-मनोहर चमोली ‘मनु’


‘‘मास्साब तनिक सुनो तो। एक बार छू लो हमें। ये आपसे कह रहे हैं!’’ किसी ने मुझसे कहा। यह आवाज़ मेरे दाएं कान ने सुनी थी। मैं चौंका। आवाज़ में घुले हुए शब्दों से मेरे कदम ठिठक गए। मैं सड़क के बाईं ओर था। अब मेरे पैर दाई ओर मुड़ गए। पैरों ने सड़क पार की। फिर आवाज़ आई,‘‘आओ बाबू जी।’’ मैंने खुद को बताया,‘‘तो यह महाशय हैं जो पुकार लगा रहे थे!’’ महाशय के सिर पर कढ़ाई की हुई सफेद गोल टोपी सजी थी। दाढ़ी लम्बी थी। गालों ने खुद को काले घुंघराले बालों के पीछे छुपा रखा था। दाढ़ी पर अनगिनत ओस की बूँदें टँकी हुई थीं।


पहाड़ों पर धुंध नहीं होती। लेकिन शाम ढलते ही पाला पड़ने लगता है। पहाड़ों में रात शाम को बहुत जल्दी घेर लेती है। यही कारण है कि यहाँ के रैबासी रतब्याणी के समय ही घर से निकलने लगते हैं। तब यही पाला सिर के बालों, चेहरे और कपड़ों पर आ चिपकता है। दरअसल, मेरे पीठ के पीछे सूरज अपनी टॉर्च से रोशनी बिखेर रहा था। वह रोशनी उसकी दाढ़ी पर झिलमिलाते तारों के चित्र बना रही थी। उसने सफेद पठानी कुरता-पायजामा पहना हुआ था। उसके पैरों ने बहुत ही बड़े जूते पहने हुए थे। खादी कुरता था। नीले रंग की फतकी कुरते को ठंड से बचा रही थी। फतकी भेड़ की ऊन से बनी थी। महाशय ने भेड़ से आने वाली गंध को मनमोहक इत्र से छिपा लिया था। मैं उसके नज़दीक जा पहुँचा।


मैंने पूछा,‘‘क्या छूने से बोहनी-बट्टा हो जाएगा?’’ वह सकपका गया। उसने झट से एक अमरुद धोया। काटा। एक फाँकी मेरी तरफ बढ़ा दी। बोला,‘‘चखिए। ख़ालिस मिश्री घुली हुई है।’’ मैंने समझदारी दिखानी चाही,‘‘परसों तो बर्फ गिरी है। जाड़ा हाड़ कंपा रहा है। अमरुद कौन खाएगा?’’ उसके पास इस सवाल का जवाब था। तत्काल बोला,‘‘बाबू जी खाने को कौन कमबख़्त कह रहा है। मैं तो चखने के लिए कह रहा हूँ।’’
‘‘और चखने के बाद भी न लूँ तो?’’
‘‘कोई बात नहीं बाबू जी। आपसे बात हो गई। दिन बन जाएगा।’’
‘‘मात्र बात करने से तुम्हारा दिन कैसे बन जाएगा?’’
‘‘आपकी कमीज़ के जेब में एक लाल कलम और एक नीली कलम लगी है। अब्बू कहते हैं कि पढ़े-लिखों से ताल्लुकात बनाकर रक्खो। वक़्त-जरूरत पर काम आते हैं।’’
‘‘कौन? पढ़े-लिखे लोग या ताल्लुकात?’’
‘‘दोनों।’’ यह कहकर वह हँसने लगा।


मैंने गौर किया। उसकी आँखें भी हँस रही थीं। उसने अपने होंठ फैलाए थे। उसके गालों पर टेनिस की गेंद उभर आईं। आँखें चेहरे पर बहुत छोटी लग रही थीं। वह ज़रूरत से ज्यादा पलकों को खोल रहा था। आँखों की पुतलियाँ सामान्य से अधिक हरकत कर रही थीं। उसने एक पल के लिए नज़रें झुका लीं। फिर उठाईं तो मैं अमरुद की फाँकी चबा रहा था। वाक़ई ! अमरुद मीठा था। मुझे स्वाद भा गया। उसने भांप लिया। उसकी पुतलियों के साथ आँखों की भौंह भी फैल गईं। उसकी आँखें मेरी आँखों को देख रही थीं। जैसे ही आँखें सौदा-पत्ता लेने के लिए हामी भरेंगी। वह झट से अमरुद तोलने लगेगा।


