यूशन की बात माँजी को बताई। माँजी ने पिताजी को बताया। पिताजी ने माँजी से न जाने क्या कहा। कैसे कहा। मुझे नहीं पता। अगली सुबह माँजी ने मुझसे कहा-‘‘तुम चार भाई-बहिन हो। दोनों बड़े भाईयों ने ट्यूशन नहीं पढ़ा। वे अपनी मेहनत से पास हुए हैं। फिर छोटी बहिन भी कहेगी कि वो भी ट्यूशन पढ़ेगी।’’ ट्यूशन की मनाही को मैं समझ गया था। यह भी समझ गया था कि घर के हालात ट्यूशन को गैर जरूरी मानते हैं। स्कूल जाने वाली टोली घटती जा रही थी। कारण साफ था। सहपाठी ट्यूशन के लिए घर से आठ बजे निकलने लगे थे। तीन दिनों के बाद मैं और जगमोहन ही बचे, जो ट्यूशन नहीं पढ़ रहे थे। शेष कक्षा गुरुजी के घर के रास्ते की ओर चल पड़ी थी।


इस ट्यूशन ने जैसे मुझे और जगमोहन को पाँचवी कक्षा का छात्र मानने से इंकार कर दिया था। रतन गुरुजी ने कक्षा में पहले हम पर ध्यान देना बंद किया। हम कक्षा में होते हुए भी होते नहीं थे। मेरे अच्छे दोस्त, मेरे पड़ोसी सहपाठी इस ट्यूशन की वजह से मुझसे दूर हो गए थे। जो कल तक मेरे बिना स्कूल नहीं जाते थे। जो छुट्टी के दिन मेरे साथ खेलते थे। जो दिन में कई बार घर में आते-जाते थे। सब मानो पीछे छूट गए थे। अचानक जगमोहन जो कभी मेरा दोस्त नहीं था, आज मेरा सबसे अच्छा दोस्त हो गया था। स्कूल कभी रोचक नहीं लगता था। लेकिन अब तो मुझे मेरी कक्षा चार कोनों का बना कमरा लगने लगी। न जाने क्यों अब मुझे मेरी कक्षा सीखने-सिखाने की जगह न होकर जानकारी ठूंसने वाली नीरस जगह लगने लगी थी। मैं सुबह से शाम तलक कक्षा में एकाग्र होने की असफल कोशिश करता रहा। एक ओर बोर्ड के इम्तिहान का डर तो दूसरी ओर कक्षा में मेरे अनुकूल माहौल न देख मैं परेशान रहने लगा।


अचानक रतन गुरुजी हम दोनों से वह काम लेने लगे, जो हमने कभी नहीं किए थे। प्रातःकालीन सभा में विश्राम-सावधान कराना। प्रार्थनाएँ करवाना। बार-बार श्यामपट्ट पर सवाल हल करने के लिए बुलाना। परिणाम चूक होने पर पिटाई। हमारे सहपाठी बार-बार हमें देखकर हम पर हँसते रहते थे। मॉनीटर हरजीत ने एक दिन कह दिया-‘‘यार तुम दोनों गुरुजी से ट्यूशन क्यों नहीं पढ़ लेते? तुम्हारे चक्करों में मुझे गंगाराम को लेने के लिए बार-बार उठना पड़ता है। एक महीना तो वैसे ही निकल गया। दो महीने ही तो पढ़ना है। क्यों अपना एक साल खराब करने पर तुले हो? पढ़ लो न ट्यूशन।’’

मॉनीटर की दूरदर्शिता पर मैं हैरान था। क्या ये हरजीत का कथन था। कहीं ऐसा तो नहीं कि ट्यूशन के दौरान रतन गुरुजी ने ऐसा कहा होगा। मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा। मुझे लगा कि मैं तो इस साल फेल ही हूँ।


