-मनोहर चमोली ‘मनु’
इन दिनों व्यंग्य के नाम पर दूसरों की खिल्ली उड़ाना और नीचा दिखाना एक शगल बन गया है। व्यक्तिपरक और जातिगत व्यंग्य के नाम पर केन्द्रित पाठक क्षोभ और तनाव से भर जाता है। व्यंग्य का यह आशय कदापि नहीं होता। व्यंग्य विधा में लिखना एक जिम्मेदारी भरा दायित्वबोध है। यह हर किसी के वश की बात नहीं। हम सब अवगत ही हैं कि वह रचना ही व्यंग्य की कसौटी पर खरी उतरती है जो पाठक के मन को प्रफुल्लित कर दे। मन को गुदगुदा दे। मात्र फूहड़ मनोरंजन करना व्यंग्यकार का मक़सद नहीं होता।


इस लिहाज से रमेश चन्द्र जोशी के पास प्रभावी नज़र है। विचार है। रचनाकर्म के लिए उर्वर भाव-भूमि है। इस संग्रह को पढ़कर मैं कह सकता हूँ कि व्यंग्यकार समाज में व्याप्त अव्यवस्थाओं, कुपरंपराओं और नए चलन से व्यथित है। चूंकि वह शिक्षक हैं। इसलिए भी वह साहित्यिक विधाओं के जरिए सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, आर्थिक आदि क्षेत्रों में मौजूद हालातों को रोचक और हास्यबोध के साथ प्रस्तुत करना सहज समझते हैं। यह उचित भी है।


मैं कह सकता हूँ कि रमेश में एक कुशल व्यंग्यकार है। उन्हें इसे खूब विकसित करना चाहिए। वह जिस सादगी से मिथ्यावाद, पाखण्ड और दिखावे को रखते हैं वह गुस्सा नहीं दिलाता बल्कि जिम्मेदारी का बोध कराता है। वह प्रहार या आक्रामक नज़र नहीं आते लेकिन सलीके से धौल जमाते ज़रूर नज़र आते हैं। पढ़ते-पढ़ते ज़िम्मेदार पाठक कभी आक्रोश से भर उठता है तो कई बार पीड़ित भी हो जाता है। कई बार क्षोभ से भर उठता है। कई बार पात्रों से सहानुभूति व्यक्त करने को आतुर हो जाता है। कहीं न कहीं समाज में व्याप्त और तेजी से पैर पसार रही विसंगतियों के प्रति पाठक भी स्वयं को कसूरवार समझने लगता है। वह तथाकथित उन व्यंग्यकारों की तरह समाज के पात्रों पर सीधे हमला करते हुए तत्पर नहीं रहते। लेकिन वह अपनी भाषा शैली की वजह से इतना असर तो पैदा करते ही है कि-‘कोई तो है’, ‘कोई है जो देख रहा है’ हर गलत कार्य करते समय जैसे हमारी अन्तरात्मा हमारे भीतर यह भाव पनपाती है। ऐसा ही पाठकों को यह व्यंग्य संग्रह पढ़ते हुए आभास होता है।


पात्र और परिस्थितियां इस यथार्थवादी समाज की ही हैं। एक बात ओर रमेश सुधारवादी नज़रिया रखते हैं। उन्हें समाज की गंदगी दिखाई भी देती है और वह उस गंदगी को साफ करने वालों के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं। बहुधा वह सकारात्मक सोच रखते हैं और विसंगतियों को अंतहीन समस्या के तौर पर नहीं देखते। उनका चिंतन मूल्यों की रक्षा चाहता है। वह चाहते हैं कि व्यक्ति और समाज का पतन न हो। वह मात्र बौद्धिक जुगाली नहीं करते। उनकी बौद्धिकता उनके अनुभवों से उपजी है और निश्चित तौर पर इस व्यंग्य संग्रह को पढ़ते हुए पाठक उसका सम्मान अवश्य करेगा।


