पिचहत्तर वर्ष के आंदोलन का लेखा-जोखा भी शामिल अणुव्रत में

पिचहत्तर वर्ष के आंदोलन का लेखा-जोखा भी शामिल

अणुव्रत मासिक पत्रिका है। प्रकाशन के उनहत्तर साल हो चुके हैं। साल दो हजार चौबीस का यह अंक मार्च-अप्रैल का संयुक्तांक है। यह विशेषांक बेजोड़ है। संग्रहणीय है। प्रणम्य भी। अंक बहुरंगीय है। आकर्षक है। पठनीय भी है। किसी भी पाठक के लिए चार सौ अट्ठानवे पन्ने पढ़ना श्रमसाध्य कार्य है। किसी भी सूरत में यह एक बैठक में पढ़ा भी नहीं जा सकता। यह आँखों के सामने रखे जाने वाला अंक है। बार-बार उलटने-पलटने के लिए है। कह सकते हैं जब भी बतौर इंसान कोई पाठक निराश-हताश हो और वह इस अंक के कुछ पन्ने उलट-पलट ले। पढ़ ले तो सुकून प्रापत कर सकेगा। यह तय है।


यह अंक बेहतरीन गुणवत्ता के साथ पाठकों के हाथ में पहुँचा है। छपाई मनमोहक है। आवरण की आयु दीर्घजीवी है। भीतर के पन्ने उम्दा कागज़ पर तैयार हुए है। जिल्दसाजी भी कसौटी पर कसी हुई है। पत्रिका अमूमन सभी मानकों पर खरी उतरी है। यही कारण है कि वनज दो किलो से कम नहीं होगा।


पत्रिका का यह विशेषांक अणुव्रत आंदोलन पर केन्द्रित है। यही कारण है कि पत्रिका के इस अंक को ‘अणुव्रत अमृत विशेषांक‘ कहा गया है। अहिंसक-नैतिक चेतना का प्रवर प्रतिनिधि अणुव्रत ‘अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी‘ की पत्रिका है। दो हजार चौबीस में सोसायटी अपनी स्थापना के पिचहत्तरवें साल में प्रवेश कर चुकी है। संभवतः इस गौरवमयी उपस्थिति को वृहत्तम आकार देना भी एक ध्येय रहा होगा। बहरहाल, इस अंक का मूल्य दो सौ रुपए है। सोच रहा हूँ कि इसे मनुष्यता का ‘आधुनिक ग्रन्थ’ कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। अलबत्ता में इसे धर्म ग्रन्थ नहीं कहूँगा। चूँकि इस अंक में साहित्य भी है। समाज भी है। यथार्थ भी है। पिछले पिचहत्तर वर्षों का अणुव्रत आंदोलन केंद्रित इतिहासपरक अंश भी है। मौजूदा पर्यावरणीय चिन्ता भी है। चिन्तन भी है। यह सब कारण इसे किसी धर्म विशेष के ध्येयार्थ से मुक्त करता है।


इस अंक पर दृष्टि डालें तो पाठकों की सहूलियत के लिए सामग्री को नौ भागों में बाँटा गया है। इक्कीस शुभकामना संदेश पत्रिका में शामिल हैं। कई सूबों के मुख्यमंत्रियों के सन्देश यहाँ पढ़े जा सकते हैं। दूसरे भाग में अणुव्रत आंदोलन केन्द्र में है। पाठक कई साध्वी-मुनियों के विचार-अनुभव यहाँ पढ़ सकते हैं। आचार्य तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ, आचार्य महाश्रमण से लेकर मुनि अनुशासन कुमार के विचार पाठक पढ़ सकते हैं। कुल मिलाकर बाईस अनुभवजनित आलेख इस पत्रिका में संकलित हैं। आचार्य तुलसी के आलेख को ही पढ़ते हुए एक दृष्टि मिलती है। पत्रिका को हाथ में लेते हुए पढ़ने का हठात् जतन सरल लगने लगता है।


