उठो लाल अब आँखें खोलो

आज के सन्दर्भ में ऐसी कविताएँ नहीं लिखी जानी चाहिए !अच्छा हुआ कम से कम भाषा की पाठ्य पुस्तकों में अब ये नहीं हैं !

उठो लाल अब आँखें खोलो

पानी लायी हूँ मुँह धो लो।

बीती रात कमल-दल फूले

उनके ऊपर भौंरे झूले

चिड़ियाँ चहक उठीं पेड़ों पर

बहने लगी हवा अति सुन्दर

नभ में न्यारी लाली छायी

धरती ने प्यारी छवि पायी

भोर हुआ सूरज उग आया

जल में पड़ी सुनहरी छाया

ऐसा सुन्दर समय न खोओ

मेरे प्यारे अब मत सोओ।

-अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी

इस कविता पर बात करने से पहले मैं बताता चलूं कि पोस्ट लिखते समय मैंने मात्र दो पँक्तियाँ लिखी थीं-‘आज के सन्दर्भ में ऐसी कविताएं नहीं लिखी जानी चाहिए! अच्छा हुआ कम से कम भाषा की पाठ्य पुस्तकों में अब ये नहीं है।‘ मेरा इतना कहने भर से दोस्तों ने अपनी राय देनी शुरू कर दी। मक़सद भी यही था। मैं बार-बार यही कहता हूं कि असहमति से हमें बिदकना नहीं चाहिए। हमें यह भी जानना चाहिए कि आज जो रचना नई है कल पुरानी हो जाएगी। अधिक पुरानी इतिहास हो जाएंगी। कुछ ऐसी हो जाएंगी जिनके बारे में चर्चा न ही हो, वही बेहतर। सबसे पहले आपका आभार कि आपने कम से कम इस कविता पर ध्यान देने का मन तो बनाया। टिप्पणियां की। आप के विचार इस ओर एक पहल की तरह है। कई दोस्त तो दूर खड़े होकर जायज़ा लेते हैं। कुछ विचार शून्य हैं। वह चिन्तन ही नहीं करना चाहते। इस आलेख का मक़सद यही है कि हम हर पुरानी चीज़ को केवल गौरव, संस्कृति और जीवन से जोड़ कर नहीं देख सकते।

मसलन सती प्रथा, बाल विवाह, विधवाओं के साथ हमारा व्यवहार, हमारी लोक मान्यताएं पुरानी मान्यताओं में रहा है। तो क्या हम उन्हें अपने गौरव से जोड़ सकते हैं? बहुपति विवाह जैसी मान्यताएं भी हमारे लोकजीवन का हिस्सा रही हैं। तो क्या हम आज अपनी बेटियों को ऐसे विवाह की ओर धकेलना चाहेंगे? बहरहाल….. मैं जानना चाहता था कि बतौर भाषा की किताब में ऐसी कविताओं के प्रति आम धारणा क्या है। बदस्तूर आ रही टिप्पणियों ने मेरा हौसला बढ़ाया और मैं इस पर विस्तार से लिख रहा हूं। उम्मीद करता हूं कि आप सहमत हों न हों। लेकिन धैर्य से, गंभीरता से, इसे पूर्व की भांति अवश्य पढ़ेंगे। हम वाक़िफ़ हैं कि बेहतर और गंभीर पाठक कौन होते हैं।

अभिभावक, लेखक और अध्यापक कौन होते हैं? ज़ाहिर है मेरी तरह आप भी मानते ही होंगे कि इन सभी के लिए आवश्यक है कि वह नया सीखने और समझने के लिए तत्पर हों। वह जान चुकी और मान चुकी मान्यताओं, धारणाओं को अंतिम सत्य न मानें। वह हर बार खुद में अवलोकन करते रहने की क्षमता को ज़िन्दा रखते हों। वह निरंतर प्रयोग करते रहते हों। विश्लेषण करते हों। पुरानी मान्यताओं, समझ और धारणाओं की गठरी लिए न फिरते हों। बेहतर और गंभीर वही हैं जो नए ज्ञान और सृजन के निर्माण में पुरानी बातों, मान्यताओं और धारणाओं से खुद को अद्यतन करते रहें। हम सभी को इस ओर सोचना होगा कि क्या हम ऐसा करते हैं? इसे एक उदाहरण से और समझा जा सकता है। आजकल स्मार्ट फोन और एण्ड्रायड फोन सभी के पास हैं। हमें अक्सर अपने फोन को अपडेट करने की जरूरत क्यों पड़ती है?

