शैक्षिक दख़ल : पुस्तकालय सकारात्मक जीवन जीने की ख़ुराक है
-मनोहर चमोली ‘मनु’
न्यायालय में कोई फरियादी शायद ऐसा न गया हो जिसने गुहार लगाई हो कि अमुक व्यक्ति की वजह से वह प्रभावित हुआ है क्योंकि उसने मुझे नेक रास्ते पर चलने के लिए बाध्य कर दिया। यूँ कहा जाए कि यातायात के नियम तोड़ने पर चालान तो होते रहते हैं। लेकिन नियम से वाहन चलाने के लिए पुरस्कृत करने की परंपरा शायद नहीं है। इसी तरह आज तक मेरी जानकारी में नहीं आया है कि पुस्तकालय से कोई पुस्तक पढ़कर पाठक बुरे रास्ते पर चल पड़ा हो और उसने कभी कहा हो कि फलां पुस्तक को पढ़कर उसका जीवन बरबाद हो गया। यहाँ यह कहने का आशय कदापि नहीं है कि जिन्होंने पुस्तकालय में जाकर पुस्तकें न पढ़ी हों वह मनुष्यता के स्तर पर कमतर हैं। कहा जा सकता है कि आज भी कम से कम घरों में स्कूली बच्चे यदि हैं तब तक तो किताबें दिखाई देती हैं। लेकिन ऐसे बहुत कम घर हैं जहाँ स्कूल-काॅलेज पढ़ने वाला कोई न हो लेकिन तब भी घर में एक छोटा सा पुस्तकालय हो। अलबत्ता यह तो कहा ही जा सकता है कि पुस्तकालय से हासिल किताबें पढ़कर हजारों पाठकों की जीवन शैली और नज़रिया बदला है, सोच बदली है और वह मनुष्यता के स्तर पर और समृद्ध हुए हैं।


‘मेरे जीवन में पुस्तकालय-02 शैक्षिक दख़ल के 21वें अंक में भी जारी रहा। पूर्व का अंक भी इसी विषय पर कमोबेश केन्द्रित रहा। इस अंक का आवरण युवा शिक्षक एवं चित्रकार आशीष नेगी ने बनाया है। अंक के रेखांकन अंबार खान, भूमिका बडोला,त्रिलोक बृजवासी और मार्टिन जाॅन के हैं। अभिमत के पाठक भी शामिल कर लिए जाएं तो इस अंक में चालीस से अधिक लेखक शामिल हैं। इस अंक में विविधता से भरे पन्द्रह स्तम्भ बन पड़े हैं। कहानी और कविता से इतर यदि यह कहा जाए कि संस्मरणात्मक रचनाएँ-लेख प्रायः कम पढ़ने को मिलते हैं। यह अंक इस कमी को पूरा करता है। फोंट आकार और उसका डिजायन भी आँखों को भाता है। पढ़ने में असुविधा पैदा नहीं करता।


यह अंक संग्रहणीय तो है ही साथ ही जीवन में पुस्तकालय-किताबों की भूमिका को रेखांकित करता है। सपना भट्ट, महेश पुनेठा, डाॅ॰ जगदीश पंत ‘कुमुद’, प्रियदर्शन, राकेश कँवर, रामजी तिवारी, ललित मोहन रयाल, हिमांशु बी. जोशी, राजेश उत्साही, निर्मल न्योलिया, राहुल देव, चिंतामणि जोशी, प्रमोद दीक्षित, शशि भूषण बडोनी, अजेय, अमिताभ श्रीवास्तव, राजू पांडे, कीर्ति गहतोड़ी, कुमार नवेंदु, अमृता पांडेय, डाॅ. दीपा गुप्ता, रमेश चंद्र जोशी, डाॅ. अनुपमा गुप्ता, रुचि भल्ला, अमिता शुक्ला, ज्योति देशमुख, पूनम शुक्ला, डाॅ. योजना कालिया, शिरोमणि महतो, विनीता यशस्वी, इंदु पंवार, निर्मल न्योलिया, मनीषा जैन, डाॅ. अमिता प्रकाश, पवन चैहान, डाॅ. नरेंद्र कुमार सिंह सिजवाली, भास्कर उप्रेती, रेखा चमोली, सुजीत कुमार सिंह, कमलेश मिश्र, अनिल अविश्रांत, वेद प्रकाश सिंह, राजेन्द्र सिंह यादव, बोधिसत्व,दिनेश कर्नाटक,रमाकांत शर्मा और प्रबोध उनियाल प्रत्यक्ष तौर पर रचना-विचार के साथ शामिल हुए हैं। ‘हरेक घर में पुस्तकों का एक कोना ज़रूर हो’ प्रारम्भ स्तम्भ के तहत पत्रिका के संपादक महेश पुनेठा बेहद ज़रूरी बातें कहते हैं। कुछ यह हैं- बस यह ध्यान रखने की जरूरत है कि यह आदत सस्ते साहित्य वि तक सीमित नहीं रह जानी चाहिए। उसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए। यह कि तभी संभव हैए जब स्कूली किताबों से बाहर की किताबें पढ़ने की छूट ; हो। बच्चों को किसी तरह का भी साहित्य बड़ों की नजर से छुपाकर न पढ़ना पड़े। ऐसा होने पर ही बच्चों को सस्ते साहित्य की जगह पढ़ने के लिए अच्छा साहित्य सुझाया जा सकता है। दूसरी बातए इन दोनों अंकों के विभिन्न संस्मरणों से निकलती है कि पढ़ने की आदत के विकास में अभिभावक.शिक्षक व पुस्तकालय है संचालक की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस बारे में यह कहा जा सकता है कि उक्त तीनों व्यक्तियों में यदि पढ़ने की आदत होती हैए तो उसका बच्चों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बच्चे अपने आसपास अभिभावक.शिक्षक या पुस्तकालय संचालक को पढ़ते हुए देखते हैं तो किताबों के प्रति उनकी एक सहज जिज्ञासा पैदा होती है। वह अपने बड़ों का अनुकरण करता है। उनके हाथों की किताब बच्चों को अपने पास बुलाती है। बच्चों की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वे अपने बड़ों जैसा बनना या दिखना चाहते हैं। फिर यह भी देखा गया है कि यदि बड़ों को पढ़ने का शौक होता है तो वे बच्चों के बीच विभिन्न तरह की किताबों की चर्चा करने में सक्षम होते हैं। रोचक किताबों के बारे में बच्चों को बताते हैं। शिक्षक कक्षा में विभिन्न प्रकरणों को पढ़ाते हुए उनसे जुड़ी पुस्तकों को पढ़ने के लिए उन्हें प्रेरित करते हैं। उनके लिए स्कूली किताबों से बाहर की किताबें पढ़ना समय बर्बादी नहीं होता है। शिक्षक.अभिभावक का यह दृष्टिकोण किताबों से दोस्ती में बहुत सहायक होता है।


पुस्तकालय संचालक का व्यवहार यदि मित्रवत होता है और वह बच्चों का पुस्तकालय में आने पर हँसते हुए स्वागत करता है तो बच्चे पुस्तकालय में नियमित रूप से आने के लिए उत्साहित होते हैं। साथ में यदि वह पुस्तक चयन में बच्चों की मदद करता है तो यह सोने पे सुहागा का काम करता है। इसमें प्रकाशित विभिन्न संस्मरणों में यह बात कही गई है कि पुस्तकालयाध्यक्ष और वहाँ के स्टॉफ के सहयोगी व्यवहार ने उन्हें पुस्तकों का प्रेमी बना दिया। उन्हें पुस्तकालय में समय व्यतीत करना प्रीतिकर लगता है। पुस्तकालय में पुस्तकों का रखरखाव और साज.सज्जा भी बच्चों को पुस्तकालय के प्रति आकर्षित करती है। पुस्तकों की अच्छी तरह से कैटलॉगिंग भी इसका एक हिस्सा है।


कंटर में पुस्तकालय के तहत डाॅ. जगदीश पंत ‘कुमुद’ अपने जीवन के बेहतरीन काम के प्रेरणादायी अनुभव साझा कर रहे हैं। एक अंश-पत्रिकाओं को खरीदते और पढ़ते हुए धीरे.धीरे जब समय बढ़ता गया तो मेरे पास एक अच्छी द्ध खासी संख्या में पुस्तकें हो गई। अब इन्हें सँभालने की समस्या उत्पन्न होने लगी। उन दिनों तेल के खाली पीपे ;कंटरद्ध का उपयोग यह भी होता था की उसे काटकर उसमें ढक्कन लगवा लिया जाता थाए जिसमें कुंडी भी लगवा लेते थे । इस तरह यह एक बक्से की तरह काम करता था। घर में ऐसे दो कंटरों के बक्से थे। बस मेरी समस्या का समाधान हो गया था। मैंने इन दोनों कंटर बॉक्स को अपने पुस्तकालय के रूप में विकसित कर लिया। पुस्तकों की बाकायदा एक सूची तैयार की जाती थी और सभी पुस्तकों में पुस्तक संख्या भी मैंने अंकित कर दी थी। जब साथ वाला कोई मुझसे पुस्तक पढ़ने के लिए माँगता तो मैं बड़े गर्व के साथ एक कागज में उसका नाम व पुस्तक संख्या अंकित करके उसे पुस्तक दिया करता था। पढ़ने के बाद वे लोग मुझे पुस्तक वापस कर जाते थे। मेरा यह पुस्तकालय साथ वालों के लिए काफी लाभदायक थाए क्यूंकि उन्हें बिन किसी खर्चे के पुस्तकें पढ़ने को मिल जाती थीं। साथ ही मुझे भी फायदा ही हो रहा था एक तो साथियों के बीच इज्जत बढ़ रही थी दूसरे उनके पासए जो पत्रिकाएँ आदि होती थीं वे मुझे दे जाते थे…..


प्रखर आलोचक, साहित्यकार और विमर्शकमी प्रियदर्शन का संस्मरण तो बार-बार पढ़ने योग्य है। कुछ अंश-‘‘वैसे इस शहर में एक और लाइब्रेरी थी जिसने दुनिया से भी परिचय कराया और अपने शहर से भी जोड़ा। आगे ब्रिटिश लाइब्रेरी की याद जो कई साल शहर में मेरा एक ठिकाना बनी रही। मैकवेथ की तड़कती हुई आवाज गूँज रही थी.आउट.आउट ब्रीफ कैंडिल । बुझ जा छोटी सी मोमबत्ती । जिंदगी इक कमजोर अदाकारा हैए एक चलती.फिरती छाया जो अपने नियत समय तक मंच पर ऐंठती इठलाती है और फिर किसी को सुनाई नहीं पड़ती। एक अफसाना है किसी नादान काए जिसमें शोर.शराबा बहुत हैए लेकिन मानी नहीं।श् मैं रोमांचित था । रांची में शेक्सपियर के नाटक मैकबेथ पर बनी फिल्म देख रहा था। ब्रिटिश लाइब्रेरी परिसर के उस छोटे से सभाकक्ष में यह रोमांच बहुत सारे लोगों के अनुभव का हिस्सा था। अब सोचता हूँए ब्रिटिश लाइब्रेरी न होती तो उस दौर में ऐसे कई अनुभवों और ऐसी कई किताबें से वंचित रह गया होताए जिन्होंने मेरी दृष्टि में अपनी तरह की विश्वजनीनता जोड़ी। बरसों बाद जब शमशेर बहादुर सिंह की कविता श्अमन का रागश् पढ़ी तो इन पंक्तियों से वास्ता पड़ा. देखो न हकीकत हमारे समय की कि जिसमें होमर एक हिंदी कवि सरदार जाफरी को इशारे से अपने करीब बुला रहा है कि जिसमें फैयाज खां बेटाफेन के कान में कुछ कह रहा है। मैंने समझा कि संगीत की कोई अमरलता हिल उठी। मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में झलकता हुआ देख रहा हूँ और कालिदास को श्बैमर के कुंजों में विहार करते श् और मुझे रांची याद आई। निश्चय ही ब्रिटिश लाइब्रेरी के उस छोटे से परिसर में उपस्थित उस छोटी सी और उच्च अंग्रेजीदाँ मंडली में शेक्सपियर और कालिदास को जोड़ने वाली विश्वजनीनता कम थी और खुद को बाकी शहर से कहीं ज्यादा बौद्धिक और बेहतर मानने का नकचढ़ा अभिमान ज्यादाए लेकिन इसमें जरा भी संदेह नहीं कि इस अभिमान और विश्वजनीनता से कुछ.कुछ निस्पृह ब्रिटिश लाइब्रेरी उन दिनों विविध विषयों पर इंग्लैंड में प्रकाशित अद्यतन कृतियों का एक ऐसा संसार रचती थी जहाँ जाना मेरे लिए एक बड़ा और विरल अनुभव हुआ करता था।

किताबों से प्रेम करने वाले पाठक लाइब्रेरी को अर्थ देते हैं के तहत शिमला से राकेश कँवर लिखते हैं-

