हिन्दी साहित्य में सुशील शुक्ल चिर-परिचित नाम है। उनकी कविताएँ और कहानियाँ दिल को छू लेती हैं। उनकी रचनाएँ पढ़ते हुए लगता है कि इस दुनिया में ग़म और खुशी महज़ इंसानों की बपौती नहीं है। वह पेड़-पौधों के अलावा बेज़ान चीज़ों के लिए भी है। नज़र खुली रखें और महसूस करें तो इस दुनिया की हर चीज़ का अपना अस्तित्व है। वह आदर्श और आदर्श की अतिरंजना के क़तई समर्थक नहीं हैं। उनका मानना है कि लेखक को रचना लिखनी चाहिए। वह बस लिखे। लिखते हुए यह तय किया जाना उचित नहीं है कि रचना का पाठक कौन होगा।
सुशील बताते हैं-‘‘बच्चों के लिए ‘एकलव्य’ ने बेमिसाल काम किया है। अभी भी कर रहा है। बच्चों के लिए बेहतरीन किताबों की दरकार अभी भी है। एकलव्य जैसा शानदार काम बढ़ाने की ज़रूरत है।’’ वह मानते हैं कि इस धरती पर केवल इंसानों का हक़ नहीं है। इंसान तो प्रकृति का हिस्सा मात्र है। प्रकृति में पेड़, पहाड़, नदी, हाथी, चींटी और सूरज तक है। वह कहते हैं,‘‘जैसे एक पेड़ को देखें तो लगता है कि वह अपनी जगह पर खड़ा हुआ है। सबके लिए खुला है। लेकिन उस पेड़ से एक दरवाज़ा बन गया है। पेड़ जो पहले सबके लिए खुलता था अब दरवाज़ा बनकर कम खुलता है। सबके लिए नहीं खुलता है।’’
सुशील प्रकृति के कवि हैं। मकड़ी, चींटी, हाथी, सूरज, पेड़, नदी उनके प्रिय हैं। सूरज पर केन्द्रित उनकी कविता ‘ये सारा उजाला सूरज का’ का सन्दर्भ आने पर वह बताते हैं-
‘‘इस प्रकृति में सब कुछ आता है। इंसान भी। प्रकृति की बात करते हुए हम पता नहीं क्यों इंसान को छोड़ देते हैं। फूल से मतलब सिर्फ खिला हुआ फूल नहीं है। मैं जब भी सूरज को देखता हूँ तो पाता हूँ कि सूरज के बिना जीवन नहीं है। मेरे लिए तो सूरज बहुत खास है। मुझे ऐसा लगता है कि मैं सूरज की शान में ही लिखता हूँ। ‘ये सारा उजाला सूरज का भी उसी की शान में लिखी रचना है। हम सब एक ही सूरज के लोग हैं। जैसे मुझे लगता है कि हर कोई किसी एक से इश्क करता है तो उसे अच्छी तरह समझता है। जानता है। उसके नज़दीक रहता है। मैं मानता हूँ कि प्रकृति की बात करते हुए इंसान को अलग करके नहीं देखा जा सकता। चींटी को भी नहीं। किसी को भी नहीं। मेरे लिए भी सूरज ऐसा ही है। मैं मानता हूँ कि अच्छी कविताएँ वहीं हैं जो पाठको के समझ बहुत सारा विस्तार लिए हुए होती है।’’
जब यह बात सुशील शुक्ल कहते हैं कि इस दुनिया का सूरज एक ही है। कुछ मुट्ठी भर लोगों के कहने से सरहद पार के बारे में नकारात्मकता से इतर सकारात्मकता की बात भी वह कहते हैं। ये धरती,चाँद और सितारे हर जगह यकसाँ अपना काम करते होंगे। सूरज पर उनकी मशहूर कविता-
ये सारा उजाला सूरज का
सब देखा भाला सूरज का
दिन की एक चाबी सूरज की
और रात का ताला सूरज काये सारी हवाएँ सूरज की
और सारी दिशाएं सूरज की
जो कीड़ा फँसता सूरज का
मकड़ी का जाला सूरज काचीटी की आँख में सूरज है
और मोर की पाँख में सूरज है
पत्ते में जड़ में फूलों में
और शाख शाख में सूरज हैसूरज से समन्दर सात बने
और पीठ के तिल से रात बने
जो ब्रह्मपुत्र के तीर में हैं
बस्तर में हैं कश्मीर में हैं
कोई उजला है कोई काला है
सबको सूरज ने ढाला है
सूरज ही नजरबन्दी में है
सूरज को देश निकाला है