फोन मंे पुरानी फाईलों को हमें क्यों हटाना पड़ता है? जवाब हम जानते हैं।हमें समझना होगा और खुद में पुरानों को नकारने का साहस बटोरना होगा। नकारने से पहले नकारे जाने के निष्कर्षों के आयामों की पड़ताल करनी होगी। हमारे भीतर बुजुर्गों की बातें, पुराने आदर्श व्यक्तित्वों के तौर तरीके गहरे घुसे हुए हैं। उनमें अगाध विश्वास रखे रहना और आंख मूंदकर यकीन करते रहना भी हमारे भीतर जमा हुआ है। उनका कद और प्रसिद्धि इतनी विशाल है कि बेहतर और गंभीर विचारक भी नए विचारों को प्रस्तुत करने का साहस नहीं बटोर पाते। क्या ऐसा करते रहना सही है? फिर इस कविता के आलोक में बात आगे बढ़ाते हैं।

मैंने ये नहीं कहा कि अयोध्यासिंह उपाध्याय जी ने ये कविता रचकर गलती कर दी। मैंने यह भी नहीं कहा कि इस कविता को साहित्य से खारिज कर दिया जाना चाहिए। हाँ, ये या ऐसी कविताएं यदि आज भी स्कूली पाठ्य पुस्तकों में हैं, वह भी भाषा की पुस्तक में तो ये या ऐसी कविताएं अब नहीं होनी चाहिए। किसी भी दशा में नहीं होनी चाहिए। क्यों न हों? धैर्य से पढ़ने का विनम्र निवेदन तो करना ही चाहूंगा। यह कविता लगभग अस्सी-नब्बे साल पहले लिखी गई बताई जाती है। हरिऔध जी का देहावसान आजाद भारत के अस्तित्व में आने से पहले हो चुका था। तो तय है कि उस दौर में उपजी कविता, कविता के सन्दर्भ, देशकाल, परिस्थितियां, वातावरण ऐसा ही रहा होगा। लेकिन आज न तो ऐसी स्थितियां हैं न ही परिस्थितियां हैं। न घर में, न समाज में और स्कूल में तो कतई नहीं है। ‘लाल’ की भी परवरिश हो कहना अलग बात है और लाल की ही परवरिश की बात करना में अंतर है।

आज केवल लाल ही लाडला है, ऐसा आज नहीं है। लाली की भी परवरिश होती है। आज के सन्दर्भ का कोई भी स्कूल मात्र लालों के सन्दर्भ में नहीं चल रहा और न ही चलना चाहिए। यदि चल रहा है यानि जहां लालों को वर्चस्व का सिद्वान्त ही पढ़ाया जा रहा है तो ये प्राकृतिक नियम के विरुद्ध है। हमारी संवैधानिक व्यवस्था के भी विरुद्ध है। यहां यह कहने का आशय कदापि नहीं है कि आप हर कविता को लिंग भेद की दृष्टि से ही देंखें। कोई कविता ऐसी क्यों न हो जिसमें बालक ही बच्चों का प्रतिनिधित्व करता ध्वनित हो। संभव है। यह भी संभव है कि कोई कविता केवल बालिका की ओर से पूरे बच्चों का प्रतिनिधित्व करने वाला स्वर दे रही हो। इस पर फिर कभी बात जरूर करूंगा।

