जीना इसी का नाम: कथा संग्रह
कहानीकार रामेन्द्र कुशवाहा की चौथी किताब कहानी संग्रह है। किताब का शीर्षक ‘जीना इसी का नाम’ है। महाराष्ट्र के मुंबई से हिन्दी में किताब का आना सुखद है। अन्यथा मराठी और अंग्रेज़ी से बाहर महाराष्ट्र के प्रकाशक प्रायः कम ही देखने को मिलते हैं।
संग्रह की बारह कहानियाँ कई दृष्टियों में महत्त्वपूर्ण है। संग्रह में सभी बारह कहानियाँ यथार्थपरक हैं। कुछ कहानियों का आरम्भ बेहद सरल हैं लेकिन वह जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, पाठक को अपना संघर्ष दिखाई देने लगता है। कुछ कहानियाँ तेजी से बदलते समाज का सच्चा बयान हैं। रामेन्द्र कुशवाहा उत्तर प्रदेश के प्रयागराज के हैं। वहीं पले। वहीं बढ़े हुए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में परास्नातक हैं। ज़ाहिर-सी बात है कि उनके पास व्यापक दृष्टि है। पहले उत्तरप्रदेश और कालान्तर में उत्तराखण्ड में शिक्षा विभाग के विभिन्न जनपदों में विभिन्न पदों पर काम करते हुए उन्होंने हाशिए के समाज को निकट से देखा है। आम आदमी के जीवन का जीवट अनुभव भी उनके पास है।
संग्रह की कहानियों को देखें तो ‘सांप को सजा’,’ जुड़ते रिश्ते’, ‘नई कोंपल’, ‘मैं स्कूल नहीं जाऊंगा’,’ टूटती बेड़ियाँ’, ‘त्याग पत्र’, ‘जीना इसी का नाम’, ‘दीमक’, ‘अभिशाप’, ‘हादसा’, ‘बस अब और नहीं’और ‘कचड़ा’ हैं।
यह कहना उचित ही होगा कि वह विविध वर्गों, पृष्ठभूमियों के समाज के साथ कार्मिकों-सरकारी सलीकों-ढर्रों से भी भली-भाँति परिचित हैं। वह बेहद सरलता से छोटी-छोटी बातों-आम व्यवहारों को कहानी में शामिल कर लेते हैं। स्त्री का स्त्री से, स्त्री का पुरुष से, समाज में एक वर्ग का दूसरे वर्ग के साथ जो द्वंद्व चलता रहता है, वह उसे पकड़कर ले आते हैं। उनकी कहानियों के पात्र भी तत्कालीन समाज में व्याप्त उलझनों, रिश्तों, समस्याओं के साथ भरपूर न्याय करते हुए पाठक के अंतस में जा बैठते हैं।
‘जीना इसी का नाम’ की कहानियाँ कहीं न कहीं लेखक के निजी अनुभव से उभरी हैं। लेखक किसी दूसरी दुनिया का प्राणी नहीं होता। वह अपने आस-पास की चीज़ों, घटनाओं, वस्तुस्थितियों, बातों-मुलाकातों और परिस्थितियों को देखता, समझता और प्रायः भोगता भी है। सत्य के साथ, कथ्य और कल्पनाशीलता का मिश्रण करते हुए समाज हित में आस्वाद को ध्यान रखते हुए कोई रचना जन्म लेती है। यह भला कौन नहीं जानता! लेखक रामेंद्र कुशवाहा कलम के धनी हैं। कहानी के मूल तत्वों कों अनुमान-कल्पना की स्याही से रंगने में वह सिद्धहस्त हैं। कहना उचित ही होगा कि एक लेखक समाज की समस्याओं, मान्यताओं को जानने-मानने, समझने-बूझने के साथ-साथ उसे साहित्यिक विधा में प्रस्तुत करना उचित समझता है। यह उसका लेखकीय धर्म भी है। संग्रह की कई कहानियाँ वर्तमान समाज के चेहरे को प्रस्तुत करती हैं। भारतीय खासकर हिन्दी पट्टी और महानगर किस तरह बाज़ारवाद की चपेट में आ गए हैं, वह उसका बखूबी चित्रण कर पाने में सफल हैं।