प्रस्तुत संग्रह में खर्राटे, अथ….मेट्रो कथा, लेखक की जमात में….,मेहंदी, मोबाइल महिमा, सम्पर्क में क्रान्ति, घूमिए, सेहत बनाइए और…, दुनिया आपकी मुट्ठी में, मॉर्निंग वॉक पर कुत्ते, आसान राह, प्रसिद्धि बेमिसाल, सपने…., कुर्सी और पॉवर, अपने तो अपने हैं….पहुँच, आखिर कब तक…, खींचतान, संयोग, साहसिक यात्रा, परेशानियां उन्नीस व्यंग्य हैं।


रमेश चन्द्र जोशी उन विषयों पर भी लिखते हैं जिन पर खूब खिल्लियाँ उड़ाई जाती रही हैं। लेकिन रमेश का इरादा कुछ ओर है। वह मूर्त और अमूर्त के साथ जो सामंजस्य बिठाते हैं वह काबिल-ए-गौर है। वह किसी को अपमानित करते नज़र नहीं आते। लेकिन बेहद सूक्ष्म काँटा ज़रूर चुभोते हैं। एक बानगी आप भी पढ़िएगा-


‘कुर्सी है बड़ी महान चीज। जो इस पर विराजमान हो जाता है वह साक्षात मानो स्वर्ग से अवतरित होकर आया है। जब तक वह कुर्सी पर चिपका रहता है इस बात का ध्यान रखता है कि जनता से दूरी बनाए रखे ताकि उसे यह लगातार महसूस होता रहे कि ये बाकी सारे लोग उससे जुदा हैं। कुर्सी वाला जब अपने आसन में सुसज्जित होता है तो उसे वहाँ से सारा संसार बहुत सूक्ष्म दिखाई देता है। इसी कारण उसे अपने आसपास के अधिकांश लोग तो नजर ही नहीं आते, जब लोग नजर की नहीं आयेंगे तो फिर उनके दुख-दर्द को कैसे महसूस किया जा सकता है? उनकी समस्याओं से कैसे दो चार हुआ जा सकता है? उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे हो सकती है? उन्हें किन चीजों की जरूरत है, इसे कैसे समझा जा सकता है ? लोगों के कहने से क्या होता है? उनको लोगों की समस्याएं दिखनी भी तो चाहिए तभी तो उनका समाधान निकल पायेगा।’

व्यंग्य कहीं न कहीं ताना कसने वाली विधा नज़र आती है। लेकिन यह किसी मुँह फट की मानिंद नहीं है। यह विधा तो ऐसे अपना असर कर जाती है जैसे की-बोर्ड पर कौन-सी अँगुलियाँ कब किसी वर्ण पर पड़ती है और कब एक शब्द बन जाता है। यानि रोचकता का दामन न छोड़ा जाए और सीधे किसी के गाल पर थप्पड़ भी न जड़ा जाए। मैं कह सकता हूँ कि रमेश यह काम बखूबी करते हैं। वह सीधे मुँह किसी से भिड़ना भी नहीं चाहते। लेकिन अपनी उपस्थिति का अहसास करा देते हैं। आप भी महसूस कीजिएगा-


‘किसी के कहने से कोई फर्क नहीं पड़ता है वरना इतने बड़े देश में लोग रोज न जाने क्या-क्या कहते हैं। कोई किसी की सुन रहा है क्या? कितने लोग अपने अधिकारों के लिए रोज कहते हैं, कोई अमल हो रहा है क्या? कितने लोग जो जून की रोटी के लिए फरियाद कर रहे हैं, कोई उनकी माँग पर गौर कर रहा है क्या? मनचले लोगों को समझाते – समझाते थक गये हैं लोग, किसी की कान में जूँ रेंग रही है क्या? कहने का एक ही महत्वपूर्ण फायदा है कि आप अपने मन की भड़ास निकाल सकते हो ताकि में कुछ देर आपको थोड़ा सुकून महसूस हो सके और आज के इस दौर कुछ देर के लिए आपका तनाव थोड़ा कम हो जाए। सन्त महात्माओं की न जाने कितनी पीढ़ी लोगों को समझाते – समझाते समाप्त हो गयी, कोई टस से मस हुआ क्या?’