लोकप्रिय, पठनीय पत्रिकाओं की अपेक्षा यह अंक लगभग चालीस गुणा वजनी है। आम पाठक तो दूर नियमित पाठक भी इस अंक को एक बैठक में नहीं पढ़ सकता। यह इसका मक़सद है भी नहीं। हाथ में आते ही पहली दृष्टि में पाठक के ज़ेहन में यह सवाल आ सकता है कि आखिर इसे पढ़ा क्यों जाए? सरसरी तौर पर पन्ने उलटने पर बार-बार रुकना पढ़ता है। शीर्षक, उपशीर्षक, उद्धरण उभरे हुए हैं। नज़़रे थम जाने को बाध्य होती हैं। देखने से इतर पठन की ओर जाने के लिए पाठक बाध्य हो जाता है।


अंक में आचार्य तुलसी का लेख है। उसका दसवां हिस्सा पढ़ते ही महसूस होने लगता है कि इस अंक के पाठकों को हासिल क्या होगा? संकीर्ण, मुनाफाखोर, व्यक्तिगत जीवन को खास तरजीह देने वाले मनुष्य इस अंक के पात्र नहीं हैं। बेहतर समाज के लिए चिंतित और मनुष्यता को सर्वोच्च प्राथमिकता देने वाले पाठक ही इस अंक की सामग्री को पढ़ने का प्रयास कर सकेंगे। संभवतः पत्रिका का मकसद मात्र पठनीय सामग्री परोसना नहीं है। अणुव्रत आंदोलन चाहता है कि मनुष्य के बेहतर होने की दिशा में लगातार बढ़ा जाए और प्राण छोड़ने से पहले मनुष्य शेष देहों में मनुष्यता के बीज बोकर जाए।


आचार्य तुलसी लिखते हैं-


‘‘राष्ट्रीय चरित्र के संदर्भ में तीन बातें महत्वपूर्ण हैं- राजनैतिक बुराइयां, सामाजिक कुरूढ़ियां और दुर्व्यसन। राजनीति से अलिप्त रहकर भी अणुव्रत ने राजनीति पर प्रभाव छोड़ा है। दलबदल की नीति, स्वार्थपरता और वोटों के विक्रय पर अणुव्रत ने जितना तीखा प्रहार किया है, शायद ही किसी आन्दोलन ने किया हो। संसदीय अणुव्रत मंच द्वारा आयोजित कार्यक्रम में सांसदों को जो खरी-खरी बातें सुनने को मिलीं, उनकी पलकें झुक गयीं। उस वातावरण ने वहाँ उपस्थित सभी सांसदों को अपना आत्मनिरीक्षण करने के लिए विवश कर दिया।
सामाजिक कुरूढ़ियों से समाज इतना जर्जर और सत्वहीन बन जाता है कि वह युग की किसी चुनौती को झेल ही नहीं सकता। अंधविश्वासों के चौखटे में पनपने वाली न जाने ऐसी कितनी कुरूढ़ियां हैं, जो सामाजिक विकास के आगे बाधाएं बनकर खड़ी हो जाती हैं। जन्म, विवाह, मृत्यु आदि जीवन के ऐसे कौन-से प्रसंग हैं, जिनसे संबंधित कुरूढ़ियां समाज की पीड़ा नहीं हैं। आर्थिक दृष्टि से बोझिल और अर्थहीन रूढ़ परम्पराओं के खिलाफ अणुव्रत के बगावती चरण आगे बढ़े। फलतः आज भारत की धरती पर अणुव्रत से संस्कारित परिवारों में अशिक्षा, पर्दा, मृत्युभोज, मृत्यु के प्रसंग में प्रथा रूप के रोना, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, विधवा स्त्री अवमानना आदि परम्पराएं चरमराकर टूट गयी हैं। दहेज और प्रदर्शन की समस्याएं आज भी ज्वलन्त हैं। अणुव्रत इस दिशा में भी सतर्क है। अणुव्रती परिवारों में दहेज का ठहराव किसी भी स्थिति में नहीं होता।’’


