-मनोहर चमोली ‘मनु’
शैक्षिक दख़ल का यह अंक आज हमारे हाथ में हैं। बात जनवरी 2020 की है। हम सब कोविड 19 की ख़बरों को देख-सुनकर परेशान हुए थे। फिर फरवरी के अंत तक हम सब भी प्रभावित हुए। बीते बारह महीने हमने कोरोना के साथ बिताया। अभी कहना मुश्किल है कि हम इस कोविड से मुक्त हो सकेंगे या नहीं? बहरहाल, कोविड के दौरान पढ़ना-पढ़ाना के नए तरीकों पर काम भी हुआ। उन तरीकों का कितना सार्थक-सकारात्मक असर हुआ? यह निष्कर्ष अभी शेष है। इस दौरान बाल साहित्य को खगालने का मौका भी मिला। यहाँ प्रत्यक्ष लाॅकडाउन से जुड़ा स्तरीय बाल साहित्य दिया जाना तय हुआ था। लेकिन, सीमित सीमाओं के चलते खोजबीन के बावजूद भावपूर्ण और सार्थक रचनाएँ उपलब्ध न हो सकीं। अलबत्ता स्कूल, छुट्टी, गृहकार्य, बस्ते का बोझ, पढ़ाई और टीचर केन्द्रित रचनाएँ ज़रूर पढ़ने के लिए मिलीं। यहाँ कुछ रचनाएँ संकलित की गई हैं। इनमें कुछ रचनाएँ बालमन के निकट की हैं। इनमें बच्चों की आवाज़ें हैं। भावनाएँ हैं। शैक्षिक दख़ल यह नहीं कह रहा कि यही रचनाएँ सार्थक, सकारात्मक और बालमन के बेहद करीब हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि यहाँ संकलित रचनाएँ लचर और अर्थहीन हैं। हाँ, इन रचनाओं के आलोक में बतौर पाठक हम यह जानने-समझने का प्रयास अवश्य कर सकते हैं कि रचनाकारों ने अपने समय में बच्चों की दुनिया से जुड़ी पढ़ाई, छुट्टी, स्कूल, गृहकार्य, बस्ते का बोझ,बच्चों की भावनाओं का और अध्यापक का कैसा-कैसा चित्रण किया है! संकलित कविताओं में कुछ कविताएँ यहाँ दी जा रही हैं-
छुट्टी
हफ्ते में जब हो रविवार,
मौज़-मज़ा आता तब यार,
विद्यालय में छुट्टी रहती
मचती मौज़-मजे की धूम
उस दिन हम सारे ही बच्चे
उस दिन हम सारे ही बच्चे
मस्ती में उठते हैं झूम
क्रिकेट-मैच कभी होते हैं,
या टी.वी. पर जम जाते हैं
सच पूछो तो-टी.वी. पर ही
हम आनंद उठा पाते हैं
टी.वी. ने हम सब बच्चों पर
किया बड़ा ही है उपकार
हफ्ते में जब हो रविवार,
मौज़-मज़ा आता तब यार।
-चंदपाल सिंह यादव ‘मयंक’
टीचर जी
टीचर जी, ओ टीचर जी
गिनती खूब सिखाओं जी,
लेकिन पहले बल्बों में
बिजली तो ले आओ जी!
सूरज जी , ओ सूरज जी
कभी देर से आओ जी,
रोज़ पहुँचकर सुबह-सुबह
यों न मुझे जगाओ जी!
छुट्टी जी, ओ छुट्टी जी
लो यह टाॅफी खाओ जी,
बस, इतनी सी विनती जै
जल्दी-जल्दी आओ जी।
पापा जी, ओ पापा जी
बहुत न रोब जमाओ जी,
दूध कटोरी में पीकर
चम्मच से खिलाओ जी।।
-दामोदर अग्रवाल
बढ़ई हमारे
बढ़ई हमारे यह कहलाते,
जंगल से लकड़ी मँगवाते !
फिर उस पर हथियार चलाते,
चतुराई अपनी दिखलाते !
लकड़ी आरे से चिरवाते,
रंदा रगड़-रगड़ चिकनाते !