जीना इसी का नाम के इस संग्रह की कहानियों में गहरी सामाजिक चिंता साफ झलकती है। कई कहानियाँ सार्वजनिक शिक्षा के पक्ष में खड़ी दिखाई देती हैं। लेखक स्वस्थ समाज के पक्षधर हैं। वह परिवार में आ रही टूटन से भी चिंतित हैं। वह चाहते हैं कि बदलाव हो लेकिन बदलाव रिश्तों को तार-तार कर देने की शर्त पर न हों।
रामेंद्र कुशवाहा जानते हैं कि आज का यथार्थ सुपाच्य नहीं है। वह पाठक को भी कहानी में साथ-साथ चलने के लिए बाध्य कर देते हैं। वह जानते हैं कि बगैर कल्पना के और संघर्ष, तड़प,परेशानी, समस्या को अलग करके कहानी नहीं लिखी जा सकती। यही कारण है कि उनकी अधिकतर कहानी के पात्र किसी समस्या में उलझे हुए हैं। वह उन समस्याओं का चित्रण बखूबी करते हैं। हर बार समस्या का सुखद अंत हो जाए। वह ऐसा नहीं चाहते। असल में ऐसा होता भी कहाँ हैं। लेकिन मात्र कल्पना की बुनियाद पर मानवीय संवेदनाओं को छूने-झकझोरने वाली कहानी लिखी ही नहीं जा सकती। वह यह भी जानते हैं। यही कारण है कि वह पात्रों के जरिए जल, जंगल, खेत, पेशे के प्रति लगाव, मानवीय रिश्तों के साथ-साथ सामाजिक सम्बन्धों की वकालत बज़रिए कहानी के पात्रों से करते हुए सफलता भी अर्जित कर लेते हैं।
कुल मिलाकर संग्रह में ढर्रे पर लिखी जा रही कहानियों से इतर द्वंद्वात्मक भाव, चिड़, बेचैनी, कुण्ठा, कलुषित भावनाएं और मनुष्यगत बुराईयों के दर्शन पाठकों को प्रभावित करेंगे। पाठक कहानियों के पात्रों को अपने आस-पास के सच्चे चरित्रों से जोड़ता भी है। हर कहानी में कहानीपन है। संवेदनाएं हैं। भाव हैं। वह सपाट यात्रा नहीं करती। समाज में व्याप्त बुराईयों का पारा चढ़ता हुआ भी दिखाई देगा और आशावाद की खुशबू फैलाने वाले पात्र भी पाठकों को आश्वस्त करेंगे कि सब कुछ अभी मरा नहीं है।
मैं आश्वस्त हूँ कि जब कभी इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ के देशकाल की ईमानदार समीक्षा होगी तो पड़ताल में रामेंद्र कुशवाहा की कहानियाँ भी रेखांकित होंगी। वह कोरी काल्पनिक कहानियाँ नहीं लिखते। वह समय के पहिए से उपजी ध्वनि को कहानियों में शामिल करते हैं। साहित्यिक यात्रा में उनकी कहानियों का सफर भी याद किया जाएगा। वह इस सदी के उन समकालीन कहानीकारों में यथार्थ की सच्ची कहानी कहने वाले कथाकारों में गिने जाएँगे। रामेंद्र आधुनिक समय के कथाकार हैं। उनके लेखन में विविधता है। द्वंद्व है। छटपटाहट है। पीड़ा है। एक इंसान के तौर पर दूसरे के सरोकारों से हमदर्दी है। वह कोरे उपदेश नहीं देते। पात्रों के जरिए घर-घर की पीड़ा को आसानी से पाठकों के समक्ष रखने का कौशल उन्हें आता है। वह समस्या भी उठाते हैं और समाधान भी जुटाते हैं। लेकिन हर बार आदर्शवाद पैदा नहीं करते। पाठक को मात्र सुकून देने वाला अंत वह हर बार नहीं देते। वह जानते हैं कि किसी भी इंसान की सब समस्याएं हल नहीं होती। वह जानते हैं कि हर बार न्याय अन्याय का गला नहीं घोंट पाता। उन्हें पता है कि संवेदनहीनता कई बार संवेदनाओं से भरे-पूरे इंसानों को परेशान करती है।