इस अंक के लिए रचना सामग्री जुटाना किसी भगीरथ प्रयास से कम नहीं रहा होगा। रचना सामग्री की बुनावट जिस तरह की हैं उससे आभास होता है कि अधिकतर रचनाकारों से अंक विशेष के लिए लिखने का आग्रह किया होगा। सम्पादक, उपसम्पादक के साथ टाइपसेटिंग, चित्रांकन, साजसज्जा का अनुभव पत्रिका में स्पष्ट दिखाई दे रहा है। नियमित मासिक अंक का मूल्य यूँ तो साठ रुपए है। लेकिन इस संयुक्तांक का मूल्य इन्ही सब कारणों से दो सौ रुपए बन पड़ा है। यह मूल्य वास्तविक से काफी कम लगता है। है भी।


इस अंक में अट्ठाईस विचारोत्तेजक लेख भी हैं। वह विविधता से भरे हैं। पर्यावरण, मानव शरीर, ध्येय, शिक्षा, समानता, शांति, संवैधानिक मूल्य, अपराध, मानवीय कुरीतियाँ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और रूढ़ियाँ, बढती आपाधापी और मनोरोग, सामाजिक असमानता, समरसता की आवश्यकता, प्रकृति, मौलिक व्यवहार, समाज में बढ़ते असामान्य व्यवहार आदि विषयों पर यह केंद्रित हैं। मुनि सुखलाल, गुलाब कोठारी, कुमार प्रशांत से लेकर सुशील तिवारी, रेणु रघुवीर जैसे कलमकारों, संस्कृतिकर्मियों और अध्येताओं से यह लेख अंक के लिए जुटाए गए हैं।


मुनि सुखलाल के लेख का एक अंश-


‘ओजोन को नष्ट करने वाली दो प्रमुख चीजें हैं- नाइट्रिक ऑक्साइड तथा क्लोरीन ऑक्साइड। अधिक ऊँचाई पर उड़ने वाले सुपरसोनिक जेट विमान नाइट्रिक ऑक्साइड पैदा करते हैं। उससे ओजोन को नुकसान पहुँचता है, पर नाइट्रिक एसिड से भी ओजोन को ज्यादा खतरा है क्लोरीन ऑक्साइड से। क्लोरीन ऑक्साइड का निर्माण फ्लुओरोकार्बन नामक रसायन से होता है। फ्लुओरोकार्बन प्राकृतिक रसायन नहीं है। इसे मनुष्य ने बनाया है। यह फ्लुओरीन और कार्बन का यौगिक है। यह उच्च तापमान को झेल सकता है, अतः अत्यंत टिकाऊ है। इसीलिए अनेक उद्योगों में इसका व्यापक उपयोग होता है। रेफ्रीजरेटरों तथा एयर कंडीशनरों में प्रयुक्त होने वाले द्रवों, एयरोसोल स्प्रे, ठोस प्लास्टिक फोमों के निर्माण में फ्लुओरो कार्बन के यौगिकों का उपयोग होता है। ये फ्लुओरोकार्बन वायुमंडल में पहुँचकर हवा के अन्य अणुओं के साथ मिलकर सारी दुनिया में फैल जाते हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि ये 50 से 900 वर्ष तक नष्ट नहीं होते तथा धीरे-धीरे ऊपर समताप मंडल-ओजोन तक पहुँच जाते हैं तथा यहाँ पराबैंगनी किरणों के प्रभाव से इनके बंधन टूट जाते हैं और इस प्रक्रिया में क्लोरीन मुक्त परमाणु उपलब्ध हो जाते हैं। क्लोरीन के ये मुक्त परमाणु ओजोन के अणुओं को लगातार तोड़ते चले जाते हैं। यह क्रिया लम्बे समय तक चलती रहती है। वैज्ञानिक गणनाओं के अनुसार क्लोरीन का प्रत्येक परमाणु ओजोन के एक लाख अणुओं को नष्ट करता है। इस तरह औद्योगीकरण के कारण समूची पृथ्वी पर भयंकर प्रदूषण फैल रहा है।
प्रदूषण का एक अन्य स्रोत है आणविक हथियारों का विस्फोट। सचमुच उससे होने वाली हानि के अकल्प्य परिणाम हो सकते हैं। इससे एक राष्ट्र का नुकसान नहीं है अपितु पूरे भूमंडल का पारिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ जाएगा। पृथ्वी जीवन के लिए अयोग्य हो जाएगी। वायुमंडलीय तथा जीव-विज्ञान के अध्ययनों से यह सिद्ध हो गया है कि सीमित अणुयुद्ध से भी भयंकर गर्मी, विस्फोट और विकिरण के खतरे पैदा हो सकते हैं। हवा में कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस की वृद्धि से पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ सकता है। उससे आर्कटिक तथा अंटार्कटिक प्रदेशों की बर्फ पिघल कर समुद्र के पानी की सतह को ऊँची कर देगी और समुद्र तट की बहुत सारी घरती जल-समाधि ग्रहण कर लेगी। पहले तो वृक्ष और वन कार्बन डाइ ऑक्साइड को सोख लेते थे, पर चूँकि अब वन भी नष्ट होते जा रहे हैं, उससे गैस के प्रलय-प्रभाव से बचना असंभव हो गया है। इसका दूसरा खतरा शीत का प्रादुर्भाव भी है। उससे धरती अंधकार पूर्ण तथा अत्यन्त शीतल ग्रह के रूप में परिणत हो जाएगी।’


