जगमोहन बंगाणी की कूची से बनी पेंटिंग्स भारत से बाहर स्पेन, कोरिया, इंग्लैंड, जर्मनी जैसे देशों में उपस्थित हैं। कला के पारखी समूची दुनिया में हैं और वे अपने घरों-कार्यालयों में रचनात्मकता को भरपूर स्थान देते हैं। बंगाणी मानते हैं कि कला आपके अपने अनुभव से आत्म-साक्षात्कार कराती है। वह स्वयं को जानने का एक असरदार साधन होती है। कला मन के भीतर चल रहे विचारों का प्रतिबिंब होती है। आप उसे बिना कहे हजारों शब्द दे सकते हैं।
कला के क्षेत्र में बंगाणी एक ऐसे चित्रकार हैं जो अभिनव प्रयोग के लिए जाने जाते हैं। लीक से हटकर अलहदा पेंटिग के लिए वह जाने जाते हैं। भारत के उन चुनिंदा चित्रकारों में वह एक हैं जो नए प्रयोग और दृष्टि के लिए प्रसिद्ध हैं। बंगाणी अब दिल्ली में रहते हैं। अलबत्ता उनकी जड़ें उत्तराखण्ड के मोण्डा, बंगाण से जुड़ी हुई हैं। हिमाचल की संस्कृति से परिचित और उत्तराखण्ड के पहाड़ में जन्मा-बीता बचपन उन्हें अभी भी प्रकृति से जोड़े हुए है। वह किसान परिवार से हैं। यह बताते हुए उनके गर्वीले मस्तक में उभरी चमक साफ देखी जा सकती है। उनकी आँखें फैल जाती हैं। उनके पास पैतृक सेब का बागीचा है। वह यह बताना नहीं भूलते।
मोण्डा उत्तराखण्ड के सुदूर जनपद उत्तरकाशी के विकासखण्ड मोरी, संकुल टिकोची का गांव है। इसी गाँव के राजकीय प्राथमिक विद्यालय में बंगाणी की प्रारम्भिक पढ़ाई हुई है। समय की विडम्बना देखिए कि छात्र संख्या के कम होने का हवाला देकर अब पच्चीस परिवारों के इस गांव का प्राथमिक विद्यालय अब बंद हो चुका है।
विविधता से भरे पेड़-पौधों के साथ हिमालयी परिवेश का असर था कि बंगाणी तीसरी-चौथी में ही कला के प्रति एक नजरिया रखने लगे थे। उनके गांव से बरनाली छह किलोमीटर दूर था। वह कला बनाने के लिए कोरी ड्राइंग कॉपियां लेने वहां जाते थे। कला करने का शौक ही था कि अपने सहपाठियों की ड्राइंग कॉपियांे पर भी वह हाथ आजमाते रहते थे। पांचवी के बाद की पढ़ाई के लिए उन्हें घर से तीन किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था। यह पैदल रास्ता पहाड़ी ढलान का था। घर लौटते हुए लगने वाला समय ड़ेढ़ घण्टा से अधिक ही रहता था। बंगाणी स्कूल से आते-जाते समय का सदुपयोग करते। वह चलते-चलते पढ़ाई संबंधी सबक़ को याद कर लेते थे। दोहरा लेते थे। वह घर पहुँचकर लिखने वाला होमवर्क करने के बाद सारा समय कला सीखने के लिए निकालते।
छह से अधिक ख्यातिलब्ध एकल प्रदर्शनी का आयोजन कर चुके बंगाणी बताते हैं कि स्कूल जाना और स्कूल में जाकर पढ़ाई करना एक अलग बात थी। स्कूल में सहपाठियों के साथ सीखना-समझना की यात्रा अन्तहीन होती है। लेकिन, स्कूल जाते समय और स्कूल से घर आने की जो पैदल यात्रा होती थी, उसने प्रकृति को गौर से देखने-समझने का मौका दिया। इस तरह आठवीं की पढ़ाई के बाद बड़कोट जाना हुआ। कक्षा नौ की पढ़ाई के साथ कला के प्रति लगाव और बढ़ा। बढ़ता ही गया।
कला के क्षेत्र में सात से अधिक जाने-माने सम्मान और पुरस्कार प्राप्त बंगाणी मानते हैं कि कला कोई धनाढ्य वर्ग का शगल नहीं है। कला का सामान्य जीवन से गहरा रिश्ता है। कला और जीवन एक-दूसरे के पूरक हैं। हमारे लिए भले ही दूसरे का जीवन आम या खास हो सकता है। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति का अपना जीवन उसके लिए आम ही होता है। जीवन सुखद और दुखद अनुभवों के साथ एक निरंतरता के साथ चलता रहता है। जिसके जीवन में कला है और कला का सम्मान है वह अपने उन अनुभवों को संजो सकता है। खुद का संवार सकता है। एक बेहतर जीवन जीने का नज़रिया दूसरों को कला के माध्यम से दे भी सकता है।
