कन्हैया लाल मत्त की एक कविता सिर्फ चार पँक्तियों की है। चरखा बोला चर्रक चूँ/बुढ़िया के सिर पर है जूँ/आ बुढ़िया साबुन मल दूँ/जूँ की कर दूँ धम्मक धूँ। यह शानदार कविता है। भाशा की कक्षा में इस कविता को छात्रों के सामने पढ़ा। फिर ष्यामपट्ट पर लिखा। चैथी पँक्ति पर छात्र ठहर जाते हैं। फिर से कविता को पढ़ते हैं। ‘धम्मक धूँ‘ के मायने खोजने लगते हैं। इस कविता में आनंद है। मस्ती है। चुलबुलापन है। खोजबीन के असीमित अवसर हैं। कविता के पात्र अपने चित्र बनाने को बाध्य करते है। कक्षा छह से आठ में पढ़ रहे चैंतीस छात्रों की सामूहिक कक्षा में इस कविता ने ख़ूब बातें की। नब्बे मिनट कब बीत गए ! पता ही नहीं चला। बातचीत का एक सिरा जैसे ही पकड़ने की कोषिष की जाती वैसे ही एक नई बातचीत षुरु हो जाती। एक सवाल उठता तो कई जवाब सुनने को मिलते। ऐसी-ऐसी तर्कपूर्ण और विस्तारित बातें खुल कर कविता को किस्सा में बदलने लगीं।


कुछ बातें इस समय याद आ रही हैं। उनका उल्लेख करना उचित होगा। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि भाषा की कक्षा में कविता मात्र कुछ पँक्तियाँ नहीं होती। उसका एक मात्र अर्थ नहीं होता। एक ही सन्दर्भ नहीं होता। कुछ नपे-तुले सवाल और एक ढांचे के ही जवाब नहीं होते। एक ही कविता को यदि दो अलग-अलग वादन में चर्चा हेतु रखा जाए तो भी बातचीत का फ़लक अलग-अलग होगा। चाहे कक्षा में वही एक अध्यापक हो और वहीं गिने-चुने छात्र हों।

बहरहाल, बात चरखे से षुरु हुई। चरखे से षुरु तो हुई पर यह खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। चैंतीस के चैंतीस बच्चों ने अपनी आंखों से चरखा देखा ही नहीं था। गांधी जी की बात चल पड़ी। धागे की बात चल पड़ी। यू-ट्यूब के सहारे चरखे का चित्र दिखाया गया। अब भेड़, तकली की बात निकली। ऊन के साथ-साथ कपड़ों के बनने की बातें हुई। हथकरघा और मिलों की बातें हुई। कपास की बात हुई। चर्रक के बहाने ध्वनियों पर बात हुई। कौआ काँव-काँव करता है? कैसे पता चला? इस पर बहुत सारी बातें हुईं। दरवाज़े पर खट-खट ही होती है कि कुछ और? साईकिल की घण्टी ट्रिन-ट्रिन ही होती है या कुछ और? छात्रों ने कुछ पल सोचा और पक्षियों के साथ-साथ कई ध्वनियों के लिए अपनी समझ से नए षब्द गढ़े। बुढ़िया पर बात हुई। उसका रेखाचित्र अलग-अलग ढंग से सामने आया। जूँ पर भी बात हुई। खटमल पर बात हुई।

काॅकरोच,चूहा,साँप,अमरबेल,कद्दू पर बात हुई। परजीवियों पर भी बात हुई। जीव-जन्तुओं के खान-पान पर बात हुई? मांसाहारी-षाकाहारी पर बात हुई। साबुन और डिटर्जेंट पर बात हुई।


कविता हो या कहानी। बनावट किसी स्वेटर की तरह लगती है। उसकी बुनाई के साथ-साथ उघाड़े जाने पर गोला हाथ आता है। दोबारा बुनें तो दूसरी बुनाई के साथ आकार भी मन-मुताबिक दूसरा हासिल हो सकता है। यह तो बानगी भर है। इस अंक में दी जा रही कविताएँ आनंद और आस्वाद के स्तर पर पसंद की जाएगीं। यह उम्मीद है। षैक्षिक दख़ल की इच्छा है कि इन कविताओं को कक्षा में बातचीत का हिस्सा बनाया जाए। बातचीत और सवाल-जवाब पर चर्चा की जाए। इन कविताओं से उपजे सवालों के जवाब के लिए बड़ों को फिर से तैयारी करनी होगी। देषकाल,परिस्थिति और वातावरण के स्तर पर खुद ही कल्पना के घोड़े पर सवार होना होगा। हालांकि हम सब इस बात से सहमत हैं कि अध्यापक के हाथ में कक्षा की किताब एक उपाय है। सारे नहीं। किताब सीखने-सीखाने का एक मात्र उपाय भी नहीं है। किसी भी कक्षा में कोई भी स्कूली किताब न तो संपूर्ण है और न ही पर्याप्त है। ऐसे में पाठ्यक्रम से इतर हमें पाठ्यचर्या को ध्यान में रखना ही होता है। कक्षा केवल परीक्षा के लिए एक प्रयोगषाला नहीं है। अध्यापक केवल सीखने-सीखाने का जरिया मात्र भी नहीं है।