सूरज नहाकर आसमान में आ चुका था। अभी उसकी धूम में गरमाहट नहीं थी। मेरे पैरों की अँगुलियाँ गरम जुराबों के भीतर भी ठण्डाई हुई थीं। मेरे नाक से पानी चू रहा था। मेरे दस्ताने हथेलियों को गरम नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में अमरुद की फाँकी का ज़ायका शहद मिलाकर दी गई मिश्री के जैसा ही था। मैंने हाँ में सिर हिलाते हुए कहा,‘‘अभी तो स्कूल जा रहा हूँ। वापसी पर ले लूँगा। एक किलो रख दो।’’ उसने भी अपने सिर को ज़रूरत से ज्यादा मेरी ओर झुका दिया।


मैं आगे बढ़ गया। सूरज के साथ-साथ दिन को भी सरकना ही था। सूरज पश्चिम की ओर उतर रहा था। शाम तेजी से चढ़ने लगी थी। अमरुद रखवाएं हैं। यह बात दिल-ओ-दिमाग से बिलकुल उतर गई। पहाड़ में अक्सर रास्ते धूप के साथ-साथ चलते हैं। चलते-चलते घाम तापने का मोह रहता है। सर्दियों में पैर धूप से भरे रास्तों से खुद-ब-खुद दोस्ती कर लेते हैं। शाम ब्यखुनी घाम की पीठ पर सवार रहती है। वह अपनी मुट्ठी में रात को लेकर चलती है। शाम घर पहुँचते ही रात को दरवाजे से भीतर धकेल देती है। मेरा घर लौटने का रास्ता दूसरा होता है। मैं उस रास्ते लौट आया। मैंने खाना खाया। गुड़ खाने के लिए हाथ में लिया। पहली ठुंगार ली ही थी कि याद आया। अमरुद रखवाए थे। वापसी में लेने थे। भूल गया! अब क्या हो सकता था! अगले दिन रविवार था। मैं बाज़ार नहीं गया। रात गई। बात गई। बात आई-गई हो गई।


एक सुबह की बात है। किसी ने पीछे से पुकारा,‘‘मास्साब! रुको तो।’’ मेरे दाएँ काँधे को किसी ने छुआ था। मैंने अपना काँधा देखा। किसी हथेली की अँगुलियाँ थीं। मुझे लगा किसी ने गुलाब मेरे काँधे पर रख दिया है। इस छुअन ने माँ की याद दिला दी। माँ को साँझ होने मेरी परवाह होने लगती थी। मैं कहीं भी होऊँगा वह वहीं आ जाएगी। खींच कर घर ले आती। हालांकि उस खेंचन की पकड़ ढीली ही रखती। धीरे से कहती,‘‘बाघ रुमकि दां ही आंदु। घौर चल।’’ ऐसा लगता जैसे वह किसी बकरी के मासूम बच्चे के आने की ख़बर दे रही हो।


कांधे में हुई छुअन के साथ एक खुशबू ने मुझे मदहोश कर दिया था। मैं उस खुशबू को पहचानने की कोशिश कर रहा था। वह बोला,‘‘मोगरा की खुशबू है। सुई की नोक के बराबर लगाया है। कलाई पर। मल्लिका यानी मालती। मोगरा फिलीपीन्स का राष्ट्रीय फूल है। चचा सऊदी से मेरे लिए दो शीशी लाए हैं। एक आपके लिए है। लीजिए मास्साब!’’
मैंने झेंप मिटानी चाही,‘‘अरे ! तुम ! उस दिन मैं उस रास्ते वापिस नहीं आया। सो अमरुद रह ही गए। आज इधर? आज कारोबार नहीं लगाया?’’
‘‘आज छुट्टी हो गई हमारी।’’
‘‘मतलब !’’
‘‘कोई बड़ा नेता तक़रीर देने आ रहा है। तो पुलिस ने आज ठेली-रेहड़ी और हम फुटपाथियों को दुकान सजाने ही नहीं दी।’’
‘‘कहीं ओर बैठ जाते। तुम्हारी दुकान तो बोरों-कट्टों और गत्तों में ही सजनी थी।’’
‘‘रोज़ का ढुलान मार जाता है। ढुटियाल एक कैरेट उठाने के पचास रुपए लेता है। सुबह लगाने के अलग और शाम को स्टोर पे ले जाने के अलग। दूसरी जगह के वह सौ रुपए लेता है। पाँच-छह कैरेट का ढुलान मार देता है। आधी कमाई तो भाड़ा ही खा जाता है।’’