वह तीस-बत्तीस साल पीछे लौटते हैं। उन्हें अपनी स्मृतियों को सामने लाने के लिए कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ती। वह बोलते चले जाते हैं जेसे आँखों से कोई फिल्म देख रहे हों और उसका वर्णन कर रहे हों। वह बताते हैं,‘‘बड़कोट में बड़े भाई के फोटो स्टूडियो में जाने का मौका मिला। पढ़ाई के साथ-साथ फोटो खींचना, डार्क रूम में उन्हें तैयार करना। इस सब ने नये विचार भी दिए। पेंसिल स्कैच बनाने लगा। कुछ आकर्षक फोटो का पोट्रेट बनाने का शौक हुआ। जिन परिचित-अपरिचितों के फोटो के पोट्रेट बनाये जब उन्हें देता तो वह खुश हो जाते। मुझे इस काम से अपने लिए जेबखर्च मिलने लगा। मेरा हस्तलेख अच्छा था तो अब दुकानों के साइन बोर्ड बैनर आदि बनाने से भी अपनी ज़रूरतों के लिए रुपए जुटने लगे। ग्यारहवीं कक्षा में पता चला कि आइल कलर भी होते हैं। स्कूली छात्रों के चार्ट पेपर भी तैयार करने लगा।’’
बीस से अधिक कला कैंप, कला महोत्सवों और आयोजनों में बंगाणी ने कला और उसके विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका भी अदा की है। वह उस दौर के कला विद्यार्थी हैं जब सोचना, समझना और आकार देना सब अपनी आँख, हाथ और मस्तिष्क के सहारे करना होता था। रंग-कूची, काग़ज़ सहायक सामग्री होती थी। यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। लेकिन उस दौर में इंटरनेट न था। इंटरनेट नई क्रांति लेकर आया है। इंटरनेट ने देश, काल, परिस्थितियों के घेरे को तोड़ दिया है। आज कला के आयाम और माध्यम बहुत बदल गए हैं। डिजिटल कला का विकास हो गया है। आज एनएफटी कला तेजी से कलाकारों को आकर्षित कर रही है। डिजिटल संपत्ति के रूप में भुगतान बढ़ता जा रहा है।
बंगाणी बताते हैं कि कला और फोटोग्राफी आपस में जुड़े हुए हैं। एक-दूसरे के सहायक हैं। वह याद करते हैं,‘‘मेरा रास्ता यहीं से तय हुआ। हम उस दौर और परिवेश के हैं जब बारहवीं के बाद पता चला कि आर्ट कॉलेज भी अलग से होते हैं। कला से लगाव के बावजूद भी ग्यारहवीं में गणित का छात्र रहा। बारहवीं के बाद उत्तरकाशी गया। स्नातक में प्रवेश लिया।’’
बंगाणी कहते हैं,‘‘आप अपने आप ही आप नहीं बन जाते। आपको आप बनाने वालों में घर-परिवार, पड़ोस, दोस्त, अग्रजों-अध्यापकों की भूमिका होती है। छोटे-छोटे अवसर आपके कदमों को आगे बढ़ने में सहायक होते हैं।’’ उत्तरकाशी के राजकीय महाविद्यालय से स्नातक में प्रवेश ने बंगाणी को विस्तार दिया। वह पढ़ाई के लिए प्रतिबद्ध थे साथ ही छात्रावास में रहने का शुल्क भी जुटाना था। सड़कों की दीवार पर लिखने का काम हाथ में लिया। स्नातक प्रथम वर्ष में ही कॉलेज की सालाना प्रदर्शनी में बंगाणी की उनतालीस चित्रों ने उन्हें अलग पहचान दिलाई।
वह बताते हैं कि कला के क्षेत्र में दिशा देने वाले बहुत मिले। अब वे नाम बहुत हैं। एक पल में जो नाम याद आ रहे हैं, उनमें मोहन चौहान, सुनीता गुप्ता, मंजू दी, कमलेश्वर रतूड़ी, शारदा, रोशन मौर्य प्रमुख हैं। बंगाणी के हाथों की तूलिका को मात्र उत्तरकाशी में ही रंग नहीं बिखेरने थे। फिर वह स्नातक द्वितीय वर्ष के लिए देहरादून आ गए। देहरादून में व्यावसायिक काम मिलने लगा। स्वयं सेवी संस्थाओं के लिए काम मिलने लगा। देहरादून में डीएवी कॉलेज के अध्ययन ने उन्हें नए पंख दिए।