आज तो यह आधी दुनिया को हाशिए पर रखने वाली कविता मानी जाएगी, यदि आज का कवि ऐसी रचना लिखेगा। पाठ्य पुस्तक में तो इसे रखना बेहद संकीर्ण माना जाएगा। मुझे हैरानी होती है कि आज पचास से साठ की उम्र पार कर चुके कई शिक्षक भी इस कविता को स्कूली किताब के हिस्से के तौर पर गर्व महसूस कर रहे हैं। मुझे हैरानी होती है कि भाषाई कौशल में मौलिक अभिव्यक्ति और स्वतंत्र चिंतन से इतर वे रटने को आज भी शैक्षिक सिद्वान्त का सूत्र मान रहे हैं। सहज है, सरल है तो बढ़िया है। इस कविता से कौन से भाषाई कौशल का विकास होगा? इस पर विचार शून्यता ही दिखाई देती है। मैं फिर से अपने लिखे दूसरे वाक्य पर आता हूँ। मैंने इस कविता को पाठ्य पुस्तक में न शामिल होने की बात की है। मैंने कविता, कविता के शिल्प और कवि के कर्म को चुनौती नहीं दी है। इस कविता को साहित्य से खा़रिज नहीं किया है। मैंने तो बस इतनी सी बात कही है कि यह पाठ्य पुस्तकों में न हो। पहले थी और आज कम से कम सार्वजनिक विद्यालयों की पाठ्य पुस्तकों में ऐसी कविताएं नहीं ही हैं। क्यों नहीं हैं? इस पर आप भी विचार कीजिए।

याद कीजिए कि कुछ साल पहले ही मुंशी प्रेमचन्द जी की एक कहानी में मात्र एक शब्द ‘…….‘ आया था, जिसकी वजह से एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक से वह पाठ हटा दिया गया था। एक और उदाहरण देता हूं। बहुत पुरानी बात नहीं है एक कार्टून बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जी पर था और वह पाठ्यपुस्तक में था, उसे भी रेखांकित होने पर हटाना पड़ा। आप कह सकते हैं कि यह राजनीतिक मसले रहे होंगे। जी नहीं, ये राजनीतिक नहीं, सामाजिक मसले और संवैधानिक मसले हैं। जिन वजहों से संज्ञान लिया जाता है उस पर गहन अध्ययन के बाद आपत्तिजनक पाठ सामग्री को हटाना पड़ता है। याद दिलाता चलूं कि स्कूल को एक सार्वजनिक और सामाजिक संस्था माना जाता है। मैं अपने घर में निजता के अधिकार का प्रयोग कर सकता हूं।

लेकिन स्कूल किसी भी दशा में समस्त बच्चों को सामाजिक, लैंगिक, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। स्कूल में एक-एक बच्चे की गरिमा सुनिश्चित की जाती है। बंधुता और समानता से कोई खिलवाड़ नहीं कर सकता। कोई पाठ भी नहीं। बड़ी से बड़ी महान रचना भी नहीं। बड़े से बड़ा महान लेखक हो तो हो। यदि उनकी रचना का एक शब्द भी संवैधानिक मूल्यों से इतर ध्वनि दे रहा है तो उम्दा रचना को बाहर का रास्ता देखना ही पड़ता है। जानकार जानते हैं कि रटना सीखना नहीं होता। कल्पना और अनुमान हमारी अभिव्यक्ति को उड़ान देते हैं। लेकिन आज बेसिर-पैर की कल्पना बेतुकी मानी जाती है। केवल लय, तुक और ताल को वाहवाही का आधार मानना ठीक नहीं है।

भाषा का कोई भी पाठ भाषाई कौशल के विकास के लिए तैयार होता हैं, नैतिक शिक्षा देने के लिए नहीं तैयार होता। प्रवचन देने के लिए भी नहीं होता। भाषा के पाठ किसी संगीत की किताब के अध्याय नहीं हो सकते। कम से कम बुनियादी कक्षाओं में तो कतई नहीं। आप कह सकते हैं कि इसमें आपत्ति क्या है? तो यह कहना है कि कक्षाओं में लाल ही नहीं पढ़ते लालियां भी पढ़ती हैं। यह बालिका भाव को नहीं बाल भाव को पोषित करती है। राजा बेटा सरीखा भाव पहली ही पंक्ति देती है। साहित्य कितना भी प्रभावपूर्ण है लेकिन वह पाठ्य पुस्तक का भी हिस्सा बने, जरूरी नहीं। हमारी पाठ्य पुस्तक सबके लिए है। हमारे देश में पड़ोसी मुल्क के बच्चे भी यदि पढ़ रहे हैं तो उनकी भावनाओं को आहत करने का भी हमें अधिकार नहीं है। संवेदना सबसे बड़ी बात है।