कुल्लू के बाद मेरा स्थानान्तरण सोलन हुआ। संयोगवश उस समय सरकारी कार्यालयों के लिए नया भवन बन कर तैयार हो रहा था। न पुराने भवन को एक बड़े रीडिंग रूम और पुस्तकालय में बदलने का यह सुनहरा अवसर था तत्कालीन मुख्य सचिव श्री वीण् सीण् फारका ने इसमें बहुत सहायता की। उनके कारण ही तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री वीरभद्र सिंह इस बात के लिये तैयार हो गए कि पुराने डीण् सीण् कार्यालय में दफ्तर न खोल कर उसे एक रीडिंग रूम और पुस्तकालय में बदल दिया जाए। इसका परिणाम हुआ बुक हब और और अपना घर। इसमें बने बच्चों का पुस्तकालयए वरिष्ठ नागरिकों के लिए डे केयर सेंटरए बुक हब ;रीडिंग रूम और साहित्यिक गोष्ठियों के लिए सम्मेलन कक्ष । वर्ष 2017 में शुरू हुए इस प्रयास के कारण सैंकड़ों युवाए हिमाचल प्रशासनिक सेवा सहित विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए हैं। वरिष्ठ नागरिकों और युवाओं को एक साथ लाने का एक नतीजा यह भी हुआ कि कुछ सेवानिवृत अध्यापकों ने बच्चों को निःशुल्क पढ़ाना शुरू कर दिया। साधनहीन बच्चों की फीस के पैसे सेवानिवृत कर्मियों द्वारा एक दम से जुटा देने के कई उदाहरण सामने आए। कुल्लू और सोलन के इन प्रयासों की सफलता के बाद कुछ युवा अधिकारियों ने चंबा जिला में सलूणीए कुल्लू जिला में बंजार और मंडी जिला में करसोग में पुस्तकालय बनाए । आजकल कुल्लू जिला प्रशासन नेशनल बुक ट्रस्ट के साथ मिल कर पच्चीस पंचायतों में ज्ञान केंद्र स्थापित कर रहा हैए जिनमें पुस्तकालयए रीडिंग रूमए कम्प्यूटर सेंटर होगा। मुझे लगता है कि हम थोड़ा सा प्रयास करके सभी महाविद्यालयोंए वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालयों और तकनीकी संस्थानों के पुस्तकालयों को शाम के समय और अवकाश के दिनों में सामान्य जन के लिए खोल सकते हैं। इनका संचालन कुछ सेवानिवृत कर्मी और पढ़ने.लिखने वाले युवा संभाल सकते हैं। ऐसा करने से हम भवन बनाने पर पैसा खर्च किए बिना ग्रामीण क्षेत्र में पुस्तकालय आंदोलन का सूत्रपात कर सकते हैं। किताबें पढ़ने वालों और पुस्तकालयों को चाहने वालों का वंश बढ़ता रहे।


मेरे घर का सबसे महत्वपूर्ण कोना के अन्तर्गत बेहद भावपूर्ण और असरदार संस्मरण रामजी तिवारी का है। आप भी एक अंश पढ़िएगा-”चूंकि मेरी पढ़ाई.लिखाई का सिलसिला बलिया में शुरू होकर बलिया में ही समाप्त भी हुआए इसलिए बलिया से बाहर के पुस्तकालयों की जानकारी केवल सुनने तक महदूद रही । अलबत्ता उनके प्रति आकर्षण इतना था कि जब भी मुझे कभी बाहर के शहरों में जाने का अवसर मिलाए मैंने किताबों के इन मंदिरों पर माथा जरुर टेका। मसलन काशी हिंदू विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय ने मन में रोमांच और ईर्ष्या दोनों भर दिया। रोमांच इसका कि किताबों की इतनी बड़ी दुनिया भी हो सकती हैए जिसे मैं देख रहा हूँ। और ईर्ष्या इस बात के लिए कि मेरे कई साथी इसका सानिध्य ले रहे हैंए मगर मैं उनमें शामिल नहीं हूँ। इसी तरह नौकरी में आने के बाद जब पहली बार कलकत्ता जाने का अवसर मिलाए तो मैंने सबसे पहले देखने के लिए राष्ट्रीय पुस्तकालय का दरवाजा ही चुना। तब मोबाईल फोन का जमाना नहीं था और मेरे मेजबान लोग परेशान हो चले थे कि यह लड़का आखिर शहर में कहीं भटक तो नहीं गया। बाद में मेरे बताने पर उन लोगों ने एक उपेक्षात्मक मुस्कुराहट से प्रतिक्रया दी।
फिर लगभग अधेड़ उम्र में जब पहली बार दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में जाना हुआ तो मैंने अपने मेजबान से बस एक इच्छा व्यक्त कीए ष्मुझे जेण्एनण्यूण् की लाइब्रेरी दिखा दीजिए।ष् मेरी वह इच्छा पूरी हुई। एक आह सी निकली कि काश! जीवन ने हमें भी इसका सानिध्य दिया होता। बहरहाल जीवन में ऐसे श्काशश् तो कई मोड़ पर मिलते रहते हैंए और आदमी को उन्हीं के बीच से रास्ता बनाकर आगे बढ़ना होता है। तो मैंने भी उस रास्ते पर आगे बढ़ते हुए अपने घर में एक पुस्तकालय बनाया। लगभग एक हजार पुस्तकों की दुनिया का पुस्तकालय। आज वह मेरे घर का सबसे महत्वपूर्ण कोना है। कहना न होगा कि मेरे दिल का भी। वहाँ बैठनाए किताबों को निहारना और उनका सानिध्य लेना अब जीवन का अहम हिस्सा है। जिस दिन यह सब न होए वह दिन व्यर्थ व्यतीत लगता है। आज बलिया के उस राजकीय पुस्तकालय की हालत काफी दयनीय हो चली है। उसे देखते हुए मन में एक हूक सी उठती है कि पहले उतने कम संसाधन में वह पुस्तकालय कितना गुलजार दिखाई देता था। जबकि आज के बड़े बजट में भी वह उदास और बंजर दिखाई देता है। यह कैसी विडंबना है कि समाज अपने विकास.क्रम में अपनी बुद्धि और विवेक को तराशने वाली चीजों से अपना रिश्ता कमजोर करता चला जा रहा है।


किताबें मानसिक क्षितिज का विस्तार के अन्तर्गत उत्तराखण्ड के साहित्यकार ललित मोहन रयाल लिखते हैं-किताबें इंसान की सबसे विश्वसनीय साथी हैं। इनका साथ मिल जाए तो इंसान कभी खुद को एकाकी और निरुपाय महसूस नहीं कर सकता। किताबें पढ़ते हुए आप अतीत में जीते हैं। उस गौरवशाली अतीत को जानते हैं। उस सुख.दुरूख को महसूस कर सकते हैं। किताबें मानसिक क्षितिज का विस्तार करती हैं। यूपी बोर्ड की ग्यारहवीं कक्षा के सिलेबस में रॉबर्ट साऊथी की एक कविता थी. दी स्कालर। उसमें इन्हीं बातों को दोहराया गया था। सेंट्रल आइडिया लिखने को आता तो हम इसी को लिखते थे। अमिताभ बच्चन का उन दिनों बड़ा क्रेज था श्कुलीश् के सेट पर उनके साथ एक बड़ा हादसा हुआ। चौराहों पर चर्चा आम थी। अमिताभ बच्चन के प्रशंसक पुनीत इस्सर को धमकियाँ दे रहे थेए जब अमिताभ बच्चन स्वस्थ होकर अस्पताल से बाहर निकले तो पुनीत इस्सर के कंधे पर हाथ रखते हुए बाहर आए। मकसद ऑडियंस को यह संदेश देना था कि ये तो प्रोफेशन का हिस्सा है। इस बेचारे की कोई गलती नहीं । इसने जान.बूझकर मुझे कोई क्षति नहीं पहुँचाई। तब हम कक्षा 12 में पढ़ते थे। कहीं से खबर लगी कि हरिवंश राय बच्चन की श्दशद्वार से सोपान तकश् में इस घटना की डिटेल आई है। हम इंटर कॉलेज की लाइब्रेरी के काउंटर में जा खड़े हुए और हमने श्दशद्वार से सोपान तकश् और श्संस्कृति के चार अध्यायश् ईशू करवा दी। हमने जैसे.तैसे दोनों किताबें खत्म ही की थीं कि क्लास टीचर को इस बात की भनक लग गई। हम पर इस बात को लेकर अठन्नी फाईन लगा कि श्पीसीएम का स्टूडेंटश् होकर लिटरेचर पढ़ रहा है। ऐसी गुस्ताखी दोबारा नहीं होगी की हिदायत भी सुनने को मिली।
हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर मानी जाती है। बारहवें दर्जे में हमने जो हिस्सा पढ़ा थाए वह उस आत्मकथा सीरीज का चौथा हिस्सा था। शुरुआती तीन हिस्सेए दशक भर बाद नौकरी.पेशे में आने के बाद पढ़ने को नसीब हुए। एमएससी करने के बाद हमें बीटीसी करनी पड़ी। हालांकि उस दौर में बीटीसी की क्वालिफिकेशन फकत इंटरमीडिएट होती थीए लेकिन बीटीसी और फार्मेसी को ब्रह्मास्त्र माना जाता था क्योंकि इनमें नौकरी की शर्तिया गारंटी होती थी। मिडिल क्लास समाज का हिस्सा होने के नाते हमें भी उन राहों से होकर गुजरना पड़ा।

पुस्तकालय में पढ़ने ने मन को उजला बनाया के तहत हिमांशु बी. जोशी का संस्मरण भी एक बच्चे की नागरिक बनने की पूरी यात्रा को दर्शाता है। एक अंश- मेरी प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही हुई। प्राइमरी पाठशालाए बक्रीथल और गाँव के मिडिल स्कूल में कोई पुस्तकालय नहीं था तो मेरा घर ही मेरा पहला पुस्तकालय था। वहाँ दादा के समय की महाभारत रामायण के अलावा ज्योतिष संबंधी कई किताबें थींए ज्योतिष की गहरी जानकारियों वाली एक लाल किताब भी थीए कई हस्तलिखित कुंडलियाँ और पतड़े भी थे। लकड़ी की एक अलमारी इन किताबों से भरी हुई थी। उन्हीं किताबों के बीच सम्भवतः पिताजी द्वारा लाई गई कुछ अन्य किताबें रखी गई थीं जिनमें हरमन हैस्से की श्सिद्धार्थ और इलाचन्द्र जोशी की श्जहाज़ का पंछी प्रमुख हैं। सिद्धार्थ वो पहला उपन्यास है जो पिताजी के छुट्टी घर आने पर लाई जाने वाली नंदन जैसी पत्रिका के इतर मैंने पढ़ा था। वह कक्षा आठ का समय था और इस उपन्यास को पढ़ने पर मैंने बेतरह डाँट खाई थी।
फिर आगे पढ़ने के लिए पिथौरागढ़ शहर आना हुआ। नगरपालिका के पास सूचना विभाग का पुस्तकालय नया अड्डा बना। साल भर में ही उस पुस्तकालय का सदस्य बन गया। उस जमाने में पिथौरागढ़ में शायद वही एकमात्र पुस्तकालय था । विज्ञान पढ़ने वाले मुझ जैसे छात्र यद्यपि बाकी साहित्यक चीजें पढ़ने का खुलेआम एलान नहीं किया करते थे लेकिन मुझे रुचि थी तो उस दौर में बिना सोचे.विचारे मैंने एक के बाद एक यशपाल , राहुल सांकृत्यायन शिवानी , गांधी जी , ki सत्यजीत रे आदि की हिंदी.अंग्रेज़ी में न जाने कितनी किताबे पढ़ डाली। वह दौर फैंटम और मैंन्ड्रक जैसी कॉमिक्स का भी दौर था। मैं पिथौरागढ़ में अपनी मौसी के साथ रहता था और सिल्थाम का वो घर जिसमें मेरी मौसी रहती थी मेरे मामा का घर था। मामा के घर में मेरे ममेरे भाई मनोज़ और अशोक दा फैंटम और मैंन्ड्रक सीरीज़ के अलावा कई और कॉमिक्स भी मँगाया करते थे। तो उनके घर के पुस्तकालय में शायद ही कोई कॉमिक्स होगी जो मैंने छोड़ी होगी। एक तरफ गणित और विज्ञान और दूसरी तरफ हिंदी.अंग्रेज़ी साहित्य के साथ.साथ कॉमिक्स का तड़का। मेरे दिमाग में एक अलग तरह की खिचड़ी पकने लगी थी। तभी कहीं से अचानक हरिवंशराय बच्चन का प्रवेश हुआ। वहाँ से कविता की तरफ रुझान बढ़ा। सूचना विभाग के पुस्तकालय में बच्चनजी की जो भी किताब थी . चाहे वह श्निशा निमंत्रणश् होए श्मधुशालाश् हो या श्खादी के फूलश्ए श्दो चट्टानश्ए या श्सूत की माला श् मैंने सब पढ़ीं। उनकी तीन खंडों में छपी जीवनी भी नहीं छोड़ी गई। उन्हीं की प्रेरणा से कविता लिखने का छुटपुट प्रयास किया। कुछ गीत कविताएँ लिखी। ये वही समय था जब पिथौरागढ़ में शरदोत्सव में कव्वाली प्रतियोगिता भी हुआ करती थी और इस तरह कव्वाली भी जिंदगी के पुस्तकालय में शामिल हो गई।