आज हमारी साक्षरता दर लगातार सम्पूर्ण साक्षरता की ओर बढ़ रही है। लेकिन हम जितने शिक्षित होते जा रहे हैं उतने ही स्वार्थी भी हो रहे हैं। हम अपने घर में अपने परिवार में सिमटते जा रहे हैं। एक सामाजिक आचरण में जो कुछ भी अटपटा लगता है देखते-समझते हुए भी मौन साध ले रहे हैं। आधुनिकता के नाम पर जो दिखावा है उसे सम्मान की नज़र से देखते हैं और सभ्यता के नाम पर जो बेढंगापन है उस पर कुछ नहीं बोलते। लेकिन रमेश चुप नहीं रहते। वह अव्यवस्थाओं को देखकर विचलित भी होते हैं और उनका मन व्यथित भी होता है। वह अपनी सीमाओं में रहते हुए प्रतिकार करते हैं। वह अर्जित अनुभवों के माध्यम से समाज को भी परिचित कराते हैं। आप रमेश की भावनाओं को कुछ इस प्रकार समझ सकते हैं-

‘आदमी खुले में शौच नहीं करता और यदि करता भी है तो सबकी नजरें बचाकर कहीं एकान्त में हल्का होता है। चूँकि कुत्ता भी आदमी के साथ रहता है तो उसने भी उसके कई गुण सीख लिए इसलिए कुत्ते भी सुबह-सवेरे मौका मिलते ही चौका लगाने में नहीं चूकते। यदि आदमी कहीं पर खुले में हग रहा होता तो न जाने कितने लोग उस पर गुड़ खाकर सवार हो जाते पर कुत्ते से कौन क्या कहे। कहावत तो आपने सुनी होगी ‘अपने घर में तो कुत्ता भी शेर होता है।‘ कुत्ते के लिए जहाँ मालिक वहीं उसका घर। तो ऐसे में कौन क्या कह सकता है। इस मामले में तो पालतू कुत्तों से आबारा कुत्ते भले, किसी को यह भी पता नहीं चलता कि बेचारे अपने नित्यकर्म से कब फारिग होते होगें, कभी-कभार गाड़ियों के टायर में शु-शू करते भी पकड़े गये तो उनकी खैर नहीं।’


रमेश मात्र कटाक्ष करना ही नहीं जानते। वह जानते हैं कि बाज़ार कितना ताकतवर है। इस मुए बाज़ार ने आदमी की भावनाओं को भी सीमित कर दिया है। वह मानवीय से अधिक यांत्रिक हो गया है। उनके पास इस बात को रेखांकित करने के ठोस अनुभव है। वह उसे इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि पाठक अपने भीतर आ रहे बाज़ारी बदलाव को महसूस करने लगता है। चेतता भी है और चेता भी सकता है। आप भी चेतिएगा-


‘सिग्नल जाने में आजकल लोगों को इतना दुख होता है जितना शायद किसी भूखे को उसके हाथ से निवाला छीनने पर भी नहीं होता होगा। वैसे तो आज बाजार में प्रतिद्वन्द्विता का बोलबाला है, एक ही चीज के कई विकल्प मौजूद हैं। आप अपनी सुविधानुसार इनका प्रयोग कर सकते हैं। इण्टरनेट में भी लोगों ने अपने पास सभी विकल्प रखे हैं यदि एक में सिग्नल प्रोब्लम होती है तो तुरन्त दूसरा चालू हो जाता है। यह अलग बात है कि सारे मोबाइल नेटवर्क वालों ने दूरदर्शन के चौनलों की तरह विज्ञापनों के लिए ठीक एक ही समय जैसे निर्धारित किया है वैसे ही रणनीति बनाकर एक साथ सिग्नल गायब करने की योजना इण्टरनेट ने बना ली तो ऐसे में क्या किया जा सकता है। आप टी.बी. देखते समय बार-बार जिस प्रकार विज्ञापनों को झेलने के लिए लाचार होते हैं उसी प्रकार कभी-कभी आप मोबाइल नेटवर्क के भी शिकार हो सकते हैं। वो एक-एक पल, एक-एक लम्हा कैसे गुजारा, यह तो भुक्तभोगी लोग ही जानते हैं। नेटवर्क की समस्या के दौरान उस गोले को देखते-देखते आपकी आँखें शून्य में खो जाती हैं तब आपको अहसास होता है कि दुनिया वास्तव में गोल है। इस व्यथा के बारे में जितना कहा जाय, कम है। इण्टरनेट गायब होने पर कितना कष्ट और वेदना होती है उसका वर्णन करना असंभव है।’