मैं सर्दी, गर्मी और बरसात का हिसाब लगाने लगा। वह समझ गया। बोला,‘‘फिलहाल तो यह इत्र की शीशी पकड़िए। ये चाँद है। अभी दगड़ियों से मिलने जा रहा है।’’ मैंने आसमान की ओर देखा तो वह हँस पड़ा। बोला,‘‘धरती पर भी एक चाँद है। इस बन्दे को चाँद कहते हैं। कल से तहसील के कोने में जगह मिल रही है। वहाँ के नाज़िर सब डिवीजन रमेशचन्द भले आदमी हैं। अपना एक ठिया हो जाएगा। अब वहीं मिलेंगे। चलता हूँ।’’ चाँद ने अमरुद का ज़िक्र तक नहीं किया। घर आया तो बया ने पूछा,‘‘पापा। आपसे खुशबू आ रही है। बहुत ही प्यारी! अहा!’’ मुझे ध्यान आया कि इत्र के तो रुपए देना ही भूल गया।


चाँद तहसील पर बैठने लगा था। वह मेरा आम रास्ता नहीं था। अमरुद नहीं ले पाया था। इत्र की शीशी के भी रूपए नहीं दिए थे। यह बात मेरे मन में थी। एक दिन चाँद से मिलने जाना है। यह बात मन में बार-बार उठ रही थी। एक शाम की बात है। मैं चाँद से मिलने चल पड़ा। तहसील आम सड़क से काफी उँचाई पर है। उसे पहाड़ के एक तप्पड़ पर बनाया गया है। आम सड़क से तहसील का रास्ता नापते हुए आदमी हांफने लगता है। तप्पड़ चीड़-देवदार के पेड़ों से घिरा हुआ है। यहाँ सूरज सुबह ही अपना डेरा डाल लेता है। वह शाम ढलने से पहले ही पहाड़ियों के पीछे जा छिपता है। उसके ढलने से पहले ही तेज हवाएँ चलने लगती हैं। सूरज के छिपने के बाद शाम के दो-तीन घण्टे बिताने मुश्किल होते हैं। उसने दूर से ही मुझे पहचान लिया। पचास-साठ मीटर तेज कदमों से मेरे पास चला आया। मैंने पूछ लिया,‘‘अरे ठिया छोड़कर क्यों आ गए? मैं वहीं आ रहा था।’’


वह मुसकराते हुए बोला,‘‘फ़िकर की बात नहीं। वहाँ मटरू है।’’ उसने मेरी हथेलियाँ अपने हाथों से ढक ली। उसके हाथ गरम थे। ज़रूरत से ज़्यादा गरम थे। मैंने कहा,‘‘मेरे हाथ जेब में थे। तब भी ठंडे हैं। तुम यहाँ ठण्डी हवा खा रहे हो, तब भी हाथ गरम हैं। कैसे? कौन-सी चक्की का आटा खाते हो?’’ वह खुश हो गया। बोला,‘‘सब फलों का कमाल है। उन्हें छूता रहता हूँ। उलटता-पलटता रहता हूँ। उनकी साँसें मेरे हाथ गरम रखती हैं।’’ तभी मटरू चाय ले आया। उसने मटरू को आँखें दिखाते हुए कहा,‘‘अरे ! बस चाय ला रहा है। कुछ नहीं तो फैन ही ले आता।’’ तभी चाय वाला ही प्लेट में फैन रखकर ले आया। चाँद बोला,‘‘ यह दर्शन नेगी जी है। अदरक-तुलसी-इलायची की चाय के लिए मशहूर हैं। वह भी जानते हैं कि मेरे कोई खास मेहमान आए हैं।’’ चाय पीकर मैंने कहा,‘‘चाँद भाई। अब चलता हूँ। बाघ लगा हुआ है। अँधेरा होने से पहले घर पहुँचने में ही भलाई है। एक किलो अमरुद और एक दर्जन केले दे दो।’’ चाँद का चेहरा फक पड़ गया। उसने बाएं सीने पर हाथ रखते हुए कहा,‘‘आज आपके लिए नहीं है। कल ताज़े फल आएँगे। मैं मटरु के हाथ भिजवा दूंगा।’’


