आजादी के 75 साल बाद भी हम बेहतर शिक्षा का ढांचा खड़ा कर पाए हैं?

शिक्षा कोई सलाद नहीं है। थाली में परोसा गया भोजन है लेकिन सलाद नहीं है तो चलेगा जैसी स्थिति भयावह है। शिक्षा एक पौष्टिक खुराक है। यही खुराक यदि अत्यल्प है, बासी है, ऊबाऊ है तो शरीर कुपोषित ही रहेगा। शरीर रूपी राष्ट्र की स्थिति का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है।

हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था भी हैरान करती है। शिक्षा पाने या दिलाने की ललक तो लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन गुणवत्तापरक और पड़ोस में सस्ती शिक्षा के अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं। यहां तक कि आम शिक्षा पाने के अवसर भी कम होते जा रहे हैं। भारत में लगातार हर साल स्कूल बंद हो रहे हैं। यह हालत तब है जब कक्षावार और विषयवार अपेक्षित शिक्षकों के अभाव में शिक्षा व्यवस्था संचालित है। कमोबेश कक्षा एक से पांच तक के बुनियादी स्कूलों में स्वीकृत पदों पर शिक्षक नहीं हैं। आजादी के पिचहत्त सालों बाद भी एक लाख बीस हजार स्कूल हैं जहां मात्र शिक्षक के भरोसे स्कूल संचालित है। यह बुनियादी स्कूल का आंकड़ा है। अकेले प्राथमिक विद्यालयों में दस लाख शिक्षकों के पद रिक्त हैं।


हालांकि ऐसा कई बार हुआ है। हजारों छात्रों के साथ हुआ है। वे अभाव में पढ़ते-लिखते कक्षा छठीं में पहुँच गए। कक्षा छह से वे दस में पहुँच जाते हैं। जैसे-तैसे दसवीं पास भी कर लेते हैं। लेकिन बीते पांच सालों में उन्होंने विज्ञान, गणित और कई बार अंग्रेजी के शिक्षक देखे नहीं होते। मतलब साफ है कि पिछले पांच सालों में इन विषयों के अध्यापकों का पद रिक्त था और रिक्त ही रहा। अब सोचने वाली यह बात है कि इन किशोरों के जीवन में वैज्ञानिक नजरिया, भाषा के मायने का अंकुरण कैसा वृक्ष बनेगा? यह तो आम जीवन की बात हुई। कोविड 19 के बाद क्या हुआ होगा? असर जिसे हम एनुवल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट कहते हैं। वह कई सालों से हर साल शिक्षा पर अपनी रिपोर्ट जारी करती है। इसे नजरअंदाज़ करना उचित नहीं है। हालिया रिपोर्ट बहुत परेशान करती है। ग्रामीण बच्चों के बारे में बताती है।

यह रिपोर्ट भारत के 616 जनपदों के उन्नीस हजार गांवों के सात लाख बच्चों पर किए सर्वे से उभरकर आई है। पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले 43 फीसदी बच्चे कक्षा दो के स्तर का पढ़ना जानते हैं। यानि 57 फीसदी बच्चे जो कक्षा पांच में पढ़ते हैं वे कक्षा दो के स्तर पर ही हैं। इसी तरह कक्षा तीन के बच्चे जो अभी कक्षा दो के स्तर का पढ़ना नहीं जानते है वे 79 फीसदी हैं। यह हाल हिंदी पट्टी के राज्यो का ही नहीं है। कोविड काल का असर पूरे भारत में हुआ है। केरल तक इससे अछूता नहीं रह गया है। हालांकि अभी तक हमने सार्वजनिक स्कूलों की बात की। लेकिन कोविड काल का असर निजी स्कूलों पर भी पड़ा। पढ़ने के स्तर पर गिरावट चारों ओर देखने को मिली। यह कहना उचित होगा कि शहरी बच्चों को तत्काल सूचना तकनीक के नए गैजेट मिल गए। मोबाइल मिल गए। वह इंटरनेट की सुविधा से जुड़ गए। लेकिन ग्रामीण इलाकों में शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह से चरमरा गई।