एक पुस्तकालय और पुस्तकों की ओर उन्मुख कराने वाले की क्या भूमिका हो सकती है? इस सवाल का जवाब हल्द्वानी की अमृता पाण्डेय ने बखूबी दिया है। एक अंश- अनेकों दुर्लभ पुस्तकें यहाँ पर उपलब्ध हैंए आज जिनके संरक्षण की आवश्यकता है। हाल के वर्षों में इस पुस्तकालय का जीर्णोद्धार भी किया गया। मॉल रोड के बीचों बीच स्थित यह पुस्तकालय स्थानीय निवासियों के साथ ही पर्यटकों को भी आकर्षित करता है। अल्मोड़ा जिला पुस्तकालय का भी छात्र जीवन में खूब सदुपयोग किया है। एक वक्त था जब यहाँ पर असीमित संख्या में पुस्तकें थीं। साथ में हिंदी अंग्रेजी के विभिन्न समाचार पत्र भी पढ़ने को मिल जाते थे। कुमाऊं के इतिहास और संस्कृति से संबंधित पुस्तकें भी यहाँ बहुतायत में उपलब्ध थींए जिनका मैंने भी लाभ उठाया। आकाशवाणी में लगभग आठ वर्ष काम करने के दौरान जब भी स्क्रिप्ट लिखनी होती थी तो इन पुस्तकालयों का ही बड़ा सहारा रहता था। हालांकि स्टॉफ की कमी और अन्य संसाधनों के अभाव से इन दोनों पुस्तकालयों को समय.समय पर दो.चार होना पड़ता है लेकिन फिर भी लोग यहाँ पर पहुँचते हैं और ज्ञान अर्जित करते हैं। मेरा सोचना है कि पुस्तकालय का लाभ उठाने वाले लोग भी छोटे.छोटे प्रयासों और संकल्पों से पुस्तकालय के विकास में योगदान कर सकते हैं। जिस प्रकार गुरु दक्षिणा की परंपरा रही हैए उसी प्रकार पुस्तक दान करके या किसी अन्य तरह की सहायता से भी अपना अंश दिया जा सकता है…..।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की सेंट्रल लाइब्रेरी में डाॅ॰ दीपा गुप्ता बनारस को याद करती हैं। एक अंश-वह दुनिया अलग ही थी। बेहद कायदे से काँच के साँचों में सजाई हुई बेशकीमती पांडुलिपियों को देखकर मन को बड़ा संतोष हुआए यहाँ इस अनमोल खजाने को बचाने की कवायद जारी थी। कुछ ही देर में हमें हमारे काम की पांडुलिपि मिल गई और उसकी प्रतिलिपि का निर्धारित शुल्क जमा कर हम दूसरी मंजिल पर चल दिए। प्रति हमें डाक से मिलनी थी। दूसरी मंजिल पर मध्यकाल पर कुछ जरूरी किताबों की फोटोकॉपी कराई जो हाथों.हाथ मिल गई। यहाँ सारे काम बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से हो रहे थे। इन तीन घंटों में ध्यान देने लायक बात यह रही कि हमें इस गोलाकार हॉल में एक कुर्सी भी खाली नहीं मिली। और लगातार तीन घंटे हम खड़े ही रहे। किताबों की संख्या के हिसाब से जगह कम थी ऐसा मुझे लगा ।
वहाँ से काम निपटाने के बाद हिंदी विभाग में प्रोफेसर सदानंद शाही जी से मिलकर उनका इंटरव्यू किया इस वक्त तक हम काफी थक चुके थे और भूख भी लगने लगी थीए तो हम पहुँच गए काशी हिंदू विश्वविद्यालय की चौपाटी पर। चारों तरफ रौनक । तमाम लड़के लड़कियों के झुण्ड के झुण्ड वहाँ खा पी रहे थे। हमने भी मसाला डोसा ऑडर किया। लाजवाब स्वाद। पता नहींए सचमुच डोसा स्वादिष्ट था या यह उस दिव्य भूमि का प्रभाव था जहाँ हम बैठे थे ।हमारा काम पूरा हो चुका थाए हमने पुनः महामना को स्मरण करते हुए उन्हें नमन किया और वापस चल दिए। आज जब नई शिक्षा नीति की बात चारों ओर हो रही हैं तो प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति के जनक महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी के यह शब्द मुझे सहसा स्मरण हो आते हैं कि.श्चरित्र में अजय बनोश् और चरित्र के निर्माण में पुस्तकें और पुस्तकालयों की महती भूमिका है। यह बात आज के समय में और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है जब चारों ओर नेटवर्किग और सोशल मीडिया का दबदबा दिखाई दे रहा है। रात का भोजन अस्सी घाट के महंत जी के ऐतिहासिक घर में करने का अवसर हमें मिला उनके सुपुत्र डाण् विजय मिश्रा ;प्रोण् काशी हिन्दू विश्वविद्यालयद्ध के आमंत्रण परए जहाँ पर पिता तुल्य उदयशंकर दुबे जी का आशीर्वाद और अनेक गणमान्य विद्वतजनों का सानिध्य हमें प्राप्त हुआ।


साहित्यकार रमेश चंद्र जोशी का संस्मरण पढ़ना मतलब जीवन खुशहाल बहुत ही रोचक है। बचपन को याद कराता और सायास स्वयं को पढ़वा लेने की क्षमता इस लेख में हैं। एक अंश आप भी पढ़िएगा-मैंने प्रेमचंद के कई उपन्यास और कहानियाँ अपने स्कूली जीवन में पढ़ ली थी। बाँकी किताबों मेंए कभी आधी.अधूरी मनोहर कहानियोंए कभी कटी.फटी कादिंवनीए धर्मयुगए युगवाणीए कभी कोई आधी.अधूरी उपन्यास की किताब जिसका नाम भी ठीक पता नहीं होता थाए कभी कोई कॉमिक्स और भी कई तत्कालीन पत्रिकाएँ और मैगजीन जिनके नाम ठीक से याद नहीं आ रहे हैंए को पढ़कर इनका आनंद लिया। बिना किसी के कहे और वो भी चोरी.छिपे सबकी नजरों से बचकर इन आधी.अधूरी किताबों को पढने मेंए जो आनंद की अनुभूति होती थीए वो और कहाँ । स्कूल में शिक्षकों के और घर में माता.पिता के रात.दिन सिर माथा.पच्ची करने के बाद भी कभी इतनी तन्मयता से कोर्स की किताबें नहीं पढ़ी।

कॉलेज के दिनों से लगातार न्यूज पेपर पढ़ना शुरू हो गया। कॉलेज के दिनों मेंए मैं अपनी बुआजी के यहाँ रहता था। यहाँ लगातार पत्र.पत्रिकाएँ आती रहती थीए जिस कारण मुझे रोज कुछ न कुछ नया साहित्य पढ़ने को मिलता रहता था। बुआजी के घर में कहानियों और उपन्यास की पुस्तकों का अच्छा.खासा संग्रह हुआ करता था। यहाँ रहकर मुझे अनेक पत्र.पत्रिकाओं और कहानीए उपन्यासों को पढ़ने का मौका मिलता रहा। बचपन से पुस्तकों के प्रति प्रेम ने यहाँ प्रगाढ़ स्वरूप लिया। उन दिनों मैं अपने पाठ्यक्रम की पुस्तकों को चाहे बहुत कम पढ़ता थाए परंतु साहित्य की किताबों को पढ़ने में मैं काफी समय व्यतीत करता था। कॉलेज के दिनों ही थोड़ा बहुत तुकबंदी करने तथा लिखने का भी प्रयास करने लगा। पन्नों और डायरियों में यह प्रयास तब से आज तक जारी है। यह अलग बात है कि लिखने के बाद वो लिखा कहाँ गयाए इसकी कभी परवाह नहीं की। यही कारण है कि आज भी मैं लिखने के प्रति बहुत लापरवाह हूँ। कुल मिलाकर कॉलेज के दिनों में मुझे पर्याप्त मात्रा में हिंदी साहित्य की तमाम विधाओं से संबंधित पुस्तकों , पत्र.पत्रिकाओं और समाचार पत्रों को पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ।

कॉलेज के दिनों में ही पुस्तकालय को देखने का पहला और रोमांचकारी अनुभव हुआ । स्नातकोत्तर महाविद्यालय के परिसर में पुस्तकालय कक्ष के अंदर इतनी सारी पुस्तकों को सुव्यवस्थित तरीके से लगे देखना मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था। बाहर खिड़की से ही इनको निहारना बहुत ही सुखद लगता था। यहाँ संस्थागत छात्रों को पाठ्यक्रम से संबंधित पुस्तकें आबंटित की जाती थी। परिचय पत्र लेकर इन पुस्तकों को बुकबैंक तथा पुस्तकालय से प्राप्त किया जाता था। ल चाहने पर भी तत्कालीन पुस्तकालयाध्यक्ष के खौफ के कारण पुस्तकालय के अंदर जाने का मौका कॉलेज के दिनों में भी नहीं मिल पाया। पुस्तकालय के बाहर खिड़की से ही पुस्तकें प्राप्त करनी होती थी। पुस्तकालयाध्यक्ष का खौफ इतना था कि कभी उसके अंदर जाने की हिम्मत नहीं हुई और न ही कभी उनसे इस बाबत बात करने का साहस जुटा पाया। और तो और बिना मतलब के वे उस खिड़की पर किसी को खड़ा भी नहीं होने देते।

रचनाकारों के अनुभव पाठकों को बताते हैं कि सीखने-समझने और नया जानने के लिए घर और स्कूल के अलावा समाज के कई कोने हैं जहाँ से दिशा मिल सकती है। सोनभद्र में इन दिनों कार्यरत डाॅ॰ अनुपमा गुप्ता साहित्यकार भी हैं। वह बच्चों के लिए भी लिखती है। उनका संस्मरण हमें पढ़ने-लिखने वाले परिवार का दर्शन भी करता है। वह लिखती हैं-‘‘बड़ा ऑफिस बड़ा ऑफिस इसलिए था क्योंकि घर के एक दूसरे कमरे में छोटा ऑफिस भी था। आज पैंतालिस साल पीछे पलट कर देखती हूँ, जब लगभग पाँच साल की रही हूँगी मैं, और मस्तिष्क पर स्मृतियों के निशान बनने शुरू ही हुए थे, तब ! छोटे से घर का ’बड़ा ऑफिस’ देखती हूँ, जहाँ पापा की किताबें सजी होती थीं। मेरे पापा वकील हैं। पापा को ज्यादातर कुर्सी मेज पर बैठे, किताबों में डूबा हुआ पाया। यह सवाल मन में कभी नहीं उभरा कि इन किताबों से उन्हें क्या मिलता होगा भला। एक स्वतः स्फूर्त विश्वास था कि पापा के चेहरे की चमक, किताबों से उपजे ज्ञान की वजह से है। उनका दिन-प्रतिदिन उज्ज्वल होता आभामंडल, किताबों का ही प्रभाव है। वे वकालत की किताबें थी तथा कुछ लकड़ी की रैक्स में करीने से सजी होती थीं। पापा के साथ-साथ उन किताबों पर हमें भी बड़ा नाज होता। जैसे-जैसे पापा की आय और सामथ्र्य बढ़ती गई, पापा ने कई पीरियाडिकल्स और जर्नल्स बाँध लिए, जो नियमित डाक में, कचहरी से घर आते। उस विषय-विशेष के सभी खंड आ जाने पर, वे पर्चे, बँधने के लिए इलाहाबाद (प्रयाग) चले जाते। वहाँ जीरो रोड के मुस्ताक मास्टर खूबसूरत जिल्द में बाँध देते। बादामी रैक्जीन में गहरे लाल स्टिकर लग जाते, जिनमें ऊपर से नीचे क्रमवार- विषय, वर्ष और पापा का नाम ’के.जी. गुप्त’ लिखा होता पुस्तकों के साथ ही जैसे पापा के नाम की नित्य नई शाखाएँ फूट रही थीं।
यह पापा का ऑफिस था, जिसके एक कोने में लाइब्रेरी थी। यहाँ देर रात तक पापा मुकदमे देखते और हम उन्हें देखते। उन्हें किताबों में बड़ा रस मिलता। अध्ययन के दौरान, एक सुख उनके चेहरे पर तैरता रहता। कई बार उनके चेहरे पर भाव बदलते, कभी जिज्ञासा.. कभी कौतूहल तो कभी आश्चर्य। वे पुस्तकें पढ़ते हम उन्हें पढ़ते। और फिर यहीं से हम किताबें पढ़ना भी सीख गए। बड़ा ऑफिस उस छोटे से घर का सबसे प्रिय कमरा हो गया। वहाँ गोष्ठियाँ लगत और विद्वतापूर्ण चर्चाएँ होतीं।’’ यह कहना गलत न होगा कि ऐसे अनुभवजनित संस्मरणों के साथ तत्कालीन समाज के कई वर्गों के रेखाचित्र हम अपने सामने चलते हुए देख पा रहे होते हैं।