सुशील शुक्ल के पास सूक्ष्म अवलोकन वाली दृष्टि है। संभवतः यही कारण है कि वह लीक से हटकर लिख पाते हैं। उनका कहन अलहदा है। जब इस संबंध में उनसे बात करते हैं तो वह सिमट-से जाते हैं। बड़ी सरलता से कहते हैं, ‘‘मैं बहुत बेतरतीब इंसान हूँ। मैं बचपन में स्कूल बहुत कम जाता था। शायद पांचवी तक मैं पचास दिन भी स्कूल नहीं गया। मेरे आस-पास नर्मदा थी। मैंने प्रकृति को नजदीक से जानने की कोशिश की। पेड़, नदी के साथ इस पूरी प्रकृति के साथ मेरा रिश्ता बना। मैं घर पर अकेला ही था। अक्सर खेत, बाग, बगीचे, पेड़ों के साथ खूब समय बिताया।’’
सुशील अपनी रचना प्रक्रिया में अलग से पहचाने जाने के सवाल पर सोचते हैं। उनका मानना है कि बहुत सारे मुद्दे हैं जिन पर लिखा जाना चाहिए। पेड़ सिर्फ पेड़ नहीं होता। पेड़ में भी एक दुनिया होती है। वह कहते हैं,‘‘आज बहुत सारी बातें हैं जो चिंता की बात होनी चाहिए। पूरी दुनिया में जंगलों से आदिवासियों की बेदख़ली हो रही है। प्रकृति के साथ रहने वाले इंसानों को हटाया जा रहा है। आधुनिक समाज ने उन्हें ही प्रकृति से अलग कर दिया जिन्होंने प्रकृति को सबसे कम नुकसान पहुँचाया है। जिन्होंने हम आधुनिकों को प्रकृति के साथ रहने का सलीका सिखाया आज वही बेदख़ल किए जा रहे हैं। जैसे कि लोग बादलों में शक्लें देखते हैं। मैं सोचता हूँ कि आदिवासी बच्चे बादलों में पानी की बोतले तो नहीं देखते होंगे। मुझे तो बादलों में पानी बेचने का धंधा करने वाले दिखाई देते हैं। जो एक दिन सीधे बादलों से ही पानी ले लेंगे। बेच देंगे। आज तो सारी चीज़ें बिकती जा रही है।’’
लिखना कहाँ से शुरु किया? कैसे लिखते हैं? किसके लिए लिखते हैं? इन सवालों के जवाब में सुशील बताते हैं,‘‘पढ़ने-लिखने की रुचि रही है। वैसे, मैं तो अपने लिए ही लिखता हूँ। लिखने में मज़ा आता है। जब नहीं आता है तो नहीं लिखता हूँ। मुझे लगता है कि मैं प्रकृति से बाहर लिख नहीं सकता। देखिए, जैसे कोई कहानी है। मैं किसी बच्चे का किरदार लिख रहा हूँ तो मुझे उसकी तलाश में निकलना होगा। हर लेखक अपने किरदार की तलाश में निकलता है। जैसे कभी एक पेड़ की तलाश में निकलते हैं। हमारे बच्चों के साहित्य में कई विडम्बनाएं हैं। ज़्यादातर हम शुरु करते है कि एक पेड़ था। यह पेड़ का सपाट-सा सामान्यीकरण है। लेकिन पेड़ साल का है या सागवान का है शीशम का है। यह उल्लेख मिलता है? वह पेड़ कौन-सा है? कहाँ है? किस गाँव में है? सड़क के पास है तो शायद उसकी उम्र कम ही बची होगी। एक चिड़िया थी। यह आता है। कौन-सी चिड़िया थी? कहाँ थी? यह नहीं आता। मतलब यह है कि सपाट सा वर्णन से बात बनती नज़र आती नहीं। मुझे तो नहीं आती।’’ चींटी पर उनकी कई कविताएँ हैं। वह अक्सर कहते हैं कि चींटी की नज़र से कभी आसमान या पहाड़ को देखने की कल्पना करना कितना अलग होता होगा। उनकी एक कविता-
चींटी चलती है।
चीनी लेकर चीटी चलती है।
चीटी रुकती है तो चीनी रुकती है
चीटी चलती है तो चीनी चलती है।
चीटी चलती है चीनी लेकर चीटी चलती है
रस्ते में एक और चीटी मिल जाती है।
देख के चीनी का दाना खिल जाती है
चीटी तो फिर चीटी होती है
और फिर चीनी की दावत मीठी होती है…
चीटी चलती है।
चीनी खाकर चीटी चलती है….