कुर्सी-टेबिल यही बनाते,
बाबू जिनसे काम चलाते !
खाट, पलँग यह हमको देते,
बदले में कुछ पैसे लेते !
-जहूर बख़्श
मदारी
जल्दी चलो, मदारी आया,
संग बहुत सी चीज़ें लाया।
डमरू अब है लगा बजाने,
भीड़ जोड़कर खेल जमाने।
देखो साँप नेवला कैसे
लड़ते, बड़े मल्ल हों जैसे।
बिच्छू जैसे काले काले,
लिए हाथ में डंकों वाले।
देखो, रुपए लगा बनाने,
जादू अपना अजब दिखाने।
देखो, उड़ा रहा है अंडा,
लिए हाथ में केवल डंडा।
बड़े-बड़े लोहे के गोले,
जो हैं नहीं जरा भी पोले।
उसने मुँह से अभी निकाले,
काँटों के संग काले-काले।
खेल किए हैं उसने जैसे,
पैसे भी पाए हैं वैसे।
उसका काम हमें बतलाता,
पापी पेट न क्या करवाता?
-बाबूलाल भार्गव ‘कीर्ति’
हुआ सवेरा
बीती रात, प्रात मुसकाया
बोलीं चिड़ियाँ-चूँ-चूँ !
प्यारा कुत्ता करता फिरता
पूँछ हिलाकर-कूँ-कूँ !
देने लगीं सुनाई, सड़कों पर
मोटर की पों-पों !
जोर-जोर से लगे बोलने
कुत्तों के दल-भों-भों !
द्वार-द्वार दे रहे दिखाई
दूध बाँटते ग्वाले !
खन खन खन खन लगे बोलने
गरम चाय के प्याले !
सूरज की किरणों की छिटकी
सभी ओर है लाली !
फुलवारी में फूल बीनने
पहुँच गए हैं माली !
-भीष्मसिंह चैहान
रसोई
माँ गुस्सा थीं सारे घर से
पागल हुई रसोई।
पापा ने जब गैस जलाई,
खुद ही पानी डाल बुझाई।
डिब्बा-डिब्बा ढूँढ़ थके हम
चीज मिली न कोई !
सब कुछ उलट-पुलट कर डाला
गिरा दूध में गरम मसाला
मुन्नी ने जो घूँट भरा तो
चीख-चीखकर रोई !
मैंने गरम तवा खिसकाया,
पापा ने भी हाथ जलाया।
चीख-पुकार मची थी घर में
काम हुआ न कोई !
मम्मी जी फिर उठकर आई,
हम बाहर को भागे भाई।
पापा मम्मी से कुछ बोले,
हँसने लगी रसोई !
-देवेंद्र कुमार
मेरा बस्ता
मेरा बस्ता, मेरा बस्ता
यह पुस्तक वाला गुलदस्ता
इसके भीतर भरी सरसता
क्यों हो मेरी हालत खस्ता?
इसमें मेरी पेंसिल काॅपी
इसमें मेरी बिस्कुट टाॅफी
इसमें मेरी पूरी चीज़ें
होने देती इसे न भारी
हम हैं मैडम के आभारी।
-शेरजंग गर्ग
हड़ताल
कर दो जी, कर दो हड़ताल,
पढ़ने-लिखने की हो टाल।
बच्चे घर पर मौज उड़ाएँ,
पापा-मम्मी पढ़ने जाएँ।
मिट जाए जी का जंजाल,
कर दो जी,कर दो हड़ताल!
जो न हमारी माने बात,
उसके बाँधो कस कर हाथ
कर दो उसको घोटम-घोट,
पहनाकर केवल लंगोट।
भेजो उसको नैनीताल,
कर दो जी,कर दो हड़ताल!
राशन में भी करो सुधार,
रसगुल्लों का हो भरमार।
दो दिन में कम-से-कम एक,
मिले बड़ा-सा मीठा केक!
लड्डू हो जैसे फुटबाॅल,
कर दो जी,कर दो हड़ताल!
हम भी अब जाएँगे दफ्तर,
बैठेंगे कुरसी पर डटकर!
