इज़ाज़ यानि आजकल, इन दिनों या इस समय। मुझे यह एजाज़ के करीब लगता है जिसे अनोखा,चमत्कार या करिश्मा भी कहते हैं। इज़ाज़ बंगाणी भाषा की तिमाही पत्रिका है। यह प्रवेशांक है। पत्रिका का आगाज़ यदि इतना शानदार है तो बेशक इसका ध्येय और भी बेमिसाल होगा।

बंगाणी फिलहाल देवनागिरी में ही लिखी जाती है। द्यान देयौण सम्पादक की ओर से है। आप भी पढ़ने की कोशिश कीजिएगा। समझना इतना कठिन नहीं है।

बौंगाणी बाशा / बोली दि लिखदु बैरै कौई शौब्दु रे आखर जाऐण बौदलुंणे, जेरी कि आमारि मूल बोलचाल दि आमैं घ, झ, ढ, ध, भ, ष, ह, क्ष जैशै बौरि आखर बोलदेईना । आमैं इंउरै बौदले ओळखे शौब्द बोलीण, लिखीण जेरौ कि घास खि गास, धान खि दान, ‘हद बढ़िया’ वाक्य खि आमैं बोंगाणी दि ‘औद बौड़िया’ बोलीण। एशौइ, हाथ खि बि आमैं आथ बोलीण, भात खि बात, घात खि गात, धात खि दात। तै लिखणे बि एशौई जाए। आपड़ि बाशा/ बोली रौ और्थ खि सेजौ बाव बि चाई आई जेशी आमैं बोंगाणी आम बोलचाल दि बोलींण ।

एक उदारण औजि सौमजियौण, जेशी अगरेजि एतरा पुरि दुनिया रि बाशा । तै औगरेजि दि Class औऐ लिखौंदि तेस ब्रिटिश आँगरेज़ दि क्लास पौड़ेण, बोलैण पर अमेरिकन अँगरेज़ दि एथुई खि क्लैस पौड़ेण, बोलैण जौबकि स्पैलिंग एकजेशि। शौई गौड़वाळी दि बधाई खि बधै औनि बंगाली दि रसगुल्ले खि रौशीगुल्ला बोलैण ते आमारि बोली दि बि बौदाइ या रौसगुल्ला बोलिये। ऐबै खियाल कौरियाण बै कि जेत्कै बि तुमैं (माणूश औनि कुछ जागा रौ नाउं छोड़ियो) बाकि शौब्द बोदलौंदै देखे बांड से इंदि रै मूल शौब्द औलै जेरौ धन्यवाद खि दौन्यवाद, शिक्षा खि शिक्शा, पौढ़ने खि पौड़नौ, भाषा खि बाशा, सम्मान खि सौम्मान, स्कूल खि इस्कूल या मात्राउं रौ फेरबदल, तै सेउ आमारि आपड़ि बोली/बाशा रौ उच्चारण औनि बौंगाणीकरण रि वौज़े कौई थौ कौरि ।

तुमैं बि लिखदु, पौड्दु बैरै एज़ि बुशे रौ द्यान कौरियाण एज़ै उच्चारण रि जादा ज़ौरूरत तेतरा पौड़दि ज़ेतरा आमैं बोंगाणी दि वीडियो चाणुलै, खेल, नाटक कौरूले, साइत्य लिखुलै। मूल बौंगाणी डौब एथुइ कौई आन्दौ। – सौम्पादक

उत्तराखण्ड भाषाओं के मामले में भी बेमिसाल है। उत्तराखण्ड की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी,कुमाऊंनी,गढ़वाली,जौनसारी हैं। रं, बंगाणी, पंजाबी, बांग्ला और उर्दू भी राज्य में बोली जाती है। गोरखाली, भोटिया के साथ यदि गढ़वाल और कुमाऊँ के भीतर भाषाओं की उपभाषाओं की बात करेंगे तो यह 18 से अधिक हैं।

एक बात स्पष्ट तौर पर हमें समझनी होगी कि बहुत छोटे क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा भी भाषा ही है बोली नहीं। बोली कहकर उसे छोटा न बनाएं। हाँ सरकारी मान्यता एक अलग मसअला है।

