‘जब मैं छोटी थी’

-मनोहर चमोली ‘मनु’

सुधा भार्गव कृत संस्मरणनुमा बाल उपन्यास ‘जब मैं छोटी थी’ डाक से मिला। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने इसे प्रकाशित किया है। जानी-मानी लेखिका और बाल मन की जानकार सुधा भार्गव पेशे से शिक्षक रही हैं। सतहत्तर वर्षीय सूधा भार्गव की कई किताबें प्रकाशित हैं। बीस बचपन से जुड़ी बातों,यादों और घटनाओं को आत्माभिवयक्ति शैली में लेखिका ने करीने से पिरोया है।

अमूमन सभी किस्से पाँच से छःह पेज में समेटे गए हैं। देशकाल और वातावरण की बात करें तो ज़ाहिर सी बात है कि लेखिका ने चालीस और पचास के दशक में जिए अपने बचपन की खट्टी-मीठी यादों को इस उपन्यास का आधार बनाया है।

इक्कीसवीं सदी हो या बीसवीं या सत्रहवीं। हर काल खण्ड का अपना विशिष्ट बचपन होता है। लेकिन दुनिया जहाँ के बचपन के किस्से कितने ही विरले हों, उनमें मस्ती,मासूमियत,खिलंदड़ी,प्रेम,संवेदनाएं,नाराज़गी, गुस्सा, चंचलपन,कल्पना की असीमित और गहरी थाह लिए उड़ान तो होगी ही। ऐसा ही इस किताब में हैं।

पाठक पढ़ते-पढ़ते अपने बचपन में लौट जाता है। सिर्फ़ लौटता ही नहीं उसे पुनः जीने लगता है। उसे किताब पढ़ते-पढ़ते बचपन के वे सब कृत्य याद आने लगते हैं जब उसे स्वयं हँसी आई हो या वह स्वयं हँसी का कारण बना हो। बचपन की अठखेलियाँ,हँसी-ठट्ठा, छिटपुट चोरियाँ, मार-पिटाई,रसोई से लेकर स्कूल तक खाने-पीने के किस्से, राजा-रानी के खेलों से लेकर गुड्डा-गुड़ियों के खेल तलक की यात्रा में फिर से यात्री बनने का मन किसका नहीं करेगा?

दूध-मलाई से लेकर चाट-पापट, आम-पापड़, इमली से लेकर रसीले आम। खेलों की दुनिया में लूडो,कैरम और सांप-सीढ़ी हैं। लट्टू है। गुल्ली-डण्डा है। पेड़,पहाड़ और नदियों की मस्ती। रेजगारियों से की गई खरीददारी, पतंगबाजी से लेकर खो-खो हो या दोड़-भाग। सैर-सपाटा हो या पड़ोस में सखी-सहेली-दोस्तों के साथ नोंक-झोंक,पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ बचपन की चुलबुली गलतियां किसे रह-रह कर याद नहीं आती होंगी? फिर जब ऐसे किस्सों से भरी किताब पढ़ने का मौका मिले तो ऐसा लगने लगता है कि जैसे कल ही तो हमारा बचपन हमारी मुट्ठियों में था।

यह तय है कि यह जब मैं छोटी थी का पाठक बच्चा हो या नोजवान या फिर प्रौढ। हर किसी का संसार इस में हैं। दिलचस्प बात यह है कि लेखिका की दो दृष्टि से मुलाकात करने का अवसर पाठक को मिलता है। पहला लेखिका के बचपन के अहसासात,अनुभव और कृत्य। दूसरा लेखिका पचास-साठ-पेंसठ साल पहले जी चुके बचपन को याद करते हुए अब उस दौर के बड़ों से आज बड़ी होकर अपनी भावनाओं का प्रकटीकरण।

पात्रों में स्वयं छुटपन की लेखिका है। डाॅक्टरी परिवार है। अम्मा-पिताजी हैं। डाॅक्टर बाबा हैं। पड़ोसी रक्का है। हलवाई है। अध्यापक हैं। अध्यापिका है। छोटा भाई है। चाचा हैं। सहपाठी हैं। दोस्त हैं। सहेलियां हैं। धोबी काका हैं। नायन ताई है। अनूपशहर के बन्दर हैं। यह पात्र पाठकों के ज़ेहन में जगह बना लेते हैं।