जो हमको दे बिस्कुट टाॅफी,
उसको सात खून को माफी।
-योगेंद्रकुमार लल्ला
नहीं पढ़ाई
देखो पानी की शैतानी,
ओहो! चला गया पानी!!
अभी बहुत थे काम अधूरे
घर भर को अभी नहाना था,
छुटकू कूद रहा है कब से
उसको पिकनिक पर जाना था।
अभी न पोंछा लगा फर्श पर
बर्तन जूठे पड़े हुए हैं,
कैसे पूजा-अर्चन होगा-
दादा जी भी कुढ़े हुए हैं।
भैया जी की शेव अधूरी
देख रहे हैं दाएँ-बाएँ,
कुछ गुस्से, कुछ गरमी में हैं
घूम रहे पापा झल्लाए।
मम्मी के बर्तन खड़के हैं-
पानी,पानी,पानी!
ओहो! चला गया पानी!!
बूँद-बूँद था टपक रहा,पर
अब तो बिल्कुल डब्बा गोल,
नहीं पढ़ाई हुई अभी तक
अंग्रेजी, हिंदी, भूगोल।
कैसे होमवर्क अब होगा
मम्मी चीख रही है-रानी,
जा, पड़ोस से भरकर ले आ
थोड़ा-सा पीने का पानी!
क्या-क्या करूँ,समझ न आए,
पानी बिना अक्ल चकराए,
उस पर कड़ी धूप के चाँटे
सुबह-सुबह तबीयत अकुलाए।
बिना नहाए शाला जाऊँ
तुम्हीं बताओ नानी,
ओहो! चला गया पानी!!
-प्रकाश मनु
बनूँ मैं टीचर
अगर बनूँ मैं टीचर मम्मी
सब बच्चों को पास करूँगा।
खुले हाथ से नंबर दूँगा
उनको नहीं निराश करूँगा।
बात-बात पर कभी न डाँटूँ
करने दूँगा मैं शैतानी।
पढ़ते-पढ़ते जब थक जाएँ
तब छेडूँगा नई कहानी।
नहीं डराऊँगा मैं उनको
इतना उनसे प्यार करूँगा।
नहीं पढ़ाई होगी हव्वा,
इस ढंग से तैयार करूँगा।
पिकनिक पर भी ले जाऊँगा
खाना उनके संग खाऊँगा
नाचे-गाएँगे सब बच्चे
मैं भी उनके संग गाऊँगा।
-शकुंतला कालरा
छुट्टी वाले दिन
बोर अकेले में होता हूँ,
पापा जल्दी आना।
मेरे उठने के पहले ही,
तुम आॅफिस जाते हो।
और हमेशा सो जाने पर,
घर वापस आते हो।
छुट्टी वाले दिन भी तुमको,
पड़ता आफिस जाना। पापा…
मम्मी रही नहीं अब मेरी,
जो मुझको नहलाती।
टिफिन लगाती, पानी देती,
होमवर्क करवाती।
सब कुछ मुझको करना पड़ता,
हँसना रोना गाना। पापा…
-परशुराम शुक्ल
पढना ही पढ़ना
जब भी खेल खेलने जाते
या मित्रों संग गप्प लगाते,
मम्मी हमें रोकती क्यों हैं?
पापा कुछ समझाना जी तो।
हर पल हर क्षण घुटते रहना
टोका-टोकी डाँटें सहना,
ऐसा भी अनुशासन कैसा?
कोई राह दिखाना जी तो!
सुबह-शाम पढ़ना ही पढ़ना
नहीं तनिक भी बातें करना,
बढ़ता बोझ किताबों का यह
पापा कम करवाना जी तो!
कोई नहीं बात है सुनता
जिसे देखिए वही झिड़कता,
हम बच्चे हैं कोमल कलियाँ
हम पर प्यार जताना जी तो!
