जुगनू प्रकाशन: इकतारा ट्रस्ट की प्रकाशन छाप

‘कम होते उजाले में‘
पुरानी बात है। बड़ी चाची को गठिया का रोग था। बड़े चाचा के मरने के पहले से यह रोग था। वे दशकों बिस्तर पर पड़ी रहीं। बरामदे के पास एक कमरे में लेटी रहती थीं। जब ठीक रहतीं तब कहानी सुनाती थीं। जब बहुत ठीक लगता तो कहानी सुनाने को बेताब हो जाती थीं। और सब जान जाते थे कि बड़ी चाची की तबीयत ठीक है। कहानी सुनाने बुला सकती हैं। और सुनने के लिए बच्चों का हल्ला होता। घर के बच्चे और पड़ोस के बच्चे आकर सुनने बैठ जाते। वे डरावनी कहानी सुनातीं, भूत-प्रेत की, जादू-टोने की।


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‘गुटरगूँ…’
एक दिन बड़ी चाची ने शिकायत की कि कल रात भर मेरी खटिया के नीचे गुटरगूँ, गुटरगूँ, की आवाज आती रही। बड़ी चाची की खटिया ऊँची थी। रमकली को झाँकने में दिक्कत नहीं हुई। रोज़ की तरह झाड़ू लगाने उसके हाथ में झाड़ू थी। उसने सोचा, कल तो उसने झाड़ू लगाई थी। आज कहाँ से सवेरे-सवेरे इतना कचरा आ गया!
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‘रोज़ दिखने वाली बिल्ली नहीं… शेर’
रमकली के बुलाने से जो बिल्ली आई थी वह रोज की दिखने वाली बिल्ली नहीं थी। कोई दूसरी बिल्ली थी। यह मुख्य बात थी। दूसरी मुख्य बात यह थी कि क्या एक जैसे दिखने वाले कबूतर, रोज़ के वही कबूतर थे या बदल-बदलकर आते थे। यह कहा नहीं जा सकता कि घर में दिखने वाले गमलों के पौधे वही पौधे थे या दूसरे जो रोज़ के दिखने वाले पौधों की तरह थे। हर क्षण कुछ न कुछ बदलता रहता है और पता नहीं चलता है। गुटरगूँ, गुटरगूँ एक जैसी, चाची को सुनाई देती। कुछ बदला हुआ भी नहीं बदला है। बड़ी चाची ने रमकली से कहा,‘‘रमकली, मैंने तुमसे बिल्ली बुलाने को कहा और बिल्ली आ गई।’’
‘‘हाँ चाची, बिल्ली आ गई कहने से।’’
‘‘अगर मैं शेर को बुलाने के लिए कहती तो शेर भी आ जाता।’’
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‘डर न डरने के लिए है’


डर न डरने के लिए है
न डराने के लिए
डर, निडर होकर
रहने के लिए है
रमकली को जब घर की याद आती तो उसका मन इधर-उधर होने लगता। काम में मन नहीं लगता। इस बात पर बड़ी चाची का भी ध्यान गया। बड़ी चाची ने कहा,“रमकली, तुम्हारा ध्यान काम पर नहीं लग रहा है। क्या बात है? तबीयत ठीक नहीं है या घर की याद आ रही है?’’
‘‘हाँ चाची, घर की याद आ रही है। घर जा कर देखने की बहुत इच्छा हो रही है।’’
‘‘चली जा रमकली, मन बदल जायेगा। मेरी चिन्ता मत करना।’’