मैं स्वयं यह लिखता रहा कि कोविड 19 के कारण बच्चों का कोई नुकसान नहीं हुआ। वह पारिवारिक, सामाजिक, नैतिक, सामुदायिक स्तर पर और मजबूत हुए हैं। वह कुछ न कुछ सीख रहे हैं। समझ रहे हैं। लेकिन कोविड काल से उबरने के बाद जो परिषदीय परीक्षा हुई। परीक्षा के मूल्यांकन में पन्द्रह दिन हाईस्कूल की संस्कृत उत्तरपुस्तिकाएं मूल्यांकित करने का अवसर मिला।पिछले सोलह साल के दौरान मेरे द्वारा मूल्यांकित उत्तरपुस्तिकाओं का इतना बुरा हाल कभी नहीं था। संस्कृत में अब तक सिफर से एक फीसदी बच्चे भी उत्तीर्ण अंक न ला पाए हों। याद नहीं पड़ता। लेकिन इस बार! चार सौ से अधिक उत्तर पुस्तिकाओं को जांचते हुए हर रोज़ कई बच्चे अनुत्तीर्ण की स्थिति में थे। अब तक अस्सी से नब्बे फीसदी अंक लाने वाली उत्तर पुस्तिकाओं को अलग से अवलोकन हेतु उप प्रधान परीक्षक को दिखाने का नियम है। अब तक बार-बार ऐसी कॉपियां अवलोकित करानी पड़ती थी। लेकिन इस बार! इस बार बमुश्किल इक्का-दुक्का कॉपी ही प्रतिदिन पटल पर रखी जा सकी। यह एक बानगी है।


यह कहना उचित नहीं होगा कि बच्चे पढना नहीं चाहते। या यह लिखा जाए कि माता-पिता और अभिभावक बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते। पिछले पांच सालों के आंकड़े तो आशा जगातो हैं। अकेले ग्रामीण अंचलों में दाखिला लेने वाले बच्चों का आंकड़ा बढ़ा है। यह सत्रह फीसदी से बढ़कर अठारह फीसदी से अधिक हो गया है। छात्राओं के तौर पर लड़कियों का प्रवेश भी स्कूलों में बढ़ा है। प्री स्कूलों में दाखिला बढ़ा है। आंगनबाड़ियों में बच्चे बढ़े हैं। इन आंगनबाड़ियों में अब तक कुल बच्चों के पचास फीसदी बच्चे ही आंगनबाड़ी में नामांकित होते रहे हैं। लेकिन अब यह सड़सठ फीसदी का आंकड़ा पार कर चुके हैं।

अब तक मोटे तौर पर चार से पांच साल की आयु के बच्चे स्कूल की ओर मुख करते थे। लेकिन कोविड का असर देखिए कि तीन साल की आयु के सभी बच्चों में अठहत्तर फीसदी बच्चे किसी न किसी तरह के नर्सरी या प्री स्कूल जैसी संस्थाओं में नामांकित हैं। तो इन रुझानों के मायने क्या? क्या यह स्थिति नाकाफी है कि भारत में उच्च गुणवत्तापरक विद्यालय हों। अधिक से अधिक स्कूल खोले जाएं। तो फिर सवाल यह उठता ही है कि स्कूल क्यों बंद हो रहे हैं? इसके पीछे मंतव्य क्या है? क्या भारत के बच्चों को सार्वजनिक स्कूलों की जरूरत नहीं है? क्या शिक्षा के अधिकाधिक अवसर और पड़ोस में शिक्षा मुहैया होने की सुविधा में कटौती नहीं हो रही? कहा जा सकता है कि बच्चे सार्वजनिक स्कूलों की बजाय निजी स्कूलों की ओर रुख कर रहे हैं। यह पूरा सच नहीं है। यह सही है कि सरकारी स्कूलों में संख्या घट रही थी। लेकिन उनके लिए जो नाम मात्र का शुल्क देने की बजाय मंहगी फीस वाले स्कूलों में बच्चे पढ़ा सकता है। वह अभिभावक तो अपने बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ा ही रहे थे। पिछले पांच सालों में ग्रामीण स्कूलों के सार्वजनिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या लगभग नौ फीसदी बढ़ी है। कोविड के कारण जो आर्थिक स्थिति चरमराई उसने भी यह आंकड़ा बढ़ाया। मां-बाप क्या करते? खर्चो में कटौती सभी ने की।