किताबों से लगाव और पढ़ने की आदत एक पाठक को कहाँ से कहाँ की यात्रा करा देती है! यह जानना-समझना भी रोचक है। रुचि भल्ला महाराष्ट्र के जिला सतारा में रहती हैं। वह 23 अप्रैल 2020 के दिन को याद करते हुए लिखती हैं-‘‘अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक दिवस’ की चर्चा हो तो मैं जरूर कहूँगी कि ब्रिटेन के ’पुस्तक गाँव’ को जब महाराष्ट्र राज्य के उस वक्त पदासीन शिक्षा और सांस्कृतिक कार्यमंत्री विनोद तावड़े ने जाकर देखा तो उनके मन में यह योजना बनी कि महाराष्ट्र में ’पुस्तक गाँव’ बने। किताबें जन-जन तक पहुँचे। 4 मई 2017 को महाबलेश्वर के भिलार गाँव को देश के प्रथम किताबों का गाँव होने का नाम मिला। मराठी भाषा में आप इसे ’पुस्तकांचं गाँव’ कह सकते हैं। इसका उद्घाटन महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने किया था। आप इसे ’बुक विलेज’ पुकार सकते हैं’ किताबों का कस्बा’ भी। भिलार को मिलवाने से पहले मैं आपको महाबलेश्वर से मिलवाती हूँ। मिलवाना क्या कौन है यहाँ ऐसा जो महाबलेश्वर वाकिफ न हो। जो यहाँ न भी आया, उसने भी इस हिल स्टेशन को देख रखा है। वजह आपके पास है बॉलीवुड की अधिकाँश फिल्मों की शूटिंग करवाने का जिम्मा बरसों बरस से इस हिल स्टेशन ने ले रखा है। महाबलेश्वर का यह भिलार गाँव ’मिनी कश्मीर’ कहलाता है। यह वह गाँव है, जो स्ट्राबेरी की 250 से ज्यादा किस्में उगाने का दावा करता है। महाबलेश्वर से 14 किमी. की दूरी पर बसे इस गाँव को अब देश का पहला पुस्तक गाँव होने का खिताब मिल चुका है। क्या आप यकीन करेंगे कि बेहद छोटे से इस गाँव का हर घर लगभग लाइब्रेरी में तब्दील हो गया है। क्या किताबों का ऐसा प्रेम विरल नहीं ? हर घर का एक कमरा पढ़ने वालों के लिए रात-दिन खुला रहता है। हर घर में लगभग 500 किताबें रखी हैं। बीस हजार से ऊपर की संख्या किताबों की वहाँ हो चुकी है, जिसे लाखों में तब्दील करने का काम अपनी प्रगति पर है। मराठी भाषा में लिखी ये साहित्यिक-गैर साहित्यिक किताबें लगभग हर विषय पर हैं। इस गाँव की सरहद पर आपको किताबों की उड़ती आती गंध मिल जाती है। आप गाँव की हद में प्रवेश करते हैं गाँव की दीवारें कलात्मक चित्रों से चित्रित दिखती हैं। रहने, खाने-पीने के लिए हर दाम के होटल हैं कि पर्यटकों के अतिरिक्त लिखने-पढ़ने वाले वहाँ आकर ठहरें और किताबों की संगत में आकर दिन गुजारें। मराठी कई कवि कई लेखकों ने वहाँ अपनी हाजिरी दी है। हर लाइब्रेरी में एक डायरी रखी है, जहाँ आने वालों के नाम दर्ज किए जाते हैं……’’

इस अंक के आलेख सिर्फ लेखक की साहित्यिक यात्रा का वर्णन नहीं करते। इन लेखों में पढ़ने-लिखने की ओर का बीज भी दिखाई देता है। खाद-पानी,हवा और रोशनी कहाँ से मिली? कितनी मिली? कैसे मिली? यह जानना-समझना स्वयं में उस काल में पहुँचने जैसा है। उत्तर प्रदेश के जनपद शाहजहाँपुर से अमिता शुक्ला बताती हैं-’’बच्चों को उनके सभी प्रश्नों के उत्तर स्वयं ही मिले। जब किताबों और लेखकों के नाम पर चर्चा का समय आया तो हम सब आश्चर्य चकित रह गए कि बच्चों को दो किताबों और लेखकों के नाम बताने को बोला गया था। कई बच्चे तो पाँच से दस किताबों के नाम भी याद कर, लिखकर लाए थे। एक बच्चे का प्रश्न था-‘‘मैम, हम अपनी किताब लिखें तो क्या हमारा नाम भी किताब पर छपेगा?’’ बच्चे की कल्पना और कहीं ना कहीं हृदय में बीज बनकर पड़ी साहित्यिक अभिरुचि किताब पर लेखक का नाम देखकर व्यक्त हुई थी। कितना विराट अनुभव, कितनी जिज्ञासाओं के उत्तर, कितनी ही नवीन अनुभूतियाँ बालमन की कितनी अलौकिक उड़ान किताबों की दुनिया में जाकर। बच्चों से पुस्तकालय भ्रमण से जुड़े अनुभव भी न लिखवाए गए जो उनके हस्तलेख में, उनके नाम के साथ एक पुस्तक के रूप में विद्यालय के पुस्तकालय में सुरक्षित रखे जाएंगे।’’ कहानियों की किताबों से जुड़कर बच्चों ने पढ़ना सीखा, सोचना सीखा और सीखा पुस्तकों से प्रेम करना, उन्हें सहेजना-संवारना किताबें बच्चों के हाथों में रहेगी तो वे बहुत कुछ सीखेंगे। क्या हुआ कुछ पन्ने फट जाएंगे, कुछ किताबें खराब हो जाएंगी, परंतु यही फटे पन्ने और गंदी हुई किताबें बच्चों के मन-मस्तिष्क को एक नवीन कल्पना, नवीन विचारों की ऊर्जा से परिपूर्ण कर उनके उज्ज्वल भविष्य के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर देगी। किताबों की दुनिया अद्भुत है और उससे भी अद्भुत है किताबों से जुड़े अनुभव, कुछ पंक्तियाँ, कुछ किस्से, कुछ कहानियाँ एक बार बच्चों को इस दुनिया से परिचित कराया तो वे स्वयं को अभिव्यक्त करना, अपने परिवेश से जुड़ना और अपने जीवन को बेहतर बनाने का कौशल प्राप्त कर लेंगे।’’
सचमुच किताबें करती हैं बातें, दुनिया जहानों की……

पुस्तकालय आते-जाते, पुस्तकालय संभालते या पाठकों के साथ साहित्यिक विमर्श का अनुभव भी शानदार है। लाइब्रेरी को समझना एक दुनिया को समझने जैसा लगता है। बच्चों को कैसी किताबें दें? चुनकर दें या उन्हें स्वतः चुनने दें? मध्य प्रदेश के देवास से ज्योति देशमुख का आलेख आप भी पढ़ें-‘‘वो अपनी पसंद से किताब चुने, उसे पढ़े। जरूरी नहीं। पूरा पढ़े, हो सकता है कुछ पन्ने पढ़कर वो उस किताब को अस्वीकार कर दे और फिर आकर दूसरी किताब ले जाए। कुछ पन्ने पढ़ते उसमें से कुछ स्वीकार, कुछ अस्वीकार करते उसकी पढ़ने में रुचि जाग्रत होगी और कुछ समय बाद वो एक किताब पूरी पढ़ेगा अपनी रुचि से, स्वेच्छा से। और यह स्वतंत्रता बच्चों को मिलती है लाइब्रेरी में। इन दिनों एक नई तरह की लाइब्रेरी भी देखने में आ रही है, जिसमें एक निश्चित राशि दे कर लाइब्रेरी की सदस्यता ली जाती है और लाइब्रेरी संचालक, सदस्य को किसी कमरे में एक टेबल और कुर्सी के साथ वाईफाई की सुविधा देता है। इस तरह की लाइब्रेरी में सदस्य अपनी किताबें खुद ले कर आते हैं और पढ़ते हैं या फिर मोबाइल फोन पर पढ़ते हैं। इस तरह की लाइब्रेरी में भी बस कोर्स से संबंधित पढ़ाई होती है। कोर्स के अतिरिक्त किताबों को पढ़ने का चलन तो जैसे छूट ही गया है। जबकि साहित्यिक किताबें पढ़ने से पाठक उस काल, समय के बारे में जान पाता है और भाषा पर उसका अधिकार बढ़ता है।
लाइब्रेरियाँ हैं, सुचारू रूप से संचालित भी की जा रही हैं और नई स्थापित भी हो रही हैं लेकिन पाठकों की संख्या दिन-ब-दिन कम होती जा रही है। ऐसे में कहीं से किसी के द्वारा लाइब्रेरी संचालित किए जाने की खबर सुखद एहसास कराती है। साथ ही यदि कुछ बच्चे किताबें टटोलते, पढ़ते नजर आ जाएँ तो सोने पे सुहागा। ऐसे ही कुछ नजारे फेसबुक पर देखने को मिलते हैं ममता सिंह की वॉल पर। विद्यालय में शिक्षिका हैं तथा बच्चों को न केवल पुस्तकें उपलब्ध करवाती हैं बल्कि बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित भी करती हैं।’’

राजा का बेटा राजा ही बने ज़रूरी नहीं। यह भी जरूरी नहीं कि परिवार में जिस तरह के स्वाद की किताबें पढ़ी जाती रही हैं वहीं परम्परा आगे बढ़े! पढ़ने का चस्का लग जाए तो एक-एक पाठक अपना अलग स्वाद बना लेता है। गुजरात के वड़ोदरा से पूनम शुक्ला का अनुभव भी पठनीय है और विचारणीय भी। आप भी पढ़िएगा-‘‘मैंने बचपन से अपने पिता को पढ़ते और लिखते देखा है। मेरे पिता डॉव इंद्र दत्त पांडेय केंद्रीय विद्यालय में प्राचार्य थे और हिंदी के प्रवक्ता लेकिन उनकी पकड़ संस्कृत और अंग्रेजी में भी बहुत अच्छी थी। हमारे घर में पिताजी का निजी पुस्तकालय था, जिसमें चारों वेद, अट्ठारह पुराण, रामायण, गीता, महाभारत के साथ आधुनिक साहित्य की अनेक पुस्तकें थीं। पिता जब-तब पुस्तकें पढ़ते और गहरे चिंतन में खोए हुए दिखते, मानों वे समस्याओं के हल खोजते हों। कभी उनके चेहरे पर तनाव होता तो कभी हल्की मुस्कुराहट, कभी धीमी खुद को कुछ बताती हुई कोई आवाज तो कभी कोई हल पा जाने के बाद आँखों में चमक। बहुत छोटी अवस्था में ही मुझे लगने लगा कि इन पुस्तकों में ऐसी कोई बात तो जरूर है, जो हमारी जिंदगी समृद्ध कर सकती है। मैं बचपन से ही शांत स्वभाव की थी और पुस्तकों से मेरे प्रेम ने मुझे अंतर्मुखी बनाया। पुस्तकों ने मुझे चिंतनशील बनाया और मुझे खुद से बातें करना सिखाया। मेरी शिक्षा कक्षा एक से बारहवीं तक केंद्रीय विद्यालयों में हुई है और केंद्रीय विद्यालय व उनके पुस्तकालय तो खुद ही बहुत समृद्ध होते हैं। हफ्ते में एक या दो बार अन्य विषयों की तरह हमारा लाइब्रेरी का भी पीरियड होता था और हम सभी बच्चे अपनी कक्षा से एक पंक्ति में लगकर पुस्तकालय तक जाते थे। पुस्तकालय में बड़ी-बड़ी कई मेजों को जोड़कर लंबी मेजें बनी होतीं जिनके दोनों ओर बच्चों के बैठने के लिए बेंच या कुर्सियाँ लगी होतीं । उन मेजों पर चार-पाँच तरह के अखबार व दस-पंद्रह पत्रिकाएँ रखी होतीं। जिन्हें अन्य पुस्तकें चाहिए होतीं, वे लाइब्रेरियन से इशू करा लाते । लाइब्रेरियन तो हमेशा कोई न कोई पुस्तक पलटते रहते और मुझे लगता कि असली जिंदगी तो वे ही जी रहे है। जब भी विद्यालय में कविता पाठ या नाटक प्रतियोगिता होती पुस्तकालय से अच्छी से अच्छी रचना खोजी जाती और हम प्रतिभागियों में काँटे की टक्कर होती। विद्यालय के बच्चों को चार सदनों में बाँटा गया था टैगोर, अशोक, शिवाजी और रमन।……..’’
पुस्तक और पुस्तकालयों से जुड़ने के अलहदा संस्मरण हैरान करते हैं। कई पाठकों के घर में समृद्ध लाइब्रेरी रही हैं। कुछ के शहर में तो कुछ युवा होकर ही पहली बार लाइब्रेरी देख पाए। कुछ मुहल्लों की दुकानों में बिकने वाली कामिक्सों के सहारे आगे चलकर गंभीर पाठक बन पाए।