संवेदनाएं और भावनाओं के ऊपर सरलता का लेप नहीं चढ़ाया जा सकता। ये सरलता, गेयता, तुक, ताल आज स्वीकार्य नहीं है। सीख और संदेश तो कतई नहीं। भाषा की पुस्तक का मक़सद इतिहास पढ़ाना नहीं है। भाषा की पुस्तक नैतिक शिक्षा देने के लिए नहीं है। आप लाख चिल्लाते रहिए कि नैतिक शिक्षा जरूरी है। क्या खाक जरूरी है? आप और हम आम जीवन में कितने नैतिक हैं? लाल और सफेद कपड़े में हर घर में अपने-अपने धर्म ग्रन्थों को पीढ़ियों से रखते आ रहे हैं। हम कितने मानवीय बने हैं? हमारे भीतर कितनी नैतिकता भरी पड़ी है? यह सब जग-जाहिर है। यह हर वर्ग, धर्म, जाति, संप्रदाय और वय वर्ग को समान प्रतिनिधित्व देने वाला मसला है। यह कविता बालक-बालिका दोनों को समान प्रतिनिधित्व नहीं देती। इसे पुष्ट करने के लिए मैं आपका ध्यान दो प्रतीक चिह्नों की ओर दिलाना चाहता हूं। आपने जरूर वह दो प्रतीक चिह्न देखें होंगे। नहीं देखें?

जरूर देखिएगा। सर्वशिक्षा अभियान का यह प्रतीक चिह्न है। सब पढ़ें, सब बढ़ें। पेंसिल पर बैठे दो बच्चे। एक बालक और एक बालिका। देखकर या यादकर बताइएगा कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं। दूसरा प्रतीक चिह्न मध्याह्न भोजन का है। उसे देखकर भी बताइएगा कि वह कैसी ध्वनि दे रहा है। पाठ्यपुस्तकों के पाठों की ध्वनि खासकर तब, जब भाषा के पाठ हों, किसी भी दशा में अबंधुता बढ़ाने वाले नहीं होने चाहिए। चित्र से भी नहीं और संकेत मात्र से भी नहीं। शीर्षक से भी नहीं और कथ्य से भी नहीं। भाव से तो कदापि नहीं। हमें भाषा के व्यापक मक़सदों को भी फिर से स्मरण करना होगा।

हम भाषा के पाठों को सही-गलत ठहराते समय इतिहास, संस्कृति, परम्परा और धर्म पर बात करने लग जाते हैं। पाठ्यपुस्तक का कोई भी पाठ किसी धर्म विशेष का संवाहक नहीं हो सकता। कोई भी पाठ किसी धर्म पुस्तक का झरोखा नहीं हो सकता। किसी वय वर्ग को और लिंग को विशेष प्यार-दुलार और लाड़ ध्वनित करता पाठ होना ही नहीं चाहिए। इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है कि हम चालीस साल पहले कक्षा पहली में थे। तब हम इस कविता को देखते थे। इसके चित्र को निहारा करते थे। महीनों हमें ये कविता रटाई जाती थी। तब हमारे स्कूल के आस-पास इस किताब के अलावा कोई और किताब नहीं हुआ करती थी। एक अकेली किताब। इसके अलावा दूसरी किताब तो क्या, एक चित्रात्मक पेज भी दूसरा नहीं हुआ करता था।

