कुलवंत कोछड़ कृत किताब ‘गुस्सा’ एक शानदार कहानी बन पड़ी है। कहानी की किताब के चित्र अजंता गुहाठाकुरता ने बनाए हैं। पाठकों के लिए यह किताब राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत ने प्रकाशित की है। गुस्सा मात्र बारह पन्नों की किताब है। नेहरू बाल पुस्कालय के तहत यह दस-बारह साल के बच्चों को अधिक पसंद आएगी। किशोरों, युवाओं और प्रौढ़ों के लिए भी यह शानदार किताब है। गुस्सा अमूमन अधिकांश को आता है। आजकल तो गुस्सा तेजी से घर-घर में पैर पसार रहा है।


बहरहाल किताब की इस कहानी में दस साल का बालक अभिनव है। जिसे बात-बेबात पर गुस्सा आता है। घर के सभी लोग उसे समझाते हैं। स्कूल से भी अक्सर इस आशय की शिकायतें मिलने से उसके परिजन बहुत परेशान हो जाते हैं।


एक दिन उसकी माँ उसे समझाती है। अभिनव मानता है कि गुस्सा ठीक नहीं लेकिन वह गुस्से पर काबू नहीं कर पाता। उसकी माँ उसे एक सुझाव देती है। सुझाव यह होता है कि जब भी उसे गुस्सा आए वह घर के बाहर की दीवार पर एक कील ठोंक दे। अभिनव को एक पल के लिए यह सुझाव अजीब सा लगता है। लेकिन इस सुझाव में कुछ करने को है। यह सोचकर वह उस पर अमल करता है। अब जब भी उसे गुस्सा आता है वह बाहर की दीवार पर एक कील ठोंक देता। कुछ ही दिनों में दीवार पर वह बहुत सारी कीलें ठोंक देता है। फिर धीरे-धीरे यह कम होने लगता है। अभिनव को कील ठोंकने से अच्छा लगने लगता है कि गुस्से पर काबू पाया जाए। फिर वह दिन भी आता है जब दीवार पर कील ठोंकने का सिलसिला थम जाता है। यह बात वह अपनी माँ को बताता है। उसकी माँ खुश हो जाती है।


उसकी माँ उसे एक काम और देती है। कहती है कि अब वह दीवार से हर रोज़ एक-एक कील उखाड़े। फिर एक दिन उसने बताया कि दीवार पर ठोंकी तीस कीलें निकाल दी गई हैं। इसका मतलब यह हुआ कि तीस बार गुस्सा आने पर उसने तीस कीलें दीवार पर ठोंकी। अभिनव की माँ उससे कहती है कि दीवार पर सूराख भद्दे लग रहे हैं। यह निशान दीवार पर बने रहेंगे। इसी तरह गुस्सा कहीं न कहीं कुछ घाव कर देता है। बस इतनी-सी है यह कहानी।


किताब को पिक्चर बुक कहना गलत होगा। भले ही यह मात्र बारह पन्नों की किताब है लेकिन प्रत्येक पेज में चित्र के अनुरूप कथ्य ज़्यादा है। यदि किताब सोलह या बीस पन्नों की बन जाती तो और भी खास हो जाती। यह अच्छी बात है कि कहानी में दो ही पात्र हैं। अभिनव और उसकी माँ। संभवतः यह कारण भी हो सकता है कि कहानी को विस्तार देते समय चित्र क्या बनाए जाएं। कितनी विविधता रखी जाए। यही तो रचनात्मकता है कि कैसे कम शब्दों में चित्र ज़्यादा बोलें।


किताब में लापरवाही भी साफ दिखाई देती है। पहला संस्करण दो हजार तेरह में आया। तीसरी आवृत्ति दो हजार इक्कीस में आई। इन दस सालों में किताब के प्रुफ सुधारे नहीं गए। कहानी के चौथे वाक्य में विशेष की जगह ‘विशेा’ प्रकाशित हुआ है।


कहानी के दूसरे अनुच्छेद में भी एक गलती है। विषय को ‘वि़ाय’ प्रकाशित है। यह ठीक नहीं। चूँकि यह किताब बुनियादी पाठकों को ध्यान में रखकर प्रकाशित हुई है तो प्रुफ की असावधानी से वाक्य का आशय स्पष्ठ नहीं होता। पढ़ने की ललक बाधित होती है। किताब में पेजों की संख्या भी अंकित नहीं है। हालांकि बाल साहित्य में अतिवादियों की कमी नहीं है। जो यह कह सकते हैं कि दस बरस के बालक को हथौड़ा और कील ठोंकने का काम एक माँ कैसे दे सकती है? उसे चोट लग जाएगी। लेकिन दूसरी ओर यह भी सत्य है कि कील,हथौड़ा,चाकू,गैस,स्टोव,टीवी,रिमोट,मोबाइल भी उतने ही जरूरी है। बच्चे इसी दुनिया का हिस्सा है और इसी दुनिया में पलेंगे और बड़े होंगे।।


आवरण शानदार है। काग़ज कवर पेज सहित गुणवत्ता से भरपूर है। छपाई भी बेहतर है। रंगीन है। चित्र कहानी को आगे बढ़ाते हैं। अजंता गुहाठाकुरता अपने शानदार चित्रों के लिए मशहूर है। हालांकि अंत में वही आदर्शात्मक रवैया का शिकार यह किताब भी हो गई।


अंत आप भी पढ़िएगा-
माँ ने फिर कहा,‘‘अब ये दीवार पहले जैसी कभी नहीं हो सकेगी। इसमें ये निशान हमेशा बने रहेंगे। इसी तरह, जब हम गुस्से में किसी से अपशब्द कहते हैं तो उसके घाव कभी नहीं भरते। हथियार का घाव भले ही भर जाए मगर शब्दों का दिल पर बना घाव कभी नहीं भरता।’’
अभिनव को अब माँ की बात समझ में आ गई थी।


किताब: गुस्सा
लेखक: कुलवंत कोछड़
चित्र: अजंता गुहाठाकुरता
मूल्य: तीस रुपए
पेज: बारह
प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत
प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’

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By manohar

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