सौंदर्य और कला के विभिन्न रूपों को समझना और उसका लुत्फ़ उठाना विद्यालयी गतिविधियों का हिस्सा होता है। तभी तो बच्चे तेजी से सीखते हैं। कला,साहित्य और ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में सृजनात्मकता का एक दूसरे से घनिश्ठ संबंध है। बच्चे की रचनात्मक अभिव्यक्ति और सौंदर्यात्मक आस्वादन की क्षमता के विस्तार के लिए साधन और अवसर मुहैया कराना षिक्षा का अनिवार्य कर्तव्य है। यह बात षिक्षकों से अधिक अच्छे से कौन जानता होगा? इस अंक में ऐसा ही साहित्य देने का प्रयास किया गया है। यह कविताएँ कक्षा-कक्ष में बातचीत की भरपूर संभावना जगाती हैं। -षैक्षिक दख़ल

चर्रक चूँ
चरखा बोला चर्रक चूँ
बुढ़िया के सिर पर है जूँ
आ बुढ़िया साबुन मल दूँ
जूँ की कर दूँ धम्मक धूँ
-कन्हैया लाल मत्त
बन्दूक
अगर कहीं मिलती बंदूक,
उसको मैं करता दो टूक
नली निकाल, बना पिचकारी,
रंग देता यह दुनिया सारी
-सर्वेष्वरदयाल सक्सेना

मेंढ़क की सैर
छाते ताने चला रात में
मेंढ़क करने सैर
बगुला भगत मिला जब उसको
लगा पूछने खैर
बगुला बोला छाते से यह
कैसी प्रीत लगाई
तभी छींककर मेंढ़क बोला
ओस पड़ रही भाई
-मंगरूराम मिश्र

मक्खी और मच्छर
मच्छर बोला-ब्याह करूँगा
मैं तो मक्खी रानी से
मक्खी बोली-जा जा पहले
मुँह तो धो आ पानी से।
ब्याह करूँगी मैं बेटे से
धूमामल हलवाई के
जो दिन रात मुझे खाने को
भर-भर थाल मिठाई दे
-निरंकार देव सेवक

बरसो राम धड़ाके से
बरसो राम धड़ाके से
बुढ़िया मरे न फाके से।
सननन सननन सन हवा चले
सबके मुख पर धूल मले।
घर के दरवाजे खिड़की
खड़के खूब खड़ाके से।
-चन्द्रसेन विराट

चैपट राजा
चैंक रहे हैं चैपट राजा
कौन बजाता पौं-पौं बाजा
कोई और नहीं सरकार
चैराहे का चैकीदार
-षेरजंग गर्ग

फूलों की टोपी
फूलों का कुर्ता
फूलों की टोपी
फूलों की टोपी में
देखा एक मोती
मोती वह ओस का
धूप खिली खो गया
फूलों की टोपी का
मन उदास हो गया
-रमेष तैलंग

जामुन

पौधा तो जामुन का ही था
लेकिन आये आम
पर जब खाया तो यह पाया
ये तो है बादाम
जब उनको बोया जमीन में
पैदा हुए अनार
पकने पर हो गये संतरे
मैंने खाये चार
-श्रीप्रसाद
ऊँट
रोज सवेरे कितने ऊँट
पीठ लाद ढेरों तरबूज
धीरे-धीरे कहाँ चले?
जब पहुँचेंगे पेड़ तले
गर्दन ऊँची कर खाएँगे
कडव़ी नीम चबा जाएँगे
मालिक हाँकेगा जब उनको
बलबलबलबल गुस्साएँगे
-सुधा चैहान

बोल मेरी मछली
हरा समुंदर, गोपी चंदर
बोल मेरी मछली, कितना पानी
इतना पानी, इतना पानी
इतना पानी, इतना पानी
मछली कितनी सुंदर है
पानी में वो रहती है
सीप के मोती खाती है
परियों जैसी लगती है।
हरा समुंदर …
काली मछली, नीली मछली
मछली-मछली सुंदर मछली
आँख है उसकी मोती जैसी
झिलमिल-झिलमिल करती है
हरा समुंदर …
सुनहरे पंखों वाली है
चिकने पातों वाली है
ऊपर-नीचे आती है
जीभ हमें चिढ़ाती है।
हरा समुंदर, गोपी चंदर
बोल मेरी मछली, कितना पानी
-अज्ञात