बाल साहित्य पर वह विस्तार से अपना अनुभव रखते हैं। वह याद करते हैं और धारा प्रवाह बताते हैं,‘‘बच्चों के साहित्य में इंसानी कहानी है तो जानवर ऐसे ही आ जाएगा। हमारा बाल साहित्य जानवरों से भर गया। लेकिन सवाल यह है कि हम जानवरों के बारे में कितना जानते हैं? जानवर कितनी सूझ से भरे हैं। वह कितने प्रेमी हैं। कभी किसी कुत्ते की आँखों में देखे। मैं गली के कुत्तों से मिलना चाहूंगा। हैलो- हाय करके ही आगे बढ़ूगा। मेरी उनसे दोस्ती है और मैं उस जगह से गुजर रहा हूँ तो उनसे मिले बिना कैसे जा सकूंगा। उनके जीवन में झांक कर उनके साथ रहकर हम उन्हें समझते हैं। ऐसा लगता है कि हम खुद को समझते हैं।’’
कहानी में नैतिकता, संदेश और सीख के मामले में सुशील स्पष्ट जवाब देते हैं। वह शानदार और तार्किक बात कहते हैं,‘‘कहानी बहुत बड़ी चीज़ है। देखिए जब कोई कहानीकार या कोई कवि या कोई शिक्षकयह कहता है कि इस कहानी का मतलब यह है या आखिर में उन्हें यह कहना पड़े कि इस कहानी का क्या मतलब है तो फिर उन्होंने कहानी क्यों कही? वे कहानी पर कम भरोसा करते हैं। अगर कहानी कहने के बाद भी यह कहना पड़े कि कहानी यह कहती तो इसका यह अर्थ हुआ कि कहानी अपने आप में कम्यूनिकेट नहीं करती? कहानी तो कहानी होती है। नैतिकता से हम उसके असर को कम कर देते हैं। कहानी एक जो भाषा बनाती है। एक संभावना बनाती है कि वह कहने और सुनने लायक बनती है। देखिए, कहानी में क्या शामिल नहीं है? सब कुछ। हम,आप, रिश्ते-नाते, हमारा जीवन, सब कुछ कहानी ही तो है। कहानी की भाषा में ही तो है।’’ मोबाइल रेंज सुशील शुक्ल की नायाब कविता है। नए भाव, बोध और बिम्ब कैसे एक छोटी-सी कविता में शामिल हो सकते हैं! प्रकृति के सारे रंग नई तकनीक ने ग्रहण कर लिए हैं। कल्पना के साथ जो मन की उड़ान है। इसे कविता में देखा जा सकता है-
एक पहाड़ को डाउनलोड किया
उसके सारे पेड़ बेचारे
कीड़े पंछी सारे
छोटे से मोबाइल में
फिरते हैं मारे मारे
कहानी के मर्म और मक़सद पर सुशील विचारणीय बिन्दु रखते हैं। उनका मानना है,‘‘कहानी पर भरोसा करना होगा। जब कहानीकार यह सोचकर कहानी लिखता है कि कुछ सिखाना है, इस सिखाने के अंदाज़ पर ज़्यादा भरोसा करते हैं। मुझे जब यह लगता है कि कहानी में मुझे कुछ बताना होता है या कुछ सीखाना है। मैं ज़्यादा जानता हूँ और मुझसे कम जानने वालों को लिए यह कहानी होगाी तो मैं मानता हूँ कि यहीं गड़बड़ है।’’
सुशील समस्या ही नहीं समाधान भी सहजता से सुझाते हैं। वह स्वयं अभी समझने की स्थिति को बार-बार रेखांकित करते हैं। वह अपने पचासों उस्तादों का हवाला भी देते हैं। वह बताते हैं,‘‘मुझे लगता है कि हमें अपने अनुभवों को दर्ज़ करना चाहिए। अपने अनुभवों का आधार ज़्यादा कारग़र है। ऐसा करते हैं तो एक बराबरी की भाषा बनती है। साझेदारी की भाषा सामने आती है। लिखे-लिखाए और पहले से ही चली आ रही भाषा का कहन कोई कमाल नहीं करती। जब हम कहानी में सिखाने चलते हैं तो अपना अनुभव कहीं छिप जाता है। फिर कहानी में एक लिजलिजी भाषा बनती है। अकड़ी हुई भाषा बनती है। मुझे तो लगता है कि अच्छी कहानी-कविता भाषा की अकड़ उतारती है। अपने अनुभवों से बनी कहानियाँ उदार भाषा बनाती हंै। भाषा के लिए रास्ता खोलती हैं।’’
फेरियोंवाला वाला उनकी एक कविता है। वह अक्सर कहते भी हैं। हर किसी के काम का अपना आनन्द है। सम्मान है। हर कोई हर काम नहीं कर सकता। दूसरे के काम को ध्यान से देखें तो पाते हैं कि शायद वह काम हम नहीं कर सकते। इस लिहाज़ से भी दुनिया को देखना-समझना चाहिए। इस कविता का आनंद ही कुछ ओर है-
माहिर हैं अपने फन के लगाते हैं फेरियाँअपनी रचनाधर्मिता और बाल लेखन के संदर्भ में पूछे गए एक सवाल में वह कहते हैं,
जामुन कभी शहतूत कभी देसी बेरियाँ
सिर पे उठाके घूमते हैं कितने जायके
