सुप्रसिद्ध साहित्यकार भगवत प्रसाद पाण्डेय का पहला बाल कहानी संग्रह
‘पहाड़ों से निकली पहाड़ों की कहानियाँ’ सुप्रसिद्ध साहित्यकार भगवत प्रसाद पाण्डेय का पहला बाल कहानियों का संग्रह है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि मशहूरियत या जन मानस में पहचान किताबों के प्रकाशनोपरांत होती है। भगवत प्रसाद पाण्डेय कहानियों, कविताओं, व्यंग्य और आलेखों के माध्यम से दस नहीं, बीस नहीं, तीस से अधिक सालों से पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपनी निरन्तर उपस्थिति बनाए हुए हैं।
साल 2024 में आए इस संग्रह को न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है। आवरण व भीतरी पन्नों में काग़ज़ बेहतरीन क्वालिटी का शामिल किया गया है। फोंट भी बेहतरीन है। स्याह अक्षर आँखों को भाते हैं। थकाते नहीं हैं। पुस्तक का आकार डिमाई है। जो पढ़ने के लिए आसानी से पकड़ में आती है। इस संग्रह में बत्तीस कहानियाँ हैं। पुस्तक में कद्रदान, महादान, दुश्मन का भी इलाज, शर्मीली का सफर, अंक भी बोलते हैं, भीखू का अंत, दिन-रात और साँझ-सबेरा, रेगिस्तान का भूला, टपक सिंचाई, दूरबीन का कमाल, लौट के बुद्ध वापस आये, कर भला हो भला, जंगल में मंगल की बात, पत्थर फूल बन गया, शिक्षा, सबसे बड़ा धन, धन और मन, लालची भौंरा, काफल ले लो….काफल, क्या सुना क्या देखा, आराम का काम, कद्दू की बेल, गौरैया का घर, जंगल महोत्सव, टीम वर्क, कौवे का न्याय, सबक, हीरा और पन्ने, राखी की लाज, खेल भावना, पत्ते की बात, थल्केदार का पुस्तकालय, अभिवादन कहानियों के शीर्षक हैं।
इस पुस्तक के बहाने यह कहना तो बनता ही है कि बाल साहित्य में खासकर कहानियों के मामले में कुछ खास नहीं तो भाषा सरल होनी चाहिए। सरल का अर्थ यह कदापि नहीं है कि राम घर जाता है। पानी पी। कदम मिला। नमक चख। घर मत चल। यह नहीं। सरलता का अर्थ है कि वाक्य छोटे हों। पात्रों की एक ही कहानी में भरमार न हो। बहुत ज़्यादा ठूंस कर रूपक और उपमाएं न भरी हों। रूपकों का रहस्यवादी-सा इस्तेमाल न हो। इस लिहाज़ से देखें तो भगवत जी अपने पाठकों को जानते हैं। उन्होंने संग्रह में पेड़, पहाड़, नदियां, आस-पास के जानवर और मानवीय स्वभाव को कहानियों का हिस्सा बनाया है। कुछ कहानियों में जन श्रुति और लोक मानस से सुनी बातें-धारणाएं भी हैं। कुछ कहानियां लोक कथाओं का पुट-सा लिए हुए है। कह सकता हूँ कि यह संग्रह पसंद किया जाएगा।
इस संग्रह को पढ़ते हुए पाठक पहाड़ को एक अलग नज़रिए से देख सकते हैं। लेकिन कहानियों में पहाड़ और उत्तराखण्ड का पहाड़ विवरण से अधिक कहानीपन की चाश्नी में पिरोया हुआ होता तो आनंद और बढ़ जाता। मेरा स्पष्ट मानना है कि भगवत प्रसाद यह आसानी से कर सकते हैं। वर्तमान में हिंदी बाल साहित्य लीक पर चलता आ रहा है। लीक से हटकर लिखने का चलन प्रायः कम है।
चंपकीय शैली से सराबोर कहानियां इस संग्रह में भी हैं। पशु-पक्षियों और पेड़ों की पारम्परिक कहानियां भी हैं। लेकिन ऐसी कहानियां भी हैं जो किसी भी आयु के पाठक को अच्छी लगेगी और सोचने के लिए अलग तरह का क्षेत्र देती हैं। टीम वर्क, कद्दू की बेल, दूरबीन का कमाल, आराम का काम और क्या सुना क्या देखा भाव-भूमि की बेहतरीन कहानियाँ बन पड़ी हैं। प्रकाशक की लापरवाही साफ दिखाई देती है। आवरण पेज किसका है? चित्र किसने बनाए हैं। कहीं अंकित नहीं हैं। बाल साहित्य में चित्रों को बेहद आकर्षक और सजीव होना चाहिए।