वह बताते हैं,‘‘सीखने-समझने के लिए नए-नए विचार पनप रहे थे। एक मन था कि दिल्ली जाना चाहिए। पीएचडी करनी चाहिए। कुछ छूटता तो कुछ जुड़ने लग जाता। मैं जैसे-जैसे एक कदम बढ़ाता। रास्ते दस कदम चलने का हौसला देते।’’
साल दो हजार में देहरादून के डीएवी महाविद्यालय से ड्राइंग और पेन्टिंग में परास्नातक करने के बाद उन्हें दिल्ली स्थित राष्ट्रीय ललित कला अकादमी से रिसर्च स्कॉलरशिप मिल गई। इससे पूर्व ही उन्हें दिल्ली की ऑल इंडिया फाइन आर्टस एंड क्रॉफ्ट्स सोसायटी ने उत्तराखण्ड स्टेट अवार्ड से नवाज़ा। दिल्ली में ही रहकर कुछ नामचीन प्रकाशनों के लिए चित्र बनाने का काम भी किया। खाली वक्त पर पेंटिग चलती रही। साल दो हजार पाँच से सात तक बंगाणी फोर्ड फाउण्डेशन फैलोशिप के लिए लंदन रहे। यह अंतरराष्ट्रीय फैलोशिप कार्यक्रम था। दो हजार ग्यारह से तेरह तक बंगाणी भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन जूनियर फैलोशिप में रचनाशील रहे। बंगाणी एक सवाल के जवाब में बताते हैं,‘‘कला और कलाकार का बेहद आत्मीय संबंध है। यथार्थ में और कैनवास की सतह में विषय और ब्रश स्ट्रोक कलाकार के व्यक्तित्व में भी होना चाहिए। लेकिन कई बार कलाकार अपने अनुभवों से समाज को दिशा भी देता है और भयावहता से आगाह भी कराता है। कला के लिए कलाकार की सोच और स्वयं उसका व्यक्तित्व बहुत कुछ निर्भर करता है। कई बार कलाकार स्वयं अंधेरे में रहते हुए भविष्य की टॉर्च बन जाता है जो अपने आगे रोशनी बिखेरता है भले ही उसके पीछे अंधेरा रहा हो।’’
बंगाणी बताते हैं कि जब आप एक गांव में पलते-बढ़ते हैं वह एक दुनिया हो जाती है। जब आप शहर में आते हैं तो आपकी दुनिया बढ़ जाती है। जब आप उस शहर की राजधानी में आते हैं तब आपकी दुनिया का विस्तार हो जाता है। जब आप देश की राजधानी में आते हैं तब आपको वहां से एक और दुनिया दिखाई देती है। जब आप देश से बाहर ऐसी जगह जाते हैं, जहां मुल्कों का काम दिखाई देता है तब आपका नज़रिया और विस्तार लेता है। वह बड़ी सहजता से बताते हैं कि तमाम मुल्कों के कलाकारों का नजरिया मुझे किसी गांव या शहर से नहीं दिखाई देता। लेकिन, जब हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विविधिता से भरे कला के काम को देखते हैं तब हमें पता चलता है कि हम जिसे काम कह रहे हैं वह तो काम का एक छोटा सा हिस्सा भर है।
वह पीछे मुड़कर देखते हैं। याद करते हैं और बड़ी सहजता से बताते हैं,‘‘ठेठ पहाड़ से निकला एक कलाकार बनने की इच्छा रखने वाला किशोर 2004 तक आते-आते जीवन के सत्ताईस वसंत देख चुका था। उसका काम सराहा जा रहा था। उसकी कूची के रंग बिक रहे थे। काम भी लगातार मिल रहा था। लेकिन वह अपने काम से संतुष्ट नहीं था। कुछ द्वंद्व बराबर परेशान कर रहा था। कुछ सम्मान, पुरस्कार और प्रमाण-पत्रों के बावजूद जब यह अहसास हुआ कि अभी घूमना है। दुनिया को देखना है। अवलोकन करना है तो बस फिर सोचा। सोचा। डेढ़-दो महीने कुछ काम नहीं किया। अपना अवलोकन किया। होश संभालने तक की यात्रा को फिर से टटोला। फिर अपनी जन्मभूमि को याद किया। अपनी माँ को याद किया। फिर ब्रश उठाया। पचास-साठ बार लिखा-माँ। माँ। तुम कहाँ हो! बस! फिर यही से मुझे एक दिशा मिली। फिर मेरा नया काम उभरा। 10 चित्र बनाए जो टैक्स्ट में थे। टैक्स्ट में चित्र था। फिर अपने संघर्षों से ही एक नई दिशा मिली। समझ में आया कि पारंपरिक चित्र, यथार्थवादी चित्रण का रेखांकन करने वाले असंख्य है। कुछ हट कर क्या हो? कुछ नया क्या हो?’’