हम चित्रात्मकता के लिए दीवार पोस्टर, चुनावी पोस्टर, माचिस की डिबिया और ज़्यादा शहरी हुए तो सिनेमा के पोस्टरों को निहारा करते थे? याद आया? घर में आता पारले जी का बिस्कुट और निरमा डिटर्जेन्ट का चित्र। रथ वनस्पिति का चित्र या जैट माचिस। याद आया? और आज? आज तो तमाम एप्स हैं। कस्बों-देहातों में अख़बार हैं। व्हाट्स एप है। गूगल है। अब? इस कविता से रटने के स्तर पर छोड़कर, नैतिकता की दुहाई देकर, लय, छंद तुक, ताल को छोड़कर क्या हासिल होने वाला है? इसका चित्र? गौर से देखिए! आज के सन्दर्भ में यह कहना कि यह कविता सुबह उठने की वकालत करती है। यह और भी हास्यास्पद ही है। हम सब जानते हैं कि आज के सन्दर्भ में दिन-रात का अंतर ही पाट दिया गया है। कुछ शहर तो कभी सोते ही नहीं। ‘पूरी नींद लेने के बाद ही उठना चाहिए।‘

यह कविता जल्दी सोने की बात करती तो बात समझ में आती। आज तो मेधावी छात्र क्या और शिफ्ट में काम पर जाने वाले कार्मिक क्या? देर रात तक जगते हैं और जल्दी नहीं उठते। पूरी नींद लेते हैं। जिस कक्षा के स्तर पर यह कविता पढ़ाई जाती रही है वहां सुबह उठना चाहिए, ध्वनित होता रहा है। ये ‘चाहिए‘ शब्द मात्र ‘सीख-सन्देश‘ और ‘उपदेश‘ से भरा मात्र है। ‘चाहिए‘, ‘ये मत करो‘, ‘वो मत करो‘ की ध्वनि उपदेशात्मक है। उपदेश किसी को नहीं भाते।

आज के बच्चों को तो कतई नहीं। मुझे तो उन पैरोकारों पर हंसी आती है जो ऐसी कविताओं को पाठ्यपुस्तकों में आज शामिल करने की वकालत कर रहे हैं। अपनी खोखली, अतार्किक जड़ताओं का ही प्रतिफल है कि वे जानते ही नहीं कि भाषा के व्यापक और असली मक़सद हैं क्या। हास्यास्पद बात तो यह है कि मैं भली ही शिक्षा जगत के नामचीन संस्थानों में काबिज हो गया हूं। ऐसे संस्थानों में रहा हूं जो अध्यापकों का अभिमुखीकरण करते हैं। पहले तो मेरा अभिमुखीकरण होना जरूरी है। मैं पाठ्य पुस्तक लेखन, संपादन से जुड़ा हूं। खुद को बाल साहित्यकार मानता हूं।

पुरस्कार-सम्मान का पिपासु हूं। खुद को श्रेष्ठतर अध्यापक मानता हूं। संबंधों के जरिए वहां तक तो पहुंच गया लेकिन खुद की जड़ताओं को दूर नहीं कर पाया। मैं चेतना के स्तर पर इतना विचार शून्य हूं कि इशारों में दूसरे अहसास कराते तो हैं लेकिन मैं समझना ही कहां चाहता हूं? बहरहाल मुझे देखिए कि एक कविता है छह साल की छोकरी, भर कर लाई टोकरी। ये कोई कविता है? बच्चे क्या सीखेंगे? हमारे यहां तो छोकरी वो होती है जिसके मां-बाप नहीं होते। जब मुझे बताया जाता है कि अब यह कविता तो आगामी अप्रैल से कक्षा एक में पूरे उत्तराखण्ड के बच्चे पढ़ने वाले हैं। मैं हैरान हो जाता हूं। तब छोकरी शब्द पर बात हुई। शब्दों के विस्तार पर बात होती है। आंचलिकता और शब्दों की सार्थकता पर बात हुई तो मैं बगले झांकने लगता हूं। दृष्टि भी गहरी हो और दृष्टिकोण भी। यह कैसे होगा? जब हम नये से नया पढ़ेंगे। पुराना भी पढ़ेंगे।