़़ उपभोक्तावाद की संस्कृति के साथ दिखावे की संस्कृति भी रमेश की नज़र में है। वह जानते हैं कि देखा-देखी हम भदेस भारतीय कई बार अर्थ का अनर्थ भी कर डालते हैं। वो कहते हैं न कि यहां हर मरीज अपने आप में डॉक्टर भी है। जो दूसरे मरीज को देखने जाता है और दस-एक सलाह भी दे डालता है। बहरहाल, वह हौले से हमें सावधान भी करते हैं। वह यह बताना भी नहीं भूलते कि पाठकों अपना पथ अपने आप चुनो। अपनी सामर्थ्य भी देखिए और ज़रूरत भी। आप भी स्वयं को खगालिएगा-

‘घनी आबादी से दूर प्रकृति की गोद में पेड़ों के नीचे टहलना, उछलना-कूदना, व्यायाम करना लोग पसन्द करते हैं। आबादी से दूर जंगली जानवर भी समय-समय पर अपना हक जताने के लिए आते रहते हैं। बाघ का नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं परन्तु घूमने के लिए लोग इतना बड़ा रिस्क भी आसानी से ले लेते हैं। हाथ में डंडा थामे मानो किसी जंग में जा रहे हों सुबह – शाम । वैसे तो घूमने के लिए जाने का मकसद स्वास्थ्य लाभ है और इसी के लिए सुबह-शाम इतनी हाय-तौबा लोग करते हैं परन्तु चलते-चलते दो-चार लोग तो रास्ते में मिलते रहते हैं ऐसे में थोड़ा बन-सँवरकर जाना लाजमी भी है वरना लोग न जाने क्या सोचेंगे। बनते-सँवरते समय कोई यह भी नहीं सोचता है कि लोगों के पास इतना सोचने-समझने का टाइम ही कहाँ है, हां स्वयं के लिए यह जरूर महत्वपूर्ण है।’

रमेश भी इस बात से भली-भाँति परिचित हैं कि मोबाइल ने भले ही दुनिया को मुट्ठी में किया हो या न किया हो। लेकिन यह बात तो तय है कि इस मोबाइल में अपनी जरूरत को प्राथमिक बना दिया है। हां इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि लोग घर में रहते हुए भी बेघर से क्यों होते जा रहे हैं? वह एक साथ कई बातों की ओर इशारा करते हैं। वह इशारा पाठक ज़रूर समझ लेंगे। क्या आप उन इशारों की नोक को देख रहे हैं? देखिएगा तो-