बातूनी ऐसे जैसे कोई आई है मायके
इनके मसाले सारे ही देसी हैं खड़े हैं
थोड़े से मसाले इनकी बातों के पड़े हैं
पहले तो एक भरा सा जामुन चखाएँगे
इस तीर के निशाने आप आ ही जाएँगे
दो पत्ते हरे झट वो अदा से उठाएँगे
चुन चुन के दे रहे हैं ऐसे पेश आएँगे
दोना पकड़ के आप दाम जानने को हैं
तुमसे नहीं लेंगे कभी यह ठानने को हैं
आ जाएगा दो दिन में वही देसी आम भर
बस आपको बताने को आया है नाम भर
ये छोटा सफेदा है और ये लालपरी है
अन्दर से सुर्ख निकलेगी बाहर से हरी है
वो देख लेगा आँख जो चाहत से भरी है
ले डालिए और सोचिए क्या जादूगरी है।
कभी चार दिन को जबकि वो बीमार पड़ेगा
शहतूत क्यों न लाया इंतज़ार बढ़ेगा
फिर आएगा एक रोज़ वो दुबला बहुत होकर
शायद करे बयान अपनी मुश्किलें रोकर
जो चाहेगा आज उसको वही दाम मिलेगा
इस बात से उसको बहुत आराम मिलेगा।
‘‘मुझे लगता है कि लेखक को खुद को समझने की कोशिश में लगे रहना चाहिए। मुझे जिस चीज़ में आनंद आता है, वही करना चाहिए। मैं तभी लिख पाता हूँ जब रचना मुझसे लिखवा जाती है, मतलब मेरा जीना हराम कर देती है, तो लिखना हो जाता है। मुझे तो लगता है कि बच्चों के लिए बच्चा बनकर कैसे लिखा जा सकता है? एक पचास साल का आदमी दस-बारह साल का बच्चा कैसे बन सकेगा? हाँ! भाषा की उदारता जरूरी है। देखिए। बच्चों के साथ समय बिताएं। उनसे मिलें-जुलें। थम कर सोचना उतरना। यह हो। अब आप एक पचास साल के पेड़ के पास गए। तो उस पेड़ को समझने के लिए पचास साल तो नहीं दे सकते हैं न? लेकिन क्या एक पेड़ को समझने के लिए आपके पास दस घंटे हैं? आप उसे पचास घण्टे तो दे सकते हैं। हम इंसानों के साथ क्या करते हैं? हम मिलते हैं-जुलते हैं। गले मिलते हैं। बैठते हैं। लगातार बात करते हैं तभी ठीक से जान पाते हैं। तभी हम कुछ समझ पाते हैं। लिख पाते हैं। आपका अपना कोई अनुभव है तो लिखे। लिखने से पहले ही हम कैसे तय कर लें कि कोई क्या सोचेगा? कहानी में फलां पात्र कैसा होगा है। मुझे लगता है कि इसमें नहीं पड़ना चाहिए। अपने अनुभव की तलाश में निकलना चाहिए। उसे ही समझना अपने अनुभवों को ही समझना बड़ी बात होगी। तभी कोई नई चीज़ और नई भाषा हाथ लगती है। ऐसा नहीं होगा तो फिर वही होगा कि बारिश, बादल, नदी का वर्णन जैसी सपाट रचनाएँ आएँगी।’’
यह कहना उचित ही होगा कि गर्मी और सर्दी का आनंद हम कम उठाते हैं। बेचारगी,लाचारी, उफ और हाय का हो-हल्ला कविताओं में भी दिखाई देता है। लेकिन विपन्नता का चित्रण हौले से सुशील कुछ इस तरह से करते हैं-
दर्जी आए दूर से
बाँधा ऊँट खजूर से
गए बाज़ार दवाई ली
साथ चाय के खाई लीमन में आया चूसें आम
सुनके लौटे ऊँचे दामऊँट को खोलेंगे खजूर से
उससे बोलेंगे ज़रूर से
अम्मी एकदम सही कही हैं
आम में अब वो बात नहीं है….
बच्चा बनकर लिखने के सवाल पर वह अपना अनुभव साझा करते हैं। उनका कहना है,‘‘मेरे लिए तो यह असंभव है। मैं कैसे बन सकता हूं बच्चा? मैं खुद को तो ठीक से समझ नहीं पाता। फिर इस दुनिया के करोड़ों बच्चों को कैसे समझ सकता हूँ? हाँ! आप बच्चों से मिल सकते हैं। अधिकाधिक बातंे कर सकते हैं। बच्चे कल्पनाशील होते हैं। यह मैं मानता हूँ। पर उन्हें क्या पंसद आएगा क्या नहीं आएगा? यह पेचीदा मसला है। बच्चों को कैसे समझना होता होगा? कह नहीं सकता। हम पहले खुद को ही समझ लें और तब कुछ लिखे तो कुछ नया लिखा जाता है। मुझे किस चीज़ में आनंद आता है? जब कोई बात मुझे लिखो, मन बार-बार कहता है कि इसे लिखना है। यह बात अगर परेशान करे तो लिखता हूँ। पसंद आएगा नहीं आएगा इस बात की परवाह ज़्यादा नहीं पड़ना चाहिए।’’