कुमार प्रशांत का सम्पूर्ण लेख ही बारम्बार पढ़ने योग्य है। मननीय भी है और अनुकरणीय भी है। उन्होंने आरोन बुश्नेल और एलेक्सी नवलनी का उल्लेख करते हुए पाठकों का ध्यान मनुष्यता और पाशविकता के बीच अन्तर समझने का द्वंद्व देने का सफल प्रयास किया है। एक अंश-


‘अधिकाधिक संवैधानिक अधिकार अपनी मुट्ठी में कर लेने तथा अपने लिए आजीवन राष्ट्रपति का पद सुरक्षित कर लेने के साथ ही पुतिन की बर्बरता बढ़ गयी। चापलूस नौकरशाही, क्रूर व स्वार्थी पुलिस तथा चप्पे-चप्पे को सूँघते जासूसी संगठन के बल पर पुतिन ने रूस को ‘साम्यवादी तानाशाही’ का नया ही नमूना बना दिया। फिर भी नवलनी के समर्थकों तथा पुतिन विरोधी दूसरी ताकतों ने असहमति की आवाज़ दबने नहीं दी। ऐसी हर आवाज को जेल से नवलनी का समर्थन मिलता रहा। बात तेजी से तब बदली जब पुतिन ने यूक्रेन पर हमला किया। नवलनी ने इस हमले का जोरदार प्रतिवाद किया। इस बार वे ज्यादा मुखर भी थे और ज्यादा कठोर भी! अपने बच्चों के साथ नवलनी की पत्नी यूलिया जर्मनी जा बसी थीं। उन्होंने नवलनी का मामला अंतरराष्ट्रीय भी बनाकर रखा और रूस के भीतर के अपने साथियों का मनोबल भी बनाये रखा। वे हमेशा कहती रहीं-‘‘हम हारेंगे नहीं, हम चुप नहीं रहेंगे, हम माफ नहीं करेंगे।’’

यूक्रेन ने रूसी प्रमाद को जैसा जवाब दिया, उसकी सेना ने रूस पर जैसे आक्रमण किये, पश्चिमी राष्ट्रों ने जिस तरह व जिस पैमाने पर यूक्रेन की सैन्य मदद की, इन सबने पुतिन को हैरान कर दिया। हर यूक्रेनी नागरिक फौजी बन जाएगा, पुतिन को इसकी कल्पना नहीं थी। तानाशाही का शास्त्र यही बताता है कि हर तानाशाह सफलता पाकर ज्यादा मचलता है, विफलता पाकर पागल हो जाता है। पुतिन के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। कभी वियतनाम में अमेरिका के साथ भी ऐसा ही हुआ था। यूक्रेन बचेगा या मटियामेट हो जाएगा, पता नहीं लेकिन यह पता है कि रूस व पुतिन इतिहास में कभी भी सम्माननीय हैसियत नहीं पा सकेंगे। इतिहास की भी अपनी काली सूची होती है।
जेल की भयंकर मशक्कत, मानसिक विशाद, बाहरी सत्राटा और जहर से खोखली हो गयी शारीरिक क्षमता के साथ-साथ बढ़‌ती उम्र की प्रतिकूलता नवलनी को घेरने लगी हो तो आश्चर्य नहीं। हालाँकि अपनी आखिरी पेशी के दौरान टीवी पर वे जितने दृढ़ व जाब्ते में लग रहे थे, उससे यह मानना संभव नहीं था कि उनका स्वाभाविक अंत करीब है। अचानक ही रूसी सरकारी तंत्र ने दुनिया को खबर दी कि हृदय के अचानक काम करना बंद कर देने के कारण 15 फरवरी 2024 को नवलनी की मौत हो गयी।

