हाल ही में एक संगोष्ठी में जाने का अवसर मिला। देश भर के कथित नामचीन साहित्यकार जुटे थे। अच्छा लगा। कुछ साहित्यकारों ने घर बैठे इंटरनेटी मंच से अपनी बात रखी। एक दिवसीय संगोष्ठी समापन की ओर बढ़ने लगी। संगोष्ठी में एक माननीय मंत्री भी आए। साहित्यकार अपनी किताबें उन्हें सप्रेम भेंट करने लगे। एक-ठौ तो वे अदबवश ले लिए। फिर क्या था कि एक,दो,तीन,चार और पाँच (वे) साहित्यकार भी अपनी पुस्तकें भेंट करने लगे। मंत्री जो बोल दिए-‘‘भई। मैं क्या करूँगा इन सबका? घर में ढेर लग जाएगा।’’
अब यह सदन की कार्यवाही तो नहीं थी कि चिन्ता हो कि इसे अभिलेख में रखा जाए या नहीं। अपन तो उस ओर गए भी नहीं थे। पर मित्र बता रहे थे। क्या ऐसा कहा होगा?
बहरहाल….इसी संगोष्ठी की दूसरी बानगी भी आपकी नज़र है। एक पत्रिका के संपादक ने एक अंक उपस्थित साहित्यकारों-सहभागियों को बँटवाया। हर किसी ने हाथों-हाथ लिया। वहीं कुछ और कथित संपादक-मालिक अपनों को या परिचितों को अपनी पत्रिकाओं के अंक बांटते दिखाई दिए। यह सब देखकर अच्छा लग रहा था। पाँच बजे से पूर्व ही सभागार लगभग खाली हो चुका था। हम पाँच-एक हाल में रह गए थे। सुरक्षाकर्मी ने आकर हमें चौंकाया कि सभागार ही नहीं क्लब में ताला लगने का समय आ गया है। हम क्या करते। आयोजन तो खत्म हो गया था। मुझे अपने गंतव्य के लिए रात्रि 10: 22 तक प्रतीक्षारत होना था। मेरे प्रिय मित्र को 7ः 50 तक रुकना ही था। अलबत्ता हमारे साथ बेहद संवेदनशील आयोजन स्थल के शहरवासी संपादक तब तक हमारे साथ ज़रूर रहे जब तक हमें स्टेशन तक के लिए ऑटो उपलब्ध नहीं हुआ। उन्हें सलाम करना तो बनता ही है।
खैर…..सभागार में लगभग सौ कुसिर्यो के बीचों-बीच पच्चीस-छब्बीस मेज़ें अभी भी शोभायमान थीं। लेकिन वे अकेली नहीं थीं। उन मेज़ों पर बांटी गई पत्रिकाओं के पन्ने फड़फड़ा रहे थे। पत्रिकाएं भी थीं और कुछ साहित्यकारों के निजी संग्रह भी थे। दो-चार तो अपन ने भी उठा लीं। जिन्हें मैं नहीं उठा पाया। वे मुझसे बोल रही थीं-‘‘सुनिए। पाठकों का अकाल है। इसका रोना मत रोइए। न पढ़ने वालों में लिखने वाले भी हैं। और हाँ। कुपात्रों को, छद्म साहित्यकारों-कलमकारों को और सजग पाठकों को पहचान कर ही पढ़ने वाली सामग्री दें।’’
मैं क्या कहता? संगोष्ठी से किताबों की यह नसीहत तो लेता आया। वे पत्रिकाएं और संग्रह भी साथ ले आया जो मुझे दी ही नहीं गई थीं।
(सभी चित्र संगोष्ठी के दौरान घुमक्कड़ी के हैं!)
-मनोहर चमोली ‘मनु’
मनुजी कोईऐसी तरकीब बताइए की लोग पड़ने के प्रति प्रेरित हो सकें
रोचक सामग्री हो तो पढ़ा जाएगा। दूसरी बात यह कि हमारे पास हर चीज़ के लिए समय है बस पढ़ने के लिए नहीं है। यह समय निकालना बेहद निजी काम है। होना चाहिए..
प्रिय भाई
आपने तो वह सब खोलकर रख दिया जिसे अमूमन लोग नहीं बतातज है। पिछली बार भी यही हुआ था कि कुछ लोगों ने तो कार्यक्रम स्थल की वह फोटो भी वाहवाही में फेसबुक पर चेंप दी थी जहाँ कार्यक्रम हुआ ही नहीं था।
कार्यक्रम में संयम रखना चाहिए। एक जब पुस्तक भेंट करना शुरू करता है तो लोगों की लाइन लग जाती है। वास्तविकता भी यही है कि लोग पढ़ने को तो मारो गोली पुस्तकें साथ में भी नहीं ले जाते हैं। संगोष्ठियों में 80-90% लोग विषय पर बोलते ही नहीं हैं। सुझाव इतने आ जाते हैं कि मूल विषय की परिकल्पना गड्ढे में चली जाती है।
यह मेरा सैकड़ों संगोष्ठियों में भागीदारी करते हुए अनुभव रहा है। भई , संगोष्ठी में तैयारी करके जाओ। आउटपुट मिलना संगोष्ठियों का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।
सस्नेह
धन्यवाद! आपसे कुछ भी तो नहीं छिपा है। मुझे लगता है बदलाव बदलने से तो आएगा ही लेकिन बदलाव का पता भी तो हो। भेड़ चाल से खुद को अलग करने वाले भी बढ़ने चाहिए तभी बात बनेगी। सादर,