मँहगाई
पप्पू ने दीदी से पूछा
क्या होती मँहगाई?
सभी इसी की चर्चा करते,
चली कहाँ से आई?
हम दोनों के गुल्लक दीदी,
मम्मी ने क्यों खोले?
बिल वाले के आज कान में,
पापाजी क्यों बोले?
मटर टमाटर बंद हुए हैं
आलू गाजर खाते,
सेव संतरे कभी न देखे
पापा मूली लाते।
सब चीजों के पप्पू भैया,
लगते दुगने पैसे,
पापा रुपये वही कमाते
सेव मँगाए कैसे?
-राम निरंजन षर्मा ‘ठिमाऊ’

हाथी बंदर
अभी खबर लंदन से आई
मक्खी रानी उसको लाई
भुनगे ने हाथी को मारा
भुनगा क्या करता बेचारा
घुस बैठा मटके के अंदर
मटके में थे ढाई बंदर
उन्हें देखकर हाथी रोया
रोते-रोते ही वह सोया
रुकी न पर आँसू की धारा
मटका बना समंदर खारा
लगे डूबने हाथी बंदर
तब तक आया एक कलंदर
पर वह उनको पकड़ न पाया
उसने फौरन ढोल बजाया
उसको सुनकर आया मच्छर
लात जमायी उसने कसकर
मटका फूटा बहा समंदर
निकल पड़े सब हाथी बंदर
-षांति अग्रवाल

राजा रानी
एक थे राजा एक थी रानी
दोनांे करते थे मनमानी
राजा का तो पेट बड़ा था
रानी का भी पेट बड़ा था
खूब थे खाते छक-छककर
फिर सो जाते थक-थककर
काम यही था बक-बक-बक
नौकर से बस झक-झक-झक
-जयप्रकाष भारती

केरल के केले
केरल के केले
केरल का पानी
केरल की नावें
लम्बी पुरानी
केरल के हाथी
केरल के चावल
केरल की नदियाँ
केरल के बादल
है इनकी लम्बी
लम्बी कहानी
केरल के केले
केरल का पानी
-प्रयाग षुक्ल

इब्नबतूता
इब्नबतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
थोड़ी घुस गई कान में
कभी नाक को कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इस बीच में निकल पड़ा
उनके पैर का जूता
उड़ते-उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गए
मोची की दूकान में
-सर्वेष्वरदयाल सक्सेना

कोई ला के मुझे दे
कोई ला के मुझे दे
कुछ रंग भरे फूल
कुछ खट्टे मीठे फल
थोड़ी बाँसुरी की धुन
थोड़ा जमुना का जल
कोई ला के मुझे दे
एक सोना जड़ा दिन
एक रूपों भरी रात
एक फूलों भरा गीत
एक गीतों भरी बात
कोई ला के मुझे दे
एक छाता छाँव का
एक घूप की घड़ी
एक बादलों का कोट
एक दूब की छड़ी
कोई ला के मुझे दे
एक छुट्टी वाला दिन
एक अच्छी सी किताब
एक मीठा सा सवाल
एक नन्हा सा जवाब
कोई ला के मुझे दे
-दामोदर अग्रवाल