डाॅ॰ योजना कालिया का अनुभव भी बेहद पठनीय है-
‘‘विश्वविद्यालय में पहुँचकर और भी उन्मुक्त गगन स्वागत के लिए तैयार मिला। एम.ए. के दो वर्ष कक्षाओं में कम और पुस्तकालय में अधिक बीते। उन दिनों जब कक्षाओं से बाकी सभी साथी ब्रेक लेकर छुट्टियाँ मना रहे होते, पुस्तकालय का आकर्षण मुझे जीने न देता। घर पर सभी सदस्यों का संबंध स्कूलों से था। बिना सूचना दिए किसी को जानकारी नहीं हो सकती थी कि कक्षाओं की छुटियाँ भी होती हैं बीच-बीच में। तो देखिए पुस्तकालय के आकर्षण में पड़कर घर वालों को यह सूचना में से भी दो वर्ष वंचित रखा और हर दिन समय से निकलकर पूरा-पूरा दिन पुस्तकों के साथ बिताया।
कुछ शुभचिंतक मित्रों के संसर्ग और पुस्तकों के सान्निध्य ने एम.ए. के साथ-साथ ही नेट की परीक्षा में भी सफल कर दिया। यह वो परीक्षा थी जिसके बारे में घर के किसी सदस्य ने कभी सोचा तक नहीं था। आवेदन भरने की आज्ञा भी बहुत मुश्किल से मिली थी, परंतु पुस्तकालय से मित्रता ने वो सब कर दिखाया जो किसी के सपने में भी नहीं था। एम-फिल, पी.एच.डी करते हुए नियमित रुप से पुस्तकालय में बैठक नहीं लग पाई। वैवाहिक जीवन इतनी स्वतंत्रता भी नहीं देता, परंतु जब-जब अवसर मिलता, जितना मिलता उसका भरपूर लाभ उठाया जाता।……’’
बाल मन बचकाना नहीं होता। कई बच्चे बहुत पहले ही अपनी दिशा तय कर लेते हैं। कई किशोर क्या काॅलेज की पढ़ाई के बाद भी तय नहीं कर पाते। झारखंड से शिरोमणि महतो की इच्छा भी मन को भाती है। इन्हें पढ़िएगा। वह लिखते हैं-‘‘लेखक बनने का सपना मैंने बचपन में ही पाला था। कदाचित् इसीलिए पुस्तकें पढ़ने की आदत भी बचपन में ही पड़ गई थी। प्राथमिक विद्यालय के एक शिक्षक हमारे घर में रहते थे। वे विद्यालय की किताबें घर पर ही रखते थे। मैं खाली समय में उन किताबों को पढ़ता। वे किताबें विद्यालय के पुस्तकालय के लिए थीं सो उनमें सभी तरह की पुस्तकें थीं। बिना किसी चयन के इच्छानुसार उन किताबों को पढ़ने लगा और लगभग सारी किताबें पढ़ गया। मामा घर में नाना के पास धार्मिक पुस्तकों का संग्रह था, जिसे वहाँ जाने पर पढ़ता था। लेकिन विद्यार्थी जीवन में मैं किसी पुस्तकालय का लाभ नहीं ले सका। कॉलेज के दिनों में मैंने काफी किताबें पढ़ी लेकिन वो सब किराये पर लेकर या फिर खरीद कर ही पढ़ीं।
वास्तव में पुस्तकालय का सही उपयोग मैंने दिल्ली जाने पर ही किया। सन् 1996 में ग्रेजुएशन के बाद दिल्ली गया तो करोलबाग में एक रिश्तेदार के यहाँ ठहरा हुआ था। वहाँ से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी था। उस परिवार में एक लड़का था – दर्शन । वह मुझसे तीन-चार साल छोटा था। उसने लाइब्रेरी के कार्ड बनवाये थे । तीन कार्ड थे, जिनसे एक साथ तीन किताबें मिलती थीं।
एक दिन दर्शन मुझे करोलबाग स्थित लाइब्रेरी में ले गया। वहाँ पहली बार मैंने पुस्तकालय के भव्य रूप का साक्षात्कार किया। हजारों किताबें देखकर मैं आह्लादित हो उठा था। मैंने बहुत-सी किताबों को उलट-पलट कर देखा। एक अपूर्व सुख की अनुभूति हो रही थी। फिर तीन कार्ड से तीन किताबें लेकर पढ़ना शुरू किया। हर दूसरे-तीसरे दिन लाइब्रेरी पहुँच जाना और पढ़ी हुई किताबें जमाकर दूसरी तीन किताबें लेकर आना। पढ़ने के सिवाय मेरा दूसरा कोई काम था नहीं, सो दिन रात पढ़ता रहता। दो तीन सप्ताह बाद लाइब्रेरियन ने पूछ ही लिया-’पूरी पढ़ लेते हो या वैसे ही लौटा देते हो ? क्या करते हो ?“
लगभग तीन महीने में मैंने डेढ़ दो सौ किताबें पढ़ ली होंगी। जिनमें कविता और उपन्यास ज्यादा थे। देशी-विदेशी लेखकों को एक साथ पढ़ने का पहला अवसर मिला था। इसका मैं पूरा सदुपयोग करना चाह रहा था। ’गीतांजलि’ का हिंदी अनुवाद वहीं से पढ़ा था। पहली बार गीतांजलि पढ़कर अद्भुत आनंद मिला था। तब मुझे जयशंकर प्रसाद का कविता-संग्रह “झरना“ भी बहुत अच्छा लगा था। हालांकि कामायनी मैं पहले ही पढ़ चुका था……….’’
विनीता यशस्वी का आलेख तो लाइब्रेरी का रेखाचित्र खींच देता है। लाइब्रेरी में बैठकर किताब पढ़ने का भी मज़ा में वह नैनीताल से लिखती हैं- लाइब्रेरी जाने के कारण कई लोगों से लाइब्रेरी वाली पहचान भी होने लगी। हम लोग सिर्फ लाइब्रेरी में ही मिलते थे। ऐसे ही एक बुजुर्ग थे, जो नियमित रूप से लाइब्रेरी आया करते और हिन्दी-अंग्रेजी के सारे अखबार पढ़ते थे। हम दोनों में रोज़ाना सिर्फ ’नमस्ते’ होती और एक-दूसरे को देख कर मुस्कुरा दिया करते। उन बुजुर्ग के कपड़े पहनने का सलीका मुझे अभी भी याद है। वो हमेशा पेंट और उसके साथ थोड़ा कांट्रास्ट कोट और टाई पहनते थे। वो रोजाना नियत समय से लाइब्रेरी आते और गंभीरता से अखबार पढ़ा करते थे। कभी-कभी कुछ खबरें पढ़ के उनके चेहरे में जो शिकन पड़ती थी वो भी साफ नज़र आ जाया करती थी। बहुत से छात्र भी लाइब्रेरी में आते थे और ज्यादातर अपने विषय से संबंधित किताबें लिया करते थे। कभी-कभी कुछ लोग लाइब्रेरी स्टाफ से रिक्वेस्ट भी करते थे कि उन्हें कुछ देर के लिए किताब दे दें ताकि वो इसकी ज़ीरॉक्स करवा के रख सकें क्योंकि अपनी व्यक्तिगत समस्याओं के कारण वो इस किताब को बाजार से खरीद नहीं सकते हैं। कभी-कभी लाइब्रेरी वाले किताब नहीं देते थे।


पौड़ी गढ़वाल की अध्यापिका एवं लेखिका इंदु पंवार कक्षा में अभिनव प्रयोग के लिए जानी जाती हैं। उनका एक आलेख पढ़ने से लिखने की यात्रा पर है। वह लिखती हैं-‘‘जब मैं प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ती थी तो ना पुस्तकालय शब्द सुना था और ना ही स्कूल में पाठ्यपुस्तकों के इतर अन्य ही पुस्तकों से कभी आमना-सामना हुआ था। कक्षा-12 तक सिर्फ अपनी स्कूली किताब पढ़ने पर जोर दिया जाता था, लेकिन चुपके-चुपके कुछ कहानियों की किताब पढ़ती थी तो बहुत आनंद आता था। कक्षा-12 पास किया और कॉलेज में एडमिशन लिया तो पहली बार सुना कि लाइब्रेरी से बुक मिलनी है और लाइब्रेरी में पढ़ भी सकते हैं, पर देखा कि वहाँ भी सिर्फ कोर्स की किताबें ही मिलनी हैं और वही किताबें पढ़नी हैं। बहुत ऊबाऊ भी लगता था पर डर के कारण चाहते हुए भी कोर्स से इतर किताबें नहीं पढ़ पाती थी। बचपन की चंपक याद आती है कि कम से कम पिताजी चंपक तो लाते थे। धीरे-धीरे समय बीतता गया और कोर्स तथा प्रतियोगिता दर्पण की किताबों को पढ़ते-पढ़ते शिक्षक भी बन गए पर पुस्तकालय हमारे प्राथमिक विद्यालयों में भी हो सकता है इस बात को मानते हुए भी कभी किसी से कुछ नहीं बोला पर इच्छा थी कि एक छोटी सी लाइब्रेरी जरूर होनी चाहिए। हर स्कूल में बच्चों के लिए पढ़ने का एक स्वतंत्र मजेदार स्थान बनाना होगा।
रीडिंग कार्नर यानि पढ़ने का कोना मतलब विद्यालय में एक ऐसा स्थान, जहाँ बच्चे एक जगह में बैठकर कुछ पढ़ सकें। अब सवाल उठता है कि ये कोना क्यों बनाया जाय, कहाँ बनाया जाय इसे प्रभावी तरीके से उपयोग में कैसे लाया जाय आदि-आदि। इसके पीछे जरूर कोई अवधारणा तो है। हमारे विद्यालयों में पुस्तकालय की परिकल्पना तो की ही गई है, जिससे बच्चों में पाठ्यक्रम के अतिरिक्त किताबों को पढ़ने की आदत का विकास हो । पढ़ने का यह कोना (रीडिंग कॉर्नर) किताबों के इस्तेमाल करने की प्रक्रियाओं में जीवंतता लाता है।
निर्मल न्योलिया बेहद सक्रिय विज्ञान शिक्षक है। पढ़ते-लिखते हैं। उनका आलेख भी पठनीय है। वह लिखते हैं-‘‘1836 में बने भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय, कोलकाता जो मात्रा के हिसाब से देश का सबसे बड़ा व भारत का सार्वजनिक रिकॉर्ड का पुस्तकालय है। इसमें पत्रिकाओं, मानचित्रों, पांडुलिपियों आदि के साथ 2641615 पुस्तकें हैं। यह करीब 30 एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है जो आजादी के बाद 1953 में आम जनता के लिए खुल पाया था। विद्यालयी शिक्षा में एक शिक्षक के तौर पर कार्य शुरू करने के बाद दो चीजों की कमी अनुभव हुई और बनी हुई है पहला प्रयोगशाला और दूसरा पुस्तकालय। यह समस्या मेरे तक सीमित नहीं है राज्य भर के विद्यालयों, उनके शिक्षकों और बच्चों की भी है। डिजिटल पुस्तकालयों में बदलाव ने लोगों के भौतिक पुस्तकालयों के उपयोग के तरीके को बहुत प्रभावित किया है। आधुनिक दुनिया में शिक्षा प्रणाली तेजी से बदल रही है। कंप्यूटर और संचार प्रौद्योगिकियों में जबरदस्त प्रगति के प्रभाव के चलते, शिक्षण और सीखने की धारणा, दृष्टिकोण और तकनीकों में भी धीरे-धीरे बदलाव आया है। अतः समय पर परिवर्तन की आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा की संपूर्ण प्रणाली के साथ-साथ अकादमिक पुस्तकालयों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के मानकों को पूरा करने और अनुमानित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए गति बनाए रखनी होगी। डिजिटल प्रौद्योगिकियों की प्रगति के साथ, शिक्षा में पुस्तकालय की भूमिका का व्यापक रूप से विस्तार की जरूरत है कुछ हद तक यह जरूरत स्थानीय तौर पर सामुदायिक पढ़ने के समूहों के द्वारा भी पूरी की जा सकती है। इस दिशा में जो हुए हैं उन्हें सामने लाये जाने की भी जरूरत है।