मैंने हँसते हुए कहा,‘‘तो खाली हाथ भेजोगे?’’ उसने भी हँसते हुए जवाब दिया,‘‘नहीं। यह आपके लिए खास इत्र है। सूर्ख लाल गुलाब के फूलों से बना इत्र।’’ मैं जेब में हाथ डालने लगा तो वह तपाक से बोला,‘‘मास्साब। उपहार की कीमत नहीं होती। इसे रुपयों में नहीं तोला जाता। आपको अपनी जेब से खाली हाथ बाहर निकालने होंगे।’’ मैं सकपका गया। कुछ कहते नहीं बना। हमने एक-दूसरे को अपना मोबाइल नंबर दिया। मैं अँधेरा होने से पहले घर चला आया।


सुबह के नौ बजने वाले थे। चाँद के नंबर से मोबाइल घनघना उठा। उसने सूचना दी थी। मटरु के हाथ फल भेज दिए गए थे। एजेंसी में कल्लू सेलून के यहाँ रखवा दिए थे। घर लौटते हुए मैंने थैला ले लिया। तीन दिन बाद फिर सुबह चाँद का नाम मोबाइल की स्क्रीन पर दिखाई दिया। वह बोला,‘‘मास्साब ! खैरियत होवे। मस्त केले और संतरे आए हैं। भिजवा रहा हूँ। वही कल्लू नाई के धोरे।’’ मैंने हड़बड़ी दिखाई,‘‘अरे! मैंने पिछले के रुपए दिए नहीं हैं। अभी . . .!’’ उसकी आवाज़ में तसल्ली थी,‘‘आ जाएँगे। कभी भागे थोड़े जारे। अभी रखता हूँ।’’


चार दिन बाद फिर मोबाइल घनघनाया तो मैंने सीधी-सपाट बात की,‘‘चाँद भाई। पहले पिछला हिसाब तो कर दूँ! मैं एक घण्टे बाद तहसील ही आ रहा हूँ।’’ वह धीरे से बोला,‘‘मास्साब! मैं तो खै़रियत वास्ते कॉल लगाई थी। आओ फिर।’’ चाँद के पास पहुँचा ही था कि चाय आ गई। वह मुस्कराते हुए बोला,‘‘दो गाँधीजी दो।’’ मैं समझा नहीं,‘‘मतलब!’’ चाँद ने दो अँगुलियों से विक्ट्री का सिम्बल बनाया, ‘‘पाँच सौ रुपए के दो नोट।’’ मैंने यूँ ही कह दिया,‘‘कुछ ज़्यादा नहीं हैं?’’ उसने गम्भीरता से जवाब दिया,‘‘दूसरी बार आओगे तब तक का हिसाब भी जोड़ लिया है।’’ मैं भी चुप नहीं रहा,‘‘मैं एक महीने तक न आऊँ तो. .।’’ वह भला चुप क्यों रहता,‘‘गाँधी जी बढ़ते जाएँगे। देश को कई गाँधियों की ज़रूरत है। बात्ताँ बाद में। पहले अदरक वाली चाय सपोड़ो आप।’’


धरती का चाँद घटते-घटते गायब हो जाता है। फिर बढ़ते-बढ़ते बढ़ता चला जाता है। मेरी चाँद से मेल-मुलाक़ात बढ़ती चली गई। अब वह दोस्ती में तब्दील हो गई। पता ही नहीं चला। कई बार कहीं ओर से भी फल लेकर घर गया। हर बार अन्तर नज़र आया। उन फलों में अपनेपन की ख़ुशबू नहीं मिली। एक-दो फल खराब निकलते। सड़े हुए फल भी देखने को मिल जाते। छोटे-बड़े, बेमेल और फीके भी रहते। कभी पिचके हुए तो कभी ज़्यादा पके हुए तो कभी कच्चे। कभी आधे कच्चे तो कुछ आधे पक्के। चाँद के दिए फलों में ऐसा नहीं होता। बात रुपए की नहीं थी। सौदे में रुपए तो चाँद को भी देने पड़ते। लेकिन झोला अपनत्व से भरा होता। फलों के साथ भरोसा भी साथ ले आता।