समझ
ये बात समझ में आई नहीं
और मम्मी ने समझाई नहीं
मैं कैसे मीठी बात करूँ
जब मीठी चीजें खाई नहीं
आपा पकाती हैं हलवा
वो आखिर क्यूँ हलवाई नहीं
ये बात समझ में आई नहीं…
नानी के मियाँ जब नाना हैं
दादी के मियाँ जब दादा हैं
आपा से मैंने पूछा ये
बाजी के मियाँ क्या बाजा हैं
ऐ भाई नहीं, ऐ भाई नहीं,
ये बात समझ में नहीं…
जब नया महीना आता है
बिजली का बिल आ जाता है
हालाँकि बेचारा
ये बिजली मुफ्त लुटाता है
फिर हमने अपने घर बिजली
बादल से क्यूँ मँगवाई नहीं
ये बात समझ में नहीं…
गर बिल्ली षेर की खाला है
फिर हमने उसे क्यूँ पाला है
क्या षेर बहुत नालायक है,
खाला को मार निकाला है?
या जंगल के राजा के यहाँ
क्या मिलती दूध मलाई नहीं
ये बात समझ में नहीं…
क्यों लम्बे बाल हैं भालू के
क्यूँ उसने कटिंग कराई नहीं
क्या वो भी गंदा बच्चा है
या उसके अब्बू भाई नहीं
ये उसका हेयर स्टाइल है
या जंगल में कोई नाई नहीं
ये बात समझ में नहीं…
जो तारे जगमग करते हैं
क्या उनकी चाची ताई नहीं
होगा कोई रिष्ता सूरज से
ये बात हमें बतलाई नहीं
पर चंदा किसका मामू है
जब अम्मीं का वो भाई नहीं
ये बात समझ में आई नहीं
और मम्मी ने समझाई नहीं
-अज्ञात
बिल्ली के बच्चे
किताबों में बिल्ली ने बच्चे दिए हैं
ये बच्चे बड़े होके अफसर बनेंगे
दरोगा बनेंगे किसी गाँव के ये
किसी षहर के ये कलेक्टर बनेंगे।
न चूहों की इनको जरूरत रहेगी
बड़े होटलों के मैनेजर बनेंगे
ये नेता बनेंगे और भाषण करेंगे
किसी दिन विधायक मिनिस्टर बनेंगे।
वकालात करेंगे सताए हुओं की
बनेंगे ये जज, ये बैरिस्टर बनेंगे।
दलिद्दर कटेंगे हमारे तुम्हारे
किसी कंपनी के डिक्टेटर बनेंगे।
पिलाऊँगी मैं दूध इनको अभी से
मेरे भाग्य के ये रजिस्टर बनेंगे।
-सर्वेष्वरदयाल सक्सेना

सूरज जल्दी आना जी
एक कटोरी भरकर गोरी
धूप हमें भी लाना जी
सूरज जल्दी आना जी
जमकर बैठा यहाँ कुहासा
आर-पार ना दिखता है
ऐसे भी क्या कभी किसी के
घर में कोई टिकता है?
सच-सच जरा बताना जी
सूरज जल्दी आना जी
कल की बारिष में जो भीगे
कपड़े अब तक गीले हैं
क्या दीवारें क्या दरवाजे़
सबके सब ही सीले हैं
छोड़ो आज बहाना जी
ना ना ना ना ना ना जी
सूरज जल्दी आना जी
-रमेष तैलंग

बादल भैया कहाँ चले?
अकस्मात तुम बादल भैया कहाँ चले
प्यासी रह गई मेरी गैया कहाँ चले?
भीग चुके कुछ खेत भले ही धरती पर
पर खाली है ताल तलैया कहाँ चले?
अरसे बाद अतिथि बनकर तुम आए हो,
अचरज में डूबी पुरवैया कहाँ चले?
नन्हे मुन्नू की जिज्ञासा देखो तुम
हाथों में कागज की नैया कहाँ चले?
बिजली रानी चाह रही है तुम ठहरो,
नाचेगी वह छममक छैया कहाँ चले?
बिना बुझाए प्यास अरे इस धरती की
ठुमक ठुमक कर ता-ता थैया कहाँ चले?
-सुरेन्द्र विक्रम

हाथी राजा
हाथी राजा कहाँ चले
सूँड हिलाते कहाँ चले
पूँछ हिलाते कहाँ चले
कान हिलाते कहाँ चले
गन्ना खाते कहाँ चले
मेरे घर आ जाओ ना
हलवा पूरी खाओ ना
आओ बैठो कुर्सी पर
कुर्सी बोली चर चर चर
-निरंकार देव सेवक

सौ चूहांे की रेल
सौ चूहों की रेल बनाई
दो कुत्तों की गाड़ी
कुत्ते चले झूमते आगे
चीलें चलीं पिछाड़ी
बैठी मन में लड्डू फोड़े
बनी लोमड़ी रानी
बीच राह में भालू आकर
बेच रहे गुड़धानी
टूट पड़े सब चटखारे ले
लगे उड़ाने माल
गिरा खोमचा रानी जी पर
हुआ हाल बेहाल
-रत्नप्रकाष षील

बोया दाना
एक बुढ़िया ने बोया दाना
गाजर का था पौध लाना
धीरे-धीरे घास बढ़ी
गाजर हाथों हाथ बढ़ी
सोचा तोड़ इसे ले जाऊँ
हलुआ गर्मा गर्म बनाऊँ
पकड़ी चोटी जोर लगाया
और लगाया और लगाया
नहीं बना भई नहीं बना
काम हमारा नहीं बना
और बुलाओ एक जना
फिर बुढ़िया की काकी आई
पकड़ी चोटी जोर लगाया
और लगाया और लगाया
नहीं बना भई नहीं बना
काम हमारा नहीं बना
और बुलाओ एक जना
-अज्ञात

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By manohar

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