बच्चों के साथ क्या साझा करें? क्या साझा नहीं करें। शुचिता और जटिलता के सवाल पर सुशील शुक्ल का कहना है,‘‘मुझे तो लगता है कि दुनिया में ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जो बच्चों से साझा नहीं करनी चाहिए। हां। यह ज़रूर है कि कैसे साझा करें! भाषा कौन-सी हो? कहाँ से शुरू करें? कैसे शुरू करें? अब देखिए कि चार साल का बच्चा पूछे कि गोल चीज़ें क्यों लुढ़कती हैं? तो मुझे लगता है कि उम्र के हिसाब से जवाब दिया जाएगा। अब रसायन विज्ञान की कक्षा में कक्षावार ही तो बात की जाएगी न? दुनिया की हर चीज़ बच्चों से साझा करनी चाहिए। यह उनका हक है। बच्चे भी धरती पर हमारे साथ ही जीवन बिताने आए हैं। जितनी दुनिया हमारी है, उतनी उनकी भी है। बच्चे अपने ढंग से दुनिया को समझते हैं। उनके सवाल भी गंभीर होते हैं। जैसे बस्तर की एक कहानी है। वहाँ की प्रकृति में लोहे की जानकारी बच्चे को मिलती है तो बच्चा पूछता है कि यहाँ अगर इतना लोहा है तो मेरे शरीर में लोहा कम क्यों हैं? आयरन की कमी क्यों हैं? ये बड़ा सवाल है। हम बड़ों को यह कहना कठिन लगता है कि मैं नहीं जानता। बच्चों को लगता है कि बड़े सब कुछ जानते हैं। हम बड़ों की ओर से यह कम आ पाता है कि मैं नहीं जानता। ऐसा स्थापित कर दिया गया है कि बड़े ठीक से सब कुछ जानते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि हम बड़े ठीक से कहाँ जानते हैं। हम नहीं जानते। हमारी असफलताओं की कहानियां बच्चों के सामने नहीं आतीं। हम बड़े सफल होकर ही बच्चों के सामने दिखाई देते हैं। दिखते हैं। हमारी नाकामियां भी सामने आए। बड़े बहुत कम जानते हैं। ठीक से नहीं जानते। बड़े सब दुनिया के बारे में कहां जानते हैं। हम बड़ों की असफलताओं की कहानियाँ आनी चाहिए। हमारी शिकस्तें कहाँ हैं। यह सब लेखन में आए तो बात बने।’’
लेखकीय कर्म से संबंधित सवाल के जवाब में सुशील स्पष्ट हैं। वह कहते हैं,‘‘एक लेखक को अपने काम में ईमानदार रहना चाहिए। मैंने पहले भी कहा है। लेखक रचनाकर्म करे। रचना जब बन जाएगी तो सोचा जाए कि इसका पाठक कौन होगा। पहले हमें रचना को लिखना चाहिए। अब पेड़ को ही लेते हैं। एक पेड़ पर हजारों बातें हैं जो कही जानी चाहिए। रचना में आम का पेड़ आता है। तो जो कुछ आ रहा है रचना में तो आने दीजिए। चैंसा आम है। जैसे करांची का चैंसा। भारत में पाकिस्तान से जब यह आम आता है तब हमारे यहाँ का आम चैंसा खत्म हो जाता है। सितम्बर में आता है। तो हम कह सकते हैं कि पाकिस्तान से गोली और बारुद ही नहीं आते। मीठा आम भी आता है। पचास-सौ लोगों के हिसाब से हम पाकिस्तान को क्यों देखे? पाकिस्तान में भी सूरज रोशनी देता है। जैसे भारत में आम पकते हैं पाकिस्तान में भी सूरज आम वैसे ही पकाता है। अब सोचिए कि करांची से किस बाग से आम आए होंगे! किसने वे आम सहेजे होंगे? पाकिस्तान से यहाँ आम आने की पूरी यात्रा हुई होगी। अब कोई रचना है कि आम कैसे खाएँ? आम मीठा होता है। इससे बात बनती नहीं।’’
बचपन और बचपन के खेलों को सुशील अलग ढंग से देखते हैं। उनका मानना है कि अभाव भी खेलों के तौर-तरीकों में बदलाव कर देता है। लेकिन यह कहना कि मात्र संसाधनों के चलते ही खेल में आनंद लिया जाता होगा। संभवतः गलत होगा। पहाड़ के आस-पास के खेल, समन्दर या तालाब किनारे के खेल अलग होंगे लेकिन आनंद की अनुभूति तो ली ही जा सकती है। एक कविता-
कोचीन के तीन कुम्हार
खेल खेलते तीन हज़ार
नाव बनाकर मिट्टी की
कितने किए समन्दर पार
नाव घुल गई पानी में
उफ क्या हुआ कहानी में