भगवत प्रसाद पाण्डेय समर्थ साहित्यकार है। भले ही यह उनका पहला कहानी संग्रह है। लेकिन उनके पास अनुभवों का समृद्ध संसार है। वह आने वाले समय में बाल मन के लिए और भी शानदार कहानियाँ लेकर आएँगे। यह अच्छी बात है कि उन्होंने अपने इलाके को वर्णन कहानियों में किया है। आंचलिकता को और सघन तरीके से आना चाहिए। इस दिशा में अभी काम करने की आवश्यकता है। लाख कोशिशों के बावजूद पाठकों के साथ लेखक भी संदेश देने के मोह से नहीं बच पाए हैं। बहुत कम लेखक हैं जो कहानी को कहानीपन के साथ रखते हैं और अंत में संदेश-उपदेश देने से बचा जाए। ऐसा कर पाते होंगे। सुखान्त आना और सुखान्त लाना में अन्तर को समझना होगा। बाल साहित्य की किताबों में भूमिका, लेखक की बात का मैं समर्थन नहीं करता। यदि देना भी हो तो आखिर में दिया जा सकता है। बहरहाल, बाल साहित्य के मूर्धन्य लेखक अरशद खान की भूमिका भी किताब में है। प्राचार्य रहे हरिश्चंद्र पाठक का मत भी किताब में है। लेखक के मन की बात भी किताब में है। पहली कहानी के लिए पाठक को दस पन्ने उलटने होंगे और पृष्ठ संख्या ग्यारह में उसे कद्रदान पढ़ने को मिलती है।
संवेदनशील और पहाड़ के मर्मज्ञ साहित्यकार भगवत प्रसाद पाण्डेय को इस बाल कहानियों के पहले संग्रह के लिए बधाई। जिन्होंने पहाड़ कभी नहीं देखा। जो नव पाठकों को पहाड़ के बारे में कुछ पढ़वाना चाहते हैं वह इस किताब से अवश्य जुड़ेंगे।
आइए कुछ किताब की कहानियों की बानगी देख लेते हैं। संग्रह में एक कहानी ‘अंक भी बोलते हैं’ मुझे बेहद पसंद आई। उसका आरंभिक अंश आप भी पढ़िएगा-
बात उस दिन की है, जब टीचर पाँचवी क्लास के बच्चों को हिंदी पढ़ा रही थी। हुआ यूँ कि पढ़ाते-पढ़ाते उन्होंने चुलबुली मीनू से अंतरिक्ष शब्द का पर्यायवाची पूछा। हाजिर जवाब मीनू ने इसका उत्तर ‘शून्य’ बताया तो सभी लड़कियाँ खिलखिला उठीं।
“अरे, इसमें खिलखिलाने की क्या बात है? मीनू का उत्तर तो सोलह आने सही है। शून्य का मतलब अंतरिक्ष भी होता है।’’ टीचर बोलीं। आगे की सीट पर बैठी मान्या ने बिना किसी हिचकिचाहट के पूछा ‘‘क्या शब्दों की तरह अंकों के भी मतलब होते हैं?’’
‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं होते। हमारी बातचीत में कई अंक बोले जाते हैं। हमें अंकों के विशेष अर्थ मालूम होने चाहिए। चलो, आज अब इसी विषय पर कुछ सीखें।’’
फिर क्या था, बातों ही बातों में बच्चों की पढ़ाई होने लगी। सबसे पहले टीचर ने ब्लैकबोर्ड पर ‘एक’ लिख कर नाम्या से उसका मतलब पूछा। नाम्या अपने दिमाग पर जोर डाला, उसे तुरंत ध्यान आया। वह अपनी सीट से उठी और बोली- ‘हम सब एक हैं, इस वाक्य में एक’ का मतलब एकता से है।’
उत्तर सुनकर टीचर बोली- ‘हाँ, तुमने सही जवाब दिया। एक का मतलब मेल-जोल से ही है। इसी तरह ‘एक और एक ग्यारह’ भी सुना होगा इसका मतलब हुआ संगठन में शक्ति।’
यह कहानी पाठक को बाँध देती है।
इसी तरह इस संग्रह की एक और कहानी ‘पाषाणी बन गई फूल’ है। कहानी का एक अंश-
सदियों पुरानी यह बात तब की है, जब समाज में अनेक कुरीतियां भी मौजूद थीं। जादू-टोना, झाड़-फूंक और भूत-प्रेत जैसी बातों का बोलबाला अधिक था। लोग सीधे-सरल और कम पढ़े-लिखे हुआ करते थे। किसी पहाड़ी इलाके में दूर-दूर तक बसे बीस गाँवों का एक इलाका था, बीसगूंठ।