कहानी ‘सांप को सजा’ संवादात्मक लहज़े से आरम्भ होती है। ऐसा लगता है कि कोई सामान्य-सी पारिवारिक सरिता, गृहशोभा, मेरी सहेली टाइप कहानी होगी। नीलम शादीशुदा कामकाजी महिला है। नीलम बैंगलूर में रहती है। पति अक्सर काम की वजह से बाहर रहते हैं। नीलम भोपाल की है। ससुराल जबलपुर है। पति आमोद दो दिन के लिए मुंबई टूर पर है। नीलम को आज मॉल से लौटते हुए रूपेश मिल गया। नीलम ने उसे नहीं पहचाना। वह था कि भाभी जी-भाभी जी की रट लगा रहा था। नीलम को ज़्यादा मिलना-जुलना पसंद नहीं। रूपेश का बेवजह गले पड़ना नीलम को भाया नहीं। उसे वह सिरफिरा लगा। घर आते ही उसने पति से मोबाइल पर पूछा। पता चला कि वह दोनों दोस्त हैं। आमोद ने फोन कर रूपेश से पूछा तो पता चला कि अ बवह दिल्ली छोड़कर बैंगलौर आ गया है। फिर क्या था। एक दिन आमोद ने रूपेश को उसकी पत्नी रूचि सहित घर बुलाया। कहानी धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। जिस तरह से कहानीकार ने इस कहानी को आगे बढ़ाया वह काबिल-ए-तारीफ है। समाज में दोस्ती, दोस्त की पत्नी, बचपन के दोस्त और एक-दूसरे के घर आना-जाना खूब है। लेकिन जिस तरह कहानी में रूपेश, आमोद, नीलम और रूचि को प्रस्तुत किया गया है वह इसे स्वाभाविक और यथार्थ से परिपूर्ण कहानी बनाता है। पहले ही दिन घर पर नीलम को अपने बैडरूम में रूपेश का चले आना खटता है। नीलम जब रूपेश की आदतों की चर्चा पति आमोद से करती है तो वह उसे हलके में लेता है। कहानीकार जिस तरह से इस कहानी का अंत करता है वह भी बेहद प्रशंसनीय है। इस कहानी से एक संवाद आप भी पढ़िएगा-
‘‘यह कैसी आजादी है जिस में पति बहक रहा हो और पत्नी मौन रहे।’’ सोचा नीलम ने।
‘‘अच्छा तो अब हम चलें।’’ रूचि पहली बार कुछ बोली। ‘‘
अरे ऐसी भी क्या जल्दी है।’’ नीलम ने औपचारिकता जताई।
‘‘थोड़ी देर और बैठिए। अभी तो हमारी आप से कोई बात ही नहीं हुई। एक-एक कप चाय और हो जाए।’’
‘‘बिल्कुल, भाभी जी।’’ रूपेश किसी न किसी बहाने नीलम के करीब बने रहने पर आमादा था, ‘‘आपने तो मेरे मुंह की बात छीन ली। मुझे खाने के बाद चाय पीने की आदत है।’’
रूचि ने रूपेश की और कौतूहल से देखा। मानो कह रही हो, ‘‘मुझे भाषण देते हैं कि खाने से ठीक पहले और ठीक बाद चाय नहीं पीनी चाहिए, ऐसा डाक्टर कहते हैं।’’ पर वो बोली कुछ नहीं। पति की धूर्तता पर मौन साधे चुप रही।
नीलम ने मेड को सबके लिए चाय बनाने का हुक्म दिया। आमोद बाहर फोन पर व्यस्त थे। रूपेश बाथरूम चला गया। नीलम और रूचि डाइनिंग टेबल पर अकेले रह गए। दोनों के बीच मौन छाया रहा।
‘‘आप के मिस्टर का कोई स्क्रू ढीला लगता है।’’ सहसा नीलम ने मौन को तोडा, ‘‘आप उन्हें फालतू बड़बड़ाने से रोकती क्यों नहीं?’’