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‘बायाँ और दाहिना हाथ…’
भूत बच्चे के कंधे से अलग हुए बायें हाथ को जो बबूला ने आगबबूला होकर खिड़की से बाहर फेंक दिया था, उसे एक कुत्ता उठा ले गया। कुत्ता अपने मन से नहीं आया था। न उसकी नजर हाथ पर पड़ी थी। हाथ ही ने अपनी उँगलियाँ हिलाकर इशारे से कुत्ते का ध्यान आकर्षित किया था। जिससे कुत्ते की नज़र उस पर पड़ गई थी। इधर-उधर और भी कुत्ते खड़े थे। दूसरे कुत्तों से नज़र बचाकर मुँह में दबाये उस हाथ को कुत्ता इस तरह ले जा रहा था कि और कुत्ते रस्ते पर न मिलें।
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‘सोने के बीट…’
भूत-प्रेत की कहानी सुनाने के कारण बड़ी चाची को भूतों की तरफ से जो शुक्राना मिला था, वे हीरे थे। वे हीरे असली हैं या नकली, यह बड़ी चाची को मालूम नहीं था। पुराने ग्रन्थों में कबूतर को शान्ति का प्रतीक बताया गया है। ये कबूतर कपोत कहलाते। ‘गुटरगूँ, गुटरगूँ’ इनका मंत्रोच्चार था। सन्देश लाते, ले जाते थे। ये सब बातें उन्होंने बबूला से बताई थीं। मुट्ठी भर हीरों का शुक्राना लेते समय एक बड़ा हीरा बड़ी चाची के हाथ से गिरकर खटिया के नीचे चला गया। तभी खटिया के नीचे बैठा एक कबूतर उड़ा और खुली खिड़की से बाहर चला गया। बड़ी चाची ने बबूला से कहा,‘‘बबूला, जो गिरा है उसे उठा ले।’’
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‘कुकड़ुक कूँ और कंकड़ कूँ…’
बड़ी चाची ने बबूला को तीन बार ‘‘बबूला, बबूला, बबूला!’’ पुकारा था। तीसरी बार पुकारने पर वह हाँफता हुआ-सा आया। जैसे बहुत दूर से आया हो। आते ही उसने कहा,‘‘आ गया बड़ी चाची!’’
‘‘सो गया था क्या!’’बड़ी चाची ने कहा।
“मैंने तुमको कहीं जाने के लिये भी कहा था?” बड़ी चाची ने पूछा।
‘‘हाँ, गया था।’’ बबूला ने कहा।
बड़ी चाची की टेढ़ी उँगली के कारण, बड़ी चाची का इशारा टेढ़ा हो जाता था। टेढ़े इशारे के कारण दिशा में उलटफेर हो जाता था। बड़ी चाची को काम हुआ कि नहीं पूछने की बेचैनी होने लगती थी। चाहे उनका दिया हुआ काम दिनभर का, देर का हो। उधर, छुट्टी लेकर रमकली अपने गाँव में थी। उसे बबूला पर भरोसा था कि वह बड़ी चाची की देखभाल अच्छे-से कर रहा होगा। ॰॰॰
‘रेत की बरसात और पत्थर के ओले…’
रेत की नदी में जो रेत की बाढ़ आई थी, उसका कारण रेत की बारिश थी। बारिश में पत्थर के ओले गिरे थे और बूँदाबाँदी रेत की थी। यह प्रश्न बच्चों में उठा कि रेत की नदी है तो रेत की बारिश से रेत की नदी बनी होगी और रेत की बाढ़ भी आई, तब तो रेत की नदी में मछली भी हो सकती है! मछली थी वे तैरती भी होंगी! तैरती थीं नीचे तैरते दिखती होंगी नहीं! रेत के नीचे दिखेंगी कैसे ! नीचे नहीं तो ऊपर तैरती होंगी!
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‘नाम बदलता रहता है’