मनीषा जैन मेरठ से अपने पुस्तकालय के अनुभव लिखती हैं। एक अंश-लाइब्रेरी आज भी मेरे जहन में जिंदा है। लाइब्रेरी ने मेरे अंतर्मन में ज्ञान के अंकुरों को इस तरह से प्रस्फुटित किया कि मेरे जीवन के रास्ते बनते चले गए। आज भी सोने से पहले कुछ पढ़ना मेरी आदत है। मुझे सिर्फ किताबें पसंद हैं, क्योंकि यह कुछ ना कहते हुए भी सब कुछ कह जाती हैं। हमारे जीवन को एक नए शिखर तक ले जाती हैं। मैं अपने सभी अध्यापक दोस्तों से कहना चाहती हूँ कि वे अपने बच्चों की दोस्ती पुस्तकों से करवाएँ। विद्यालय में एक अच्छे पुस्तकालय का होना आवश्यक है। पुस्तकालय के महत्त्व की चर्चा करते हुए हम यह भी जान सकते हैं कि पुस्तकालय में व्यक्तिगत कार्य, समूह प्रयोजन कार्य, शौक्षणिक एवं मनोरंजन कार्य तथा पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के लिए अच्छी तथा दक्ष पुस्तकों का होना आवश्यक है। छात्रों की रुचियों का विकास, उनके शब्द भंडार का वर्धन तथा कक्षा में अर्जित ज्ञान की वृद्धि करना, यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि छात्रों को पुस्तकालय में कितने साधन उपलब्ध हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग विषयों की किताब पढ़ने का शौक रहता है। बच्चे, बूढ़े, जवान किसी भी उम्र का व्यक्ति अपने शौक अनुसार किताबों को पढ़ कर अपना ज्ञानवर्धन कर सकते हैं। अलग-अलग विषयों पर किताबें पढ़ने से व्यक्ति में हर क्षेत्र का ज्ञान बढ़ता है। कॉमिक्स, किस्से ’कहानी, उपन्यास, नाटक आदि पढ़ने से व्यक्ति में काल्पनिकता बढ़ती है और इन सारी पुस्तकों का सिर्फ पुस्तकालय में ही एक साथ मिल पाना संभव हो पाता है। किताब पढ़ते वक्त व्यक्ति किताब में लिखी कहानी या घटना में खो कर काल्पनिकता में चला जाता है। पढ़ाई से संबंधित किताब पढ़ने से विद्यार्थी सुशिक्षित हो कर अपने जीवन में आगे बढ़ता है और साहित्यिक पुस्तक समाज एवं सामाजिक जानकारी देती है, जिससे मनुष्य समाज के रहन-सहन को आसानी से सीख पाता है।
प्रधानाचार्या के रूप में मैं अपने विद्यालय में भी एक अच्छा पुस्तकालय स्थापित करने की ओर अतिरिक्त ध्यान दे रही हूँ विभिन्न विषयों और रुचि को ध्यान में रखते हुए, वर्तमान समय में मेरे विद्यालय के पुस्तकालय में 20 हजार से अधिक पुस्तकें हैं। विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए उनकी कक्षा के अनुसार वर्ष के सर्वश्रेष्ठ पाठक का पुरस्कार दिया दिया जाता है। साथ ही शिक्षकों को भी पढ़ने हेतु प्रतिवर्ष नकद पुरस्कार और विद्वान शिक्षक पुरस्कार का प्रमाण पत्र दिया दिया जाता है।


शिक्षिका एवं लेखिका डाॅ॰ अमिता प्रकाश का अनुभव भी शानदार है। एक अंश-‘‘धीरे-धीरे किताबों को पढ़ने की ललक बढ़ने लगी तो पुनः घर के पुस्तकालय में रखी साहित्यिक पुस्तकों की ओर रुख किया। किंतु एक अजीब सी बात थी कि चाचाजी, जिन्हें किताबें सहेजने का नशा-सा है, तब वह किताबों को आसानी से दूसरे के हाथों में देते नहीं थे। यदि कोई पुस्तक पढ़ते-पढ़ते गलती से भी खुली छूट गई, या कहीं हल्के से भी कोने पर कोई पृष्ठ मुड़ गया तो वह तुरंत हाथ से किताब छीन लिया करते थे। यह कहते हुए कि “जब किताब पढ़ने की तमीज नहीं है तो मत पढ़ा करो।“ चाचा जी का किताबों से यह मोह मुझे एक तरह से विरासत में मिला। धीरे-धीरे मैंने अपनी किताबों का संग्रह करना शुरू किया। इस संग्रह की शुरुआत बहुत बाद यानी कि तब हुई जब मैंने टीजीटी संस्कृत के रूप में नई टिहरी में पढ़ाना शुरू किया। मेरी प्रथम, स्वयं के पैसों से क्रय की गई किताब थी, डायरी ऑफ एन फ्रेंक’ उस समय क्योंकि नौकरी के लिए संघर्ष शुरू हुआ था प्रतियोगिता परीक्षाओं का दौर शुरू हुआ तो स्पेक्ट्रम की भारी भरकम जी एस यूनिक की जी एस को मैंने खरीदा। उसके बाद यह सिलसिला चल निकला, कई ब्रेक्स के साथ।
राजकीय बालिका इंटर कॉलेज द्वाराहाट में 2014 के बाद प्रतियोगिता दर्पण सफलता, तथा चंपक (अंग्रेजी) नियमित आने वाली पत्रिकाएँ थी, जिनसे छात्राओं से मेरा संवाद बढ़ा। प्रेमचंद का समस्त साहित्य तथा शेक्सपियर के सभी नाटकों का हिंदी अनुवाद छात्राओं के लिए मँगाने का क्रम चलता रहा। कई छात्राएँ इस यात्रा में मेरी सहभागी बनीं। कविता भट्ट, प्रिया उपाध्याय, ऊषा बिष्ट, किरन ने पुस्तकों के रखरखाव में ही मेरी मदद नहीं की, बल्कि पुस्तकें पढ़ने की एक आदत को अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बनाया। यह अलग बात है कि चाचाजी की भाँति मैं किताबों को बहुत सहेज कर आज भी नहीं रख पाती और तमाम घरेलू व्यस्तताओं के मध्य उनका जैसा अध्ययन मेरा कभी नहीं रहा, न है किंतु आज भी सोने से पूर्व आधा घंटा पढ़ना मेरी आदत में शुमार है, तो इसका श्रेय चाचाजी की दो आलमारियों में सिमटी उस लाइब्रेरी को ही जाता है, जो आज हजारों की संख्या में पहुँच चुकी है और जिसने घर के एक पूरे कमरे में अपना साम्राज्य विस्तार कर समृद्ध पुस्तकालय का रूप ले लिया है।

पवन चौहान बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार है। संवेदनशील हैं। वह मंडी,हिमाचल प्रदेश से साहित्य जगत में शानदार उपस्थिति बनाए रखते हैं। पेशे से शिक्षक हैं। उनका लिखा संस्मरण भी विचारणीय है। एक अंश-पुस्तकालय की याद मेरे मानस पटल से जिंदगी भर धूमिल नहीं होगी। वर्तमान में हमारे विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, विभिन्न शिक्षण संस्थानों या अन्य स्थानों में स्थित पुस्तकालयों में पुस्तकों का अच्छा भंडारण है। किसी का भी नाम लिए बगैर, बस इतनी गुजारिश ( जरुर करूँगा कि ऐसे जिन पुस्तकालयों में पुस्तकें अभी भी अलमारियों के भीतर कैद हैं और वर्षो से बाहर निकलने की राह ताक रही हैं, कृपया उन्हें आजाद करें। उन्हें बच्चों, बड़ों, हर व्यक्ति तक लेकर जाएँ। बच्चों में पढ़ने की ललक पैदा करें। यदि ऐसा हो जाए तो हमारे समाज काउचेहरा ही कुछ और होगा। मैं यह जरूर कहूँगा कि पुस्तकालय ने मुझे जीना सिखाया है । मुझे एक दृष्टिकोण सौंपा है। मुझे इन सच्ची मित्रों के करीब लाया है। आज यदि मैं कुछ कच्चा-पक्का लिख पाने के काबिल हुआ भी हूँ तो यह इन पुस्तकों और पुस्तकालय में पठन का ही परिणाम है।


डाॅ॰ नरेंद्र कुमार सिंह सिजवाली का भावपूर्ण, शानदार और दिल को छू लेने वाला संस्मरण यदि पढ़ने से छूट गया तो पाठक को खुद लगेगा कि पत्रिका में ही कुछ छूट गया। एक अंश-‘‘पिछले कुछ वर्षों में कई शिक्षकों के व्यक्तिगत प्रयास उम्मीद जगाते नजर आ हे हैं। सितंबर 2011 में पिथौरागढ़ के शिक्षक साथी श्री महेश पुनेठा जी का व्यक्तिगत पुस्तकालय देखा। मैंने सर आशुतोष मुखर्जी के विशाल व्यक्तिगत पुस्तकालय को देखा नहीं, सिर्फ पढ़ा था परंतु पुनेठा जी का पुस्तकालय मुझे एक नई दिशा दे गया। प्रत्येक कमरे की दीवारों पर (केवल 3 कमरों का घर) इतने करीने से इतनी ज्यादा पुस्तकें मैंने पहले कभी नहीं देखी। पुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकाएँ होना एवं उन्हें व्यवस्थित तरीके से संजो कर रखना दो अलग-अलग बातें हैं। इस परिवार से हमने बहुत कुछ सीखा, जिसके हम सब (मैं, पत्नी और बच्चे ) व्यक्तिगत तौर पर आभारी हैं। इसी तरह कॉलेज तौर के मेरे सहपाठी डॉक्टर अभिजीत उमेश बड़सीलिया (घर-काठगोदाम), (कार्यस्थल- जी.आई.सी. ज्योलिकोट) का व्यक्तिगत पुस्तकालय भी संभावना जगाता है। अभिजीत ने एमएससी भौतिक विज्ञान से करने के बाद इतिहास में नेट पीएचडी भी की है, दर्शनशास्त्र से लेकर बहुत सारे विषयों का गूढ़ अध्ययन किया है। पुस्तकों का एक विशाल एवं सतत वृहद्ध शील पुस्तकालय घर में बनाना आसान कार्य नहीं है। यही कार्य डॉ. दिनेश कर्नाटक जी रानीबाग में कर रहे हैं। यह एक जीवंत पुस्तकालय है जहाँ सतत सार्थक चर्चाएँ चलती रहती है। कई ऐसे साथी और भी होंगे जो इस तरह से अपने आसपास ज्ञान का प्रकाश फैला रहे होंगे। आप सभी साथियों की प्रेरणा से उम्मीद है कि भविष्य में 7 व्यक्तिगत प्रयास और भी बढ़ेंगे। पिछले कुछ वर्षों में गणित की कुछ बेहतरीन पुस्तकों का नया भाग जोड़ा है, जिसने मुझे बौद्धिक तौर पर गणित का बेहतर विद्यार्थी बनाया है। इसी के साथ सामाजिक तौर पर उद्वेलित करने वाली पुस्तकों को खरीदना, पढ़ना-पढ़ाना भी सतत प्रक्रिया है ताकि विकास र संतुलित हो सके। पिछले एक दशक से कोशिश है कि अपने सामाजिक न दायरे के बच्चों से मिलते समय पुस्तकें भेंट की जाए। कुछ परिवारों में परिणाम दिख भी रहे हैं। लेकिन व्यापक बदलाव तभी संभव है जब शिक्षा-नियंता इस सच को स्वीकार करके इसे अपनाना चाहेंगे। उम्मीद पर दुनिया कायम है और हम दुनिया का ही हिस्सा हैं। किसी कवि ने ठीक ही कहा है-“रख तू राह पर दो-चार ही कदम,मगर जरा तबीयत से। कि मंजिल खुद-ब-खुद चलकर तेरे पास आएगी।। अरे हालात का रोना रोने वाले, मत भूल कि,तेरी तदबीर ही,तेरी तकदीर बदल पाएगी।।’’भास्कर उप्रेती पत्रकार रहे हैं। सामाजिक एक्टीविस्ट हैं। लिखते-पढ़ते हैं। सबसे बड़ी बात कि पढ़ने-लिखने वालों को जोड़ कर रखते हैं। उनका अनुभवों से पका असरदार आलेख बेहद मननीय है। वह आलेख के बहाने बहुआयामी विमर्श के बिन्दुओं को भी हौले से रखते हैं। एक अंश-‘‘पिथौरागढ़ में एक चीज सीखी थी चर्चा-संस्कृति। हम पाठक जो भी पढ़कर लाते, उसका गहरा आलोचकीय संधान होता। इसी से अबूझ शब्दों, संदर्भों के अर्थ उद्घाटित होते हैं। हम छात्र-छात्राओं के एक छोटे से समूह ने तब जगह-जगह स्टडी सर्किल के दौर चलाए। खुद की एक रोमिंग लाइब्रेरी भी हमारे पास थी। किताब बाँटना, पढ़वाना और फिर किसी दिन उस पर चर्चा आयोजित करना। इस बात का मैं ठोस दावा कर सकता हूँ कि इस साझी कोशिश के बदौलत जो पाठक वर्ग तैयार हुआ, वह इसका लाभार्थी बन सका। उन कोशिशों से निकले कई अच्छे शिक्षक, पत्रकार, वैज्ञानिक आज हमें श्यमान होते हैं और मेरी तरह वो भी महसूस करते हैं कि खुद के पढ़ने-लिखने के साथ अपने प्रभाव क्षेत्र में हमें पुस्तक – संस्कृति बनाने का काम जरी रखना चाहिए। गंगोलीहाट से पिथौरागढ़ जाते समय मेरे पास कोई भी साथ ले जा सकने वाली किताब नहीं थी। पिथौरागढ़ से नैनीताल आते हुए एक मुकम्मल लाइब्रेरी साथ गई। फिर नैनीताल से देहरादून के लिए एक विशाल लाइब्रेरी। बल्कि केवल लाइब्रेरी । देहरादून से मैंने लाइब्रेरी को विकेंद्रीकृत करना शुरू किया। बाँटना और फैलाना शुरू किया। दून लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर का कार्यकत्र्ता बना। आज मेरे घर में हर कमरे में कोई न कोई लाइब्रेरी उग आती है और जिस संस्था में मैं नौकरी करता हूँ, वहाँ मेरा काम ही है स्कूलों में लाइब्रेरी बनाने, बच्चों और लाइब्रेरी के बीच दोस्ती कराने का।
मोबाइल, लैपटॉप और किंडल ने मेरी लाइब्रेरी को कोई तकलीफ नहीं दी, उसके मददगार ही बने हैं। मैं किंडल पर जो भी पढ़ता हूँ, उसके बेहतरीन को सजीव -किताब के रूप में अपने पास मँगा लेता हूँ। ऐसा महसूस करता हूँ कि जो लोग किसी भी कारण से लाइब्रेरी या किताबों की दुनिया में दाखिल नहीं हो पाते, वे थोड़ा अधूरे लगते हैं। यह कमतरी का मामला नहीं, यह मनुष्य की चेतना यात्रा को जानने का मामला है। खुद को इतिहास और भविष्य की संधि से जोड़ने का मामला है। लोग जितना किताबों में दाखिल होंगे बेहतर इन्सान बनने और बेहतर दुनिया बनाने की ख्वाहिश उतनी ही मुमकिन होती जाएगी।’’