इसका सीधा असर यह हुआ कि जो माता-पिता तीन सौ-चार सौ रुपए से लेकर एक हजार मासिक फीस निजी स्कूलों में दे रहे थे उन्होंने अपने बच्चों को निजी स्कूलों से हटाया और सार्वजनिक स्कूलों में प्रवेश दिला दिया। लेकिन अब जब कोविड काल से भारत उबर गया है। काम-काज शुरू हो गया है तो क्या निजी स्कूलों में फिर से बच्चों की संख्या नहीं बढ़ेगी? क्या सार्वजनिक स्कूलों में छात्रों का नामांकन फिर से कम हो जाएगा? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि स्थितियां जो भी हुई हों सार्वजनिक स्कूलों की स्थिति में सुधार नहीं किया जा सकता। ताकि अभिभावक अपने पाल्यों को सार्वजनिक स्कूलों में ही पढ़ाएं! क्या किया जाना चाहिए? यह सवाल तो ज़ेहन में आता ही है। सबसे पहले तो लगातार सार्वजनिक स्कूलों के बंद करने की रवायत पर लगाम लगाई जाए। बच्चे सार्वजनिक स्कूलों में पढ़ने आएं। इसके लिए जरूरी हो कि स्कूल भवन, पर्याप्त खेल का मैदान और पर्याप्त शिक्षक मुहैया कराए जाएं। भौतक संसाधन जैसे पानी, बिजली उपलब्ध हो। सार्वजनिक स्कूलों का एक दयनीय पक्ष कोविड काल के दौरान सामने आया। सूचना तकनीक के तौर पर अभी संचार व्यवस्था ग्रामीण क्षेत्रों में बेहद लचर है। शहर से गांवों को जोड़ने वाले मार्ग अभी भी कच्चे हैं। यातायात की सार्वजनिक व्यवस्था दम तोड़ चुकी है। निजी वाहनों में किराया बहुत ज़्यादा है। सड़के इतनी खराब हैं कि व्यावसायिक गाड़ियों का रख-रखाव बेहद मंहगा है। उसका परिणाम यह है कि जहां आम किराया बीस रुपया होना चाहिए वहां किराया पचास रुपए है।

बाह्य के साथ आंतरिक सुन्दरता भी तो चाहिए!


शिक्षा कोई सलाद नहीं है। थाली में परोसा गया भोजन है लेकिन सलाद नहीं है तो चलेगा जैसी स्थिति भयावह है। शिक्षा एक पौष्टिक खुराक है। यही खुराक यदि अत्यल्प है, बासी है, ऊबाऊ है तो शरीर कुपोषित ही रहेगा। शरीर रूपी राष्ट्र की स्थिति का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है। अब समय आ गया है कि हम भारत के लोग यह महसूस करें कि अपने जन प्रतिनिधियों को चुनते समय, उनसे मिलते समय शिक्षा की सुलभ अनिवार्यता की मांग करें। हर गांव के पड़ोस में गुणवत्तापरक शिक्षा उपलब्ध हो। यह हमारी प्राथमिकता में हो। बार-बार गुणवत्तापरक शिक्षा की बात होती है। हम नीत नियंताओं को बताएं कि हमारी गुणवत्तापरक शिक्षा से आशय मात्र इतना ही है कि कक्षावार स्कूल में भवन हों। पीने का स्वच्छ पानी हो। खेलने का मैदान हो। स्कूंल में पहुंच के लिए पक्की सड़क हो। बिजली हो। हर कक्षा के लिए विषयवार शिक्षक हों। बस हमें इतना ही चाहिए। भारत को रोबोट भी चाहिए। बुलेट ट्रेन भी चाहिए। हर जिले में विश्वस्तर का विमानपत्तनम भी चाहिए। लेकिन उससे पहले विद्यालय भी चाहिए। विद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षक भी चाहिए।


-मनोहर चमोली ‘मनु’

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By manohar

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