वह बहुत प्यारी छोटी बच्ची थी। चार-पाँच साल की। जब मुस्कराती तो उसके गाल में गड्डा पड़ता। बहुत बोलने वाली लड़की। बड़ी चाची के घर को आई। बड़ी चाची ने प्यार से उसे अपने पास बैठाया और पूछा,‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ और कहानी यहीं से शुरू हुई,‘‘नाम तो बता दूँगी। पर मैं अभी का अपना नाम कैसे बताऊँ?’’ उस प्यारी छोटी-सी लड़की ने कहा। ‘‘क्या तुम्हारा नाम बदलता रहता है?’’ बड़ी चाची ने पूछा। ‘‘हाँ।’’ उसने कहा। ‘‘माँ को भी अभी का मेरा नाम मालूम नहीं!’’
‘‘मैं समझी नहीं।’’ बड़ी चाची ने कुछ परेशान होकर कहा। बड़ी चाची को बच्ची से बात करना बहुत अच्छा लग रहा था। रमकली और बबूला को भी। ‘‘अभी का नाम मालूम नहीं तो तभी का नाम बता दो।’’
“मैं इस तरह, न अभी का नाम बता सकती हूँ न तभी का।’’ बड़ों की तरह जैसे उसने कहा।
एक पहेली की तरह बच्ची से बात करना पड़ रहा था। बच्ची से उसका नाम जानना कठिन और एक पहेली जैसा था। पर, जानने की कोशिश में और पूछते तो बच्ची का जवाब वहीं लाकर खड़ा कर देता, जहाँ पहले थे।
रमकली ने खुशामदी तरीके से कहा, ‘‘काहे तंग करती हो, बिटिया। बता दो ना।’’
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‘तीनों नाम कौन से कान में बताये, दाहिने या बायें’
बड़ी चाची से दूसरे दिन रमकली ने पूछा,‘‘बड़ी चाची, बच्ची ने तीन नाम आपको बताये थे। हमको भी बता दीजिये।’’
बड़ी चाची ने कहा,‘‘हाँ बता देंगे। बबूला को भी बुला लो।’’
बबूला को रमकली ने पुकारा तो बबूला भागता चला आया।
रमकली ने बबूला को बताया कि बड़ी चाची कल वाली बच्ची का नाम बताने वाली हैं। बड़ी चाची ने कहा,‘‘कुछ देर रुक। कोई जल्दी नहीं है।’’
बबूला ने कहा,‘‘कल देर रात तक मैं सोच रहा था कि बड़ी चाची को जो तीन नाम लड़की ने बताये बहुत सुन्दर होंगे। पहला, दूसरा और तीसरा भी।’’
‘‘बताती हूँ। पहला भी, दूसरा भी और तीसरा भी। मेरा चश्मा कहाँ है?’’ बड़ी चाची ने कहा। रमकली ने बड़ी चाची को चश्मा दिया। सोचा कि बड़ी चाची ने नाम बताने के पहले चश्मा क्यों माँगा। उन्होंने नाम को कहीं लिख तो नहीं रखा कि भूल न जायें। पर बड़ी चाची चश्मे के बहाने याद करने के लिए समय चाह रही थीं कि तब तक नाम याद आ जाये। वे असल में बच्ची के तीनों नाम भूल गयी थीं। सबका ध्यान बच्ची के हाव-भाव, भोले और नटखटपन पर रहा और वो नाम को याद नहीं रख सके। अन्त में बड़ी चाची ने कहा, “मैं भूल गयी। सबके सामने जोर-से कह के नाम बता देती तो किसी न किसी को याद रहता। क्योंकि सब सुन लेते। पर मेरे कान में नाम बताया और अब मैं भूल गयी।’’
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यह विनोद कुमार शुक्ल कृत पुस्तक ‘कहानियाँ जो शुरू नहीं हुईं के अंश हैं।

