साहित्यकार डॉ॰ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ का लघु वैज्ञानिक बाल उपन्यास ‘ह्यूमन ट्रांसमिशन’ यथार्थ और कल्पना के मिश्रण से निर्मित रोचक बन पड़ा है। लगभग सात वर्ष पूर्व प्रकाशित उपन्यास लगता है जैसे कल ही लिखा हो। एक सौ पैंतालीस पृष्ठों में प्रकाशित यह उपन्यास नौ कहानियों के साथ आया है। यह किताब आईसेक्ट विश्वविद्यालय द्वारा अनुसृजन परियोजना के तहत प्रकाशित हुई है। उपन्यास लगभग छियासी पेज का है। सत्रह छोटे-छोटे खण्डों में प्रकाशित यह उपन्यास सधा हुआ और क्रमबद्धता लिए हुए है। उपन्यास की कथावस्तु सुघड़ है। रामिश जमाल प्रोफेसर है। वह पन्द्रह सालों से एक आविष्कार में जुटे हुए हैं। उन्होंने अथक प्रयासों से ह्यूमन ट्रांसमिशन मशीन बना ली है। अब वह उसका परीक्षण करने जा रहे हैं। यह बात पहले ही खण्ड ‘मन की गति’ में पाठकों को पता चल जाती है। पहला ही खण्ड पाठकों को यह बता देता है कि यदि रामिश जमाल का परीक्षण सफल हो जाता है तो फिर कार, बस, ट्रेन, हवाई जहाज आदि सब बेकार हो जाएंगे। चैम्बर में बैठो,बटन दबाओ और मनचाही जगह पर पहुँच जाओ।
पाठक उपन्यास के पहले ही खण्ड में कथावस्तु का प्रयोजन जान लेता है। यह इस तरह स्थापित होता है कि पाठक इस परीक्षण के घटनाक्रमों से सायास एकाग्रचित्त हो जाना चाहता है। लेखक ने एक विचार एक लक्ष्य तो रख दिया। अब उस विचार को आगे बढ़ाने और लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए जो जमीन तैयार की है, वह तारीफ-ए-काबिल है।
उपन्यास के छोटे-छोटे खण्ड मन की गति, आनंद का विस्फोट, टर्म्स एण्ड कंडीशन, मानव प्रक्षेपण का सिद्धांत, पड़ाव-दर-पड़ाव, बेस्ट ऑफ लक, बिन बिजली सब सून, निराशा का अंधकार, चैनल-24, ये मनमानी नहीं चलेगी, अटकलबाजियां, मेकअप,लाइट,कैमरा…,मे आई हेल्प यू?,एरर 2059, प्रभु हम पे कृपा करना, एक और बाधा, खतरे में जान, दया प्रभु दया, प्रस्थान बिन्दु ने ही उपन्यास को बिखरने नहीं दिया। एक बार भी पाठक कथावस्तु के मोहपाश से खुद को अलग नहीं कर पाता। प्रोफेसर का सपना पूरा हो। यह पाठक भी चाहता है। वह भी जल्दी से जल्दी ह्यूमन ट्रांसमिशन की सफलता को पा जाने की हड़बड़ाहट करता है और अन्त तक जिज्ञासा, तत्परता और कौतूहलता के साथ दम साधे आगे बढ़ता जाता है।
आरम्भ में पाठक को लगता है कि ह्यूमन ट्रांसमिशन का प्रयोग सफल हो जाएगा। फिर जैसे-जैसे पाठक का मन रमने लगता है तो ऐसी स्थिति भी आती है कि लगता है कि यह प्रयोग सफल नहीं होगा। उपन्यासकार ने जिस तरह से और जिस रवानगी से उपन्यास का अन्त किया है उसकी थाह पाना टेढ़ी खीर है। लेकिन पाठक को इस कथा यात्रा से जिस प्रकार लेखक देशकाल और परिस्थिति से परिचित कराता है वह प्रशंसनीय है। विज्ञान की खोजें यूं ही पलक झपकते नहीं हो जाती। वैज्ञानिक अपने को, अपने परिवार को और जीवन के अपने महत्वपूर्ण दस-बीस साल तो नाहक ही खपा देते हैं। पाठक वैज्ञानिकों के जीवन से भी परिचित होता है। सरकारी व्यवस्था किस तरह लचर है? मीडिया की भूमिका क्या होती है हमारे समाज में? क्या होनी चाहिए? इन सवालों से भी पाठक जूझता हुआ नजर आता है।