एक शाम की बात है। मैं तेज़ कदमों से चाँद के पास जा रहा था। मुझे देखते ही वह दर्शन नेगी की दुकान की ओर चला गया। मैं चाँद के ठिए पर पहुँचा तो उसने एक स्टील का गिलास मेरी ओर बढ़ा दिया। मैं हांफते हुए बोला,‘‘मैं चाय पीने नहीं आया।’’ वह सँभलते हुए बोला,‘‘गुनगुना पानी है। चाय तो बन रही है। तब तक आपका गुस्सा भी ठंडा हो जाएगा।’’ मैं चौंक पड़ा। मैं बोला,‘‘कैसे केले भिजवाए? पत्थर की तरह हैं। बाहर से सोने की तरह चमक रहे हैं बस! रुपए पेड़ पर नहीं लगते।’’ उसने हामी भरते हुए कहा,‘‘कोई बात नहीं। कल ताज़ातरीन भिजवा दूँगा। लेकिन फल पेड़ों पर लगते हैं। काश ! रुपए फल बो सकते।’’ मैं अकड़ के साथ बोला,‘‘जो भिजवाएँ हैं उनका क्या? उनकी तो सब्जी भी नहीं बनेगी।’’ चाँद ने इशारा किया। कहा,‘‘मेरे साथ आओ। मैं बताता हूँ क्या करना है।’’
चाँद मुझे तहसील के पिछवाड़े में ले गया। अंग्रेजों के ज़माने की खण्डहर हो चुकी दीवारों के कुछ कोने नज़र आ रहे थे। मेरी नाक मुतराण की वजह से सिकुड़ गई। सांस थमने को तैयार हो चुकी थी।

चाँद ने गत्ते की अधखुली पेटियाँ दिखाईं। इशारा करते हुए बोला,‘‘यह आज सुबह की हैं। यह फल खेत के पेड़ों से जबरन उतारे जाते होंगे। फिर इन्हें पेटियों में भरा जाता होगा। मोल-भाव करने करने से पहले ही यह मंडियों में लाए जाते होंगे। मंडियों से फिर यह शहरों के आढ़तियों तक पहुँचाए जाते होंगे। आपके हाथों में जो फल आता है, उससे पहले वह मुझे जैसे के हाथ में आता है। इस तहसील में मेरे हाथ में आने से पहले यह फल एक सौ बीस किलोमीटर दूर नजीबाबाद तक का सफर तय करते हैं। व्यापारी हर पेटी में कुछ खराब, कच्चे फल रख देता है। जानबूझकर करता है। यह मैं कह नहीं सकता। कल सुबह तक गुणी-बांदर और आवारा पशु इन्हें खा लेंगे और क्या? आप भी आस-पास के जानवरों को खिला देना। आजकल तो गौ माता ही गौ माता सड़कों पर हैं। है कि नहीं? अब चलो। यहाँ रुकना दूभर है।’’


मेरा गुस्सा उबल चुके दूध की तरह काफूर हो गया। कुछ कहते नहीं बना। चाँद ने भाँप लिया,‘‘मैं किसलिए बैठा हूँ। आपको दोबारा ताज़ा फल देंगे। फिर गड़बड़ी हुई तिबारा देंगे। अच्छा! कल आप मेरी कोई अर्जी लिखोगे उसमें कुछ गलत लिख दिया तो दोबारा लिखोगे न? फिर गलती हुई तो तिबारा लिखोगे। नहीं क्या? या यूँ कहोगे कि चाँद भाई एक दफा लिख दिया, सो लिख दिया। हैं?’’ मुझे हँसी आ गई। वह भी हँस पड़ा। फिर हमने एक साथ चाय पी।