जगमोहन ने दाँत पीसते हुए कहा-‘‘चाहे अब कुछ भी हो जाए, ट्यूशन नहीं पढ़ना है। चाहे फेल ही क्यों न होना पड़े।’’ अब याद करता हूँ, तो पाता हूँ कि बाकी दो महीनों में समूचे स्कूल में यकीनन हम दोनों की सबसे अधिक पिटाई हुई। बोर्ड के इम्तिहान आ गए। इलाके में दो ही बुनियादी स्कूल थे। दोनों में लगभग दस किलोमीटर का फासला था। बोर्ड से आदेश आया कि दोनों स्कूलों का परीक्षा केन्द्र एक ही होगा। हुआ यह कि हमें इम्तिहान देने दूसरे स्कूल जाना पड़ा। परीक्षा कक्षों में गुरुजनों की ड्यूटी नए तरीके से लगी। हमारे विद्यालय के छात्रों के कक्ष में दूसरे विद्यालय के शिक्षकों की ड्यूटी लगी। हमारे शिक्षक दूसरे विद्यालय के छात्रों के कक्ष में ड्यूटी देते रहे। नया स्कूल, नया माहौल और हमारे लिए अपरिचित शिक्षक। सब कुछ अजीब-सा लग रहा था। तीन-चार पेपर ठीक-ठाक हुए।

आज गणित का पेपर था। पेपर कुछ कठिन था। मैं बार-बार अपने अन्य सहपाठियों को भी देख रहा था। वे भी पेपर की कठिनाई से जूझ रहे थे। शुरू से ट्यूशन पढ़ रहे दो-तीन छात्र तो रोने ही लगे। टीचर जी ने समझाया। कहा-‘‘पेपर को ध्यान से पढ़ो। बार-बार ध्यान दो कि कक्षा में कैसे सवालों को हल कराया गया था।’’ मुझे अच्छी तरह से याद है। हर किसी के चेहरे पर अजीब तरह का डर मुझे दिखाई दे रहा था। मानों हमारी उत्तरपुस्तिका की जगह विषेला साँप बैठ गया हो। तीन घण्टे तक पूरा परीक्षा कक्ष भयभीत था। समूची परीक्षा भय से भरे माहौल में बीती।


परीक्षा के बाद हम अपने स्कूल लौटे। रतन गुरुजी ने हमें लक्ष्य करते हुए कहा-‘‘पेपर कैसे हुए? गणित में तो हर कोई पास होने से रहा। दस दिन की बात है। परीक्षा का परिणाम आ जाएगा।’’ मैं और जगमोहन एक-दूसरे को देखते रहे। आँखों ही आँखों में हम एक-दूसरे से कुछ पूछ रहे थे। हम अपने परिणाम को लेकर आशंकित तो थे ही। डरे हुए भी थे। लेकिन इससे ज्यादा हमें नौ दिन गुजारने में दिक्कत हुई। नौंवा दिन भी बेहद भारी गुजरा। रात भर मैं सो नहीं सका। मैं फेल हुआ तो घर नहीं आऊँगा। यदि जगमोहन भी फेल हुआ तो हम दोनों भाग कर कहीं ओर चले जाएंगे। यदि मैं ही फेल हुआ तो मैं कहाँ जाऊँगा? इन सवालों में मेरी नींद उलझ गई।


सुबह उठा। स्कूल जाने का मन कतई नहीं था। जगमोहन की बुझी हुई आवाज ने मेरे नाम को पुकारा। मैं सोच रहा था कि मैं घर पर ही रह जाता और मेरा नाम ही जगमोहन के साथ चला जाता, तो कितना अच्छा होता। मगर ऐसा कैसे हो सकता था। पिताजी के साथ-साथ मेरे दोनों बड़े भाई मेरे परीक्षा परिणाम पर आँख गड़ाए हुए थे। मैं और जगमोहन देर से स्कूल पहुँचे। स्कूल का मैदान भरा-सा लग रहा था। कक्षा एक से पाँच तक के सभी छात्र कक्षावार पँक्तियों में खड़े थे। मैं और जगमोहन कक्षा पाँच की पँक्ति में सबसे पीछे जाकर खड़े हो गए। कक्षावार परीक्षा परिणाम सुनाया जा रहा था। मेरा दिल जोर से धड़कने लगा था। कक्षा चार का परीक्षा परिणाम सुनाने के लिए शास्त्री गुरुजी सामने आए।


वह एक-एक कर छात्रों का नाम पुकारने लगे-‘‘अजीत पास। सोहन पास। दलवीर पास। कमल फेल। कुशलानन्द पास। गुरमीत फेल। राकेश पास। रचना पास। शायरा पास। कुलवीर फेल।’’ किसी नाम के आगे ‘पास’ पुकारने पर छात्र तालियाँ बजाते। ‘फेल’ की घोषणा पर छात्र चुप रहते। छात्र अपनी पँक्ति से निकलकर दौड़ते हुए जा रहे थे। रिर्पोट कार्ड हाथ में पकड़कर फिर अपनी पँक्ति में लौट कर खड़े हो रहे थे। पास होने वाले छात्रों के चेहरे खुशी से चमक रहे थे। जो छात्र फेल थे, वे बुझे मन से रिर्पोट कार्ड लेकर सिर झुकाते हुए लौट रहे थे।