वह अब भी अपने काम से संतुष्ट नहीं हैं। उनका मानना है कि एक अनमोल जीवन है। इस एक अकेले जीवन में कुछ करने योग्य काम तो किया ही जाना चाहिए। कला के क्षेत्र में पढ़ना बहुत जरूरी है। यात्राएं करना ज़रूरी है। यदि कलाकार पढ़ेगा लिखेगा नहीं, देखेगा नहीं और चर्चा नहीं करेगा तो मौलिक और नवीनता से भरे काम का सर्जन नहीं कर पाएगा। वह बताते हैं,‘‘कला के प्रति संवेदनशीलता की कमी है। हमें आर्ट गैलरियों का भ्रमण करना चाहिए। सूक्ष्म अवलोकन की बहुत ज़्यादा जरूरत है। कला, साहित्य और संस्कृति के जानकारों के साथ कुछ समय बिताना चाहिए।’’
सुप्रसिद्ध सामूहिक विश्व एवं अखिल भारतीय कला प्रदर्शनियों में सहभागी बन चुके बंगाणी बताते हैं,‘‘मैं अपने आप को विशिष्ट कला प्रेमी मानता हूँ। ऐसा कला प्रेमी जो पहाड़ी जीवन में रचा-बसा है। ऐसे इलाके का बचपन मेरे पास है जो उत्तराखण्ड और हिमाचली कला, संस्कृति और जीवन से सराबोर है।’’
इक्कीसवीं सदी की कला और कलाकारों के एक सवाल के जवाब में वह कहते हैं,‘‘ बहुत से लोगों का दृष्टिकोण कला और कलाकार के प्रति बहुत ही सकारात्मक होता है। लेकिन, अधिकांश लोगों में आज भी कला शिक्षा का अभाव होता है। अभी भी चित्रों से सुखद संवेदना लेने के बजाय चित्रों को समझने पर अधिक जोर देने वालो की संख्या अधिक है।’’
वैश्विक स्तर पर कला के प्रति वह स्वयं क्या नजरिया रखते हैं? इस सवाल के जवाब में वह बताते हैं,‘‘कला के विकास में यूरोप और अमेरिका का नाम अग्रणी है। आज भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश चीन, अफ्रीका, जापान और कोरिया जैसे कई देश हैं जो अपनी कला के प्रति जागरुक हो गए हैं। कला अनवरत् विकसित हो रही है। कला के प्रति दृष्टिकोण भी बदल रहा है। अब बच्चे भविष्य में मात्र विज्ञान और वाणिज्य में ही अपना कॅरियर देखते हैं। वह कला में भी अपना कॅरियर देख पा रहे हैं।’’
समाज में अराजकता और असंतोष से संबंधित एक सवाल के जवाब में जगमोहन बंगाणी कहते हैं,‘‘मनुष्य जीवों में महाबली अपनी मनुष्यता की वजह से बन पाया है। उसने अपने जीवन स्तर को बहुत विकसित कर लिया है। जब मनुष्य के पास भाषा नहीं थी तब भी कला थी। कला के प्रति यदि हम संवेदनशील होंगे तो हमारे भीतर मनुष्यता बची रहेगी। यह इसलिए भी जरूरी है कि हम कला और कलाकार के प्रति संवेदनशील हों। हर मनुष्य के भीतर कला है और कलाकार भी है। बस उसे पहचानने, उभारते और विस्तार देने की आवश्यकता भर है।’’
जगमोहन बंगाणी का कला संसार बेहद वृहद है। यदि आप उन्हें और उनके काम को निकटता से देखना-महसूसना चाहते हैं तो निम्नलिखित लिंकों पर एक क्लिक कीजिएगा। मैं आश्वस्त हूँ कि आपको आनन्द आएगा। आप उजास, उल्लास और प्रफुल्लता से भर जाएँगे।
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-मनोहर चमोली ‘मनु’