पुतिन जिस तरह झूठ का समानार्थी शब्द बन गया है, उससे कौन बता सकता है कि मौत की यह तारीख भी सच्ची है या नहीं। ख़बर पाते ही नवलनी की माँ ‘पीनल कॉलोनी’ पहुंचीं। उन्हें अपने बेटे से मिलना नहीं था, उसका शव लेना था लेकिन वहीं के अधिकारियों ने उन्हें कोई खबर नहीं दी और वापस लौटा दिया। पूरे सप्ताह वे भागती-दौड़ती रहीं, फिर कहीं उन्हें मृत नवलनी मिले। शर्त यह थी कि उन्हें दफनाने का सारा संस्कार गुप्त रीति से करना होगा। न कोई सार्वजनिक समारोह होगा, न शवयात्रा निकाली जाएगी।’ पूरा लेख दम साधे पढ़ने को बाध्य करता है।


इसी क्रम में रमेशचंद शर्मा का लेख भविष्य की आशा है जल स्वराज भी पठनीय है। एक अंश-


‘प्रकृति ने जल के विभिन्न भंडार, स्रोत, साधन बनाये। मनुष्य ने जल तथा जल भंडारों को अपने कब्जे में लेकर उपयोग, प्रयोग, उपभोग, व्यापार, दोहन, शोषण प्रारंभ किया। इसके लिए नये-नये रास्ते खोजे, बनाये। पानी जो सबको सर्वसुलभ था, उसे स्वार्थ पूर्ति के लिए महँगा एवं दुर्लभ बनाया जा रहा है। कुछ स्थानों पर दूध से भी महँगा पानी बेचा जा रहा है। जल के साथ भारी, भयंकर छेड़छाड़ जारी है। सत्ता, तकनीकी का सहारा लेकर इसमें गति लायी गयी है। स्थानीय शक्तियों के साथ-साथ अब तो बहुराष्ट्रीय कंपनियां, शक्तियां, व्यापारी, राजनेता, वैज्ञानिक, उद्योगपति, नेता, ठेकेदार, अधिकारी जल के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। जल को प्यास बुझाने, जीवन चलाने के बजाय व्यापार, लाभ, लोभ, लालच, दोहन, शोषण का माध्यम बनाया जा रहा है। जल पर किसी भी तरह कब्जा करने की होड़ लगी है।

स्वच्छ जल की पवित्रता, शुद्धता, निर्मलता के लिए अनेक परम्पराएं, नियम बनाये गये थे। इनमें से आज एक पर भी अमल नहीं हो रहा है। प्रकृति का पंच महाभूतों से गहरा रिश्ता है, आपस में भी पंचभूतों का गहरा रिश्ता है। सूर्य (अग्नि), समुद्र (जल) से भाप बनाता है, वायु (हवा) उसे ऊपर नभ (आकाश) में मेघ के रूप में ले जाती है और फिर बादल, वर्षा की बौछार से जमीन (भूमि) पर आशीर्वाद के रूप में जल की बूँदें प्रदान करते हैं। वर्षा सृष्टि, परमात्मा का आशीर्वाद है। हमें त्याग भावना से, साधना तथा सादगी से जल का उपयोग करना सीखना होगा। हमें जागरूक बनकर खुद भी चेतना है तथा औरों को भी जागरूक बनाने, चेताने के लिए प्रयास करने होंगे। हमें उपभोग, उपभोक्तावाद से भिन्न उपयोगितावाद को अपनाना है। गांधीजी ने स्पष्ट कहा है कि प्रकृति सबकी आवश्यकताएं तो पूरी कर सकती है मगर लालच किसी एक का भी पूरा करना कठिन है।’