रचनाएँ कैसे जन्म लेती हैं? इस पर वे सोचते हैं फिर कहते हैं,‘‘पक्का तो नहीं कह सकता कि क्या होता होगा। अब जैसे हम किसी घास के मैदान में जाएं इन दिनों भी तो आम तौर पर पचास-साठ फूल खिले होंगे। हम उन्हें कितना जानते होंगे। मुझे लगता है कि पहले प्रकृति की इन चीज़ों से रिश्ता बनाना जरूरी है। यदि पेड़ से रिश्ता होगा तो पेड़ कटने पर दुख होगा। हो सकता है उसे न काटने के पक्ष में आप खड़े हो जाएँगे। पेड़ आक्सीजन देते हैं। बस! पेड़ की इतनी ही सी बात नहीं है। यदि पेड़ आक्सीजन नहीं देता है तो क्या उसे काट देना चाहिए? पेड़ से गले लगने का अनुभव अद्भुत होता है। जब गले लगना, उसे छूना आनंदित करता है, तभी कुछ लिखा जाता है। अब यह कहना ठीक नहीं होगा कि किसरी रचना को लिखने बैठना होता है। आप बहुत व्यस्त हैं तब भी कोई रचना मन में चल रही है तो मेरा मानना है कि उस रचना में अगर इतनी कुव्वत है कि वह आपसे खुद को लिखवा दे तो समय निकल ही जाता है। अब कोई रचना कैसे तैयार हो जाती है? ऐसा कोई सुराग नहीं है। कोई चीज़ कैसे आती है? तो मुझे लगता है कि मुझे उसमें आनन्द नहीं आएगा तो मैं रचना नहीं करूँगा। नहीं लिखूंगा। मुझे आनंद आ जाए तो शायद रीडर को भी आ सकता है। नहीं भी आ सकता है। अगर लेखक को ही आनंद नहीं आया तो पाठक को कैसे आएगा? जैसे मैं पेड़ को छूने की बात करता हूँ या पानी को या सूरज की धूप को छूता हूँ तो पहले अहसास करता हूँ तभी कुछ लिख पाता हूँ। सेमल के पेड़ का अनुभव मुझे नहीं है तो नहीं लिख सकूंगा सेमल के बारे में।’’
पेड़ों से जो रिश्ता इस दुनिया का होना चाहिए। हम इंसानों का होना चाहिए। उसे वे जीते हैं। समझते हैं। तभी वह रचनाओं में जा घुलता है। और इस तरह की रचना सामने आती है-
जल
आकाश
हवा
मिट्टी
रंग
आरी किसी पर नहीं चलती
वह पेड़ पर चलती है
और कटकर गिर जाते हैं
रंग
मिट्टी
हवा
आकाश
और जल
रचनाओं में असर कैसे लाएँ? भाषा का भी तो सवाल है। सुशील शुक्ल इसके जवाब में बताते हैं,‘‘यह समय सबसे अच्छा समय है इस बात को समझने के लिए। देखिए, कैसे भाषा सीधा-सपाट अर्थ देने की बजाय खास और कई सारे अर्थो के आयाम खोलती है। किसी रचना का कोइ एक अर्थ कैसे हो सकता है? असरदार रचना एक साथ कई भाव सामने आती है। अब जैसे चूहों की आजादी की बात हो तो बिल्ली पर भी बात हो। अब जैसे हम बड़ों ने एक भाषा गढ़ ली है। एक वाक्य देखिए-‘गाय दूध देती है।’ जबकि गाय से हमने दूूध छीन लिया है। गाय के दूध पर तो पहला हक उसके बछड़े का है। तो क्या सामने आना चाहिए? भाषा कुछ दिखाती है तो कुछ छिपाती भी है। अब इस रचना पर अखिल भारतीय चूहा संघ का चित्र देखा जाना चाहिए। ऐसे ही हाथी का बच्चा भी ऐसी ही कहानी है। हाथी का बच्चा गड्ढे में गिर गया। जब उसे बचाया गया तो हाथी की चिंघाड़ उस समय दुनिया की सबसे अच्छी आवाज़ बताई गई। घूमने-फिरने, देखने-विचारने से ही गहराई से महसूस किया जाता है। जैसे मुझे लगता है कि जब मैं पानी को छूकर देखता हूँ तो लगता है कि यह नया है। जैसे हम दोस्तों को छूते हैं। जैसे कहूं कि अभी जो पानी बरसा है वह कच्चा है। यह सब महसूस करने वाली बातें हैं। हम गहरे उतरें तो रचना में सपाट बयानी नहीं रह जाती। मुझे तो अपने से ही या अपने लिए ही ज़्यादा कह सकता हूँ कि मेरे लिए लिखना मतलब कि आँखें खुली रखनी होगी। अपने अनुभवों पर यकीन करना चाहिए। जो स्वयं को महसूस होता है उसे ही आकार देना ठीक रहता है। इस बात की बहुत परवाह नहीं करना कि कौन लोग पसंद करेंगे। इससे कोई बात नहीं बनती हैं। अपने आप आनंद आए तो बात बनती है।’’
रचनाकार का चित्रकार से सम्पर्क होना चाहिए? मतलब किसी रचना के छपने से पहले उस पर चित्र बनाने वाले चित्रकार के साथ रचनाकार का सम्पर्क जरूरी है? इस सवाल के जवाब में सुशील हटकर बात बताते हैं,‘‘एक चित्रकार किसी रचनाकार की रचना के साथ बतौर पाठक ही जुड़ता है। वैसे भी लेखक की हैसियत रचना के बाद एक पाठक भर की रह जाती है। पाठक की तरह चित्रकार भी पाठक है। वैसे, लेखक ने जो कहना था, करना था उसने वह सब रचना में कह दिया। अब चित्रकार को अपना काम करते रहने देना चाहिए। मेरी समझ से चित्रकार और रचनाकार का सम्पर्क नहीं होना चाहिए।’’