‘लोग अपनी हर गतिविधि को अपने मोबाइल में कैद करना चाहते हैं। वे अपने द्वारा किए गये हर क्रियाकलाप को लोगों तक भी पहुँचाते हैं। रोज सेली के नए-नए तरीके खोजे जा रहे हैं। कैसे अपने आपको और अपने कार्यों को प्रभावी और आकर्षक बनाया जाय लोग अपना सारा समय इसी में व्यतीत कर रहे हैं। आप का व्यक्तित्व कैसा है, आप समाज के लिए कितना महत्वपूर्ण काम कर रहे हो, इससे आपको कोई लेना-देना नहीं, बस फोटो और वीडियो सुन्दर, आकर्षक और मंत्रमुग्ध करने वाली हो। कई लोगों में इस प्रकार की प्रतिभा फेसबुक या व्हाट्सएप या कोई और सोशल नेटवर्किंग साइट पर देखी भी जा सकती है। जिन लोगों में नहीं है वे धीरे-धीरे प्रयास कर रहे हैं कि इसमें उनको भी महारत हासिल हो जाए। ये तो मोबाइल के बारे में विज्ञापन मात्र है विस्तारपूर्वक फिर कभी…….’
रमेश समाज में नित नए फैशन और ट्रेण्ड से भी वाक़िफ़ हैं। वह कटुता नहीं फैलाते। अपितु मुदित हास्य पैदा करने में सफल होते हैं। दबे पाँव वह यह बताने में सफल हैं कि हर बहती हवा सुगंधित नहीं होती। यदि मन की खिड़कियाँ खोलनी हैं तो ज़रा सोचकर। ज़रा समझकर। ज़रा सावधानी से। क्या आप सावधान हैं। सावधान हो जाने का स्वर आपको भी सुनाई दे रहा होगा। सुनिएगा-

‘विकट समस्या तो तब पैदा हो रही है जब छोटे-छोटे बच्चे भी अपने अच्छे खासे बालों को इन्द्रधनुष बनाकर बहुरंगी छटा बिखेर रहे हैं। कई ऐसे नौजवान आपको सर्वत्र दिख जायेंगे जिनको आप किसी प्राथमिक स्तर की कक्षा में ले जाकर आसानी से रंगों का ज्ञान करा सकते हैं। कला के शिक्षक इसका शिक्षण में उपयोग आसानी से कर सकते हैं। एक ही के सिर में आपको सारे रंग नजर आ जायेंगे। विरोधी रंगो की पहचान हो या अष्टचक्र बताना हो या कुछ और यह तकनीक काफी प्रभावी हो सकती है। अपने स्कूली दिनों में हम लोग पास होंगे या फेल इसके लिए अपने स्थान से ग्यारह कदम रास्ता नापकर उस जगह बाल ढूढते थे और यदि काला बाल मिला तो पास और सफेद मिला तो फेल। कई बार यह सच भी होता था। यह टोटका आज के जमाने में आजमाया जाय तो कोई फेल नहीं होगा शत-प्रतिशत पास क्योंकि अब तो सफेद बाल आपको मिलेगा नहीं इसलिए सब पास। आजकल प्रारंभिक कक्षाओं के बच्चे इसलिए तो फेल नहीं होते। जब तक आपकी तर्कशक्ति विकसित नहीं होती आप सभी पास ही पास होते हैं। कुल मिलाकर मेहन्दी लगाने से अब फेल होने का खतरा भी टल गया है। यद्यपि यह मात्र एक संयोग है पर संयोग भी ऐसे ही थोड़े बन जाते हैं।’
पता नहीं किसने कहा है लेकिन जिसने भी कहा है वह कई बार सोचने पर बाध्य करता है। कहते हैं कि कोई भी पत्थर उठाओ। मेढक मिले न मिले,साहित्यकार ज़रूर मिल जाएगा। यह भी कि सड़क पर चल रहे झुंड पर जितनी बार पत्थर उछालोगे सिर हमेशा साहित्यकार का ही होगा। इन दिनों एक बात तो यह खूब उछल रही है कि लोग पढ़ना नहीं चाहते। लेकिन यह बात भी उतनी ही सही है कि एक दिन में यदि एक हजार चार सौ चालीस मिनट होते हैं तो इतनी ही पुस्तकों का हर रोज लोकार्पण या विमोचन आदि हो रहा है। खू़ब साहित्यकार फल-फूल रहे हैं। रमेश क्या कहते हैं-