-रमेशचंद्र पंत
बस्ता
इतना भारी-भरकम बस्ता
कर देती है हालत खस्ता
सब बच्चों के भार से भारी
करता रहता मगर सवारी
काॅपी,पेंसिल,कलम-किताब
हिंदी,इंगलिश और हिसाब
दुनिया भर के विषय निराले
सब बच्चों के देखे-भाले
बात बताएँ बिल्कुल सच्ची
बहुत हो गई माथा-पच्ची
काश! कोई जादु कर जाए
बस्ता खुद चलकर घर जाए।
-माधव कौशिक
भारी बस्ता
पापा तुमने कभी न जाना
क्यों हम गुमसुम होते हैं।
मम्मी तुमने कभी न समझा
आखिर क्यों हम रोते हैं।
नींद नहीं पूरी हो पाती
सुूबह जागना पड़ता है।
हड़बड़,तड़बड़ भारी बस्ता
लाद भागना पड़ता है।
सब कहते पढ़ने,लिखने को
विद्यालय हो चाहे घर।
कोई कभी नहीं कहता कि
बच्चों खेलो जी भर कर।
नहीं चाहिए हमें खिलौने
नहीं चाॅकलेट ना टाॅफी
मम्मी प्यार करो, दुलराओ
बस इतना ही है काफी।
थोड़ा समय हमें दो पापा
धंधे से छुट्टी पा कर।
कभी तो बैठो पास हमारे
आॅफिस से जल्दी आकर।
पापा हमसे कहें कहानी
मम्मी हमको दुलराएँ।
फिर तो हम खुश रहे हमेशा
कभी न रोएँ,चिल्लाएँ।
-अखिलेश श्रीवास्तव चमन
बस्ता भारी
इस भारी बस्ते को भैया
अब तू दूर हटा दे।
कमर टूटती है नित मेरी,
इससे मुझे बचा ले।
सुबह लादकर जब मैं-
पाठशाला ले जाता।
मेरी हालत पर भैया,
यह मंद-मंद मुस्काता।
मैं नन्हा-सा बालक छोटा
यह भैंसा-सा भारी।
चढ पीठ पर मेरी बैठा,
करता मारा-मारी।
-सूरजपाल चैहान
छुट्टी
गर्मी की छुट्टी नानी घर
सर्दी की छुट्टी दादी घर
दादी घर-नानी घर
मुझको भूल नहीं पाया
गर्मी में नानी के घर
एसी होता था
सर्दी में दादी के घर
गुड़ देसी होता था
चाट पकौड़े थे नानी घर
दिन भर दौड़े थे दादी घर
हर छुट्टी में दोनों का घर
मन पर था छाया
नानी, मामा साथ रह रही
चली गई बैंगलोर
मामी जी को उलझन होती
सुन बच्चों का शोर
नहीं रहा नानी का घर
अब तो है वह मामी का घर
मामा कहते बिट्टू कब से
तू नहीं आया
दादी खुद रहने आई हैं
मेरे अपने घर
चुप रहती हैं दादी
जबसे दादा गए गुजर
याद करें वह रोज गाँव घर
सिमट गईं कमरे में आकर
पापा पूछें रोज शाम को
अम्मा खाना खाया?
-प्रदीप शुक्ल
गूगल जैसी मम्मा
मुझको गूगल जैसी मम्मा
सब कुछ मुझे बताती हैं
मेरी सारी दुविधाओं को
पल भर में सुलझाती हैं
मैं सारे प्रश्नों का उत्तर
मम्मा से ही पाता हूँ
गूगल जैसी लगती मम्मा
सच्ची बात बताता हूँ
ऐसे लिखना ऐसे बोलो
मम्मा मुझे सिखाती हैं
बैठ संग में होमवर्क भी
समझा के करवाती हैं
गूगल से जो पूछूँ कुछ भी
भ्रमित बहुत हो जाता हूँ
गूगल जैसी लगती मम्मा
सच्ची बात बताता हूँ
मम्मा से बढ़कर दुनिया में
और नहीं कोई ज्ञानी
ममता की मूरत मम्मा हैं
बात यही मैंने जानी
इसीलिए तो मम्मा को
हर दिन शीश नवाता हूँ
गूगल जैसी लगती मम्मा,
सच्ची बात बताता हूँ।
-निश्चल
स्कूल है जाना
