पाठकों के आस-पास की कहानियाँ हैं दिनेश कर्नाटक की
इन दिनों दिनेश कर्नाटक का कहानी संग्रह ‘दिनेश कर्नाटक की प्रतिनिधि कहानियाँ’ चर्चाओं में है। हालांकि दिनेश कर्नाटक की पठनीयता और सक्रियता के साथ-साथ साहित्यिक यात्रा पर दृष्टि डालें तो वह तैंतीस सालों से कहानियाँ लिख रहे हैं। प्रायः ऐसा कम ही होता है कि युवा छात्र अध्ययनरत् हो और साहित्य का पाठक भी हो। पाठक होने के साथ-साथ वह साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में नवोदितों के साथ अपनी जगह बना रहा हो। दिनेश कर्नाटक उन चुनिंदा कथाकारों में से हैं जिन्होंने पढ़ना-लिखना और समझना जारी रखा। एक शिक्षक होने के नाते किशोर-युवा छात्रों के मनोभावों को समझते रहने के साथ-साथ उन्होंने शिक्षा के सरोकारों का तार्किक विश्लेषण करना जारी रखा। खुला आसमान, नदी और पहाड़ का सान्निध्य उन्हें मिला। मुझे लगता है कि उनके पारिवारिक, व्यक्तिगत, सामाजिक और शैक्षिक अनुभवों ने उन्हें नित नई कहानियों की कथावस्तु दी। अवलोकन करते रहने से उनकी कहानियाँ निरन्तर समृद्ध हुईं।
हिन्दी साहित्य में युवा कहानीकार दिनेश कर्नाटक एक मानवीय और संवेदनशील कथाकार के तौर पर स्थापित हैं। कभी भी कोई भी देश के बीस समकालीन और नामचीन कहानीकारों का उल्लेख करेगा तो दिनेश कर्नाटक के नाम का उल्लेख अवश्य करेगा। नवीनतम कहानी संग्रह में सोलह कहानियाँ हैं। चूँकि यह कहानियाँ उनकी अब तक प्रकाशित कहानियों में से चुनी गई हैं तो कह सकते हैं कि इन कहानियों का आस्वाद लेते हुए रचनाकार, रचनाएँ और उनका सन्दर्भ आसानी से महसूसा जा सकता है। नब्बे के दशक से कहानियाँ लिख रहे दिनेश कर्नाटक के चार कहानी संग्रह आ चुके हैं। यही नहीं उनका एक उपन्यास फिर वही सवाल भी सराहा गया है। उनका यात्रा वृतान्त ‘दक्षिण भारत में सोलह दिन’ भी उनकी सोच, समझ और अवलोकन क्षमता के दर्शन कराता है। शिक्षा जगत से जुड़े हैं तो शिक्षा पर केन्द्रित एक किताब भी प्रकाशित हुई है। शिक्षा में बदलाव की चुनौतियाँ। इस किताब को भी गंभीर पाठकों ने खू़ब सराहा है। इस बीच उन्होंने एक खास काम और किया है। शोध अध्ययन के लिए उन्होंने शानदार विषय चुना। बाद उसके उसे किताब की शक्ल भी दी-‘हिन्दी कहानी के सौ साल तथा भूमंडलोत्तर कहानी’ स्वयं में बेजोड़ काम के तौर पर रेखांकित हुआ है।
लगभग दो दशक पहले के परिवेश की कहानी ‘भागने वाली लड़कियाँ’ भले ही उत्तराखण्ड जैसी भौगोलिक स्थितियों-परिस्थितियों की याद दिलाती है। लेकिन आज 2024 में इसे पहली बार पढ़ने वाला पाठक गाँवों के विकास की घोंघा चाल की पड़ताल आसानी से कर सकता है। कहानी में जिस तरह रोडवेज की बसों का उल्लेख आता है। रिश्तेदारों के यहाँ आने-जाने की रस-भरी बातें-मुलाकातें और घटनाएं कहानी में है। यह कहानी अपने शीर्षक से ही पाठकों को आकर्षित करने लगती है। पाठक इस कहानी के माध्यम से शिवानी, शेखर जोशी, मनोहर श्याम जोशी, शैलेश मटियानी, मृणाल पाण्डे के साथ दिनेश कर्नाटक को भी उत्तराखण्ड के परिवेश के लिए याद रखेंगे। पहाड़ की स्थितियाँ-परिस्थितियाँ बहुत कम कहानियों में शामिल होती है। इस कहानी के कुछ अंश पढ़िएगा-
‘गाँव के लड़के देश के तमाम बड़े शहरों में जाकर धीरे-धीरे वहीं के हो जाते। गाँव अब उन्हें सरपट दौड़ती गाड़ी के सामने अचानक आ जाने वाली बाधा की तरह लगता। मौका मिलते ही अपने घर-परिवार वालों को भी शहर पहुँचा दिया करते।’
हालांकि यह कहानी गाँव छोड़कर किसी नौजवान साथी के कहने पर दिल्ली बिना बताए जाने के लिए गाड़ी में बैठ चुकी थीं। जल्दी ही उन्हें अहसास हो गया कि वह अनजाने में ही सही अनजान नगर में जाने की इच्छा पालकर गलत कर चुकी हैं। उसी ड्राइवर के साथ दिल्ली मौसी के घर का पता घर भूल आने का बहाना बनाते हुए लौटने का मन बना चुकी लड़कियों ने रास्ते में पुलिस के सामने डर के मारे गलत बयान दे डाला। बेचारा धौलिया बेवजह धरा गया। ले-देकर अपहरण का बन रहा मामला निपटा और लड़कियाँ सुरक्षित घर लौट रही थीं। फिर वही बात कि बीस साल पहले के परिवेश को आज पाठक कहानी में पढ़ते हुए यह महसूस करे जैसे कल की ही बात है तो इसे आप क्या कहेंगे? कहानी का समाज आज भी बना हुआ लगता है। यह विचारणीय है।
दिनेश किसी कहानी में एक ही केन्द्रीय विषय लेकर चलते हैं। लेकिन ऐसा होता कहाँ हैं। वे बड़ी सतर्कता के साथ बहुत से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामुदायिक, पारिवारिक मुद्दों को दाल में नमक की तरह कहानी में डाल देते हैं। वे अमूमन पात्रों के संवाद के जरिए आते हैं। कहीं भी ठूंसे हुए प्रतीत नहीं होते। पहाड़ के मुद्दे, त्रासदी, विकास बनाम विनाश के साथ-साथ कहानीकार पात्रों के जरिए तार्किकता और सार्थक बहस को भी पाठकों के सामने रखते हैं। उनकी कहानी साफ-बयानी नहीं होती।
संग्रह में ‘काली कुमाऊँ का शेरदा’ कहानी भी है। इस रचना का सृजन भी लगभग बाईस-तेईस साल पूर्व का है। आज भी साल दो हजार चौबीस में उत्तराखण्ड के कई ऐसे गाँव हैं जहां के बाशिन्दे सड़क तक पहुँचने के कई मीलों का उबड़-खाबड़ चढ़ाई-उतराई वाला पैदल रास्ता तय करते हैं। यह कहानी भी पहाड़ के गाँव और रहन-सहन के साथ-साथ स्थिति-परिस्थितियों का शानदार खाका खींचती है। पाठकों को ऐसी कहानी प्रायः पढ़ने को कम ही मिलेगी जिसमें उपशीर्षक के साथ कहानी आगे बढ़ती है। पहला झटका, कुछ भी अपना नहीं, सुनसान चबूतरा, मजबूरी और अहं और सियार कहानी में उपशीर्षक हैं।
एक बानगी कहानी से आप भी पढ़िएगा-
शेरदा सुदूर काली कुमाऊँ अंचल के एक गाँव से यहाँ आया था। वहाँ की याद आते ही उसे सबसे पहले पक्की सड़क पर पहुँचने के लिए तय किया जाने वाला दस मील का उबड़-खाबड़ और चढ़ाई-उतार वाला सफर याद आता। जब से उसने होश सँभाला, अपने गाँव को ही पूरी दुनिया समझता रहा। धीरे-धीरे उसे पता चला, दुनिया बहुत बड़ी है। उसके गाँव और आस-पास के गाँवों के लोगों के लिए विकास और तरक्की का प्रतीक समीप का कस्बा लोहाघाट था। उनके सपने वहाँ की दुकानों पर सजे रहते। पहली बार उस कस्बे को देखने के बाद उसे अपने गाँव की असलियत समझ में आई थी और वह कस्बे के प्रति अभिभूत सा हो गया था। कभी लोगों से भरा-पूरा था उसका गाँव । ऊँचाई की ओर ब्राह्मणों और ठाकुरों के घर थे। अधिकांश जमीनें उन्हीं की थी। इतनी आबादी वाला गाँव आस-पास में दूसरा नहीं था।
मैं अक्सर उन समीक्षकों और कहानी के जानकारों से सहमत नहीं होता जो कहते हैं कि कहानीकार को उसकी कहानी के आलोक में नहीं देखा जाना चाहिए। मेरा स्पष्ट मानना है कि कहानीकार कपोल कोरी कल्पनाओं के बीज नहीं बोता। उसके अनुभव, देखे-भोगे-महसूस किए हुए दिन, महीने और साल के बहुत से पल कहानी का हिस्सा हो जाते हैं। कहानीकार स्वप्नलोक की बुनियाद पर नकल पात्रों को खड़ा नहीं कर सकता। यदि वह ऐसा करता है तो पाठकों के महसूस किए जाने वाले एक थपेड़े से कहानी की इमारत भरभराकर गिर जाती है। यह दिनेश जानते हैं। यही कारण है कि उनकी कहानी के पात्र और विषय यथार्थ के समाज का हिस्सा लगते नहीं, यकीनन होते ही हैं।
‘नई पारी’ इस संग्रह की शानदार कहानियों में एक है। बेजोड़। अलहदा।
दरअसल, इंसान के जीवन का एक-एक दिन कीमती भी है और नायाब भी। कहते भी है कि गुजरा हुआ जमाना लौट कर नहीं आता। बीत चुका कल कितना ही बेहतर या बुरा बीता हो। दोबारा वही नहीं आएगा। उस जैसा आ सकता है लेकिन हू-ब-हू नहीं आएगा। यह कहानी आदमी के रिटायरमेंट के बाद का पूरा खाका खींचती है। पढ़ते-पढ़ते पाठक को रिटायर हो चुके आदमी की मनस्थिति का आकलन हो जाएगा। यह कहानी किसी विवरण की तरह पाठक का ध्यान नहीं खींचती। बल्कि हर पाठक किसी रिटायर व्यक्ति के साथ किसी न किसी किरदार के तौर पर खुद को देखने लग जाता है। यह इस कहानी की खूबी कही जाएगी। आरम्भ और मध्य में लगता है कि शर्मा जी के साथ कुछ न कुछ अनहोनी हो जाएगी। लेकिन कहानी जिस मोड़ पर जाकर समाप्त होती है वह भी सराहनीय है। कहानी का एक अंश आप भी पढ़िएगा-
रिटायरमेंट के दो साल होते-होते उनके दोनों काम निपट गये। जिस मिलने-जुलने तथा घूमने-फिरने के सहारे वे शेष उम्र बिताना चाह रहे थे, जिन्हें वे रिटायरमेंट के बाद के महत्वपूर्ण काम समझ रहे थे, उनसे वे इतनी जल्दी ऊब जायेंगे इसका उन्हें अंदाजा नहीं था। उन्हें लग रहा था, आगे के जीवन में व्यस्त रहने के लिए उन्हें अब और भी कई काम सोचने होंगे। वरना समय काटना मुश्किल हो जाएगा। पर वे काम क्या हो सकते हैं, दिमाग में काफी जोर देकर भी वे कोई योजना नहीं बना पाए। उन्हें लगा फिलहाल उन्हें अपने आस-पास से कुछ कार्य शुरू करना चाहिए। वैसे भी खाली बैठकर समय काटना उनकी फितरत में नहीं था। उन्होंने सुबह-सुबह उठकर फर्श पर झाडू लगाने तथा लॉन की सफाई का कार्य आरम्भ किया।
नाश्ते के समय दोनों लड़के सामने आकर खड़े हो गये। बड़ा बोला,‘‘पिताजी हम से कोई गलती हुई है क्या?’’
उनके बात समझ में नहीं आयी। ‘‘क्या हुआ बेटा?’’‘‘आप को झाडू लगाने तथा लॉन की सफाई करने को किसने कहा?’’
‘‘मुझ से कौन कहेगा मन हुआ करने लगा !’’
‘‘पिताजी, आप यह सब नहीं करेंगे, काम करने के लिए नौकर हैं लोग क्या कहेंगे?’’
