अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं


जी नहीं। निदा फ़ाज़ली ने भले ही यह शेर कमोबेश पलटूओं के लिए कहा हो या न कहा हो। लेकिन आपकी तरह मैं ऐसे चुनिंदा व्यक्तियों को जानता हूँ जिन्होंने विपरीत परिस्थतियों के बावजूद खुद में रीढ़ की हड्डी को सीधा रखा है। आइए मिलवाता हूँ-
कद यही कोई पाँच फुट छह इंच के आस-पास होगा। गौर वर्ण। सिर पर सीधे-सपाट, घने बाल जो आधा माथा ढक लेते हैं। चेहरा हमेशा करीने से सजा-धजा रहता है। मतलब देव आनन्द के दौर-सा चॉकलेटी चेहरा। आँखों पर चौड़ा फ्रेम का पनियल चश्मा। जीन्स और कमीज़ के शौकीन। चुटीले अंदाज़ में सोच-समझकर धीरे से संवाद अदायगी के धनी व्यक्ति को आप भी जानते हैं। या यूँ कहूँ कि पढ़ने-लिखने वाले, साहित्य के अध्येता और शिक्षा के सरोकारों से जुड़े शिक्षक भी राकेश जुगरान को जानते हैं।


मेरा उनसे परिचय के तीन दशक होने वाले हैं। तब मैं अख़बार से जुड़ा हुआ था। मैं रुड़की में रहता था। तब वे डायट, रुड़की में प्रवक्ता के पद पर थे। रामनगर स्थित बी.टी.सी. छात्रावास में मेरा ठिया था। अब ठीक से याद नहीं कि पहली मुलाक़ात कहाँ हुई थी! लेकिन, राकेश जुगरान बदस्तूर मेरे ठिए पर आते थे। कभी सुबह तो कभी शाम भी। कई बार में साक्षरता अभियान के दौरों में रहता था। जब लौट आता था तो वह बताते थे कि मैं कल भी आया था। फलां दिन भी आया था। रुड़की में मुकेश यादव, यादवेन्द्र, गुरशरण रंधावा, डॉ. इन्द्रजीत, सम्राट सुधा, सुशील उपाध्याय, ओम प्रकाश नूर, ओमप्रकाश ‘नदीम’, घनश्याम बादल, श्रीगोपाल नारसन, पंकज गर्ग, ठाकुर वीर सिंह ‘दर्द’, कृष्ण सुकुमार, विष्णु सरकार सहित पच्चीस-छब्बीस युवाओं,प्रौढ़ों और बुजुर्गों की जमात थी।

गाहे-बगाहे ही नहीं पन्द्रह-बीस दिनों में एक काव्य गोष्ठी का आयोजन हो जाया करता था। तब नीरज नैथानी, राकेश जुगरान, माटी की त्रिवेणी से भी हम परिचित हुए। कई बार मैं और राकेश जुगरान देर रात रिक्शा में बैठकर वापिस लौटते थे। वे प्रयाग, हिन्दी साहित्य सम्मेलन सभा जैसी किसी संस्था से भी जुड़े हुए थे।
राकेश जुगरान खानपुर के खण्ड शिक्षा अधिकारी भी रहे हैं। अलग उत्तराखण्ड बनने से पहले और बनने के बाद भी उनकी साहित्यिक यात्रा का मैं गवाह रहा हूँ। वन्य प्रेमी, बहुत ही शानदार छायाकार, प्रकृति प्रेमी, कवि और व्यंग्यकार राकेश जुगरान संवेदना के स्तर पर भी बेमिसाल व्यक्ति हैं। कालान्तर में पीठ के दर्द के कारण उन्होंने कई खास प्रशासनिक पदों का मोह अपने आस-पास फटकने तक नहीं दिया। उनकी संवाद अदायगी इतनी शानदार है कि अप्रत्यक्ष तौर पर सामने वाले को वह यह अहसास करा देते हैं कि आप समझ लें कि मैं सब कुछ समझ रहा हूँ।


वह बहुत सरल भी है। राजधानी देहरादून में रहते हुए भी देहरादूनी स्वभाव उन्हें छू तक नहीं गया। वह चाहते तो जो दून की आबो-हवा है जिसमें तिकड़मी, टालूपन, आत्मश्लाघा, चौधराहट, दूसरों को दूध की मक्खी की तरह निकालने की प्रवृत्ति, बटोरापन, गिरोहबन्दी को अपने स्वभाव में शामिल कर सकते थे। लेकिन नहीं।