हिंदी में अपने पसंदीदा लेखकों के नाम के सवाल पर वह बहुत सारे नाम गिनाते हैं। राजेश जोशी, विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेई, मंगलेश डबराल, केदारनाथ सिंह, अनामिका, कात्यायनी, आलोक धन्वा, अरुण कमल, उदयन वाजपेयी, प्रभात, नवीन सागर, फराह, नेहा सिंह, सिराज, मयंक टंडन, शंख घोष, संजय भारती आदि को याद करते हुए वह कहते हैं के तीस-चालीस लोग हैं। वह कमाल का लिखते हैं। इन उस्तादों का पूरा गिरोह है जिनका लिखा हुआ पढ़कर आनंद आता है। वह उस्ताद लोग हैं। बहुत बारीक चीज़ें उठाते हैं। सुन्दर तरीके से काम करने वाले बहुत सारे लोग हैं।
रोचक लेखन के सवाल पर सुशील बताते हैं,‘‘कई बार कई दिनों तक नहीं लिखता हूँ तो कोई चिंता नहीं होती। जब मन होता है तो लिखता हूँ। बच्चों का लेखन भी खूब आ रहा है। स्कूल और शिक्षकों का साथ मिल जाए तो मौलिक लेखन आता है। ऐसे शिक्षक बहुत हैं जो बच्चों के विवेक पर यकीन करते हैं। देखिए, बच्चे तो भाषा सीखकर आते ही हैं। स्कूल तो उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाते हैं। कई शिक्षक हैं जो बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। बच्चों की सोच में ताज़गी है। अब देखिए एक बच्चा लिखता है-‘एक टिटहरी का बच्चा भटक भटक कर चल रहा है।’ यह जो भटक-भटक कर लिखा है यही तो भाषा का कमाल है। बच्चे की भाषा कमाल की होती है। बहुत छोटी सी जगह पर बच्चे खेल रहे हैं। उन्हें गौर से देखिए। बच्चे बीस तरह के नियम बना देते हैं। वह कहानी तो सभी जानते हैं कि बच्चे ने देखा और कहा कि अरे! राजा नंगा है। यह बात बच्चा ही कह सकता है। बच्चे की निडरता और उसका भाषाई नजरिया, उनकी सोच को देखा जाना चाहिए। मुझे यकीन है कि बच्चे अब अच्छा लिखते हैं। अब मेरे लिए यह सामान्य बात है। चकमक में काम करते हुए बच्चों की क्षमता को समझा है। अन्यथा उबाऊ, पकी-पकाई और सरकारी भाषा का ढेर चारों ओर है। हर बच्चा अपनी भाषा बना सकता है। अब देखिए एक बच्चा बुंदेलखण्डी में लिखता है-‘मेरो घर मछली से पलो है।’ कमाल! एक घर का पलना। मेरा जीवन चलना से बड़ा वाक्य है।’’
सुशील जीवन के कवि हैं। यथार्थ के लेखक हैं। वह जो छिपा है, ढका है या उपेक्षित है। वह उन बातों,मसअलों, चीजों, जीवों की नज़र से देखते हैं। वह कहते हैं,‘‘समझ कोई बिन्दु नहीं है। जैसे, मैंने एक पेड़ कुछ पल के लिए देखा। कुछ देर बाद फिर देखा। फिर पेड़ के बारे में कुछ पढ़ा। पेड़ को बार-बार देखा। फिर समझा। तो मैं सोचता हूँ कि समझ एक सिलसिला है। समझने का सिलसिला चलता रहता है। समय लगता है। बच्चों के लिए लिखते समय यह सोचना कि बच्चे यह नहीं समझेंगे। यह नहीं चलेगा। यह हम बड़ों की दिक्कतें हैं। बच्चों की दिक्कत यह नहीं है। लेखन में विविधता होती है तो बच्चे पढ़ते हैं। मन नहीं होगा तो नहीं पढ़ेंगे।’’
सुशील शुक्ल की एक कविता है ’पेड़ तुम दर्जी’। कविता के सन्दर्भ में आए एक सवाल के बारे में वह कहते हैं,‘‘सिर्फ मेरे देखने से क्या होता है? दुनिया तय करती है। चीज़ें बदलती हैं। तरीके बदलते हैं। फेसबुक या सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। यह सुविधा है। अब यह तो आप पर है कि आप कितना कितना वहाँ दें। यह जरूरी बात है। फेसबुक ने और स्पेस दिया है। अभिव्यक्ति का एक और मंच मिला है। रही बात रचना में उठाई बातें तो असल में काश! मैं सोचता हूँ कि ऐसा होता कि एक पेड़ एक इंसान और एक चींटी इन्हें हम तीन प्राणी के तौर पर देख पाते। बराबर देखते। तीनों के वजूद को अहमियत देते। अब जैसे लोक मानस के चित्रकार हैं। उनके चित्र गहरा असर करते हैं। उनके चित्रों में पूरी दुनिया आती है। लोक जीवन के चित्रकारों आप एक इंसानी कहानी दे दें। तो उनके चित्र में पेड़ और जीव-जन्तु आएँगे। हम सब एक ही ग्रह के निवासी हैं। कोई पेड़ काटता है तो उसे महसूस हो कि उसे यह किसने हक दिया कि वह उसे काटे। क्यों काटे!’’