पुस्तक में दस कहानियाँ हैं। पाठक इन्हें अलग-अलग कहानियाँ भी मान सकते हैं। यह भी कह सकते है किसी साल के कोई दस महीने हैं। ऐसे दस महीने जो एक-दूसरे से अलग हैं। लेकिन इनद स महीनों में दिन-रात एक जैसे हैं। कोई शाम ज़्यादा ठंडी हो सकती है तो कोई दिन बहुत ज़्यादा गरम। घर में किसी बच्ची के अलग-अलग खिलौने भी हो सकते हैं। जिनसे खेलने के बाद वह उन्हें अपनी फ्रॉक से ढक देती है। किसी पाठक को यह एक उपन्यास भी लग सकता है जिसके दस छोटे-छोटे भाग हैं। पाठकों को बड़ी चाची बहुत दिलचस्प लगेगी। रहस्यमयी भी।

चाची को गठिया है और वह दशकों से बिस्तर पर पड़ी है। वह कहानियाँ सुनाती हैं। चाची के अलावा रमरती पाठकों को पसंद आएगी। वह एक तरह से बड़ी चाची की सेविका है। विनोद कुमार शुक्ल पहली ही कहानी से ऐसा रहस्य बुन लेते हैं कि पाठकों को रमकली और बड़ी चाची दोनों भूतनी लग सकती हैं। बहुत सारे बच्चे कहानियाँ सुनने आते हैं। उन्हें क्या समझें? यह अपनी-अपनी समझ का मामला है। बड़ी चाची के घर में कबूतर भी हैं। सोने की बीट करने वाला कबूतर भी है। सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी भी है। बिल्ली भी आती है। एक गुलेल भी है। बेर हैं। बेर की गुठलियाँ हैं। कुत्ता है। तैरने वाले पंख से उड़कर आने वाली मछली भी है। ऐसी मछली जो मोती उगलती है। एक बार दस दिन की छुट्टी लेकर रमकली अपने घर जाती है लेकिन अगले ही दिन आ जाती है। फिर एक बार वह चली ही जाती है। रमकली बड़ी चाची की देखभाल करने के लिए एक लड़का रख देती है। लड़के का नाम बबूला है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती जाती है और भी आनन्द पाठकों को आने लगता है। भूतों की बातें चलती रहती हैं। कुछ ऐसा परिदृश्य बनता जाता है लगता है सभी पात्र भूत-प्रेत हैं। कहानी सुनने आने वाले बच्चों की गतिविधियाँ भी रहस्यमयी हैं। पाठक किताब के आखिरी पन्ने की आखिरी पँक्ति को पढ़ने के बाद यह भी सोच सकता है कि बस! खत्म हो गई कहानियाँ? फिर उसे याद आता है कि अरे! किताब का नाम ही है-कहानियाँ जो शुरू नहीं हुईं।


और हाँ! किताब के अंशों को पढ़ते-पढ़ते यहाँ तक आने वाले पाठकों के लिए एक खास बात यह है कि किताब के भीतर की दस कहानियों के यह आरम्भिक अंश हैं। पाठक समझ सकते हैं कि एक लेखक दस कहानियों का आरम्भ दस अलग तरीके से कैसे कर सकता है! सब एक-दूसरे से अलहदा। है न?


हिंदी साहित्य में विनोद कुमार शुक्ल जादुई यथार्थ का नीड़ बुनने में माहिर हैं। वह कल्पना, यथार्थ और अपने अनुभवों के तिनकों को साहित्य में ऐसे पिरोते हैं कि एक खूबसूरत चमकीला आकार पाठक की आँखों में चमक पैदा करता है। पढ़ते-पढ़ते पाठक विनोद कुमार शुक्ल की करीने से तैयार की दुनिया का हिस्सा हो जाना चाहता है। चाहता नहीं उस दुनिया का हिस्सा हो जाता है। वह किस्सों में जीवन की सच्चाई, कड़ुवाहट और झंझावतों का ऐसा छौंक लगाते हैं कि अहसासातों का ज़ायका मन-मस्तिष्क में लम्बे समय तक बना रहता है। कई बार वह कहानियों में ऐसी जादुई दुनिया बुनते हैं जो होती नहीं, लेकिन होती हुई दिखाई देती है।


उनका लेखन खासकर गद्य पढ़ते हुए पाठक चाहता है कि काश ! दुनिया ऐसी हो जाए। वह यथार्थ में कल्पना का ऐसा मिश्रण भी करते हैं कि पाठक को कहानी कोई काल्पनिक किस्सा नहीं, सच्ची घटना लगने लगता है। पढ़ने वाले को उसके आस-पास का घटित वाकया-सा लगता है। उनका गद्य इतना सुन्दर होता है कि पढ़ते-पढ़ते पाठक कल्पना लोक में भी विचरण कर आता है। साहित्य कल्पना और यथार्थ का मिश्रण ही तो होता है। जो है उसे पाठक के सामने रखना, जो था, उसे भी सामने लाना और जो होना चाहिए, उसे भी तो दुनिया के सामने रखना रचनाकार का दायित्व है। तार्किकता, तथ्यात्मकता और सच का आइना दिखाने वाला रचनाकार भविष्यदृष्टा भी होता है। वह भविष्यवाणी में यकीन नहीं करता लेकिन कल और आज की घटनाओं-बातों और अनुभवों के आधार पर वह आने वाले कल का एक खाका खींचने में सिद्धहस्त तो होता ही है। पक्के तौर पर विनोद कुमार शुक्ल ऐसे ही साहित्यकार हैं।