‘‘क्या बताऊँ नीलम!’’ रूचि ने कहा,‘‘परायी औरत देखते ही इनकी लार टपकने लगती है और ये बिना कुछ सोचे-विचारे एकदम फ्लर्ट पर उतर आते हैं। इनकी इस आदत से आहत मेरी छोटी बहन ने मेरे पास आना ही बंद कर दिया है। आस-पास की परिचित भी इनकी इस आदत से खिन्न रहती हैं।’’
रूचि पलभर को रूकी। उसने महसूस किया कि नीलम की खिन्नता भी उफान पर है, वो केवल सौजन्यता वश कुछ कह नहीं पा रही थी वर्ना रूपेश को झिड़क देना कोई बड़ी बात न होती।
‘‘आप समझाती क्यों नहीं?’’ नीलम ने कहा, ‘‘यह तो एक तरह की बीमारी है। यह बीमारी जारी रही तो सारी महिजाऐं इनसे बचेंगी। इनका सामाजिक जीवन समाप्त हो जाएगा।’’
‘‘बहुत कोशिश की मैंने।’’ रूचि के सीने में वर्षों से जमी दर्द की चट्टान दरकने लगी, ‘‘मना करने, समझाने पर ये गुस्सा करते हैं। लडाई-झगडा, हाथा-पाई पर उतारू हो जाते हैं। खाना-पीना छोड कर मुंह फुला लेते हैं। कई-कई दिनों तक मुझसे बात नहीं करते। मैं तो बहुत पेरशान हूँ। आय डाउट इनका परायी स्त्रियों से नाजायज सम्बन्ध है। मेरी समझ में नहीं आता मैं क्या करूं?’’
संग्रह में एक कहानी ‘जुड़ते रिश्ते’ भी है। यह कहानी शिप्रा की है। शिप्रा चालीस साल की हो चुकी है। अब इस उम्र में जब वह यह कहती है कि मैं शादी करूंगी तो उसका छोटा भाई रतन तक प्रतिवाद करने लगता है। उसे लगता है कि दीदी के अब शादी करने से घर की इज्जत का बट्टा लग जाएगा। रतन शिप्रा से दस बरस छोटा है। जब शिप्रा की सगाई हो गई थी तभी इस रतन ने नाबालिग लड़की से बलात्कार कर सारे परिवार को सड़क पर ला दिया। तब यही शिप्रा थी जिसने किसी तरह दोनों की शादी कराकर मामले को शांत किया। लेकिन इस बीच शिप्रा की सगाई टूट गई। यह कहानी अलग तरह की है। कैसे घर की बड़ी संतान वो भी लड़की अपने परिवार के लिए खुद टूट जाती है। यह कहानी बहुत तेजी से एक साथ कई तनाव लेकर आगे बढ़ती है। शुभा के साथ पाठक की हमदर्दी तो बढ़ती ही है साथ में परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति रोष भी बढ़ता है। यह कहानी घर के सदस्यों खासकर पुरुषों की जिम्मेदारी पर भी सवाल खड़ा करती है। यह कहानी कहीं न कहीं जातिगत भेदभाव पर भी सवाल उठाती है। सबसे प्रभावी बात यह है कि घर की बेटियों की समझदारी को प्रभावी ढंग से उठाया गया है।
कहानी का एक अंश-
‘‘कुछ तो बोल, बेटा।‘‘ शुभा के स्वर से शिप्रा के मौन संवाद की शृंखला बिखर गई।
‘‘क्या बोलूं मां?’’ शिप्रा भावुक हो गई, ‘‘मेरा घर बसाने का यह आखिरी मौका है। शिशिर मेरे सहकर्मी है। वे सभ्य-सौम्य, सुसंस्कृत व नेकदिल इंसान है। पिछले दस साल से वे विधुर का जीवन जी रहे हैं। वे मेरी उम्र के हैं। उनकी कोई संतान नहीं है।’’
‘‘क्या वे तुझे अपनाने को तैयार हैं?’’ मां की उत्सुकता बढ़ी,‘‘क्या उन्होंने तुझे प्रपोज किया है?’’