देशकाल और परिस्थितियों का विश्लेषण करेंगे। बच्चों का मनोविज्ञान जानेंगे। ‘आदेशात्मक‘ और ‘नसीहतों’ से इतर सहयोगात्मक रचना सामग्री पर गौर करेंगे। इस कविता में बच्चों की ध्वनि है ही नहीं। पूरी बात मां के मुख से कही जा रही है वह भी सीख और नसीहत भरी। आज पूरी दुनिया में इस तरह के साहित्य को नकारा जा रहा है जो बड़ों की ओर से बच्चों को सीख के तौर पर दिया जा रहा है। ठूंसा जा रहा है। बच्चों को किसी भी युग में सुबह उठना अच्छा नहीं लगता। कभी नहीं। हमें भी नहीं लगता। पूरी कविता बड़ों की नज़र से दुनिया दिखाने वाली है। बड़ों की राय कि व्यर्थ में न समय गंवाओं। दूसरी तरफ आप कहते फिरते हैं कि पूरी जिन्दगी में हसीन क्षण तो बचपन के थे। तो बचपन को जीने दो न? वे अच्छी तरह से जानते होंगे जो पाठ्य पुस्तक लेखन-निर्माण प्रक्रिया से जुड़े हैं। बुनियादी कक्षाओं में कविता लय, ताल, छंद में ही हो ये आज जरूरी नहीं है।

इससे ज़्यादा ज़रूरी है कि वहां उनकी अस्मिताओं की रक्षा हो रही हो। वहां उनकी दुनिया की सकारात्मक चीज़ें शामिल हो रही हों। चित्र और कथ्य कल्पना को और विस्तार देते हों। वह भी बगैर किसी पंथ, लिंग और धर्म को तरजीह देकर या किसी को हतोत्साहित कर या किसी को दरकिनार कर। पाठवार ग्रिड निर्माण के अनुभव भी बताते हैं कि बुनियादी कक्षा में कविताओं का चयन करते समय बहुत जरूरी बातें जो ध्यान में रखनी होती है उसमें चित्र, शब्द और चित्र के सह-संबंध खास हैं। शब्द पहचाने और पढ़ने की शुरुआत के अवसर देने वाली कविता हों। बचकानी और बेतुकी नहीं। कुछ खास स्थापित करने वाली नहीं। ‘तुम बुरे हो।‘ ‘तुम्हारी ये आदतें अच्छी नहीं हैं।‘ ‘तुम्हें ये नहीं करना चाहिए।‘ ‘सच बोलना चाहिए।‘ ‘जीवों पर दया करो।‘ इनसे कभी काम नहीं चला और न चलेगा।

इससे पहले संवेदना के स्तर पर और आनंद के जरिए उनकी अहमियत वाले पाठ चाहिए। अभिव्यक्ति और चिंतन को सक्षम बनाने वाले भाव चाहिए। यह सकारात्मक पाठों से आएंगे। ये सही है और ये गलत है, इस शैली को थोपने वाली रचनाएं नहीं चलेंगी। ‘सुबह उठना चाहिए।‘ वाली नसीहतों को मान्यता देने वाले और उस पर अडिग रहने वाले आज भी बच्चों को हरा आसमान नहीं बनाने देते हैं। बच्चों को पत्तियों में हरा रंग ही भरने को बाध्य करते हैं। बच्चे जब कला की ओर उन्मुख हो रहे होते हैं तो यह कहने से नहीं चूकते अभिभावक कि यह काम खाली समय में करा करो। छुट्टी के दिन किया करो। अभी और विषय पढ़ो। यह चुके हुए अभिभावक हैं। चुके हुए साहित्यकार हैं और अध्यापक के तौर पर हो गए अध्यापक हैं बन गए अध्यापक नहीं हैं।

ये सब यह नहीं जानते कि बच्चे की कल्पना का संसार अनूठा है। सृजनात्मकता एक ऐसी उड़ान है जिसकी डोर जितनी ढीली छोड़ेंगे उतनी ही वह और ऊपर जाएगी। हमारा आग्रह आज भी कविता के शरीर पर ही जाता है। कविता की कला यानि उसकी बनावट जिसमें छंद, अलंकार, गेयता, तुक आदि है। कविता की आत्मा पर कम ही ध्यान जाता है। आत्मा क्या है? आत्मा उसका भाव है। वह कैसा विचार दे रही है। क्या स्थापित करती है। रस और संवेग क्या महसूस कराती है। इस पर वे चर्चा करते हैं जो आधुनिक भाव-बोध में लिखी जा रही कविताओं से ही अनभिज्ञ हैं।