यही कारण है कि साल दो हजार के बाद से ही पहाड़ी अंचलों में छोटे-छोटे भूभाग की भाषाओं को बचाए और बनाए रखने के लिए संवेदनशील लोगों ने कुछ रचनात्मक काम शुरू किया है। कुमाऊँ में पहरु, गढ़वाल में धाद और अब बंगाणी में इज़ाज़ की दस्तक सुखद संकेत हैं। इससे पूर्व के इतिहास में जाएंगे तो कई पत्र-पत्रिकाएं हैं जिनके माध्यम से उत्तराखण्ड की क्षेत्रीय भाषाओं का लिखित दस्तावेज समय-समय पर सामने आता रहा है।


बहरहाल बंगाण क्षेत्र तमाम उपेक्षाओं के बावजूद अपने संघर्ष, सौन्दर्य और जिजीविषा के बलबूते मशहूर है। प्राकृतिक भौगोलिक,शारीरिक सौन्दर्य यहाँ कण-कण में विराजमान है। कर्मठता और अपनी जड़ों से जुड़े रहने की खूबी देखते ही बनती है। अभी इस पट्टी में स्थानीय संस्कृति,तीज-त्योहार-मेले ज़िन्दा है।


इज़ाज़ की भीतरी आवरण में महासू देवता की आरती है। इज़ाज़ पत्रिका का प्रवेशांक सुरेन्द्र सिंह रावत ‘सुराह’ को समर्पित है। वह बंगाणी भाषा के अग्रणी लेखक रहे हैं। सत्तर के दशक में उन्होंने देहरादून का जनजातीय इलाका जौनसार बावर स्थित हनोल के महासू देवता पर आधारित ओम जय जगदीश हरे की तर्ज पर बंगाणी में यह आरती लिखी थी। कह सकते हैं कि इस रचना ने भी हनोल को खूब प्रसिद्धि दिलाई। बीस के दशक में जन्मे बंगाणी लेखक कर्मठ समाजसेवी रहे। उन्होंने उस काल में नशाबन्दी की पुरजोर वकालत की थी। पशु बलि प्रथा का विरोध किया था।

वह भले ही एक तरफ महासु देवता की शान में आरती लिख रहे थे वहीं वह रूढ़िवादी व्यवस्थाओं और सामाजिक कुरीतियों के प्रबल विरोधी थे। पत्रिका में एक नहीं दो-दो सम्पाकीय हैं। सम्पादक ध्यान देने की आह्वान करते हैं और लिखते हैं कि यदि अपनी भाषा को बचाना है तो उसे लिखना होगा, पढ़ना होगा। अपनी भाषा के मूल उच्चारण पर ज्यादा ध्यान देना होगा। बंगाणी में वीडियो, खेल, नाटक,साहित्य रचना करनी होगी।


संपादक चि़ल्कियाच के तहत भी गहरी बातों पर ध्यान दिलाते हैं। वह गढ़वाली इतिहासकार डॉ॰ योगम्बर सिंह बर्तवाल के हवाले से बंगाण पट्टी की खूबियों की याद दिलाते हैं। वे क्षेत्र के सुरेन्द्र सिंह रावत ‘सुराह’ के हवाले से उनकी ही बात याद दिलाते हैं कि उन्होंने तब कहा था कि अपनी भाषा बचाओ, उसे बोलो, आपस में मिलो,रोओं,शराब,जुआ,बीड़ी,सिगरेट छोड़ो सुलेख लिखो कहानी लिखो।


विश्व में प्रख्यात चित्रकार जगमोहन बंगाणी ने शिक्षा नाम की लड़की की शिक्षा पर संस्मरणनुमा कहानी लिखी है। कैसे शिक्षा अपने अनपढ़ माता-पिता के साथ छोटे से गांव में रहती थी और शिक्षा ने शिक्षा हासिल करने के लिए संघर्ष किया और फिर पढ़-लिखकर वापिस गांव आई। पंचायत चुनाव में शिक्षा र्निविरोध ग्राम प्रधान बनी।