विनोद मानते हैं कि इंसान उड़ नहीं सकता। लेकिन वह उड़ने की कल्पना तो कर ही सकता है। यथार्थ की सपाट बयानी साहित्य नहीं हो सकता। ज़िंदगी में यथार्थ के साथ जो दुख-परेशानी आती है तो इंसान अपने करीबी से अपना दुख व्यक्त करता है। करीबी की ओर से मिलने वाला दिलासा भी तो अपने आप में फैंटेसी है। किसी के यह कहने से कि सब ठीक हो जाएगा, कई बार वह कभी ठीक भी नहीं होता। लेकिन यथार्थ से लड़ने की जो ताकत दिलासा, सांत्वना और ढाढस बँधाने से मिलती है, वह बड़ी बात है। यह साहित्य में आए तो यह बड़ी ताकत के तौर पर पाठक को मिलती है।


विनोद कुमार शुक्ल का हिन्दी साहित्य बहुत विपुल है। बाल पाठकों को ध्यान में रखकर उन्होंने जो लिखा है वह भी अपने आप में अनूठा है। अलहदा है। बाल साहित्य में उनकी कृतियों में ‘गमले में जंगल’, ‘एक कहानी’, ‘घोड़ा और अन्य कहानियाँ’, ‘तीसरा दोस्त’, ‘गोदाम’, ‘पेड़ नहीं बैठता’ और ‘बना बनाया देखा आकाश’ बहुत मशहूर हुई हैं।
कहानियाँ जो शुरू नहीं हुईं के कुछ अंश जो बहुत ही प्यारे हैं। ठहरकर सोचने को बाध्य करते हैं। बाल पाठक भी सोचने के लिए ठहरते हैं। मुस्कराते हैं। इन अंशों के नयेपन की खु़शबू चखते हुए वह आनंदित होते हैं।

कुछ अंश-


‘बड़ी चाची कहती थीं कि भूत-प्रेत भी उनकी कहानी सुनने आते हैं और लोगों को कैसे डरायें, ये सीखते हैं। पर तुम बच्चे लोग डरना मत। तुमको नहीं डरना सीखना है। चाहे तुम को कोई कितना भी डराये। डरे कि हारे।’


‘रमकली, सोचती हूँ कि भूत-प्रेत के भी अपने घर होते होंगे! उनका मन भी अपने घर लौट जाने का होता होगा। इधर-उधर भटकते रहते हैं। उनको तो किराये से घर लेने की ज़रूरत भी नहीं होती होगी। जहाँ मन होता है रह जाते होंगे!’


‘बबूला ने उसका एक हाथ खिड़की से बाहर फेंक दिया, जो बायाँ हाथ था। उसने दाहिने हाथ से अपने सिर को उठाया और सिर को सिर की जगह रखकर खिड़की के रास्ते भाग गया। बायाँ हाथ भी भागता हुआ उसके पीछे था।’


‘कबूतर ने दाना चुगते समय बहुत बीट किया था। आश्चर्य था कि उनके किये हुए बीट सोने और चाँदी के थे। सोने के बीट बड़े कबूतर के थे। चाँदी के बीट बच्चे कबूतर के थे। बड़े हो जाने पर सोने के बीट करते होंगे। ऐसा बड़ी चाची ने उनके जाने के बाद सोचा।’


किताब वर्गाकार है। आवरण पेड़ बेहद-बेहद मजबूत है। भीतर के पन्ने भी बहुत मोटे हैं। पहले पाठक बच्चे हैं। यह ध्यान में रखा गया है। चित्र इतने आकर्षक है कि बार-बार देखने का मन करता है। चित्र सीधे-सपाट नहीं है। बोलते हुए हैं। ऐसा लगता है कि अभी चल पड़ेंगे। चित्रकार देबब्रत घोष ने बड़ी चाची का रेखाचित्र चित्रों में ही उकेर दिया है। बबूला और कहानी सुनने आए बच्चे भी जीवंत बन पड़े हैं।


किताब: कहानियाँ जो शुरू नहीं हुईं
लेखक: विनोद कुमार शुक्ल
चित्र: देबब्रत घोष
विधा: कहानी
मूल्य: 185
पृष्ठ संख्या: 48
प्रकाशक: जुगनू प्रकाशन
प्रकाशन वर्ष: फरवरी, 2024
फोन: 011 41555444418/41555428


प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’
सम्पर्क: 7579111144

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By manohar

One thought on “विनोद कुमार शुक्ल: कहानियाँ जो शुरू नहीं हुईं”
  1. विनोद जी का नाम बहुत सुना है लेकिन पढ़ने का मौका नहीं लग पाया है। पुस्तक पढ़ने की कोशिश रहेगी।

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