इस बाल उपन्यास के बहाने बेहद सतर्कता और कुशलता के साथ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ विज्ञान के मूलभूत कुछ अवधारणाओं के प्रति ललक जगाने का काम भी कर देते हैं। यह इतना सायास और कथा के साथ गूंथा हुआ है कि एक पल के लिए भी यह किताबी या सूचनात्मकता, उपदेशात्मकता या ज्ञान बघारने वाला-सा नहीं लगता।
‘‘पूरवा हवा का एक नटखट झोंका उषा की लालिमा से ठिठोली करता हुआ ‘अमन मंजिल’ के बगल से गुजर रहा था। सहसा कमरे की खिड़की से आती सतरंगी रौशनी को देखकर उसके पैर ठिठक से गए। इस धरा पर वैसे अद्भुत रौशनी उसने इससे पहले कभी नहीं देखी थी।’’
इस अनुच्छेद से उपन्यास का पहला खण्ड ‘मन की गति’ आरम्भ होता है। और अंत कुछ इस तरह से होता है कि….‘‘’’यह देखकर प्रोफेसर रामिश की आँखें छलछला आईं। उन्होंने आगे बढ़कर महक, विश्वनाथ प्रसाद और विनय को एक साथ बाहों में भर लिया। अब उन्हें यकीन हो गया था कि ह्यूमन ट्रांसमिशन मशीन की तरह ही उनका यह मिशन भी एक दिन अवश्य सफल होगा।’’
उपन्यास इक्कीसवीं सदी की सूचना-तकनीक और भारत की सरजमीं की स्थिति के आस-पास का है। आधुनिक युग का है। उपन्यास के केन्द्र में प्रोफेसर रामिश ही हैं। उनकी सहायक महक को हम उपन्यास की दूसरी सशक्त पात्र मान सकते हैं। कालान्तर में महक के माता-पिता, भाई भी अल्प समय के लिए उपन्यास में जगह पाते हैं। मीडिया से एक पत्रकार रितेश भी उभरता हुआ पात्र है। प्रोफेसर की प्रयोगशाला के गार्ड राम सुमेर भी एक पात्र है जिसका चरित्र चित्रण भी उभरकर पाठकों के समक्ष आता है। वैज्ञानिकों को नीरस,उबाऊ और संवेदनहीन चित्रण से इतर यहां बहुत ही संवेदनशील दिखाया गया है। यह बड़ी बात है। उपन्यासकार ने बाल मन को ध्यान में रखने का बखूबी प्रयास किया है। बहुत सारे पात्रों का जमावड़ा होने से रोचकता, प्रभावोत्पादकता और संप्रेषणीयता की क्षति से रजनीश परिचित हैं।
इस उपन्यास में रचनाकार ने आधुनिक आम भाषा का प्रयोग करने की बहुतायत कोशिश की है। वह अपने प्रयास में सफल भी हुए हैं। वैसे, डॉ॰ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ के पास और भी सरल-प्रभावी कहन है। वह चाहते तो इसे और भी सरल कर सकते थे।
उपन्यास को संवादात्मक लहज़े में रखने की भरपूर कोशिश की गई है। एक बानगी-
‘‘ये तो खुशी के आंसू है पगली।’’ प्रोफेसर रामिश ने उन्हें छुपाना चाहा।
‘‘सर, इन आंसुओं के पीछे कोई न कोई बात अवश्य है?’’ महक ने आंसुओं का सबब जानना चाहा।
‘‘तुमने सही पहचाना महक, दरअसल मुझे मेरी माँ की याद आ गई।’’ प्रोफेसर रामिश भावुक हो उठे।
उपन्यास में कहां विवरण प्रस्तुत करना है और कहां त्वरित गति से संवादात्मक प्रस्तुति उचित रहेगी। ज़ाकिर जानते हैं। वर्णन भी करते हैं तो समूचा खाका-चित्र बन उठता है। जैसे-
‘सामने एक छोटा सा लॉन था, जिसमें लगे पौधे सूखकर ठूंठ बन गए थे। उन पर एक नज़र मारने के बाद महक आगे बढ़ गई। सामने एक गैलरी थी, जो लगभग पन्द्रह फिट के बाद एक बड़े से आंगन में खुलती थी। आंगन के चारों और कमरे और बरामदे बने हुए थे।’
प्रोफेसर और उनकी सहायक की बातचीत में टी॰वी॰, फैक्स मशीन की कार्यप्रणाली और विज्ञान की अवधारणाएं सरलता से शामिल हुई हैं। चुम्बकीय तरंग, विद्युत चुम्बकीय तरंगे,अणु,परमाणु के साथ-साथ सजीव-निर्जीव पदार्थों की अवधारणाओं के साथ प्रोटोप्लाज्म की ओर भी जिज्ञासापरक इशारा हुआ है। कार्बन, हाइड्रोजन, आक्सीजन की ओर पाठकों की रुचि बढ़े। यह प्रयास उपन्यास में सफल होता दिखाई देता है।
उपन्यास बाल पाठकों को ध्यान में रखकर लिखा गया है। प्रकाशन ने एक भी चित्र नहीं दिया। काश! खण्डों के स्तर पर भी एक-एक चित्र होता तो आनन्द और भी बढ़ जाता। पात्रों का चरित्र और भी उभर जाता। बाल साहित्य में फोंट का आकार अपेक्षाकृत बढ़ा होता है तो पठनीयता बढ़ जाती है। कहीं-कहीं पर वाक्य लंबे हो गए हैं-
‘आदमकद चहारदीवारी से घिरी हुई ‘अमन मंजिल’ पुराने हवेलीनुमा लुक के कारण दूर से ही पहचान में आ जाती थी।’
कहीं-कहीं पर वाक्यों में शामिल शब्द और भी सरल हो सकते थे। ज़ाकिर समर्थ रचनाकार हैं। उनके पास अथाह शब्द भंडार है। चूंकि यह उपन्यास है। बच्चे इसके प्रथम पाठक हैं। इस लिहाज से गूढ़, अति साहित्यिक,भारी-भरकम शब्दों से बचा जा सकता था। हां, वैज्ञानिक शब्दावलियों के सरलीकरण के पक्ष में मैं नहीं हूँ। अतिवादियों की तरह शुद्ध साहित्यिक हिन्दी का भी मैं कभी पक्षधर नहीं रहा हूँ। जाकिर भी आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते दिखाई दिए। यह अच्छी बात है। लेकिन कुछ वाक्य आ गए हैं जिनमें शामिल शब्दावली का सरलीकरण वे भली-भांति करना जानते हैं। वे कर भी सकते थे। वाक्य बहुत लम्बे होने की बजाय छोटे हो सकते थे।
मसलन-‘तभी दीवार घड़ी के घण्टे ने प्रोफेसर रामिश को जज्बातों के आकाश से यथार्थ की धरती पर ला पटका।’
सोचते हुए प्रोफेसर रामिश हौले से मुस्कराए और फिर तेजी से ह्यूमन ट्रांसमिशन मशीन के चैम्बर का दरवाज़ा खोल कर उसमें प्रविष्ट हो गए।
‘पांच मिनट तक किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी रहने के बाद महक ने चौथी बाद फिर आवाज लगाई,‘‘प्रोफेसर साहब?’’
‘उसके लिए तुम जिम्मेदार नहीं हो महक, तुम्हारा अवचेतन मस्तिष्क कुसूरवार है।
ऐसा लग रहा था जैसे कोई बहुत बड़ा मक्खियों का झुंड भनभना रहा हो और उन सबके बीच कई सारे लोग एक साथ अलग-अलग बातें कर रहे हों।
पता नहीं यह उस सतरंगी रौशनी का प्रभाव था या फिर उस कार्य की सफलता से उपजी गौरवानुभूति का प्रतिफल, वे मन ही मन बुदबुदा उठे-
प्रोफेसर रामिश ने एक उचटती सी निगाह दरवाजे के उस पार नजर आ रही मशीन पर डाली और फिर कहीं शून्य में निहारते हुए बोले,‘‘सपना? हां, प्रयोगशाला, ये मशीन, ये सब एक सपना ही तो है।’’
अचेतन अवस्था में ही उन्होंने अपनी गर्दन को तेजी से झटका दिया, जैसे स्मृति में गूंज रही उन दृश्यावलियों को मस्तिष्क से बाहर निकाल फेंकना चाहते हों।
लेकिन परिणाम स्वरूप उसके चेहरे की ओर तेजी से बढ़ रही गेंद लक्ष्यविहीन हो गयी और आगे बढ़ते हुई सीधे नाले के बीचों-बीच जा गिरी।
‘‘जल्दी करिए पिताजी, पता नहीं क्यों मुझे बहुत घबराहट सी हो रही है।’’ कहती हुए महक अपने पिता से लिपट गई,जैसे किसी आफत से बच कर आया चिड़िया का नन्हा सा बच्चा अपनी माँ के पंखों के बीच दुबक कर सारे दुःस्वप्नों को भूल जाना चाहता हो।
मेरा स्पष्ट मानना है कि विज्ञान तर्क,शोध,अन्वेषण और परीक्षण के आधार पर किसी बात,मत या सिद्धान्त को मान्यता या खारिज करता है। लोक विश्वासों, मान्यताओं और आस्थाओं को विज्ञान सम्मत नहीं माना जा सकता। विज्ञान लेखन और तर्कसंगत लेखन में सामाजिक-पारिवारिक परंपराओं-मान्यताओं से परहेज किया जाना चाहिए। यदि संभव हो तो आस्थाओं और निजी विश्वासों से बचना चाहिए।
इस उपन्यास में प्रोफेसर साहब एक जगह कहते हैं-
प्रोफेसर रामिश भावुक हो उठे,‘‘मुझे लगा कि अंतरिक्ष के किसी तारे पर बैठी हुई माँ मेरी ओर देख रही हैं और खुश होकर अपना आशीर्वाद बरसा रही हैं।’’
इसे कई अलग तरह से कहा जा सकता था। इससे ध्वनि यह जा रही है कि मरणोपरांत मनुष्य तारों के पास चला जाता है। अलबत्ता सपनों पर किसी का नियंत्रण नहीं है। प्रोफेसर यह कह सकते थे कि मुझे एक सपना बार-बार आता है जिसमें मां किसी तारे पर बैठी हुई है। अपने दिवंगतों को याद करना बुरा नहीं है। लेकिन किसी ऐसे विश्वासों का सहारा लेना जो हर किसी का भिन्न हो सकता है संभवतः उचित नहीं है। तार्किकता विज्ञानसम्मत लेखन और विज्ञान के पक्षधर लेखकों का मुख्य औजार होना ही चाहिए।
इस उपन्यास में लेखक ने समाज की ध्वनि परोसने का प्रयास किया होगा। यह भी संभव है कि सायास आ गया हो। लेकिन पुनरावृत्ति से यह उचित नहीं लगा रहा है। एक नहीं दो नहीं तीन नहीं बारम्बार ईश्वर, भगवान पर पात्रों की आस्था का चित्रण स्थापित-सा होता हुआ लगने लगता है। ऐसा उल्लेख संवाद में आए तो पात्र का चरित्र उद्घाटित होता है कि वह आस्थावादी है या अनास्थावादी। लेकिन विवरण में आए तो वह लेखक की ओर से शामिल हुआ माना जाता है।
कुछ उदाहरण उपन्यास से-
उसने एक क्षण के लिए आंखें बंद की और मन ही मन ईश्वर को याद करने लगी।
कहीं ये धुआं कोई गड़बड़ी न …? ….हे ईश्वर, प्रोफेसर साहब की रक्षा करना।
कुछ नहीं होगा महक, ईश्वर पर भरोसा रखो। सब ठीक हो जाएगा।
भैया आप भी ईश्वर से प्रार्थना करिए कि सब कुछ ठीक-ठाक हो जाए।
और मन में इस विचार के आते ही वह श्रृद्धावनत् हो उठी-‘‘हे प्रभु, प्रोफेसर रामिश की रक्षा करना।’’
हे भगवान। मैंने इससे कितनी बदतमीजी से बात की।
हे भगवान। सब कुछ ठीक-ठाक सम्पन्न हो जाए।
धीरज से काम लो बेटी। ईश्वर सब ठीक कर देगा।
प्रभु हम पे कृपा करना
प्रयोगशाला में बैठे उसके माता-पिता हाथ जोड़े ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे।
हे ईश्वर,प्रोफेसर रामिश के प्रयोग को सफल बनाना।
धीरज से काम लो बेटी, ईश्वर चाहेगा तो सब ठीक हो जाएगा।
हां, थोड़ी सी गड़बड़ तो हुई है पर हम ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि मशीन में कोई नुकसान न हुआ हो।
महक ने एक क्षण के लिए ईश्वर का नाम लिया और ह्यूमन ट्रांसमिशन मशीन को प्रक्षेपण का आदेश दिया।
हौसला रखो बेटी,ईश्वर चाहेगा तो सारे काम भलीभांति सम्पन्न हो जाएंगे।
प्लीज आप लोग प्रार्थना कीजिए कि प्रोफेसर साहब मशीन से सही सलामत….।
दया प्रभु दया।
ईश्वर पर भरोसा रखो बेटी,सब कुछ ठीक…..।
एक एंकर की एंकरिंग-‘क्या कहा जाए इसे? किस्मत का खेल? जीवन की अनिश्चिता? या फिर ईश्वर की माया? क्या ईश्वर इतना निष्ठुर हो सकता है? क्या उसे इस तरह से लोगों को छलने का अधिकार है?’