भास्कर उप्रेती पत्रकार रहे हैं। सामाजिक एक्टीविस्ट हैं। लिखते-पढ़ते हैं। सबसे बड़ी बात कि पढ़ने-लिखने वालों को जोड़ कर रखते हैं। उनका अनुभवों से पका असरदार आलेख बेहद मननीय है। वह आलेख के बहाने बहुआयामी विमर्श के बिन्दुओं को भी हौले से रखते हैं। एक अंश-‘‘पिथौरागढ़ में एक चीज सीखी थी चर्चा-संस्कृति। हम पाठक जो भी पढ़कर लाते, उसका गहरा आलोचकीय संधान होता। इसी से अबूझ शब्दों, संदर्भों के अर्थ उद्घाटित होते हैं। हम छात्र-छात्राओं के एक छोटे से समूह ने तब जगह-जगह स्टडी सर्किल के दौर चलाए। खुद की एक रोमिंग लाइब्रेरी भी हमारे पास थी। किताब बाँटना, पढ़वाना और फिर किसी दिन उस पर चर्चा आयोजित करना। इस बात का मैं ठोस दावा कर सकता हूँ कि इस साझी कोशिश के बदौलत जो पाठक वर्ग तैयार हुआ, वह इसका लाभार्थी बन सका। उन कोशिशों से निकले कई अच्छे शिक्षक, पत्रकार, वैज्ञानिक आज हमें श्यमान होते हैं और मेरी तरह वो भी महसूस करते हैं कि खुद के पढ़ने-लिखने के साथ अपने प्रभाव क्षेत्र में हमें पुस्तक – संस्कृति बनाने का काम जरी रखना चाहिए। गंगोलीहाट से पिथौरागढ़ जाते समय मेरे पास कोई भी साथ ले जा सकने वाली किताब नहीं थी। पिथौरागढ़ से नैनीताल आते हुए एक मुकम्मल लाइब्रेरी साथ गई। फिर नैनीताल से देहरादून के लिए एक विशाल लाइब्रेरी। बल्कि केवल लाइब्रेरी । देहरादून से मैंने लाइब्रेरी को विकेंद्रीकृत करना शुरू किया। बाँटना और फैलाना शुरू किया। दून लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर का कार्यकत्र्ता बना। आज मेरे घर में हर कमरे में कोई न कोई लाइब्रेरी उग आती है और जिस संस्था में मैं नौकरी करता हूँ, वहाँ मेरा काम ही है स्कूलों में लाइब्रेरी बनाने, बच्चों और लाइब्रेरी के बीच दोस्ती कराने का।
मोबाइल, लैपटॉप और किंडल ने मेरी लाइब्रेरी को कोई तकलीफ नहीं दी, उसके मददगार ही बने हैं। मैं किंडल पर जो भी पढ़ता हूँ, उसके बेहतरीन को सजीव -किताब के रूप में अपने पास मँगा लेता हूँ। ऐसा महसूस करता हूँ कि जो लोग किसी भी कारण से लाइब्रेरी या किताबों की दुनिया में दाखिल नहीं हो पाते, वे थोड़ा अधूरे लगते हैं। यह कमतरी का मामला नहीं, यह मनुष्य की चेतना यात्रा को जानने का मामला है। खुद को इतिहास और भविष्य की संधि से जोड़ने का मामला है। लोग जितना किताबों में दाखिल होंगे बेहतर इन्सान बनने और बेहतर दुनिया बनाने की ख्वाहिश उतनी ही मुमकिन होती जाएगी।’’


शिक्षिका एवं कवयित्री रेखा चमोली उत्तरकाशी की हैं अब देहरादून में हैं। पढ़ने से लिखने और जीवन को समझने के साथ दूसरों को जोड़ने की यात्रा को अपने आलेख में करीने से सजाया है रेखा चमोली ने। आप भी एक अंश यहाँ पढ़ सकते हैं-‘‘मेरे नए स्कूल में मैंने ’रूम टू रीड’ नामक संस्था की मदद से बढ़िया पुस्तकालय शुरू किया। हमारे शिक्षा विभाग से मिली किताबों को भी व्यवस्थित ढंग से रखकर एक खूब समृद्ध पुस्तकालय स्कूल में बन गया। मेरी स्वयंम की रुचि किताबों में होना एक प्लस प्वाइंट रहा। मैंने बच्चों के साथ पुस्तकालय में तमाम तरह की गतिविधियाँ कीं। कक्षा- 3, 4 व 5 की हिंदी व पर्यावरण की पुस्तकों के पाठों को भी पुस्तकालय से जोड़कर काम किया। हमने पुस्तकालय में अनेक गतिविधियाँ संचालित की किताबें पढ़ना, पढ़कर सुनाना, दो या दो से अधिक के समूह में पढ़ना, किताब पर चर्चा करना, प्रश्न उत्तर, सुबह की सभा में अपनी पढ़ी हुई किताब के बारे में बताना, अपनी मनपसंद किताब को दूसरों को पढ़ने को प्रेरित करना, पुस्तकालय सजाना, शोध कार्य में पुस्तकालय की मदद लेना आदि-आदि।

जो बच्चे पढ़ने लिखने में बाकी बच्चों से कमजोर थे उनको भी पुस्तकालय ने बहुत मदद की, क्योंकि पुस्तकालय में हर स्तर के बच्चों की आकर्षक और रुचिकर किताबें थीं, वहाँ मूल्यांकन जैसी बात नहीं थी, बच्चे सहज थे, पढ़ने में उन्हें चयन की स्वतंत्रता और सहजता मिली थी, अपने साथी बच्चों का साथ मिला था, बच्चों पढ़ने लिखने में बहुत तेजी से सुधार हुआ। सभी बच्चों ने मिलजुलकर कर पुस्तकालय की देख रेख की। मुझे याद नहीं कभी किसी बच्चे ने किसी किताब को जानबूझकर खराब किया हो या पुस्तकालय को नुकसान पहुँचाया हो। इन गतिविधियों से बच्चों में सामूहिक संपत्ति को उपयोग करने का सलीका भी विकसित हुआ। खूब सारी अलग-अलग किताबें पढ़ने से बच्चों में नवीन दृष्टिकोण बनने में मदद मिली। उनका मौलिक लेखन सुदृढ़ हुआ। उनमें समझकर पढ़ने लिखने, अपनी बात कहने, सवाल पूछने, प्रस्तुतीकरण देने जैसे दक्षताओं का विकास हुआ। बच्चों ने अपने बड़े भाई-बहन और माता-पिता को भी पुस्तकालय से जोड़ा, जिससे स्कूल और अभिभावकों के बीच स्वस्थ रिश्ते बनने में मदद मिली। इस तरह पुस्तकालय ने मेरे व्यक्तिगत व व्यावसायिक दोनों तरह के जीवन को दिशा देने में मदद की है।’’

उत्तर प्रदेश, हमीरपुर से सुजीत कुमार सिंह अपने जमीन से जुड़े प्रभावी संसमरण जोकहरा के पुस्तकालय ने रास्ता दिखलाया में लिखते हैं-
बनारस के पुस्तकालयों का योगदान मेरे जीवन में अहम रहा है। काशी विश्वविद्यालय का समृद्ध सयाजी राव गायकवाड़ केंद्रीय पुस्तकालय की प्राचीन अर्वाचीन किताबें, पत्र-पत्रिकाएँ आदि मुझसे परच गयी थीं। ’साखी’ के मुक्तिबोध अंक की तैयारी चल रही थी। प्रो. सदानन्द शाही ने एक दिन मुझसे कहा कि मुझे ’कल्पना’ का नवंबर 1964 वाला अंक चाहिए, जिसमें ’अंधेरे में’ कविता प्रकाशित है। अगर वह कविता मिल जाए तो मैं आपका आभारी रहूंगा। मैंने कहा कि क्यों नहीं, क्यों नहीं! अभी आपको उपलब्ध कराता हूँ। ’कल्पना’ का उक्त अंक मुझे गायकवाड़ लाइब्रेरी में ही मिला। प्रो. शाही को जब मैंने फोटोकॉपी सौंपी तो उनकी आँखों में कृतज्ञता का भाव था। गायकवाड़ पुस्तकालय में वही कार्य किया जो मैंने जोकहरा में किया था। यानी खूब अध्ययन करना और नोट्स बनाना। यह सब मैं सुबह दस बजे से रात्रि आठ बजे तक करता। नागरी प्रचारिणी सभा का आर्यभाषा पुस्तकालय ने मुझे अनेक प्राचीन पत्र-पत्रिकाओं से परिचित कराया। इन पत्रिकाओं ने मुझे भाषा संस्कार दिए। धूल धूसरित, जर्जर व पीले पड़ चुके पन्नों ने कि वर्तनी मात्रा का सदैव ध्यान रक्खो व गलत लिखने से बचो। यहीं पर नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सरस्वती, समालोचक, लक्ष्मी, मर्यादा, इन्दु, स्त्री दर्पण, अबला हितकारक, माधुरी, सुधा, विशाल भारत, विश्वमित्र, युगांतर, सरोज सहित न जाने कितने ज्ञात-अज्ञात पत्रिकाओं को उलटा-पलटा । पुराने ग्रंथों का अवलोकन किया। पांडुलिपियों को निहारबनारस का कारमाइकल लाईब्रेरी पुराने पुस्तकालयों में से एक है। यहाँ के शांत माहौल में पढ़ना सदैव अच्छा लगता। विश्वनाथ कॉरिडोर के चलते इस पुस्तकालय को ध्वस्त कर दिया गया है। अब इसके अवशेष चैकाघाट में हैं। वर्तमान काल पुस्तकालयों, संस्थानों के ध्वस्त होने का समय है। लेकिन सोशल मीडिया या अखबारों में जब पढ़ता हूँ कि फलां गाँव या शहर में पुस्तकालय स्थापित किया गया तो मन को सुकून मिलता है। बेहतर दुनिया का निर्माण किताबें ही कर सकती हैं।


शिक्षक एवं साहित्यकार कमलेश मिश्र भी अपने बचपन और पढ़ने की दिशा का बयान अपने आलेख में करते हैं। एक अंश-‘‘पुस्तकें हमारे जीवन में बहुत से बदलाव ला सकती है। पढ़ने से हमारी तार्किक शक्ति का विकास होता है और हमारे सवाल पूछने की क्षमता भी बढ़ती है। वर्तमान में मैं अपने विद्यालय का पुस्तकालय प्रभारी हूं और हमेशा मेरी यह कोशिश रहती है कि पुस्तकों को पढ़ने के लिए बच्चों को अधिक से अधिक मौका मिले। मैं लगातार बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करता हूँ । एक शिक्षक के तौर पर मेरी यह अभिलाषा है कि वर्तमान में मेरा जो पुस्तकालय है उसे सार्वजनिक पुस्तकालय में कैसे बदला जाए ? कहा भी गया है कि विद्या ऐसा धन है जो बाँटने पर लगातार बढ़ता है।’’