आइए थोड़ा ओर पढ़ लीजिएगा-

ऽ अयोध्या सिंह उपाध्याय का स्वर्णिम लेखन 1910 से 1930 के मध्य माना जाता है। संभवतः यह रचना इसी मध्य लिखी गई होगी। इस कविता की उम्र लगभग 90 साल की हो गई होगी। उस दौर का बालपन और आज का बालपन एक-सा नहीं रह गया है।

ऽ उस दौर में साक्षरता दर 10 प्रतिशत भी नहीं थी। आज हमारी साक्षरता दर 75 फीसदी है।

ऽ उस दौर में हम अंग्रेजों के गुलाम थे। तब बाल परवरिश के उद्देश्य कुछ और थे। आज हम स्वाधीन भारत का हिस्सा हैं। सूचना तकनीक का युग है। आज शिक्षा के उद्देश्यों में व्यापक फेलाव हुआ है।

ऽ आबादी के लिहाज़ से भी परिवार संयुक्त परिवार थे। बढ़ती आबादी पर ठोस निगाह नहीं थी।

ऽ तब वंशवाद प्रचलित था। महिलाओं और बालिकाओं की स्थिति भिन्न थी। पुत्र मोह और बालक ही परिवार और समाज की रीढ़ था। आज ऐसा नहीं है।

ऽ आज बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ पर इसलिए भी जोर है कि पिछले सौ सालों में हमने पुत्र मोह को इतना बढ़ा दिया, इतना बढ़ा दिया कि बालिकाओं की अस्मिता और अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। इस लिहाज से भी यह कविता और कविता का चित्र बालिकाओं के अस्तित्व को एक सिरे से खारिज करता है। जो आज के दौर में कदापि भी स्वीकार्य नहीं है।

ऽ पानी लाई हूँ मुँह धो लो का भाव सीधा यह जा रहा है कि हे बच्चे तुम इतने प्यारे हो कि मुंह धोने के लिए मां पानी बिस्तर पर लाती है। स्वावलम्बी तो नहीं परावलम्बी बनाने का भाव स्थापित हो रहा है।

ऽ बच्चों पर बड़ों की चिंताएं थोपी जा रही हैं। बच्चों की अपनी ध्वनि नहीं है। बच्चे सुबह को लेकर क्या सोचते हैं? यह कहीं नहीं है।

शिक्षाविद् वायगोत्स्की लिखते हैं-‘भाषा उस शीशे की खिड़की की तरह है जिससे हम बाहर की दुनिया को देखते हैं। जब हम बाहर की दुनिया को देख रहे होते हैं तो हमारा ध्यान शीशे पर नहीं होता है। जब हमारा ध्यान शीशे पर जाता है तब हम समझ पाते हैं कि बाहर का संसार जैसा हमें दिख रहा होता है, उसमें उस शीशे का भी कुछ योगदान है।‘

आप कह सकते हैं कि फिर कैसी कविताएं हों। तो कुछ बानगी देना अपना दायित्व समझता हूं। राम सिंहासन सहाय मधुर की एक कविता है झूला। आप इसे जरूर पढ़िएगा। देखिएगा कि बच्चों की दुनिया, उन्हीं के मुख से कैसी ध्वनि देती है।अम्मा आज लगा दे झूला,इस झूले पर मैं झूलूँगा।इस पर चढ़कर,ऊपर बढ़कर,आसमान को मैं छू लूँगा।झूला झूल रही है डाली, झूल रहा है पत्ता-पत्ता।इस झूले पर बड़ा मज़ा है,चल दिल्ली ले चल कलकत्ताझूल रही नीचे की धरती,उड़ चल, उड़ चलबरस रहा है रिमझिम, रिमझिमउड़कर मैं लूटूँ दल-बादल। आप कह सकते हैं इसमें भी तो बालक मात्र की ध्वनि आ रही है। लेकिन इसके चित्र देखें तो इस बालक को एक बालिका झूला रही है। वहीं दूसरी डाल पर एक बालिका भी झूल रही है। इस पूरी कविता में एक बालक है और दो बालिकाएं हैं। मज़ेदार बात यह है कि जिस बालक की बारी झूलने की है वह वय वर्ग में थोड़ा बड़ा लग रहा है और उसे झूलाने वाली छोटी बालिका। तीनों बच्चे खिलखिलाकर हँस रहे हैं। पूरा आनन्द, पूरा मज़ा। कोई सीख नहीं, कोई संदेश नहीं। कोई चाहिए-वाहिए नहीं। एक कविता का और ज़िक्र करना चाहूंगा। यह कविता सुरेन्द्र विक्रम जी की है। आप भी पढ़िएगा और आनंद लीजिएगा। इन दो कविताओं की विस्तारित ध्वनि पर विस्तार से फिर कभी लिखूंगा।