अब हमारी कक्षा का परिणाम सुनाया जाने लगा। रतन गुरुजी की आवाज मेरे कानों पर पड़ी। जगमोहन मेरे आगे खड़ा था। वह बुदबुदाया-‘‘और ट्यूशन न पढ़ने के कारण फेल होने वालों को ठेंगा!’’ छात्रों को पुकारा जाने लगा। रतन गुरुजी की आवाज तेज होने लगी। वह जल्दी-जल्दी नाम पुकारने लगे थे। बोले-‘‘राधिका पास। राजेन्द्र पास। जीवनराम पास। ज्योति पास। जगमोहन फेल।’’ मैंने साफ सुना था। ‘धक-धक।‘ मेरा दिल जैसे बैठ गया। जगमोहन ठीक मेरे आगे खड़ा था। वह धीमें कदमों से रिर्पोट कार्ड लेने चला गया। जगमोहन के बाद मैं तो बस अपना नाम सुनना चाहता था। जगमोहन के नाम के बाद आठवाँ नम्बर मेरा था। बस अब मेरा नाम पुकारा जाने वाला है। मैं यही सोच रहा था। जगमोहन सिर झुकाए वापिस अपनी जगह पर आ चुका था।


तभी ‘मनोहर फेल’ की पुकार लगी। बस..! जैसे सब कुछ यही तो होना था। मैं दौड़ा। दौड़कर जाना तो नहीं चाहता था। पैरों में जैसे दस-दस किलों के जूते पहना दिए गए हों। मेरी आँखें भर आईं। मेरे भीतर रतन गुरुजी की घूरती आँखों में झाँकने का साहस नहीं था। उनके हाथों से रिर्पोट कार्ड लेकर जितनी तेजी से मैं दौड़ सकता था, दौड़ा। दौड़कर अपनी जगह पर लौट आया। अभी शेष नाम पुकारे जा रहे थे। जगमोहन ने दाँया हाथ पीछे किया। वह मेरा रिपोर्ट-कार्ड देखना चाहता था। मैंने उसे दाँये हाथ से अपना रिपोर्ट कार्ड दे दिया। उसी क्षण मैंने उसके बाँये हाथ से उसका रिपोर्ट कार्ड ले लिया। ये आदान-प्रदान की प्रक्रिया एक साथ हुई। शायद एक ही क्षण में हमने एक साथ एक-दूसरे के रिपोर्ट कार्ड देखे। लेकिन यह क्या! जगमोहन के कार्ड पर तो पास लिखा था। किसी भी विषय में लाल स्याही से गोल घेरा नहीं था।


तभी जगमोहन मेरी ओर मुड़ा। उसने बाँहें फैलाई और छलकते आँसूओं की परवाह किये हुए बिना बोला-‘‘तू तो पास है रे।’’ मेरी आँखों के आँसू बह निकले। मेरी आवाज भर्रा रही थी। मैंने खुद को संभाला। मैं गले का थूक घूँटते हुए बोला-‘‘तू भी तो पास है। देख।’’ हम दोनों एक-दूसरे से लिपट गए। एक-दूसरे के दिल की धड़कनों का धड़कना हम महसूस कर रहे थे। हम दोनों पास थे। वो खुशी का क्षण मुझे आज भी याद है। उसके बाद कई परीक्षाएँ दीं। परीक्षा के दिनों में तनाव तो हमेशा ही रहा। लेकिन वो पाँचवी के बोर्ड के इम्तिहान और रतन गुरुजी। आज भी याद आते हैं, तो दिल जोरों से धड़कने लगता है।

***

-मनोहर चमोली ‘मनु’ भितांई,गुरु भवन, पोस्ट बॉक्स-23.पौड़ी,पौड़ी गढ़वाल। 246001. उत्तराखण्ड। मोबाइल-09412158688.

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June 2018, CHAKMAK

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By manohar

2 thoughts on “पास था फेल बताया”

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