पत्रिका में वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा का आलेख ‘वैज्ञानिक युग में कुरूढ़ियों की प्रासंगिकता! भी शामिल है। यह इस पत्रिका में बेजोड़ आलेख है। ऐसे आलेखों की नितांत आवश्यकता है। वह लिखती हैं-‘समाज का बड़ा हिस्सा अपनी समस्याओं को भाग्य बताकर स्वीकारता जाता है। ये बेड़ियां उसे कई पीढ़ियों तक जकड़े रहती हैं। शोध बताते हैं कि जो देश समृद्ध हैं और जहाँ नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा का जिम्मा सरकार कहा है, वे अपेक्षाकृत कम रूढ़िवादी हैं।’


इसी अंक में कथा-संसार के तहत पाँच सुप्रसिद्ध साहित्यकारों यथा-समीर उपाध्याय, कृष्ण बिहारी पाठक, सुकीर्ति भटनागर, प्रकाश मनु और सुमन बाजपेयी की रचनाएँ हैं। काव्य सुधा के तहत यथा-जय चक्रवर्ती, इकराम राजस्थानी, विष्णुकांत झा, डॉ॰ रामनिवास मानव, सतीश उपाध्याय, वीणा जैन, वसीम अहमद नगरामी, हरदान हर्ष, डॉ॰ कीर्ति काले, डॉ॰ विष्णु शास्त्री ‘सरल’ और अशोक रावत शामिल हैं।


इस अंक में अपने अनुभव: अपने विचार के तहत तिरपन कलमकारों, संस्कृतिकर्मी, अनुभवी समाजसेवियों और शिक्षाविद्ों के लेख शामिल हैं। डॉ॰ सोहनलाल गांधी लिखते हैं-‘आज सारा विश्व धर्मों और जातियों में विभक्त है, लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हमज ैन, हिन्दू एवं मुस्लिम से पहले इंसान हैं। अतः एक-दूसरे के धर्म के प्रति सहिष्णुता जरूरी है। दुनिया में एक ही जाति है वह है मनुष्य जाति। अणुव्रत रूपी ये लक्ष्मण रेखाएं हमें विभाजन से बचाती हैं।’


डॉ॰ निजामुद्दीन लिखते हैं-‘पारिस्थितिकी का संरक्षण सबकी जिम्मेदारी है। परिग्रह की विनाश लीला सबके सामने है। बार-बार काले धन की , अकूत सम्पत्ति जमा करने की , ईडी के निरंतर छापों की , बलात्कार की बातें सबके समाने हैं। अणुव्रत आंदोलन इन सबको नकारता है। स्वस्थ समाज की संरचना में विश्वास करता है।’


अट्ठाईस पन्नों में पिचहत्तर साल की आंदोलन की अमृत यात्रा की झलकियाँ भी पूरी मुहिम को समझने के लिए र्प्याप्त है। इस अंक में पाठक यह भी जान सकते हैं कि अणुव्रत आंदोलन सिर्फ अपनी उपलब्धियों और समाज में सामाजिक सरोकारों के लिए ही प्रतिबद्ध नहीं है। वह समग्रता में जानी-मानी लोकप्रिय एंव मानीखेज सामाजिक कार्यों को पहचान कर व्यापक पैमाने पर कामों की सराहना भी करती है। अणुव्रत पुरस्कार, अणुव्रत गौरव, अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार, अणुव्रत लेखक पुरस्कार, जीवन विज्ञान पुरस्कार की व्यापक जानकारी भी अंक में है। अणुव्रत की आधारभूमि को आठ उप भागों में यहाँ शामिल किया गया है। पैंसठ पन्नों में अणुव्रत अमृत वर्ष एक विहंगावलोकन का पूरा परिदृश्य पाठकों के सामने रखने का सफल प्रयास किया गया है। इसके साथ-साथ अणुविभा, उसका अंतरराष्ट्रीय अभियान, प्रकाशन कार्य, महासमिति, अणुव्रत न्यास, शिक्षक संसद, संस्कार निर्माण समिति, अणुव्रत ग्राम भारती सहित अणुव्रत आंदोलन से जुड़े विज्ञापनदाताओं को भी पाठकों के सामने सहजता से प्रस्तुत किया गया है।