‘कभी-कभार कुछ साहित्य के पारखी लोगों से पुस्तक पढ़ने के लिए माँगना भी आपको इनके करीब ला सकता है। आप एक निर्धारित अवधि जिसमें कि आपको लगता है कि इतने समय में इसे पढ़ा जा सकता है, उसे बिना पढ़े बाइज्जत लौटा दीजिए। हां इस बात का ध्यान रखना होगा कि उन महाशय के कुछ पूछने से पहले ही काफी अच्छी लगी, कहना पड़ेगा, साथ ही समय की कमी का बहाना भी बनाना पड़ेगा ताकि बात आगे न बढ़ सके। कभी गलती से एकाध रचनाएं किसी काम चलाऊ पत्र-पत्रिका में छप गयी तो उनको साथ रखना न भूलें ताकि आप अपने को लापरवाह साबित करते हुए कह सकें, ‘‘पता नहीं मैं तो ध्यान ही नहीं देता कहाँ-कहाँ मेरी रचनाएं छपी।” इस तरीके से आप कामचलाऊ लेखक का दर्जा हमेशा प्राप्त करते रहेंगे। पढ़ना तो है नहीं फिर भी कुछ समकालीन और पुराने लेखकों के नाम आपकी डायरी में नोट होने चाहिए ताकि विपरीत परिस्थिति आने पर आप अपने आप को बचा सकें। वैसे इस प्रकार के लोगों में यह टेलेंट तो होता ही है कि वे समयानुसार अपना बचाव कर सकें।’

आपने भी मेट्रो में सफ़र किया होगा। कुछ दिनों पहले मैंने किसी चित्रकार का मेट्रो के भीतर का बनाया हुआ चित्र देखा था। वाह! मेट्रो के एक डिब्बे में जैसे पूरी दुनिया समा गई हो। यानि विविधता से भरे लोग। विविधता से भरे कपड़े-रंग। मुद्राएं। भाव भी। लेकिन रमेश मेट्रो के सफर को किसी ओर नज़र से देखते हैं। आप भी अपने अनुभव याद कर सकते हैं-

‘निजात पाने में सफल हुए है। यदि आप शादीशुदा हैं और अपने घर में बेवजह कलह को पैदा नहीं करना चाहते तो आपको शुरूवाती दिनों में मेट्रो में सफर करने में अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी। जब आप शाम को मेट्रो से घर वापस लौट रहे होंगे तो आपसे इत्र की महक आ रही होगी, ऐसे में एक पतिव्रता पत्नी या पत्नीव्रता पति का आप पर शक करना स्वाभाविक ही नहीं बल्कि जरूरी भी है। यह बात केवल आपको पता है कि आप किसी से गले नहीं मिले बल्कि आपको जबरदस्ती कितनों ने फुटबाल बनाया। आप पाकसाफ हैं पर उस समय आप कुछ नहीं कर पाओगे। थोड़ा मुश्किल जरूर है पर अच्छा तो यही होगा कि जाते समय थोड़ा सा इत्र अवश्य लगाया करो ताकि शक की कोई गुंजाइश न रहे। फिर आप कितनी भी रगड़ खाकर आओ घर के पंगे से बच सकते हो। मेट्रो की कहानी बहुत लम्बी है, बाकी बातें फिर कभी ….’


अभी कल की ही बात है। ़़सहकर्मियों के साथ बात चल रही थी। यही कि किसी को जीते जी मारना हो तो उसे खर्राटे लेने वाले के साथ सोने का बाध्यता कर दें। वह चार दिन में ही पगला जाएगा। लेकिन समाज में ऐसे पति-पत्नी हैं यार। जिनमें एक खूब खर्राटे लेता है। जीवन बसर तो करना ही पड़ता है। लेकिन रमेश के अनुभव कुछ तो हैं ही हैं। उनकी यात्रा भी की जानी चाहिए। आप इस यात्रा पर ज़रूर चलिएगा-

