मनोहर चमोली के जिज्ञासु सपनों का संसार
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हमारी पीढ़ी का शायद ही कोई बच्चा होगा जिसने बचपन में ‘चंदामामा’ की कहानियाँ नहीं पढ़ी होंगी। एक तरह से पढ़ने-लिखने का संस्कार पैदा करने वाली यही एकमात्र पत्रिका थी। स्कूली किताबें जो काम नहीं कर पाती थीं, ‘चंदामामा’ और इसके साथ अनपढ़ माँ-दादी की कहानियाँ ये संस्कार पैदा करते थे। सही अर्थों में ये लोग ही बच्चों में कला-संस्कार पैदा करने वाले शिक्षक थे। बाद की ज़िन्दगी में स्कूल-बैगों से पिसते बच्चों के कन्धों और उन्हें ढोते पेरेंट्स का जमाना आया। संयुक्त परिवार टूटे, कुछ जगहों में कामकाजी दंपत्ति के घर पर बूढ़े-लाचार माँ-बाप ने यह भूमिका निभाई, अब जमाना एकदम बदल गया है। बस्ते का रूप भले ही बदला हो, एक नया बस्ता हर बच्चे का सबसे आत्मीय हिस्सा बन गया है और वही उसका सबसे प्यारा दोस्त।
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बच्चों का दोस्त डिजिटल मोबाइल.
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कोई भी परिवर्तन अच्छे-बुरे की तराजू पर सवार होकर नहीं आता। जैसे उम्र लौटकर नहीं आती, उसी तरह सपनों का संसार भी। चाहे बच्चे हों, जवान; बूढ़े हों या औरत और मर्द; या फिर शायद पेड़-पौधे, कीट-पतिंगे; अकेली खड़ी दिखाई देने वाली शिलाएँ, निरंतर बहती नदियाँ और हवाएँ, रातों को झिप-झिप करते सितारे, चाँद और अँधेरा। ये सब सपने देखते हैं और सभी अनंत काल से एक-दूसरे के साथ उन्हें बांटते आ रहे हैं। सपने कभी मरते नहीं, फर्क शायद यह आ गया है कि आदमी ने उन पर अपना कब्ज़ा कर लिया है। वे उतने ही दिखाई देते हैं जितना आदमी देखना चाहता है। इन्हीं सपनों में से उसने अपना एक स्वतंत्र संसार रचा है और हमारे चारों ओर एक विशाल-खुशहाल दुनिया खड़ी कर दी है। अब इस खुशहाली के बीच से आदमी अपने खोए हुए सपनों के सपने देखने लगा है। सपनों का सिलसिला रुका नहीं है; शायद रुकेगा भी नहीं। यह तो अनंत प्रकृति की जैविक प्रक्रिया है जो कब तक चलेगी, इसे शायद खुद प्रकृति भी नहीं जानती। तब क्या सब कुछ अपने हाल पर छोड़ दिया जाए? ऐसे में सपनों की क्यों चीर-फाड़ की जाय! उनके बारे में सोचा ही क्यों जाय?

जिस तीव्र गति से वैज्ञानिक जानकारी का विस्तार हुआ है, यह समय की माँग है कि बच्चों को जो भी जानकारी दी जाय वह पूरी तरह से वैज्ञानिक तथ्यों और प्रमाणों के द्वारा पुष्ट हो। ब्रह्मांड और आकाश-गंगाओं को लेकर रोज-रोज नए-नए तथ्य सामने आ रहे हैं और लगातार उनका विस्तार हो रहा है। कुछ समय पूर्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक और कवि गौहर रजा की ब्रह्मांड की उत्पत्ति को लेकर हिन्दी में एक चर्चित किताब ‘मिथकों से विज्ञान तक’ प्रकाशित हुई जो विगत छह महीनों में भारत में सबसे अधिक बिकने वाली किताब है। शायद वैज्ञानिक समझ को मूल रूप में समझाने वाली यह अब तक प्रकाशित एकमात्र किताब है जो किसी मत-मतांतर और धार्मिक आग्रहों से मुक्त होकर ब्रह्मांड के विकास तथा विस्तार के बारे में शुद्ध वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर बताती है। बच्चे सपने देखते हैं, उन्हीं के आधार पर उनके संस्कार और जानकारियों का संसार निर्मित होता है और वे संसार को देखने लगते हैं। बच्चों के इस संसार को दिशा देने में निश्चय ही उस साहित्य का सबसे अधिक योगदान होता है जो उन्हें बचपन में दिया जाता है। मनोहर चमोली हाल में उभरे एक ऐसे लेखक हैं जो इसी तरह का साहित्य दे रहे हैं, अपनी सीमाओं और भरपूर सामर्थ्य के साथ।
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मनोहर चमोली के जिज्ञासु सपनों का संसार