अणुव्रत क्रिएटिविटी कॉन्टेस्ट 2024 की जानकारी भी पत्रिका में है। कक्षा तीन से आठ और कक्षा नौ से बारह के विद्यार्थियों को चित्रकला, निबंध, गायन, भाषण और कविता के क्षेत्र में सुनहरा अवसर दिए जाने का विचार सराहनीय है। इसे अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी सम्पन्न कराएगा।


सर्वविदित है कि इस अंक का प्रकाशन खास मकसद के लिए किया गया है। बहुत ही संवेदनशील व्यक्तित्व सोसायटी का हिस्सा हैं। संभव हो सकता था कि प्राप्त विज्ञापनों को एक साथ अंत में दिया जा सकता था। यह भी कि प्रत्येक चौथे पन्ने में बॉक्स में अणुव्रत अमृत महोत्सव का हाइलाटर अखरता है। इससे बचा जा सकता था। साज-सज्जा यूँ तो बेहतर है। हर रचना के रचनाकार का परिचय भी दिया गया है लेकिन उसे अण्डरलाइन किया गया है। वह नहीं दिया जाता और उन पँक्तियों को इटेलिक या बोल्ड किया जा सकता था। अण्डरलाइन प्र,तु, व्र, तृ, स्र, श्रु जैसे वर्णो से बने शब्दों को अण्डरलाईन आँखों को भ्रमित करता है। यह बाधा के तौर पर पाठकों को परेशानकरता है। दूसरी बात कि पदनाम को जबरन प्राचार्या, प्रमुखा लिखने से बचना चाहिए। अब राष्ट्रपति को, खिलाड़ी, पायलट, सैनिक का स्त्रीलिंग करने की क्या आवश्यकता है? है क्या? पत्रिका में चित्रों का भरपूर प्रयोग किया गया है। लेकिन, कहीं-कहीं कम्प्यूटर ग्राफिक्सयुक्त चित्र स्तर को कम करते हैं। पत्रिका की सामग्री को दो कॉलम में रखा गया है। यह बहुत ही वैज्ञानिक है और पाठकों की पठनीयता में रोचकता बनाए रखते हैं। लेख सामग्री को इस तरह से व्यवस्थित किया गया है कि पाठक को वह बोझिल न लगे। ठूँसने के प्रयास से बचा गया है। यह बेहद अनुभव से और बार-बार ले आउट में प्रयोग करने से ही संभव होता है। कुछ कार्टून भी पत्रिका में शामिल है। यह सराहनीय है। अलबत्ता बाल साहित्य की कमी खलती है। कुछ सामग्री बाल साहित्य के तौर पर दी जा सकती थी।


एक अंक में एक सौ बीस से अधिक लेखकों की सामग्री को व्यवस्थित करना बेहद बेहद श्रमसाध्य कार्य है। उससे पूर्व लेखकों से सम्पर्क करना। उन्हें संबंधित विषय के लिए लिखवाना आज की तिथि में आसान कार्य नहीं है। पुनः सम्पादक और उप सम्पादक सहित पूरी सहयोगी टीम को शुभकामनाएँ देना एक कर्तव्य हो जाता है।

और अन्त में यह भी कहना चाहूँगा कि वर्तमान समय में जब सोशल मीडिया में झूठ और भ्रम गुणित अनुपात में तीव्रता के साथ फैलाया और परोसा जा रहा है तब छपी हुई सामग्री की और भी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। ऐसी ज़िम्मेदारी भरे हर कदम के साथ कदम मिलाए जाने की महती ज़रूरत है।

  • पत्रिका: अणुव्रत, मासिक
  • मूल्य: 60 रुपए
  • इस अंक का मूल्य: 200 रुपए
  • पृष्ठ: 498
  • सम्पादक: संचय जैन
  • उप सम्पादक: मोहन मंगलम
  • टाइपसेटिंग व लेआउट: मनीष सोनी
  • प्रकाशक: अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी, नई दिल्ली
  • पत्रिका हेतु सम्पर्क: 9116634512
  • प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’

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By manohar

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