बरिश बारिश फिर आ जाना
अभी मुझे स्कूल है जाना
लौट के जब मैं घर आ जाऊँ
तब तुम खुद को बरसाना।
स्कूल की बस है आने वाली
चढ़ने मुझको उस तक जाना
नहीं है छतरी मेरे पास
बे मौसम क्यों तुमको आना
ओला बारिश मत कर जाना…
आज है मेरा पहला टेस्ट
विषय ये मेरा सबसे बेस्ट
बड़ी गजब की तैयारी है
बुक भी पढ़ डाली सारी है
छुट्टी तुम मत करवा जाना…
होम वर्क भी आज है पूरा
काम न कोई रहा अधूरा
पापा जी से मैथ है सीखी
मम्मी मरे मैम सरीखी
अभी रुको तुम ठहर के आना
-अवधेश सिंह
हो गई छुट्टियाँ
करें खेल अब नए-नए
पढ़ने के दिन गए-गए
अब तो हो गईं छुट्टियाँ
खाली अब हम भए-भए
करो मौज और हल्ला-गुल्ला
खाओ पिज्जा या रसगुल्ला
अब हम पर नहीं बंदिश कोई,
पास हमारे वक़्त है खुल्ला।
नानी के घर,दादी के घर,
इन छुट्टियों में जाएँगे हम,
छुट्टी के इक-इक दिन को,
खुशियों से चमकाएँगे हम।
-हरीश कुमार ‘अमित’
कहानी बस्ते की
कैसे, किस-किस को समझाऊँ,
बस्ते की है अजब कहानी।
इधर-उधर क्यों पड़ीं किताबें,
याद दिलाती दादी-नानी।
अपने वस्त्रों के संग करना,
बस्ते की भी साफ-सफाई।
बस्ते को तो ढोना ही है,
करनी आगे और पढ़ाई।
काॅपी और किताबें भर-भर
बस्ता जल्दी फट जाता है।
खानी पड़ती डाँट पिता की,
मेरा वजन भी घट जाता है।
कभी अगर ऐसा हो जाए,
तो हम सब हो जाएँ निहाल।
कक्षा में ही कार्य पूर्ण हो,
शेष समय बस मचे धमाल।
हल्का बस्ता हो जाए तो,
उसे ठीक से रखूँ सँभाल।
विद्यालय से घर आने पर,
तब न पलंग पर गिरूँ निढाल।
-गौरी शंकर वैश्य ‘विनम्र’
पढ़ा करो
जी करता है, बैठ किसी दिन,
मम्मी को समझाऊँ मैं।
‘ता धिन,तक धिन,थेई थेई,
कुचीपुड़ी सिखलाऊँ मैं।
जो भी बढ़िया काम करूं मैं,
उसमें खोट दिखाती हैं।
मेरे रुचियाँ,मेरे शौक,
सबमें ‘टाँग’ अड़ाती हैं।
जब मैं चाहूँ पार्क घूमना,
मुझको बिठला देती हैं।
जब मैं उनकी बात सुनूँ न,
पट ‘गंदी’ कह देती हैं।
‘ये मत करना, वहाँ न जाना,
हरदम बैठी पढ़ा करो।
हँसना और फुदकना छोड़ो,
थोड़ा चुप-चुप रहा करो।
जाने कितने पाठ तजुर्बे
बिन पुस्तक बतलाती हैं।
मैं सुनते सो जाती हूँ
उनको नींद न आती है।
सोचा कह दूँ पर मम्मी जी!
कभी आप भी बच्ची थी?
कहो तो पूछूँ मैं नानी से,
तब क्या ऐसे अच्छी थी?
पर डरती हूँ कहीं न मम्मी
कह दें हिस्ट्री याद करो।
बक-बक करना फिर दादी सी
चलो गणित की बात करो।
अंदर से बस्ता ले आओ,
अब अंक-पत्र दिखलाओ।
जो-जो प्रश्न नहीं हल की थी
बैठ वही दुहराओ।
आते होते प्रश्न कहीं तो
क्या मैं उस दिन रोती?
अच्छा होता मम्मी फिर से,
मुझ-सी बच्ची होती।
-राम करन
_
बहुत अच्छी बात सर। इतनी सारी बाल कविताएँ एक साथ पढ़कर पाठक जरूर आनंदित होंगे और बच्चों की भावनाओं को समझने की कोशिश करेंगे
ji sadar aabhaar !
ji shukriyaa!