मैं कह सकता हूँ कि उन्होंने पूरी कर्त्तव्यपरायणता के साथ, राजकीय आचरण नियमावली का पालन करते हुए संवैधानिकता में पूरी आस्था रखते हुए एक-एक दिन जिम्मेदारी के साथ जिया है। मुझे गर्व है कि मैं उनके प्रेम, स्नेह का अधिकारी रहा हूँ। साल 2002 की बात है। जब एल.टी. का फार्म भरा था तो मेरे सभी शैक्षणिक दस्तावेजों का सत्यापन और आवेदन फार्म हरी कलम से उन्होंने ही अग्रसारित किया था। यह कहते कि चमोली जी, बोरिया-बिस्तर बांध लो। ऐसा लगता है कि अभी मेरे आस-पास ही हैं और बोल रहे है कि देखा मैंने कहा था न।


एल.टी. में चयनितों में जिन्हें जिला पौड़ी गढ़वाल मिला था, उनके नाम अख़बारों में नहीं आए। कोटद्वारा विधान सभा चुनाव आचार संहिता की वजह से ऐसा हुआ था। अन्य जनपदों में नियुक्ति पाने वाले अक्तूबर के पहले ही सप्ताह में कार्यभार ग्रहण कर चुके थे। राकेश जुगरान ही थे जो बार-बार ताकीद करते और मुझे कहते रहते कि भई जाओ। पता करो। ज्वानिंग कब होगी? एक-एक दिन कीमती होता है। फिर कुछ ऐसा हुआ कि मेरा पहली नियुक्ति के विद्यालय में पद रिक्त नहीं था। संशोधन होना था। वह अक्सर याद दिलाते रहे कि भई उसे दिखवाओ। करवाओ।
मेरे साथ के साथियों ने अक्तूबर और नवम्बर की पगार पा ली और मैं संशोधन में ही अटका रह गया। बहरहाल, इस बात को आज अठारह साल से अधिक का समय हो गया है लेकिन लिखते समय राकेश जुगरान मेरे सामने मुझे समझा रहे हों जैसे। इन अठारह सालों में दो-तीन संक्षिप्त मुलाक़ात हुई। अब कभी फुरसत से उन्हें सुनने का मन भी है। वह भावपूर्ण, व्यंग्यात्मक, प्रेम से सराबोर कविताओं के कवि हैं। उनकी लेखनी में व्यंग्य के तीर हैं जो सीधे केन्द्रितों के दिल पर लगते हैं। उनके भीतर एक प्रेम से भरा पहाड़ है और पहाड़ीपन उनसे छूटा नहीं है। मैंने कईयों को समय के साथ-साथ इंसानियत से दूर होते हुए देखा है। मक्कारी और स्वार्थी लबादों में लदे लालची और थोथरे हुए जाते देखे हैं। लेकिन, राकेश जुगरान जैसे कम ही हैं जिन्होंने अपने नाम, काम और परंपरा का परचम झुकने नहीं दिया। पद, हैसियत, हाम और कॉकसों की नुमाइश के छद्म जाल में वह नहीं फंसे। यह जान-सुनकर प्रसन्नता होती है।

यादों की गुल्लक को नितीशना भी चाहिए। यादों का गुल्लक स्वतः खनकता नहीं है। बीते दिन ऐसे सिक्के हैं जो हमारे पास होते हैं लेकिन बिना हिलाए-डुलाए वे आवाज़ नहीं करते। आवाज़ ज़िन्दगी में लय का दूसरा नाम है।


राकेश जुगरान जी आप दीर्घायु हों। देहरादून के मिजाज़ से पाए अनुभवों को कभी उपन्यास-व्यंग्यों में सहेज सकें। यह मेरी इच्छा है। यह आप कर सकते हैं। आज नही ंतो कल आप इस दिशा में सोचेंगे। ऐसी इच्छा है।
और हाँ जानता हूँ कि कई बार माहौल परेशान करता है। लेकिन वह पढ़ते-लिखते इंसान हैं। सूक्ष्म अवलोकन के धनी हैं। आदमी की ख़ाक और औक़ात को जानते हैं तो बकौल अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा यह कहना तो बनता है-


पड़ा है ज़िन्दगी के उस सफ़र से साबिक़़ा अपना
जहाँ चलता है अपने साथ ख़ाली रास्ता अपना

Loading

By manohar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *