-मनोहर चमोली ‘मनु’
महेश चंद्र पुनेठा कृत कविता कविता संग्रह ‘अब पहुँची हो तुम’ उपलब्ध है। एक सौ सत्रह कविताएँ इस संग्रह में है। पृष्ठों की संख्या एक सौ चैबीस है। साल दो हजार इक्कीस के अंत में इसे समय साक्ष्य ने प्रकाशित किया है। संग्रह में कुछ कविताएं एक ही विषय में क्रम से रखी गई हैं। दवा, डाॅक्टर, बीमारी और महिला के केन्द्र में यह पाँच कविताएँ हैं। जिनमें एक कविता यह है-खेती-बाड़ी का कामउरूज पर होता है जबउसका कमर और घुटनों का दर्दपता नहीं कहाँ बिला जाता है।
इसी तरह पुनर्वास पर दो कविताएँ हैं। रसोई पर केन्द्रित सैंतीस कविताएँ हैं। एक कविता आप भी पढ़िएगा-


जितने अधिक रूपजितने अधिक रंगजितने अधिक स्वादजितने अधिक स्पर्शजितनी अधिक गंधऔर जितनी अधिक ध्वनियाँउतनी अधिक समृद्धमानी जाती है रसोईसोचो जराकैसी होगी एकरस रसोई?
माँ की बीमार पर सात कविताएँ मात्र मार्मिकता का आभास नहीं देती। वे पूरे जीवन की यात्रा में माँ के अहसासातों का आभास भी कराती है। एक कविता-
बीमार के दिन और रात मेंन पृथ्वी के झुके होने काऔर न उसकी गति काकोई प्रभाव पड़ता हैवे तो हमेशा लम्बे ही होते हैं।
इसी तरह दीपवाली पर तीन, बकरी पर तीन, पंचेश्वर घाटी पर दुनिया का दूसरा ऊँचा बाँध प्रस्तावित है। उस पर केन्द्रित नौ कविताएँ हैं। एक कविता यह है-
गाँवों को जोड़ती हैंलड़खड़ाती पगडंडियाँसड़क तोनदी की ओरजाती देखी जाती हैं यहाँ।इसी तरह लाॅक डाउन पर भी पाँच कविताएँ हैं। इस संग्रह की कविताओं के भाव,बोध ओर बिम्बों को कविताओं के शीषर्कों से भी महसूस किया जा सकता है। कविताओं के शीर्षक कुछ इस तरह हैं-अमर कहानी,उसका लिखना,नचिकेता,गाँव में सड़क,पता नहीं,जेरूसलम,पहाड़ी गाँव,उनकी डायरियों के इंतजार में,उड़भाड़,जो दवाएं भी बटुवे के अनुसार खरीदती थी,सोया हुआ आदमी,पुनर्वास,गाँव में मंदिर,यूँ ही नहीं,ग्रेफीटी,मेरी रसोई.मेरा देश लोकतंत्र के राजा,हम तुम्हारा भला चाहते हैं,आपसी मामला,नहीं बदले,कुएं के भीतर कुएं,परीक्षा कक्ष के बाहर पड़े मोजे.जूते,दासता से खतरनाक है,माँ की बीमारी में,लोक,छुपाना और उघाड़ना,छोटी बात नहीं,त्रासद, परंपराएं,ठिठकी स्मृतियाँ,चौड़ी सड़कें और तंग गलियाँ,चायवाला,कितना खतरनाक है,भीमताल,दीपावली,किस मिट्टी के बने हैं पिताजी,प्रार्थना,उसके पास पति नहीं है,पहाड़ का जीवन,डर, नफरत और लोकतंत्र के,तुम्हारी तरह होना चाहता हूँ,रद्दी की छँटनी,बकरी,लहलहाती किताबें,अथ पंचेश्वर घाटी कथा,ओड़ा का पत्थर,हरेपन को बचाना,छोटी सी नदी,लॉक डाउन में मजदूर,संतुलित आहार,खिनुवा,प्याज का खेत,लोकतंत्र की धार,बाजार,मानक।
संग्रह की कविता गाँव में सड़क बहुत ही मशहूर है। आप भी पढ़िएगा-
सड़क !अब पहुँची हो तुम गाँव जब पूरा गाँव शहर जा चुका है सड़क मुस्कराईसचमुच कितने भोले हो भाईपत्थर.लकड़ी और खड़िया तो बची है न!
इसी संग्रह में महेश जी की कविता जेरूसलम भी है।

आप भी पढ़िएगा-
तुम एक नहीं दो नहीं तीन.तीन धर्मों की पवित्र भूमि हो फिर भी इतनी नफरत ! इतनी अशांति ! इतना खून!हे! दुनिया के प्राचीन शहर क्या कभी तुम्हें लगता है कि पवित्र भूमि की जगह तुम काश! एक निर्जन भूमि होते ।
कविताओं में एक कविता रसोई पर केन्द्रित कविताओं में और है। यह हमारी विविधिता में एकता को भी प्रतिबिम्बित करती है। जैव-विविधता से तो हम मनुष्यों ने कुछ शायद सीखा नहीं। लेकिन अपने-अपने घरों की रसोई से भी हम कुछ सीखें हैं। इसे आप भी पढ़िएगा-
कितने सारे रूपकितने सारे रंगकितनी सारी गंधकितने सारे स्वादकितनी सारी ध्वनियाँकितने सारे रूप बसी हैं रसोई में क्या कभी कोई खड़े दिखेएक दूसरे के खिलाफ घ्मिलकर ही बनाया सबने रसोई को खुशहाल ।
रसोई पर ही केन्द्रित एक अन्य कविता की ताकत आप भी महसूस कीजिएगा-
कोई अनोखी बात नहीं रसोई में टकराते ही रहते हैंआपस में बर्तन लेकिन कभी नहीं सुना कहा हो किसी एक नेकिसी दूसरे से रसोई छोड़कर चले जाने को।
कविता में कैसे संवैधानिक मूल्य शामिल किए जा सकते हैं? कैसे संविधान की उद्देशिका को पाठक समझ लें? है न मुश्किल? लेकिन महेश जी के लिए यह मुश्किल नहीं है। वे भली-भाँति परिचित हैं कि हमारे भारत की आत्मा क्या है। वे कविता में भी वह समावेशी रंग देख पाते हैं। तभी तो वे लिखते हैं-
क्या है चावल का धर्मक्या है दाल की जातिक्या है मसालों का लिंगक्या है अचार का क्षेत्र सब एक रसोई के नागरिक हैं एक ही बात जानते हैं सभी मिलकरभूख के लिए मर मिटना सोचो जरा हम कहाँ हैं?
धूमिल, गिर्दा, गोरख पाण्डेय, दुष्यन्त कुमार आदि की धारा को आगे बढ़ाने वालो में मैं महेश पुनेठा जी को भी रखना चाहूंगा। अपना क्या है इस जीवन में/सब कुछ लिया उधार/लोहा सारा उनका है/ अपनी केवल धार। इस तरह की कविताएं कभी-कभी ही पढ़ने को मिलती है। महेश जी की ये कविता भी कुंद होती मौलिक सोच की ओर पाठकों को आगाह करते हैं-
लोकतंत्र के लोहे पर आन्दोलनए देते धार हैं,सत्ता पर कुंडली मारे उन पर करते नित वार हैं। लोकतंत्र उनकी मजबूरी है इसलिए कहते, धार गैर.जरूरी है ।
महेश औपचारिक भाव और विषय में भी सूक्ष्म नज़र डालते हैं। वे हमें और इस समाज को भी धरातल की सचाई दिखाने को बाध्य कर देते हैं। कथनी-करनी का अंतर महसूस कराते हैं। एक दूसरे नज़र से वस्तुस्थिति दिखाते हैं। उनकी कवितासंतुलित आहार में पाठक के समक्ष कुछ सवाल कौंधने लगते हैं। आप भी पढ़िएगा-
संतुलित आहार क्यों जरूरी है?यह समझाते हुए लड़खड़ा गई अचानकमेरी जुबानजब मेरी कक्षा कीएक बालिका नेबुझी.बुझी आवाज मेंबताया .कल स्कूल से लौटने के बाद सेनहीं खाया कुछ भी उसनेऔर देखने लगीरसोईघर की ओरभर आई आँखों से ।
महेश भाव और विचार के कवि ही नहीं हैं। वे प्रकृति के गूढ़ रहस्यों के कवि भी हैं। वे संवेदनशीलता को सिर्फ इंसान की बपौती नहीं समझते। वे इस जड़-जगत में भी रहस्य और दर्शन पा लेते हैं। हम पाठकों को जीवन में आशावाद की मशाल पकड़ा देते हैं। एक बानगी उनकी कविता हरेपन को बचाना में देखी जा सकती है-
पेड़ अपनी पत्तियाँ खो देते हैं फिर बहुत दिनों तक उदास-उदास रहते हैं मगर उनके हरेपन को अपने भीतर बचाए रखते हैं और इस तरहवे सूखने से बच जाते हैं।


अक्सर रचनाकारों पर जनसरोकारों के मामलों में सड़क पर नारे लगाने के लिए कह दिया जाता है। चारण और भाट जनविरोधी नीतियों के खिलाफ भी रचनाकार से नारे लगाने की उम्मीद क्यों करते होंगे? क्या रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठकरूपी नागरिकों को लामबद्ध नहीं कर रहा होता? क्या रचनाओं के माध्यम से रचनाकार की असहमति और दूरदर्शिता पकड़ में नहीं आती। रचनाकार भी समय-समय पर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और अपने विचार भी प्रकट करते रहते हैं। महेश किस तरह खड़े हैं। उन्हें उनकी इस कविता से देखा जा सकता है-
जिन्होंने कभी पूरा नहीं कियाएक अदद सपनाएक स्कूल काएक अस्पताल काएक सड़क कामाँगती रह गयी जनता वे आज गाँव.गाँव घूम रहे हैं एक नए लोक कासपना दिखानेडूब क्षेत्र के लोगों को ।
कवि की कविताओं में सीधी बात के साथ-साथ कभी रहस्य,अनछिपा, अनदेखा और सांकेतिक वीभत्स लेकिन कुराजनीतिक व्यवस्था का चेहरा भी देखने को मिलता है। कवि क्यों कर सीधे तौर पर सरकार की नीतियों की आलोचना करे? शब्दों की मारक क्षमता आप इस कविता में सीधे देख पाते हैं-
देखता हूँजहाँ जले हैंसबसे अधिक दीयेमोमबत्तियाँविद्युत मालाएं और बल्बपाता हूँवहीं छुपा हैसबसे अधिक अंधेरा ।
महेश अपनी रचनाधर्मिता के संबंध में स्पष्ट हैं। वे कवि का धर्म मात्र स्वान्तः सुखाय नहीं मानते। वे मानते हैं कि रचनाकार के स्वयं के जीवन में भी प्रगति दिखाई दे। वह स्वयं भी उन्नत होता चले। वह स्वयं भी जनोन्मुखी हो। वह स्वयं भी लोकतांत्रिक हो। सरोकारी हो। व्यक्तिगत से सामूहिकता के भाव की ओर बढ़े। तभी तो वे अपनी कविता ‘छुपाना और उघाड़ना’ में साफ कहते हैं-
उनके लियेछुपाना कविता है उघाड़नामेरे लियेदरअसल झगड़ायहीं से शुरू होता हैवे भाषा मेंरचनात्मकता चाहते हैंमैं जीवन में ।
कवि मात्र आनन्द के लिए या आनन्द देने के लिए नहीं लिखता। वह जीवन की सच्चाईयों से भी पाठक को रू-ब-रू कराता चलता है। वह चाहता है कि पाठक कविताओं का आस्वाद लेते समय कवि को भी अपनी तरह का आम या साधारण इंसान समझे। उसे भी पीड़ा होती है। कविता कई बार प्रेमिका की जुल्फों और आशिकी के दुःख-दर्दों के आस-पास ही अधिक केन्द्रित रह जाती है। लेकिन दुनिया के हजारों रंगों में दुःख,उदासी,पीड़ा और कष्ट जैसे भावों की कई झीनी परतें हैं। उसकी थाह पाना भी कवि का धर्म है। उसे निबाहना और पाठकों के साथ साझा करना और भी जरूरी-
हर वार को कोई न कोईमाँ की खबर करने आ रहे हैंकभी.कभी तो फुरसत भी नहीं होती हैखातिरदारी सेहर किसी के पासरहता है एक नया नुस्खाबीमारी से लड़ने काहर कोई पुराने को खारिज करअपने नुस्खे को अपनाने को कहता हैहर नया दिन नया नुस्खासमझ में नहीं आता हैकि किसे अपनाएं और किसे छोड़ेंसबकी हाँ में हाँ मिलाते रहते हैं बस ।
और अंत में, यह कहना भी चाहूँगा कि भले ही मुझमें कविता कहने,समझने और उसे अभिव्यक्त करने का सलीका न हो। लेकिन मैं यदा-कदा कविताओं का आस्वाद तो लेता ही हूँ। हाँ! मैं इतना तो कह ही सकता हूँ कि कवि किसी क्षेत्र का, अंचल का नहीं होता। उसकी कविताओं की कोई सरहद नहीं होती। कविताओं के शब्दों के अपने पंख होते हैं। उनका स्थाई घर नहीं होता। वे हवा की मानिंद कहीं भी जा सकती हैं। वे अपने हजारों-हजा़र अर्थ लेकर यात्रा करती हैं। मैं कह सकता हूँ कि कवि महेश पुनेठा ऐसे ही रचनाकार हैं जो भले ही पहाड़ के सीमान्त क्षेत्र में रहकर कलमकार का धर्म निभा रहे हैं लेकिन उनकी कविताए सागर किनारे रहने वाले स्थाई पाठक को भी नितांत निजी लग सकती हैं। वह उसमें अपनी पीड़ा पर मरहम लगाते हुए संतोष पा सकता है। मुझे लगता है कि यह संग्रह आपके हाथों में भी पहुँचना चाहिए।
पुस्तक: अब पहुँची हो तुमविधा: कविताकवि: महेश चंद्र पुनेठामूल्य:125पेज संख्या: 124प्रकाशन वर्ष: 2021प्रकाशक: समय साक्ष्यपुस्तक स्रोत: mailssdun@gmail.comदूरभाष: 0135 2658894प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’

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