उन गाँवों के मध्य में एक कोट था। कोट मतलब किला। किले के भीतर पहाड़ी शैली का बहुत शानदार राजमहल था, जिसमें मैबट सिंह नाम का राजा रहता था। राजमहल के पीछे घना जंगल था, जहाँ दो विशाल पाषाण शिलाओं के बीच शिलादेवी का मंदिर था। शिलादेवी राजपरिवार की कुलदेवी भी थीं और मैवट सिंह शिलादेवी का परम भक्त। लोग यह सुनते आये कि एक बार विजय दशमी की रात मैबट सिंह को शीलादेवी के साक्षात दर्शन हुए थे। तभी से वह प्रतिवर्ष दशहरे की रात शिलादेवी की खास पूजा करने लगा, परन्तु उस पूजा का तरीका घिनोना था। देवी मैय्या को खुश करने के लिए वह नर बलि देने लगा।
अंधविश्वास के चक्कर में आकर मैबट अन्यायी राजा बन गया। अब प्रजा उससे भयभीत रहने लगी। राजाज्ञा का विरोध करने का साहस जनता में नहीं था। अन्यायी राजा मैबट सिंह के मरने के बाद भी उनके वंश में बलि प्रथा नहीं रुकी। दशहरे के दिन नरबलि देने का सिलसिला चलता ही रहा।
मैबट सिंह का परपोता ऐबट सिंह उतना क्रूर और अन्यायी नहीं था, जितना उसका परदादा। उस वर्ष रुकमियां गांव के अमरचंद की बारी नरबलि के लिए आ गई। मतलब साफ था कि इस बार उसे बलि चढ़ना था। जब यह खबर उसके दस वर्षीय बालक जीवनचंद ने सुनी तो वह सन्न रह गया। जीवनचंद की माँ दो साल पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थीं। अब पिता का साया भी उसके सिर से उठना तय हो गया।
पहाड़ों से निकली पहाड़ों की कहानियाँ संग्रह में एक कहानी ‘धन और मन’ है। उत्तर भारत का हिमालय अनेक नदियों का उद्गम स्थल है। यहाँ से निकलने वाली बड़ी नदियों में एक ‘काली’ मैदान में पहुँचकर शारदा नही कहलाती है। काली (शारदा) नदी भारत और नेपाल देश के बीच सदियों से बहती चली आई है।
इस नदी के तट से लगे हुए किसी पर्वतीय गाँव में हीरा और मोती रहते थे। दोनों पाँचवी कक्षा के सहपाठी और आपस में घनिष्ठ दोस्त भी थे। घर हो या स्कूल, उन्हें हर जगह श्हीरा-मोतीश् की जोड़ी कहा जाता था।
हीरा के पिताजी को उस इलाके के लोग सेठज्यू (सेठ जी) कहते। उनकी गाँव में ही परचून की दुकान और आटा चक्की थी। जहाँ आस-पास के गाँववाले भी खरीददारी करने, अनाज पिसाने और धान कुटाने के लिए आया करते थे।
मोती गरीब परिवार से अवश्य था लेकिन पढ़ने-लिखने में बहुत होशियार तथा मेहनती था। जब मोती एक साल की उम्र का रहा होगा, तभी उसके पिताजी का निधन हो गया। उसकी माँ तुलसी गाँव के जमींदारों और थोकदारों के खेतों में मेहनत-मजदूरी कर बेटे की परवरिश करती थी।
कई साल बाद इस बार घर में दिवाली मनाने हीरा के चाचा जी सपरिवार गाँव आए थे। वह आयकर महकमे में बड़े ऑफिसर थे। चाचा जी शहर से ही हीरा के लिए मिठाई, नए कपड़े, खिलौने और पटाखे लाए थे। उनकी बेटी का नाम नीटू था। नीटू बहुत नटखट और शरारती लड़की थी।
हीरा की मम्मी हमेशा मोती को हीरा की तरह मानती थी। प्रत्येक त्यौहार पर उसे बुलाती थी। इस बार भी उसने तीन दिन पहले ही कह दिया-‘मोती! दिवाली की रात, तुम हमारे घर में ही भोजन करोगे। हीरा और नीटू के साथ खेलोगे और आतिशबाजी का मजा भी लेना।’
दिवाली के दिन बस्ती में अच्छी चहल-पहल थी। सारे घर साफ-सफाई और रंग-सफेदी से चमक रहे थे। घरों पर सुंदर ऐपण (अल्पनाएँ) बनाई गई।
प्रस्तुत संग्रह के आलोक में कहें तो साहित्यकार भगवत प्रसाद के पास कहन भी है। भाषा भी है और अलैहदा शैली भी है। पहाड़ के लेखक को मैं समृद्ध मानता हूँ। दूसरे शब्दों में कहूँ तो उसके पास मैदान की अपेक्षा प्रकृति के विविध रंग मौजूद हैं। उसके पास जीवन का विशेष खिलंदड़ापन भी है जो मैदान से सागर किनारे संभवतः नहीं ही मिलता। हालांकि इस संग्रह की कहानियों में कहानीकार ने आंचलिक दृश्यों, विवरणों का वर्णन किया है। लेकिन वह और भी करीने से शामिल कर सकते थे।