डॉक्टर की बात सुनकर सभी लोगों ने राहत की सांस ली। महक का मानसिक तनाव भी थोड़ा कम हुआ। उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया और प्रोफेसर रामिश के उठने की प्रतीक्षा करने लगी।
शायद ईश्वर भी नहीं चाहता कि अभी ह्यूमन ट्रांसमिशन मशीन दुनिया के सामने आए,
‘‘……शायद इसीलिए वे भी अब परम पिता परमेश्वर की शरण में चले गये हैं। क्योंकि वही है हर बिगड़ी को बनाने वाला, अंधेरे में रौशनी का दिया जलाने वाला। और उस परम पिता परमेश्वर की करुणा पाने के लिए उसका आशीर्वाद पाने के लिए आइए हमस ब उसकी प्रार्थना करें।’’
प्रभु हम पे कृपा करना वाले खण्ड ने इस उपन्यास को किसी आविष्कार से अधिक किसी धार्मिक प्रयोजन जैसा मोड़ दे दिया। मुझे लगता है कि कम से कम अस्पताल में चिकित्सक और प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिक का चरित्र अति आस्थावादी स्थापित न होने लगे इससे इक्कीसवीं सदी के साहित्य को बचना चाहिए।
एक बात और। बच्चों की उपलब्धियों से वंश का नाम रोशन करने वाली बात अटपटी लगती है। हालांकि कई लेखक बेटों को देवपुत्र और वंश की आन-बान-शान वाला घोषित करने के अवसर नहीं चूकते। यहां उपन्यास में प्रोफेसर की सहयोगी महक के पिता को अनपढ़ दिखाया गया है लेकिन सोच के माध्यम से यह कहलवाना चरित्र को प्रगतिशील घोषित करवाता है कि-
फिर भी वे अक्सर कहा करते थे कि एक दिन मेरी बेटी अपने वंश का नाम रौशन करेगी।
बहरहाल,अब एक कदम आगे यह बात भी कही जाती है कि बच्चों को वही करने दें वे जो करना चाहते हैं। यह भी कि कोई भी अपना नाम रौशन करने का कार्य करते हैं। मां-बाप इस उम्मीदों में क्यों कर रहें कि बच्चे उनके वंश का नाम रौशन करे। खैर…।
कुल मिलाकर आस्तिकता-नास्तिकता, भूत-ईश्वर, चुड़ैल-परी के हेर-फेर में समाज सदियों से चलता आया है। आज भी बहस जारी है। लेकिन, जिसे विज्ञान साबित नहीं कर पाया है हम उसे स्थापित न करें। यह कहना उचित भी नहीं होगा कि इनकी चर्चा ही न करें। यह तो लेखक को तय करना है कि इनका अंश नमक-सा रखना है या शहद-सा।
मुझे यह कहने में कोई दिक्कत नहीं है कि यह बाल उपन्यास सभी को पढ़ना चाहिए। उन्हें तो ज़रूर पढ़ना चाहिए जो विज्ञान लेखन की ओर बढ़ रहे हैं। उन्हें भी जो यथार्थ और कल्पना के मिश्रण का अनुपात खोजते रहते हैं।
जाकिर अली ‘रजनीश’ ने कहावतों और प्रभावी कथनों का भी उपन्यास में प्रयोग किया है। यह बहुत ही प्रभावी है। पाठक पढ़ते-पढ़ते अपने अनुभवों से भाषा के इस प्रयोग को आत्मसात् करते चले जाते हैं।
और अंत में मुझे उपन्यासकार के व्यक्तित्व पर भी कहना है। वे लगन के पक्के हैं। जिस काम का बीड़ा उठा लेते हैं कर डालते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी जा़किर लीक से हटकर सृजन करते हैं। संवेदनशील हैं। तार्किक हैं। वह सच को सच कहना अनिवार्य समझते हैं। स्वस्थ चर्चा में शरीक होते हैं। वह बेहद सहयोगी हैं। सकारात्मक हैं। स्वस्थ और लाभकारी परामर्श देने का एक भी अवसर नहीं चूकते। साहित्य खासकर बाल साहित्य को अभी उनकी लेखनी से और भी समृद्ध कृतियों की दरकार है।
॰॰॰
-मनोहर चमोली ‘मनु’