सुशील शुक्ल की एक कविता है-हवा के तस्मे। यह कविता तभी पकड़ में आती है जब हम पानी पकड़ते हैं और चाँद को छूते हैं। बारिश में भीग न जाएँ से इतर बारिश में भीगने का मन करता हो और भीगे भी हों। स्वयं अनुभव करें तो कविता खुलती है और मन को भिगो देती है-
पानी बरसा
चप्पे चप्पे चश्मे खुल गए
गीले जूते हुए
हवा के तस्मे खुल गएबादल खुले तो जैसे कि
सारस में खुल गए
बूँद बूँद होकर पानी
आपस में खुल गए
रचनाओं के गहरे असर और इंसानी व्यवहार पर भी सुशील अलग सी बात कहते हैं। वह बताते हैं,‘‘दरअसल, सारी बात इस दुनिया को समझने की है। अब देखिए कि गली के कुत्तों के प्रति हमारा क्या नजरिया है! बहुत तेज गाड़ी चलाकर हम जीव-जन्तुओं को रौंदते चले जाते हैं। यह क्या दर्शाता है? हमें किसने यह हक दिया कि हम गली-मुहल्लों के कुुत्तों को तुच्छ समझे और खुद को बहुत बड़ा इंसान। हम इंसानों की कुत्तों से अधिक औकात कैसे हो गई? यह किसने तय किया? मैंने तो कुत्ता इस दुनिया को कैसे देखता है कितना देख पाता है। घुटनों के बल चलकर देखने-समझने की कोशिश की।’’
सुशील शुक्ल की एक कविता है-‘पानी धार-धार बरसे’ का प्रसंग आने पर वह बोले,‘‘पानी के साथ तो रोज़ का रिश्ता है। पानी पर आम और सतही रचनाओं से आगे बढ़ना होगा। जैसे बाढ़ की प्रचण्ड वर्णन तो रचनाओं में अक्सर मिलता है। लेकिन नवीन सागर की एक कविता है वह मुझे बहुत पसंद आती है। अन्यथा पाठ्य पुस्तकें तो ‘बारिश से किस तरह से बचें?’ जैसी कविताओं से भरी हैं। नवीन सागर बाढ़ में नदी को देखने का निमंत्रण देते हैं। वह नदी की ताकत का वर्णन करते हैं। आए बादल घने उतर के उनसे हाथ छुआना तो यह कविता है उनकी। तो पानी धार-धार बरसे, सर को झुकाए बंदर भीगे। अब जैसे पेड़ पर चलती है आरी वाली कविता….आरी किसी पर नहीं चलती। आग, मिट्टी, आकाश, रंग पानी की बात है तो मन में शायद यह रहा होगा कि पेड़ इन सबकी जुगलबंदी है। जब पेड़ काटते हैं तो मिट्टी ओर हवा को काट देते हैं हम। किताबों में तो पेड़ मिटटी के कटाव को रोकते हैं ऐसा बताया जाता है। लेकिन कविता तो वह है जो खुले। व्यापक तौर पर विमर्श को बढ़ाए।’’ पानी धार धार बरसे को महसूस करने के लिए कविता-
पानी धार धार बरसेसर को झुकाए बन्दर भीगे
माँद के बाहर शेर
आसमान ही बह न जाए
चाँद मनाए खैर
पानी धार धार बरसे
पानी द्वार द्वार बरसेपेड़ पेड़ के तलुए भीगे,
डाल के भीतर पत्ते
आधी हुगली सागर भागी
आधी गई कलकते
पानी धार धार बरसे
पानी द्वार द्वार बरसे भीगेचिट्ठियों के पते भीगकर
चिट्ठी चिट्ठी रह गए
लिखने वाले क्या जाने कि
पतों के घर सब बह गए
पानी धार धार बरसे
पानी द्वार द्वार बरसेदेखने आए एक नज़र तो
नज़र भीगकर आई
बारिश इतनी ज्यादा थी कि
बूँद न पड़े दिखाईपानी धार धार बरसे
पानी द्वार द्वार बरसेतार के भीतर बिजली भीगी
बल्ब के बीच उजाले
केवल बल्ब देख पाए हैं
बल्ब जलाने वाले
पानी धार धार बरसे
पानी द्वार द्वार बरसेपानी में ही नदी डूब गई
बह गए दूर किनारे
पेड़ उखड़कर नाव हो गए
चिड़िया खेवनहारे
पानी धार धार बरसे
पानी द्वार द्वार बरसे
सुशील शुक्ल बेहद सादगी से बताते हैं कि सिवाय किताबों को पढ़ने-समझने के अलावा उन्हें कोई और काम नहीं आता। क्या लेखन मात्र से जीवन यापन हो सकता है? इस सवाल का जवाब वह कुछ इस तरह देते हैं,‘‘मेरा तो जीवनयापन लिखने पर निर्भर है। लेखन ही कॅरियार है। जब मैं इस काम में आ गया तो यही मेरा काम है। और इस काम ने मुझे अपना लिया है। हाँ यह बात भी सही है कि लेखक, चित्रकार और खास तौर पर इलस्ट्रेटरों को उतना पारिश्रमिक नहीं मिलता जितना उनका श्रम है। जितना उन्हें मिलना चाहिए। हम अपने प्रकाशन में यह कोशिश करते हैं कि लेखकों को सम्मानजनक राॅयल्टी मिले। अच्छी राॅयल्टी मिले। देखिए जिनकी जेब में रुपया है जो बेहतर ढंग से किताबों पर खर्च कर सकते हैं। उनके लिए दस-बीस रुपए की किताबें भी मँहगी हैं। लेकिन, जिनके पास पैसा है उनके लिए खर्च करने के लिए हर चीज पर खर्च करते हैं। बस, किताबों के लिए ही जगह नहीं है। हिंदी समाज में लिखने वालों के लिए जगह बननी चाहिए। यह विचारणीय भी है और चिंताजनक भी कि बच्चों का साहित्य लिखकर तो किसी का काम नहीं चलेगा। मतलब इसकी के सहारे जीवन यापन संभव नहीं है।’’
(सुशील शुक्ल से शाश्वत चतुर्वेदी की यह बातचीत 30 जनवरी 2023 को शाम 4 बजे एक वेबिनार में हुई थी। जैसा सुना-समझा पर आधारित।)
बहुत ज़रूरी बातों पर ध्यान दिलाया है ! यह बातचीत सिर्फ बाल साहित्य के लिए नहीं है। अध्यापकों, अभिभावकों, बच्चों सहित यह बातचीत सभी के लिए उपयोगी है !
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बहुत बढ़िया रिपोर्ट👏
shukriya