‘‘नहीं।’’ शिप्रा ने साफगोई दिखाई, ‘‘वे बहुत ही संतोषी-संकोची व्यक्ति हैं। पत्नी की मृत्यु के बाद वे गुमसुम रहते हैं, बस अपने काम से मतलब। कार्यालय में महिला सहकर्मियों की कमी नहीं है किन्तु उनका कोई अनुराग किसी स्त्री के प्रति नहीं है। उनका यही गुण मुझे आकर्षित करता रहा है। मैंने स्वयं उन्हें प्रपोज किया है।’’
‘‘बेशर्म औरत!’’ सहसा शुभा घृणा से भर गई, ‘‘सभ्य घर की औरतें ऐसी ओछी हरकत नहीं करती। तुझे घर की लोक-लाज का जरा भी ख्याल है कि नहीं?’’
‘‘वाह मां!’’ चीत्कार उठी शिप्रा, ‘‘जब रतन ने इसी मुहल्ले की एक अबला से बलात्कार कर दिया था तो उसे तुमने बेशर्म नहीं कहा था। तब घर की इज्जत और लोक-लाज का प्रश्न नहीं उठा था। उसकी हरकतों से हम सब का जीवन संकट में आ गया था। यदि मैं ऐड़ी-चोटी का जोर लगा कर मामले का सौहार्दपूर्ण हल न निकालती तो हम सब जेल की चक्की पीसने का अनुभव ले रहे होते।’’
‘‘गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ रही है, तू?’’ मां आपे से बाहर हो उठी, ‘‘अपने किए का एहसान कब तक जताती रहेगी! देख तो रही है तू इसी घर में रहते हुए रतन मेरी सुध नहीं लेता, मुझसे बात तक नहीं करता। तेरे सिवा कौन है दुनियां मे मेरा?’’
‘‘माँ, मेरी प्यारी-भोली मां!’’ शुभा की भावुकता से शिप्रा द्रवित हो उठी, ‘‘मैं हूँ न तेरी देखभाल के लिए। पर जिसकी जो ड्यूटी है उसे वह निभाना चाहिए? कोई अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ सकता। अपना घर तो मैं बसाऊंगी। तुझे बेटी के यहां रहना मंजूर है तो मुझे खुशी होगी, मदन की जिम्मेदारी भी मैं ले लूँगी।’’
‘‘इस बारे में शिशिर से बात कर ली है क्या?’’ मां ने दुविधा प्रकट किया,‘‘आज के जमाने में कोई किसी का भार उठाने को तैयार नहीं होता।’’
सभी कहानियाँँ पढ़ने की आतुरता जगाती हैं। हालांकि यह प्रकाशक बेहद अनाड़ी है। प्रुफ जांचा ही नहीं गया है। गलतियाँँ तो हैं ही उलट बीच-बीच में कुछ शब्द जुड़ गए हैं। कहीं हटे हुए भी हैं। पाठक को कई बार अपना दिमाग लगाना पड़ता है। ‘का’,‘के’, ‘की’ का सही प्रयोग भी गड़बड़ाया हुआ है। स्त्रीलिंग-पुल्लिंग का गलत उपयोग भी अखरता है। मुंबई का प्रकाशन है। मराठी और अंग्रेजी की किताबें धड़ल्ले से प्रकाशित होती रहती हैं। लेकिन हिंदी में अच्छी पकड़ वाले प्रकाशक प्रायः मुंबई में कम ही हैं। ऐसा प्रतीत होता है।