वसंत आया। फूल खिले। पहाड़ में आम की आमद त्यौहार से कम नहीं होती। एक हजार सोलह सौ मीटर से अधिक ऊँचाई वाले इलाकों में आम के पेड़ नहीं होते। यही कारण है कि यह पहाड़ियों का पसंदीदा फल है। बाज़ार में आम आने लगे थे। मैं चाँद के साथ चाय की चुस्कियाँ ले रहा था। आज वह उदास था। मैंने कारण पूछा तो वह बताने लगा,‘‘इस साल जाड़े में बारिश नहीं हुई। कहीं भी नहीं हुई। जब बौंर आईं तो तेज हवा, धूल-धक्कड़ और अंधड़ ने आधा काम तमाम कर दिया। अम्बियाँ फूट रही थीं तो तूफान ने रही-सही कसर पूरी कर दी। इस दफा आम के दाम तेज हैं।’’ मैं लापरवाही से बोला,‘‘तुम्हें इससे क्या? मँहगा बिकेगा तो आमदनी फिर भी होगी।’’
चाँद ने मुझे घूर-सा लिया। बोला,‘‘कैसी बात करते हो मास्साब ! यहाँ तहसील में खसरा-खतौनी, नकल-फकल लेने वाला सुबह आ जाता है। दोपहर बाद तक उसका काम नहीं होता। भूख-तीस में उसे आस-पास मँहगा सौदा मिले तो क्या खाक लेगा? गरीब आदमी अस्सी-नब्बे रुपै किलो आम लेगा या दो-जून का आट्टा खरीदना चाहेगा?’’ मैंने विषय बदलना चाहा,‘‘वैसे तुम्हारे पास इस समय लँगड़ा है या कलमी? लग तो बढ़िया रहे हैं। खाने में जाने कैसे होंगे?’’ वह आमों को पलते-उलटते हुए बोला,‘‘यह दशहरी है। कलमी, बनारसी, चौंसा-लँगड़ा बाद में आएँगे। इनका बाप फजरी बाद में आएगा। मलीहाबादी तो कभी-कभी आता है।’’


मैं तो माहौल हलका करने पर तुला हुआ था,‘‘यार ! जब से आया हूँ देख रहा हूँ आम की ढेरी को छेड़ने में लगे हुए हो। उलट-पलट रहे हो। उन्हें चैन से रहने दो न।’’

उसका दायाँ हाथ एक पल के लिए रुक गया,‘‘मास्साब! छेड़ नहीं रहा हूँ। उन्हें छू रहा हूँ। यानी के दुलार रहा हूँ।’’ वह फिर उन्हें उलटने-पलटने लगा। मैंने एकदम पूछा,‘‘हैं ! दुलार रहा हूँ?’’ उसने जवाब दिय,‘‘हौर नि तो क्या? डाल से टूटकर बिछड़ने का ग़म हम और आप क्या जानें। मैं इन्हें छूता रहता हूँ। यह ताज़ा रहते हैं। इन्हें तसल्ली रहती है कि कोई है जो इनका है। जो इनके आस-पास है।’’ मैंने दूसरा सवाल पूछ लिया,‘‘तो फिर बेचते क्यों हो?’’ उसने लंबी सांस ली। बताया,‘‘बेचूँगा तो खाए जावेंगे। फलों को अपने पेड़ की खुद लगती है। मैं फलों को खुद से आज़ाद करता हूँ। इनकी खरीद-फरोख़्त पर विराम लगाता हूँ। मास्साब। हवा फलों तक इनके पेड़ों की खुशबू लेकर आती है। जब आम खा लिए जाते हैं तभी पेड़ अपने शरीर की डालियों, पत्तियों, फूलों और फलों पर ध्यान दे पाते हैं। और हाँ ! फल कहीं भी चले जाएं, पेड़ों का सूर इन पर लगा रहता है।’’


चाँद कहता जा रहा था। वह फलों को उलटता-पलटता जा रहा था। उसकी निगाहें आने-जाने वाले लोगों पर भी लगी रहतीं। मैं फलों को देख रहा था। उनकी खुशबू महसूस कर रहा था। तभी तेज हवा आई। फलों की देह छूकर उनके पेड़ों के पास जाने के लिए मचल उठी। अब मैं भी हवा को जाते हुए देख पा रहा था।

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-मनोहर चमोली ‘मनु’ सम्पर्क: 7579111144

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By manohar

2 thoughts on “फलों को पेड़ की खुद लगती है”
  1. अहा..! सच में मजा आ गया। मैं कहता न था, शानदार रचना बनेगी। मगर यह कहीं ज़्यादा है। फल बिक्रेता ऐसी ही चटपटी बातें करते हैं। पूरा मंजर आँखों में सजीव हो उठा। प्रकाशनार्थ भेजिए। प्रकाशक हाथों हाथ लपक लेंगे।

    1. जी मेहर ! हर पेशे में अच्छे लोग हैं। फिर ग्राहकों को भी तो समझना चाहिए कि विक्रेता झांसेबाज़ है या असल में अपनत्व वाला।

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