प्रख्यात रंगकर्मी एवं नाट्य निर्देशक डॉ॰ सुवर्ण रावत का संस्मरण भी पत्रिका में हैं। वह मास्टरजी हुक्म सिंह को याद करते हुए संभवतः साठ के दशक के नाटक की चर्चा करते हैं। तब आरती आदि में सवा रुपए की भेंट बहुत बड़ी मानी जाती थी। पूजा की थाली में अखरोट, च्यूड़ा, आदि भेंट रखते थे। वीर अभिमन्यु, सीता स्वयंवर से लेकर रामलीला की याद इस संस्मरण में है। रामलीला में रावण दरबार का किस्सा भी इस संस्मरण में है। प्रभात उप्रेती जी को भी याद किया गया है।


संस्कृतिकर्मी, शिक्षक, चित्रकार मोहन चौहान ने भी सुनी सुनाई कथा का पुनर्लेखन किया है। ज़ौबदू एक सीधा-साधा लाटा था। उसे गांव के और दूसरे गांव के बच्चे चिड़ाते थे। जौबदू अपनी सूझ-बूझ से चौरों को पकड़ाता है।
पत्रिका में मंजू रावत ‘राधा’, दिनेश चौहान, विपिन बंगाणी, डॉ॰भजन सिंह, सुरक्षा बौंगाणी, अंजनी, दर्शन सिंह चौहान, शुबा, सुनीता मोहन का सहयोग भी देखते बनता है।


सबसे बड़ी बात यह है कि तमाम भाषाओं के जानकार अपनी भाषा को बचाए-बनाए रखने के लिए समय-समय पर पत्र-पत्रिकाएं निकालते रहें हैं। वह बगैर किसी तैयारी के स्वच्छ सोच से कार्य तो करते हैं लेकिन उनमें पेशेवर कमी दिखाई देती है। पौड़ी से पाक्षिक अखबार खबरसार ने दर्जनों गढ़वाली साहित्यकारों को राष्ट्रीय पहचान दी। अन्ततः संपादक बिमल नेगी ने वह अखबार बंद कर दिया। लेकिन इज़ाज़ फिलहाल तिमाही है लेकिन काफी मेहनत से इसे तैयार किया गया है। यह औपचारिक आगाज़ नहीं है। मैं उम्मीद करूंगा कि यह मासिक तक का सफर तय करेगी और निर्बाध प्रकाशित होगी। मुझे बुज़ाउणी यानि बंगाणी पहेलियाँ सबसे अधिक पसंद आई। ठेठ लोक की खुशबू लोक कथाओं और कहावतों-किस्सों में ही मिलती है। फिलहाल बाईस पेज की यह पत्रिका भविष्य में लोक, कला, साहित्य और संस्कृति का संवाहक होगी। ऐसा मेरा विश्वास है। पत्रिका साझा सहयोग और सामूहिकता से ओत-प्रोत है। संपादक आर॰पी॰ विशाल, कला संपादक सुरक्षा बौंगाणी, शशि मोहन रावत, संपादकीय सहयोग शुबा, सुनीता मोहन, मंजु रावत ‘राधा’, मोहन चौहान, जगमोहन बंगाणी अपनी टीम को विस्तार देंगे।

पत्रिका : इज़ाज़ ( तिमाही )

पेज : 22

price : 50 रुपया

सम्पादक : आर० पी० विशाल

फेसबुक पेज : Baungaan Auni Baungaani

Email : Baungaani@gmail.com

प्रस्तुति : मनोहर चमोली ‘मनु’

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By manohar

4 thoughts on “बंगाणी भाषा की तिमाही पत्रिका इज़ाज़”
  1. वाह! बहुत ही सुंदर समीक्षात्मक लेख । इसे पढ़कर बहुत ही सुखद एहसास हुआ और भरोसा भी बढ़ा कि, कि भाषाई विरासत को सहेजने का ये छोटा सा प्रयास ज़ाया नहीं जायेगा।
    बधाई भी और शुक्रिया भी💐

  2. उत्तराखंड राज्य में बोली जाने वाली अनेक भाषाओं और बोलियों को ध्यान में रखते हुए “बंगानी” भाषा में छपी पत्रिका “इजाज़” से संबंधित एक व्यापक लेख है। इसे पढ़ना अवश्य ही एक सुखद अनुभूति है।

    “इजाज़” पत्रिका अपने आप में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में दिखती है और लेखक “मनोहर चमोली” जी की समीक्षा निश्चित रूप अत्यंत गंभीर और व्यापक है।

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