लखनऊ से अनिल अविश्रांत अपने बाल्यकाल को याद करते हुए पुस्तकालय के लिए सबसे हसीन दिन में बहुत सी बातें रेखांकित करते हैं। एक अंश-‘‘एक लंबे समयांतराल के बाद अब जब नौकरी के सिलसिले में मुझे किसी शहर जाना होता है तो मैं सबसे पहले शहर के मिजाज को समझने के लिए वहाँ के पुस्तकालय को खोजता हूँ। वहाँ कुछ पढ़े-लिखे और सुरुचि संपन्न लोग मिल जाते हैं। हमीरपुर मे रहते हुए वहाँ के राजकीय पुस्तकालय के लाइब्रेरियन एंडूज साहब से मेरा परिचय हुआ। ऐसा जीवंत और दिलचस्प इंसान मैंने कम देखा है, जो अपने प्रोफेशन से इतना प्यार करता हो। जो किताब पढ़ने गए लोगों को अपने पैसे से चाय पिलाता हो ।
मैंने राजकीय पुस्तकालय हमीरपुर में उनके साथ कई कप चाय पी है, जाहिर है उतनी ही किताबें भी पढ़ी हैं। झाँसी में स्थित राजकीय पुस्तकालय से भी बतौर सदस्य मैं जुड़ा रहा हूँ। झाँसी सहित पूरे बुंदेलखंड को समझने में वहाँ रखी किताबों से बड़ी सहायता मिली है, लाइब्रेरियन श्रीवास्तव मैडम की सक्रियता भी उस केंद्र को सक्रिय बनाए रखती है। वहाँ रहते हुए मैंने अपने स्नातक और स्नातकोत्तर के विद्यार्थियों को भी लाइब्रेरी से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। शहर के अलग-अलग हिस्सों से ढेरों विद्यार्थी, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र-छात्राएँ और सेवानिवृत्त लोगों को मैंने वहाँ आते-जाते और पढ़ते देखा है। हाँ, कामकाजी उम्र के लोगों की संख्या जरूर पुस्तकालयों में कम दिखती है पर शहर के संवेदनशील लोग पुस्तकों के इन सुंदर घरों को हमेशा आबाद करेगें, मुझे यह गहरा भरोसा भी है। नई उम्र के बच्चों को पुस्तकालय से जोड़ने की जरूरत है। इसके लिए पहली जरूरत है कि वहाँ उनकी बदलती रुचियों के अनुरुप किताबें उपलब्ध करायी जाएँ। उन्हें देखने, उलटने पलटने और महसूस करने की इजाजत हो। बेहतर हो कि वे समूह में पढ़ें, उन पर बात करें, चित्र बनाएँ और गीत गाएँ। वे एक दिन उन रंग-बिरंगे चमकीले पन्नों में अपने सपनों के रंग खोज लेंगे। वह दिन उस पुस्तकालय के लिए सबसे हसीन दिन होगा।
जापान से वेद प्रकाश सिंह अपने आलेख में भारत के साथ जापान के भी संस्मरणों को साझा करते हैं। इसे ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए। एक अंश-पुस्तकालय से जुड़े इन तीन-चार अनुभवों के बाद जापान से जुड़े दो संस्मरण भी आपसे साझा करना चाहता हूँ। जापान में रहते हुए कुछ ही महीने बीते थे। मैं अपनी पत्नी और एक विद्यार्थी के साथ बस स्टैंड पर खड़ा था। विद्यार्थी का नाम हारुका कुबोता सान था, जहाँ हम तीनों लोग खड़े थे, उसी जगह पर एक छोटा का यात्री- पुस्तकालय था। बस का इंतजार करते हुए जो कोई किताब पढ़ना चाहते हैं, उनके लिए उस छोटे से पुस्तकालय में तीस-चालीस किताबें रखी हुई थीं। मैंने इस घटना पर लिखा और एक तस्वीर भी फेसबुक पर लगाई। यही तस्वीर देखकर पहली बाद महेश पुनेठा जी से आत्मीय संबंध बना। ऐसे छोटे पुस्तकालय जापान में आपको हर जगह मिलेंगे। दुकानों पर, डॉक्टरों के क्लीनिकों पर, बस या ट्रेन के स्टेशनों पर आपको छोटे-बड़े पुस्तकालय खूब देखने को मिलेंगे और अधिकतर लोग आपको पढ़ते हुए मिलेंगे। इन छोटे-छोटे पुस्तकालयों के अलावा हर शहर में बड़े-बड़े भव्य पुस्तकालय हैं, जहाँ कई प्रकार की सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी होती हैं। बुजुर्ग लोगों के लिए कुछ खेल या की जगहें होती हैं। विदेशी लोगों को जापानी सिखाने की व्यवस्था भी यहाँ होती है और एक छोटा सा कैफे या रेस्टोरेंट भी होता है। इस प्रकार के स्थान जापान में बहुतायत में हैं। यहाँ पर आने वाले लोगों की उम्र दो-चार साल एक छोटे बच्चों से लेकर अस्सी नब्बे साल के बुजुर्गों तक होती है। इन पुस्तकालयों का कोई भी सदस्य बन सकता है। वे दो किताबें दो सप्ताह के लिए एक बार में इशू करवा सकते हैं। मुझे लगता है कि भारत के हर गाँव और शहर में ऐसे पुस्तकालय और केंद्र होने चाहिए।’’


कौशाम्बी के साहित्यकार राजेंद्र सिंह यादव ग्रामीण इलाके में पुस्तकालय लगभग अनजाना शब्द अलग तरह से पुस्तक, शिक्षा और किताबों को देखने का नजरिया देता है। विषम परिस्थितियों के बाद भी आशावादी सोच को आगे रखता है। एक अंश-
‘‘जब से मैंने पुस्तकें पढ़ना शुरू किया, तब से आज मुड़कर पीछे देखता हूँ तो मुझे स्वयं हैरानी होती है कि मैं पहले वैसा क्यों था, जैसा कि मुझे नहीं होना चाहिए था। किन्तु यदि कोई चाहे तो क्या नहीं बदल सकता ? किताबों से प्रेम हमें प्रकृति से प्रेम की ओर ले जाता है और प्रत्येक जीव से प्रेम करने की प्रेरणा देता है। अब मैं अनुभव करता हूँ कि ज्यादातर अंधविश्वास और भ्रांतियाँ अच्छी किताबों को न पढ़ने और न समझने के कारण उत्पन्न होती हैं, चाहे वह लिंग, जाति या धर्म के नाम पर भेदभाव हों या फिर कट्टरपंथी सोच व व्यवहार। पहले की तुलना में आज मैं अपने आसपास ज्यादा समृद्धि देखता हूँ। अब लोग दो जून की रोटी से आगे सुख-सुविधाएँ जुटाने के बारे में भी सोचने लगे हैं। मगर खाते-पीते घरों में आज तमाम तरह की जरूरी और गैर-जरूरी चीजें मिल जाती हैं। लेकिन दो अच्छी किताबें देखने को नहीं मिलती हैं। इस परिपाटी को बदलने के लिए हमें किताबों से प्रेम करना होगा और घरों में इज्जत के साथ किताबों को भी जगह देनी होगी। घर में किताबें रखने और पढ़ने की साफ-सुथरी जगह और वहाँ बड़े बैठकर पढ़ते हुए दिखाई दें तो बच्चों में भी पढ़ने की ललक पैदा होती है।
आज मैं जो भी हूँ, मेरे विचारों में जो भी बदलाव आए हैं वह मेरे जीवन में किताबों की देन है, जो मेरे अच्छे सोहबत की देन है और जिनसे मुझे आज भी मुझे पढ़ने की प्रेरणा मिलती है। अंत में सभी से मेरा निवेदन है कि जिस प्रकार हम अपने घर में सुख-सुविधाओं की तमाम वस्तुएँ सजाकर रखते हैं, वैसे कुछ अच्छी किताबें भी रखें, उन्हें पढ़ें, उन पर चर्चा करें विचारें। साथ ही अपने आसपास लोगों के साथ पुस्तकों को साझा करें और उन्हें पढ़ने को प्रेरित भी करें। जहाँ बड़े नियमित पढ़ते हैं और पढ़ते हुए नजर आते हैं तो वहां बच्चे भी पढ़ने की प्रेरणा लेते हैं और पढ़ने को नित्यकर्म का हिस्सा समझते हैं। बड़े खुद कभी नहीं पढ़गे और बच्चों से पढ़ने की अपेक्षा करेंगे तो निराशा व शिकायत के सिवाय कुछ हाथ नहीं लगेगा।’’


पत्रिका के संपादक दिनेश कर्नाटक तार्किक ढंग से और बाज़ार के मूड को भांपते हुए किताबों के कम पढ़े जाने और उनके अस्तित्व की आशंका के साथ अपनी बात रखते हैं। वह पाठकों को इस बात के लिए सहमत हो जाने में सफल हो जाते हैं कि चाहे कुछ भी हो किताबें रहेंगी। एक अंश-‘‘देखते ही देखते जो लोग निम्न वर्ग से निम्न मध्यमवर्ग में आए थे, उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ने लगे। इन स्कूलों में बच्चों को भेजने के पीछे बेहतर नागरिक बनना, अच्छी शिक्षा का विचार उतना नहीं था जितना आर्थिक रूप से कामयाब होती जमात का हिस्सा बनने की लालसा । इस प्रकार देश की एक बड़ी आबादी अपने परिवेश की भाषा को छोड़कर अंग्रेजी की ओर जाने लगी । यह क्रम आज भी जारी है। फलस्वरूप स्थानीय अथवा परिवेशीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं की संख्या निरंतर कम होती जा रही है। समाज में ऐसी सोच बन गई है कि जो गरीब और असमर्थ है वही अपने बच्चों को हिंदी माध्यम के स्कूलों में भेजेगा। दूसरा यह पढ़ना आनंद, खुशी और खोजने – जानने के लिए नहीं है। किताबों को पढ़ना भी मतलब के लिए होता है। इस कारण किताबों से वह भावात्मक रिश्ता नहीं बन पाता जिससे पढ़ने की संस्कृति बनती है। अस्तु पढ़ने की संस्कृति को गहरी चोट लगी है। आज हम लोग जिस परिवेश में जी रहे हैं उस में पढ़ने, रचने या ज्ञानार्जन के बजाय दिन-प्रतिदिन खरीदना, उपभोग करना ज्यादा महत्वपूर्ण होता जा रहा है। यह परिवेश व्यक्ति को सिर्फ उपभोक्ता के रुप में देखना चाहता है। रचना या निर्माण का कार्य भी बाजार ने अपने हाथ में ले लिया है। यानी हर चीज को वह रेडीमेड माल में बदलता जा रहा है। इसी के चलते ज्ञान को भी मेहनत करके अर्जित करने के बजाए व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी या गूगल से जो मिल जाए उसे ही ज्ञान समझने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।

अंक में भीतर के आवरण पर सपना भट्ट की कविता किताबें है। पीछे के आवरण पर प्रबोध उनियाल और इसी आवरण के भीतर रमाकांत शर्मा की कविता भी है। बोधिसत्व की लंबी लेकिन प्रभावी कविता भी अंक में है। सपना भट्ट की कविता फोंट के दबाव में दब गई लगती है। रेखांकन और भी उभर सकते थे। कविताओं पर फिर कभी अलग से बात करने का मन है। अलबत्ता अब समय आ गया है कि बहुत जरूरी होने पर भी आलेख-रचना को तीसरे पन्ने तक न बढ़ाया जाए। यह समय की मांग है और यदि ऐसा हो पाए तो छिहत्तर पृष्ठों में ही पाँच-छह और रचनाएँ शामिल हो सकती हैं। शैक्षिक दख़ल के रचनाकारों को भी अब पेशेवर होने की ज़रूरत है। हालांकि यह कठिन होता है, फिर भी कम शब्दों में अपनी बात कहने की ओर बढ़ना चाहिए।

शैक्षिक दख़लः मेरे जीवन में पुस्तकालय-02

जनवरी 2023: अंक-21

बहरहाल यह अंक भी संग्रहणीय बन पड़ा है। संस्मरण के तौर पर भी रचना सामग्री बारम्बार पढ़ने योग्य है। इस अंक की खास बात यह है कि अधिकतर आलेख नितांत दूसरे से अलहदा हैं। कारण? हर व्यक्ति के निजी जीवन के अनुभव दूसरे से अलग होते हैं। जब लेखक अपने भोगे गए यथार्थ को किसी भी विधा में दर्ज़ करे, वह भी खास तौर पर संस्मरणात्मक आलेख में तो वह किसी दूसरे से बेहद भिन्न होगा ही। इस अंक के किसी भी आलेख को पढ़ते हुए हम भिन्न-भिन्न परिवेश, देशकाल और परिस्थितियों से दो-चार हो सकते हैं। शैक्षिक दख़ल का यह अंक भले ही पुस्तक-पुस्तकालय पर केन्द्रित है लेकिन पूरे अंक की यात्रा उत्तराखण्ड के कई जिलों के तत्कालीन देशकाल के साथ सूबे से बाहर के लेखकों के प्रान्तों की सूरत-ए-हाल से भी विज्ञ होंगे। इस अंक में हम इस बात की पड़ताल कर सकते हैं कि आज के समय में जो स्थापित व्यक्तित्व हैं, उनका बचपन, उनकी स्थितियां कहां से कहां तक पहुँची हैं!

-प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’

शैक्षिक दख़लः मेरे जीवन में पुस्तकालय-02
जनवरी 2023: अंक-21

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By manohar

2 thoughts on “<strong>शैक्षिक दख़ल : पुस्तकालय सकारात्मक जीवन जीने की ख़ुराक है</strong>”
  1. बहुत खूब लिखा आपने। मैने भी पत्रिका लगभग पूरी पढ़ ली है, कुछेक संस्मरण बाक़ी हैं। वाकई ये बेहतरीन पत्रिका है। शैक्षिक दखल पढ़ने लिखने की संस्कृति को बचाने बढ़ाने के लिए जो कोशिश कर रह है, उसके लिए पूरी टीम को नमन।

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