‘मनुष्य जीवन में अनेक कष्ट आते हैं लेकिन आज की रात मुझे खुद पर कम उन लोगों पर ज्यादा तरस आ रहा है जो आजीवन खर्राटे लेने वाले लोगों के साथ बिताते हैं। मेरी तो लोगों से एक ही सलाह है कि यदि आप अपने जीवनसाथी का चयन करते हैं तो उसके रूप-रंग और हैसियत पर चाहे ज्यादा ध्यान न दें पर नींद के दौरान उसका परीक्षण अवश्य कर लें, यह आपके जीवन में सबसे अधिक काम आयेगा। यद्यपि यह उन लोगों के साथ नाइंसाफी होगी पर इसका और कोई विकल्प भी तो नहीं है। ऐसा कहकर यद्यपि मुझे खर्राटे लेने वालों से खतरा बहुत बढ़ जायेगा पर मुझे जो यातनाएं सहनी पड़ी उसके मद्देनजर यह कहने को मजबूर होना पड़ रहा है। खर्राटे लेने वालों से इतना बड़ा खतरा हो सकता है यह किसी खुफिया एजेन्सी ने नहीं कहा है इसलिए मुझे कोई सुरक्षा भी नहीं मिल सकती पर मुझे पूरा विश्वास है कि इसमें अवश्य ही वे लोग मेरे साथ होंगे जिनके जीवन में रोज ही इस प्रकार की आपदा आती है।कवि, लेखक, शिक्षक रमेश चन्द्र जोशी का पहला व्यंग्य संग्रह ‘मॉर्निंग वॉक पर कुत्ते’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। मैं हतप्रभ हूँ कि ‘अनजाने ही सही कविता संग्रह के कवि और निरन्तर वैचारिक, भावपूर्ण समसामयिक लेखों के लेखक के पास प्रभावी व्यंग्य दृष्टि भी मौजूद है।’


कुल मिलाकर पाठकों को एक नए अंदाज़ में नया व्यंग्यकार मिल रहा है। धारदार। असरदार और जानदार भी। किताब के आवरण का चित्र तो शानदार है लेकिन संग्रह का शीर्षक और व्यंग्यकार का नाम रंग संयोजन के साथ तालमेल नहीं बिठा पाया। यह प्रकाशक की चूक मानी जाएगी। आवरण का काग़ज़ खराब है। यह पढ़ते हुए ही मुड़कर बेलनाकार हुआ जाता है। भीतर के पेज हेतु उपयोग काग़ज़ उम्दा है। किसी किताब पर अंत में एक-दो पेज कोरे छोड़े जाते हैं। लेकिन इस किताब में सात व्यंग्य के अंत में यानि बायाँ पेज छोड़ा गया है। सात पेज। जबकि नया व्यंग्य बायें पेज से आरंभ किया जा सकता था। यह प्रकाशकीय अनुभव को दर्शाता है। 112 पेज पूरे करने के लिए बीच-बीच में पेजों को कोरा छोड़ना ठीक नहीं। किसी कार्टूनिस्ट से कुछ कार्टून बनवाकर प्रत्येक व्यंग्य में एक चित्रात्मक पेज भी हो सकता था। वर्तनी दोष बहुत सर्तकता के बावजूद रह ही जाती हैं। जिसे हम टंकण त्रुटि में शामिल कर सकते हैं। लेकिन दुनिया को दुनियां लिखना उचित नहीं लिखता। वह भी शीर्षक में तो और भी अखरता है। माना कि हमारी दुनिया का चाँद है। यह भी मान लेते हैं कि हमारी दुनिया जो एक ही ही है पर संभव है कि इस सम्पूर्ण अंतरिक्ष में और भी दुनिया हो तब भी दुनियां प्रमाणित शब्दकोश का हिस्सा नहीं है।

रमेश जी के पास भाव है। बोध है। दायित्व की निगाह भी है। वह चाहते तो हर व्यंग्य को छोटे-छोटे अनुच्छेदों में बुन सकते थे। यह उनके लिए कठिन नहीं है। प्रकाशक को भी इस बात का खयाल रखना चाहिए था।


पुस्तक: मॉर्निंग वॉक पर कुत्ते
विधा: व्यंग्य संग्रह
व्यंग्यकार: रमेश चन्द्र जोशी
मूल्य: 175
पृष्ठ संख्या: 112
प्रकाशक: न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन
आकार: डिमाई (8.5 बाई 5.5)
प्रकाशक से सम्पर्क: 8750688053
संस्करण: 2022
प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’

Loading

By manohar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *