दुनिया जहान को शामिल करती है यह पत्रिका


तिमाही पत्रिका ‘पाठशाला भीतर और बाहर’ पिछले छह सालों से प्रकाशित हो रही है। ज़ाहिर-सी बात है कि जैसा नाम है तो काम भी वैसा होगा। एक नज़र में पाठकों को लगता है कि पत्रिका पाठशाला पर केन्द्रित रहती होगी। है भी। लेकिन अंक-दर-अंक जब पाठक पत्रिका की रचना सामग्री से गुजरता है तो उसे अहसास होने लगता है कि पाठशाला मार्त्र इंट, गारे, पत्थर, चाहरदीवारी, शिक्षक, बच्चे, पाठ्यपुस्तक के घेरे में कोई इमारत नहीं होती। पाठशाला तो जीवन के आदि से अंत तक की समूची प्रक्रिया में अनिवार्य अंग है। संभवतः पाठशाला के भीतर तयशुदा प्रक्रियाएँ-आयोजन और गतिविधियाँ सम्पादित हो सकती हैं लेकिन पाठशाला के बाहर तो समूचा जीवन केन्द्र में हो सकता है।


मार्च 2024 में पाठशाला भीतर और बाहर का उन्नीसवाँ अंक है। सीखना अपने अनुभवों से होता है। सिखाने वाले-सीखने वाले की क्रिया-प्रतिक्रिया और सीखने के कौशलों के सही-सार्थक उपयोग से सीखना हो पाता है। हालांकि बहुत सारे कारक सीखने की गति बढ़ाते-घटाते हैं। अंक का संपादकीय भी कहता है कि ‘बच्चे कैसे सीखते हैं? कोई भी इंसान किसी नई अवधारणा को कैसे आत्मसात करता है? इन सवालों पर काफी सोचा जाता रहा है। बच्चों के साथ काम करते हुए भी यह सवाल बार-बार जेहन में आ ही जाता है। इन सवालों का कोई आसान जवाब नहीं है, और हो भी नहीं सकता है। बच्चों के साथ काम करते हुए उनके सीखने की विविध प्रक्रियाओं का विश्लेषण करने पर हम सभी को अपना-अपना कुछ उत्तर मिलता भी है। लेकिन इसमें दिलचस्प यह होता है कि कोई भी एक जवाब सभी बच्चों के सीखने की प्रक्रिया के लिए सही नहीं होता। यही नहीं, कोई एक जवाब किसी एक व्यक्ति या बच्चे के लिए सीखने की हर परिस्थिति में सही नहीं होता, क्योंकि हर सीखने की परिस्थिति की और हर बच्चे की अपनी एक पृष्ठभूमि और सन्दर्भ होता है जोकि परिवर्तनशील भी होता है। शायद इसीलिए कहते हैं कि सीखना रैखिक प्रक्रिया नहीं वरन् जटिल और बहुआयामी प्रक्रिया है।’


इस अंक में भी सीखने की प्रक्रिया के जीवंत उदाहरण शामिल हैं। जानकार मानते भी हैं कि प्रत्येक सीखने वाले के अपने-अपने अनुभव होते हैं। कक्षा में भी समान आयु के बच्चों की सीखने की गति भिन्न हो सकती है। कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि सीखने की गति नाप, भार और मात्रा में एक समान हो सकती है। बहरहाल, संपादकीय कहता है कि ‘यह समझ आम है कि भाषाई कौशलों को एक दूसरे से अलग करके नहीं देखना चाहिए। यह सभी साथ-साथ विकसित होते हैं।


अंक में सम्पादकीय है। गुरबचन सिंह शिक्षा एवं बाल साहित्य के जानकार हैं। उन्होंने सम्पादकीय में शामिल लेखों का उल्लेख किया है साथ ही अपना नज़रिया भी हौले से प्रस्तुत किया है।


पत्रिका में कमलेश चंद्र जोशी कृत लेख ‘बच्चों के लिखना सीखने में भी सहायक हैं बरखा पुस्तकमाला की पुस्तकें’ शामिल है। अलका तिवारी कृत ‘किताबों के साथ चलते-चलते…’, अमन मदान कृत ‘संविधान और संवाद की संस्कृति’, अनिल सिंह कृत ‘पुस्तकालयः नजरिया और कौशल दोनों ही अहम हैं समुचित प्रशिक्षण ही एकमात्र रास्ता’, नीरज श्रीमाल कृत ‘उम्मीद अभी बाकी है एक अनुभव’, राजाबाबू ठाकुर कृत ‘और पुस्तकालय चल पड़ा बड़े काम की छोटी-सी शुरुआत’, ओम प्रकाश विश्वकर्मा कृत ‘कविता शिक्षण और पढ़ना’ धर्मपाल गंगवार कृत ‘कविता शिक्षण के मजे’ अरविंद कुमार सिंह ‘पुस्तकालय से पत्रिका तक…’, प्रभात कृत ‘पहाड़, जिसे एक चिड़िया से प्यार हुआ’, रश्मि पालीवाल से कमलेश चंद्र जोशी की बातचीत ‘चिन्तनशील शिक्षक लक्ष्य निर्धारित करता है…. ’ हुमा नाज कृत ‘कहानियों के माध्यम से लेखन कौशल विकास के कुछ अनुभव’, सुमन पटैल कृत ‘सन्दर्भ और स्वतंत्रता बनाते हैं लिखने को आसान’ सहित पाठक चश्मा भी है। मुझे पाठक चश्मा सबसे बेहतर लगा। यह एक तरह से पत्रिका का पाठकीय आकलन है। इससे यह भी पता चलता है कि एक अंक के प्रकाशनोपरांत पाठकों की आँखों से गुजर चुकने के बाद पाठक क्या सोचता-समझता और मानता है।


यकीनन, यह अंक भी पढ़ने, समझने, बार-बार उलटने-पलटने और सहेजने के स्तर का बन पड़ा है। फिलहाल इस अंक से मैं कमलेश जोशी का लेख ‘बच्चों के लिखना सीखने में भी सहायक हैं बरखा पुस्तकमाला की पुस्तकें’ की चर्चा करना चाहूँगा।


‘बरखा’ सीरीज में 40 किताबें हैं। यह साल 2006 में एनसीईआरटी ने कई नामचीन लेखकों-शिक्षकों-शिक्षाविदों के सहयोग से बनाई थीं। दुःख इस बात का है कि हिन्दी में विकसित इन 40 किताबों के बारे में बुनियादी शिक्षकों में बहुत अधिक सकारात्मकता-उपयोगिता नहीं दिखाई देती। दस में सात शिक्षक इनके बारे में अनभिज्ञता जाहिर करते हुए मिल जाएँगे। हालांकि बीते साल उत्तराखण्ड के शिक्षा विभाग ने इनका अनुवाद गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी में किया है। एक-एक सैट भाषा के स्तर से हर प्राथमिक विद्यालय में पहुँचा है।


बहरहाल,कमलेश चन्द्र जोशी के लेख पर आता हूँ उन्होंने इन 40 किताबों के बहाने प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ना में पाठ्य पुस्तक से इतर लेखन सामग्री की उपयोगिता-सार्थकता और महत्ता पर तार्किक अनुभव सामने रखे हैं। वह चार पृष्ठों के इस अनुभवजनित लेख के आरम्भ में कहते हैं-


‘उपयुक्त किताबें बच्चों के पढ़ना सीखने में बहुत मदद करती हैं। इसके अनुभव बहुत-से शिक्षक अपनी बातचीत में बताते रहते हैं। उनका कहना होता है कि अगर किताबें बच्चों के स्तर व रुचि की हों, उनसे बच्चे बहुत सहजता से जुड़ते हैं। इनपर बच्चों से बातचीत भी होती है। ऐसी ही कुछ किताबों के उदाहरण बरखा पुस्तकमाला में मिलते हैं। बच्चों को ये किताबें दिलचस्प लगती हैं। वे किताब की घटनाओं पर अपने अनुभव भी जोड़ते हैं। छोटे बच्चे इन किताबों के चित्रों को देखते हैं, अनुमान लगाते हैं, और किताबें पढ़ने की कोशिश करते हैं। इसमें सबसे अच्छी बात यह होती है कि बच्चे बताते हैं कि उन्होंने अभी तक कितनी किताबें पढ़ ली हैं, और उन्हें कौन-सी किताबें अच्छी लगती हैं? इसके माध्यम से वे पढ़ना भी सीखते हैं। ये किताबें बच्चों को लिखना सीखने में भी मदद करती हैं। बस, इसके लिए शिक्षक के पास पुस्तकों को योजनाबद्ध तरह से उपयोग करने की स्पष्टता होना जरूरी है।’


लेख के लेखक व्हाट्सएप में कक्षा में लिखी गई एक छात्र की कहानी को बरखा सीरीज के आलोक में देखते हैं और पड़ताल करते हैं। वह आगे लिखते हैं-


‘यह कहानी बच्चों के आम जीवन के अनुभवों के आधार पर ही लिखी गई है, और घटनाएँ बच्चों के जीवन से जुड़ी हुई हैं। कहानी में गौर करने की बात यह है कि कहानी में आए बहुत-से वाक्य बरखा पुस्तकमाला की किताबों के वाक्यों जैसे ही लगते हैं जिन्हें बच्ची ने इन किताबों को पढ़ते हुए मन-ही-मन कब अंकित कर लिया उसे पता भी नहीं चला, और लिख भी दिया। यहाँ हमें चोम्स्की और बच्चों के भाषा सीखने की जन्मजात क्षमता ध्यान में आती है। इसमें कहा जाता है, ‘भाषा सीखी नहीं जाती, पकड़ी जाती है।’


बच्ची के इस लेखन में हम यह भी देखेंगे कि इस कहानी को जिस तरह से उसने विजुलाइज किया है, उसका फॉर्मेट एक चित्रकथा का बन रहा है। यहाँ बच्ची जो वाक्य बोल रही है मन- ही-मन वह शायद यह भी सोच रही है कि इसके साथ इसका यह चित्र भी होगा जिसमें यह-यह हो रहा होगा। जैसा बरखा पुस्तकमाला की किताबों में है, कहानी में एक शुरुआत है, बीच में कुछ घटनाएँ हैं जो कहानी को बाँधे हुए हैं व रोचकता भी लाती हैं, फिर एक अन्त है, कुछ नए शब्द भी हैं।. . . .।


पढ़ना सीखना, बरतना और समझना की कई परतें हैं। इसे किसी शैक्षणिक सत्र के सन्दर्भ में नहीं देखा जा सकता। यह एक शानदार लेख है। इसे शिक्षकों के साथ अभिभावकों को भी पढ़ना चाहिए।
फिलहाल इस अंक के लिए इतना ही।


-मनोहर चमोली ‘मनु’

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By manohar

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