कवि श्याम सुशील की एकोर्डियन किताब ठाँव ठाँव घूमा
वरिष्ठ कवि श्याम सुशील अपने भावपूर्ण, सरल और भाव-बिम्ब से अमूर्त चीज़ों का मूर्त जीवों से रिश्ता बनाने के लिए मशहूर हैं। चार दशकों से अधिक साहित्य में अपनी निरन्तर उपस्थिति बनाए हुए हैं। एकलव्य ने श्याम सुशील की कविता ‘ठाँव ठाँव घूमा’ को प्रकाशित किया है।
छोटी सी कविता का विशाल फलक है। भारत गाँवों में बसता है। शहर भी कमोबेश गाँव के ग्रामीणों से ही आबाद हुए हैं। साठ-सत्तर-अस्सी के दशक के अधिकांश ग्रामीण जो अब शहरी हो गए हैं उनसे भले ही गाँव हमेशा के लिए छूट गया हो लेकिन मन कहीं न कहीं गाँव की याद दिलाता है।
इस किताब की बात करें तो हर तरह का पाठक खुद को जोड़ता है। वे जो गाँव में रहे हैं या रह रहे हैं उन्हें तो यह कविता और कविता के चित्र भाते ही हैं लेकिन उन पाठकों को भी यह किताब भाएगी जिन्होंने कभी गाँव नहीं देखा। यह किताब नवम्बर दो हजार अठारह में प्रकाशित हुई है। अब इसका मूल्य पैंतीस रुपए है। कहने को तो इस किताब में मात्र बारह पेज हैं। यह किताब एकोर्डियन की शक्ल में बनी है तो पूरी खोलकर रखें तो दो पेज ही हैं। लेकिन तब भी दोनों पेज के चित्रों को आप विहंगम दृष्टि से दो ही चित्र देख के रूप में आनंद ले सकते हैं। जब पाठक इस किताब को एकोर्डियन की तरह खोलता है तब सारे मोड़ इसे और भी प्यारा बनाते हैं।
कविता जिस तरह से सामने आती है वह शानदार है। अलबत्ता चित्र कविता को समृद्ध करते हैं। जाने-माने चित्रकार नीलेश गेहलोत ने पूरी कविता की एक फिल्म-सी बना दी है। हिन्दी पट्टी में एकोर्डियन किताबों का चलन प्रायः कम है। वाकई ! कविता और किताब के चित्र धौंकनी की तरह मन में घर कर जाते हैं। बाल मन अपनी दुनिया में झांकेगा। हाँ। बूढ़े, प्रौढ़ और युवा भी अपने बचपन को याद करेंगे। वे भी जो शहरी हैं उन्हें गाँव की झलकियाँ मिलेंगी।
एकोर्डियन किताब: ठाँव ठाँव घूमा
कवि: श्याम सुशील
चित्रकार: नीलेश गेहलोत
प्रकाशन वर्ष: 2018
मूल्य: 35 रुपए
पेज: 12
प्रस्तुति: मनोहर चमोली मनु
सम्पर्क: 7579111144
अबकी गया गाँव
तो पाँव-पाँव घूमा
पाँव-पाँव घूमा
तो ठाँव-ठाँव घूमाठाँव-ठाँव घूमा
तो हाट-बाट घूमा
हाट-बाट घूमा तो
दोस्त साथ घूमादोस्त साथ घूमा
तो नदी-नहर घूमा
नदी-नहर घूमा
तो ठहर-ठहर घूमाठहर-ठहर घूमा
तो मेड़-मेड़ घूमा
मेड़-मेड़ घूमा
तो खेत-खेत घूमाखेत-खेत घूमा
तो धूप-धूप घूमा
धूप-धूप घूमा
तो भाग-भाग घूमाभाग-भाग घूमा
तो बाग-बाग घूमा
बाग-बाग घूमा
तो छाँव-छाँव घूमाछाँव-छाँव घूमा
तो गाँव-गाँव घूमा
अबकी गया गाँव
तो ठाँव-ठाँव घूमा !
शुक्रिया मनोहर भाई।… ‘पानी का ताला’ की याद मन में बसी हुई है।… सृजनरत रहते हुए आप अन्य रचनाकारों की कृतियों पर अपने बेबाक विचार व्यक्त करते रहते हैं। आपकी सहृदयता और साफ़गोई मेरे मन को छूती है।… मुझे विश्वास है, किताबों पर आपकी यह सीरीज़ बाल साहित्य के पाठकों के लिए पठनीय और उपयोगी होगी। बहुत आभार के साथ 🙏
‘ठाँव-ठाँव घूमा’ बाल-मन को महकाती-चहकाती सुंदर प्रस्तुति! श्याम सुशील भाई को हार्दिक बधाई!
जी धन्यवाद ! कविता और चित्र प्यारे हैं । प्रकाशक ने मेहनत से छापा है।
जितनी सुंदर कविता, उतनी ही सुंदर किताब!
सुशील जी बहुत बढ़िया है। शब्दों का चयन -संयोजन अपने आप में अनूठा है। बच्चों के लिए लय का आकर्षण है तो बड़ों के लिए शब्दों की गहराई तक पहुँचने का साधन है। चित्र तो कमाल के हैं। कविता में चार चाँद लगा दिए।
सुशील जी बहुत बढ़िया है। शब्दों का चयन-संयोजन अपने आप में अनूठा है। बच्चों के लिए लय का आकर्षण है तो बड़ों के लिए शब्दों की गहराई तक पहुँचने का साधन है।
चित्र तो कमाल के हैं। कविता में चार चाँद लगा दिए हैं।
ji
गाँव का एक रूप यह भी है। अब गाँव का यथार्थ भी तेजी से बदल रहा है। मन में बसे गाँव के ‘ठाँव-ठाँव’ को हम आसानी से घूम लेंगे पर गाँव जाने के बाद पूरा गाँव जाल बिछाये बैठा मिलने लगा है। और ऐसा हो भी क्यों नहीं ! हम खुद को समृद्ध करने के लिए जिस गाँव को छोड़ जाते हैं, उसकी अपेक्षाओं का क्या? इसलिए लौटने पर गाँव मुँह फेर रहा है।
वैसे यह कविता अपने बिंबों और शिल्प में खूब भा रही है। कवि को बधाई!
“ठाँव ठाँव घूमा…”
बाल मन को भाने वाली, वयस्कों को समझाने वाली और हृदय को झाँकरने वाली,,,अपने गांवों से जोड़ने वाली…श्रेष्ठ कविता…
आदरणीय सुशील जी को हृदय से आभार ऐसी सुंदर रचना के लिए…
“ठाँव ठाँव घूमा…”
बाल मन को भाने वाली, वयस्कों को समझाने वाली और हृदय को झंकारने वाली,,,अपने गांवों से जोड़ने वाली…श्रेष्ठ कविता…
आदरणीय सुशील जी को हृदय से आभार ऐसी सुंदर रचना के लिए…
ji shukriya.