फिलहाल कविता का आनंद लीजिएगा।

मन करता है सूरज बनकरआसमान में दौड़ लगाऊँ।

मन करता है चंदा बनकरसब तारों पर अकड़ दिखाऊँ।

मन करता है बाबा बनकरघर में सब पर धौंस जमाऊँ।

मन करता है पापा बनकरमैं भी अपनी मूँछ बढ़ाऊँ।

मन करता है तितली बनकरदूर-दूर उड़ता जाऊँ।

मन करता है कोयल बनकरमीठे-मीठे बोल सुनाऊँ।

मन करता है चिड़िया बनकरचीं-चीं चूँ-चूँ शोर मचाऊँ।

मन करता है चर्खी लेकरपीली-पीली पतंग उड़ाऊँ।

अगले किसी आलेख में एक कविता कैसे हमारे खास कौशलों का विकास करती है, उस पर चर्चा करना चाहूंगा। सुनने, बोलने, पढ़ने और लिखने के साथ-साथ विचारों को सुनना और उन्हें सुनकर समझना की ताकत भी कविता में होती है। पाठक पढ़कर भाषाई विस्तार में खुद को समृद्ध करने का काम भी अनायास कविता के माध्यम से कर पाते हैं।

भाषा शिक्षण के उद्देश्यों पर विस्तार से फिर किसी आलेख में चर्चा की जाएगी। उम्मीद है कि तमाम असहमतियों के बावजूद आप इस ओर विचार करेंगे। यकीनन आपकी टिप्पणियों ने मुझे और गहराई में जाने का अवसर दिया। बस मैं आपसे एक निवेदन करना चाहूंगा कि अपने आग्रह बना के रखिए। लेकिन अपने-अपने प्रदेशों में सार्वजनिक विद्यालयों की भाषा की पाठ्य पुस्तकें ज़रूर देखिएगा। विशेषकर कक्षा एक,दो,तीन,चार और पांच की अवश्य देखिएगा। कुकरमुत्तों की तरह उग आए निजी स्कूलों की बात मैं नहीं कर रहा। इसके साथ एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकें भी ज़रूर देखिएगा। एक बात ओर आपने जब से मोबाइल की दुनिया में कदम रखा है, तब से कितने मोबाइल और सिम बदल दिए हैं? कम से कम मैं नई पीढ़ी को ऐसी कविताएं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करूंगा जो उन्हें आज्ञाकारी होने से इतर स्वतंत्र समझ के अनुभव करने के बाद निर्णय लेने का नज़रिया दे सके। उन्हें दब्बू न बनाए। उन्हें सहमत होने से अधिक असहमत होने की ओर ले जाए। शांत प्रवृत्ति से इतर उन्हें बेचैन होने का आदत डाल पाए। सहज, सरल और शांत कविता से अधिक मैं ऐसी कविताएं पढ़ना और पढ़ाना पसंद करूंगा जो उनमें आलोचनात्मक क्षमता पैदा कर सके। अंत में ये धरती, ये आसमान, ये बादल ये हवा कहां शांत हुई जाती है जो हमारे नौनिहाल शांत बनें।फिलहाल इतना ही।॰॰॰

-मनोहर चमोली ‘मनु’

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By manohar

One thought on “स्कूली किताब : कविता के मायने”

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