चरित्रों में भी लेखिका के समय के मानवीय मूल्य सामने आते हैं। जिसमें सहयोग, सहायता, काम के प्रति कर्मठता,जीवटता परिलक्षित होती है। सखा भाव के मानवीय संवेग महसूस होते हैं। प्रकृति के साथ-साथ जीवों के प्रति मानवीय व्यवहार के दर्शन होते हैं। सुख है। दुःख है। मानवीय मूल्यों की झलक है।

‘जब मैं छोटी थी’ की भाषा-शैली सरल है। सहज है।

कुछ उदाहरण आप भी पढ़िएगा-

एक-अचानक तूफान आया-‘सुधा,खड़ी हो जाओ।’

मैं खड़ी हो गयी।

कान उमेठती हुई बोली-‘मैं पढ़ा रही हूँ और तुम कर रही हो बात-इतनी हिम्मत।’ दूसरे हाथ से चटाक। बिजली गिर चुकी थी। एक चाँटा मेरे गाल पर जड़ दिया।

(क्यों मारा,पेज 14)

दो-टन-टन टनाटन-छुट्टी हो गयी। दिल भी बाग-बाग हो गया। विश्व विजेता की तरह गर्व से टाट के नीचे से प्यारी चप्पलें खींची,पहलीं और इस बार-मैं भर रही थी हिरन-सी चैकड़ी। पीछे-पीछे मुँह लटकाए दया धीरे-धीरे चल रही थी। डगमगाती-सी दुखी-सी।

( चप्पल चोर,पेज -24)

तीन-‘मास्साब, मेरी कहानी?’

‘अभी तो मैं घूमने जाऊँगा। कल जरूर सुना देंगे।’

‘लेकिन आज की कहानी।’

मास्टर जी पसीज गए,मुस्कान बिखेरते बोले-‘ठीक है,शाम को आ जाना।’ (पहले कहानी,फिर बनूँगी रानी,पेज 26)

चार-‘दिन में कुछ ऊटपटाँग खाया क्या!‘

मैंने तो मुँह भींच लिया पर मुन्ना बोल पड़ा-

‘पिताजी इमली खायी थी।’

डनका गुस्सा तो आसमान तक चढ़ गया-

‘न जाने क्या-क्या खाते रहते हैं-दुबारा खाँसी तो निकाल दूँगा कमरे से।’

(खट्टी-मीठी इमली,पेज 30)

पाँच- मैं जब छोटी थी, पढ़ती कम, खेलती ज्यादा। पर पिताजी का अरमान-मैं खूब पढ़़ूँ-पढ़ती जाऊँ। वह भी बिना ब्रेक लिये। दादी की असयम मृत्यु के कारण उनकी पढ़ाई में बहुत अड़चने आयीं। किसी तरह वे बनारस से बी फार्मा कर पाय। अब मेरे द्वारा अपनी इच्छायें पूरी करना चाहते थे। पर मेरी तो जान पर बन आयी।

(सबसे भली चवन्नी,पेज 66)

आवरण पाठक वय-वर्ग के स्तर पर लुभाता है। काग़ज़ उम्दा है। छपाई शानदार है। फोंट बेहतर है। फोंट का आकार पाठकों की आयुनुसार रखा गया है। श्वेत साफ काग़ज़ पर श्याम रंग उभरता है। आँखों को सकून देता है। कुछ एक अनुच्छेदों को छोड़ दे ंतो लेखिका ने वाक्य विन्यास में सतर्कता बरती है। संयुक्त वाक्यों से परहेज किया गया है। यह अच्छी बात है। हर याद,घटना,बात और प्रसंग एक लय से आगे बढ़ते हैं और पाठक को उलझाते नहीं।

कुल मिलाकर दस से बारह साल के पाठकों के लिए तैयार यह उपन्यास सभी वय-वर्गो के पाठकों को पसंद आएगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि धीरज सोमबासी के बीस से अधिक रेखांकनों से सजी यह किताब बाल साहित्य जगत में रेखांकित होगी।

  • पुस्तक: जब मैं छोटी थी
  • लेखिका: सुधा भार्गव
  • मूल्य: 55.00 रुपए
  • पेज संख्या: 114
  • प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत
  • आइएसबीन: 978-81-237-8685-8
  • पहला संस्करण: 2018

समीक्षक: मनोहर चमोली ‘मनु’

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