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1973 में टिहरी जिले के पलाम गाँव के एक मध्यवित्त परिवार में जन्मे मनोहर चमोली ‘मनु’ बाल-लेखन के क्षेत्र में बहुत तेजी से उभरे कथाकार हैं। उनके ‘अंतरिक्ष से आगे बचपन’ और ‘जीवन में बचपन’ कहानी-संग्रह बच्चों के बीच खूब लोकप्रिय हुए हैं। उर्दू और मराठी में तीस से अधिक कहानियों का और ‘अब तुम आ गए काम से’ कहानी का बीस से अधिक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। ‘प्रथम’, ‘रूम टु रीड’, ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ आदि संस्थाओं से बीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी बाल-पुस्तकों के बेहद भावपूर्ण चित्र ख्यातिप्राप्त चित्रकारों – अनुप्रिया, मयूख घोष, जितेन्द्र ठाकुर, प्रशांत सोनी, जगदीश जोशी, कनिका नायर आदि ने तैयार किये हैं जो बड़ी मात्रा में बच्चों के बीच पहुँची/ पढ़ी गई हैं और आज भी पहुँच रही हैं। स्वेतवर्ण प्रकाशन, दिल्ली से उनकी मोहक किताब ‘कहानियाँ बाल मन की’ का इसी वर्ष दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ है जो पक्की जिल्द (हार्ड बाउंड) में भी अपने पाठकों का निरंतर विस्तार कर रही है।
मनोहर चमोली वैज्ञानिक दृष्टि-संपन्न लेखक हैं इसलिए उनकी कहानियों में बाल-मन की कोरी कल्पनाएँ नहीं, आज के बच्चों के मन में उठने वाले तर्क-वितर्कों से रोचकता के साथ जूझने की प्रवृत्ति है। उनकी भाषा में भी बच्चों की-सी चंचलता है और वाक्य-विन्यास भी उसी के अनुरूप चुस्त-दुरुस्त। सबसे खास बात यह है कि कहानियों के बीच लेखक की किसी रूप में घुसपैठ नहीं है। वह न कहानी सुनाकर मनोरंजन अथवा ज्ञान प्रदान करने वाला लाल-बुझक्कड़ है और न उसमें खुद को बच्चों का दोस्त कहलाने का दम्भ अथवा याराना अंदाज़ है। सब कुछ पाठक के बीच घुसकर मानो अपनी ही जिज्ञासाओं को लेकर की गई बातचीत जैसा है.

छोटी-छोटी ये कहानियाँ आदमी की अपेक्षा जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों और कीट-पतिंगों के आपसी संवाद हैं, जो अंततः मनुष्य के संसार का ही प्रतिरूप हैं। एक अच्छी कलाकृति की तरह वे बच्चों का आत्मीय समानांतर संसार रचती हैं.
“ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। कई बार चींटी और हाथी आमने-सामने आ जाते। हाथी चिंघाड़ता। चींटी से कहता, ‘देखकर चलो। मैं कुचल भी सकता हूँ.’
चींटी भी अकड़ जाती। जवाब देती, ‘मैं काट भी सकती हूँ.’
हाथी हवा में पैर उठाता। वह तीन पैरों पर खड़ा हो जाता। चींटी अपनी चाल चलती हुई आगे बढ़ जाती। वह दूसरे किनारे पर जा पहुँचती। हाथी लम्बी साँस लेता। चींटी को घूरता। फिर झूमता हुआ आगे बढ़ जाता। जब भी हाथी और चींटी मिलते, एक-दूसरे को चिढ़ाते। कभी-कभी बहस भी हो जाती.
एक दिन की बात है। दोनों आमने-सामने आ गए। हाथी बोला, ‘पहले मुझे जाने दो।’
चींटी बोली, ‘चले जाना। पहले मेरा एक काम कर दो। ’
हाथी ने कहा, ‘बोलो’
चींटी ने कहा, ‘मेरी पीठ खुजाओ। ध्यान रहे खुजली मिटनी चाहिए.’
हाथी हैरान हो गया। फिर बोला, ‘ये मुझसे न होगा।’
‘रूम टु रीड’ शृंखला में बड़े आकार के बीस पन्नों में लिखी गई किताबों के हर पन्ने पर सिर्फ एक-दो संवाद या ध्वनि-शब्द हैं, शेष पन्ने पर सम्बंधित चित्र उकेरे गए हैं जो सम्बंधित कहानी का समानांतर संसार रचते हैं। बच्चों में अपनी सहज जिज्ञासाओं को शब्द, वाक्य, चित्र और ध्वनि के माध्यम से अपना निजी संसार रचने का यह सर्वोत्कृष्ठ माध्यम है। इन्हें मजबूत कागज पर बच्चों की शरारत के साथ खिलवाड़ करने लायक इस तरह बनाया गया है कि बच्चे एक-दूसरे से खेलते भी हैं और सीखते भी। भाषा भी, वाक्य-विन्यास भी, कहने का ढंग भी; नैतिक शिक्षा भी और प्राणीमात्र के प्रति प्यार भी। आज के युग में शायद इसी की सबसे ज्यादा जरूरत है.
मनोहर चमोली की किताबें ‘रूम टु रीड’ सीरीज में प्रकाशित हैं जो बच्चों के लिए किताबें प्रकाशित करने वालु भारत की प्रमुख प्रकाशन संस्था है। किताबों के चित्र जगदीश जोशी, जितेंद्र ठाकुर और मयूख घोष ने तैयार किए हैं।
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बहुचर्चित साहित्यकार, शिक्षाविद् एवं समकालीन साहित्य के समालोचक लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ जी की दृष्टि मेरे मित्र और मेरे मित्रों के मित्रों तक भी पहुँचे सो, हू-ब-हू उनकी भित्ति से ले आया हूँ।