वे कुछ कहते इस से पहले ही पत्नी बोल उठी,‘‘बच्चे ठीक ही तो कह रहे हैं। इन कामों के लिए घर में नौकर हैं। कोई देखेगा तो क्या कहेगा ? वैसे भी अब आपकी आराम करने की उम्र है।’’अब उनका ज्यादातर समय नाती-पोतियों के साथ खेलने, उन पर नजर रखने, उन्हें किस्से-कहानी सुनाने तथा घुमाने-फिराने में बीतने लगा। इससे उन्हें अपनी बहुएँ काफी खुश नजर आने लगी।
संभवतः हम सभी या पाठक भी अपने आस-पास रिटायर व्यक्तियों को बखूबी जानते हैं। लेकिन रिटायर व्यक्ति की मनोदशा का अवलोकन इस तरह से नहीं करते। दिनेश कर्नाटक ने गहराई और सूक्ष्मता से अवलोकन किया है। लगता है जैसे यह सब उन पर घटा हो। हालांकि वह अभी सेवा में हैं। कहीं न कहीं यह उनकी संवेदनशीलता है कि उन्होंने भरे-पूरे परिवार में किसी रिटायर व्यक्ति के जीवन को इतनी निकटता से देखा तो। यह सवाल भी उठ सकता है कि हर कहानी पूरी तरह से जीवन के किसी यथार्थ का ही चित्रण होता है? नहीं। लेकिन, अनुमान और कल्पना का जीवन के यथार्थ के साथ पिरोना स्वयं में एक कला है। ऐसी कला जो वास्तविक लगे। अपनी-सी लगे। अपने आस-पास की लगे। मैं कह सकता हूँ कि कहानीकार चाहे तो पाठकों को उन्माद की ओर धकेल दे। चाहे तो उन्हें भाग्यवादी बना दे। चाहे तो तर्कसंगत और असल समाज की हकीक़त को रोचक ढंग से रख दे। दिनेश जानते हैं कि कहानी मात्र मनोरंजन का साधन नहीं है। वह आनंद, रोचकता और पठनीयता का छौंका लगाते हुए जीवन में संवेदनशीलता की अनिवार्यता का पुट कहानी में शामिल करते हैं। कुछ इस तरह से कि वह उपदेशात्मक न लगे। सीख और नसीहतें जैसा न प्रतीत हो। वह जानते हैं और मानते हैं कि मात्र आदर्श, बनावटी और काल्पनिक कहानियों से पाठकों का भला नहीं होने वाला है।
दिनेश कर्नाटक की बेजोड़ कहानियों की चर्चा हो और ‘भिटौली’ की बात न हो ! हो ही नहीं सकता। पता नहीं क्यूँ? मुझे यह कहानी बहुत पसंद आती है। मैं पहले भी इसे तीन-एक बार पढ़ चुका हूँ। आज फिर पढ़ी तो मन भर आया। आँखें गीली हो गईं। कहानी की ईजा का समूचा रेखाचित्र उभर आता है। पात्र आँखों के सामने आ जाते हैं। प्रायः ऐसी कहानी लिखी नहीं जाती। लिखी जाती हैं तो यथार्थ में काल्पनिकता का अतिरेक हो जाता है। लेकिन यह कहानी एकदम से घर-घर की कहानी हो जाती है। ईजा जो एक बेटे की माँ है तो ब्याह दी गई बेटियों की भी माँ है। सासु है। पत्नी भी है। उसे चिन्ता है कि भिटौली का माह है और उसका बेटा यानी बहनों का भाई मैत से भेंट लेकर बेटियों के ससुराल में नहीं गया तो अनर्थ हो जाएगा। फिर बेटा चला भी जाता है और हो भी आता है। तब भी माँ उदास है। पाठक उस सिरे को पकड़ ही नहीं पाता। लेखक कहानी के अंत में माँ की उदासी को जिस तरह से रखता है तब पाठक अवाक् रह जाता है। एक नारी के कितने वजूद हैं। वह कितनी महती भूमिकाओं में है। उसके हिस्से के रिश्ते और उसके हिस्से का ससुराल-मायका आदि-आदि। बहुत ही बेहतरीन कहानी है। एक अंश आप भी पढ़िएगा-
भिटौली का महीना था। आस-पड़ौस की महिलाओं की भिटौली पहुँचने लगी थी। पड़ोसियों के वहाँ से मिठाई-बतासे आने लगे थे। मैंने भी भिटौली देने के लिए जाना था। ईजा कहती है,‘‘इस महीने लड़कियाँ आस लगाये रहती हैं, देर मत कर, समय से चला जा!‘‘ मैं ईजा को आश्वस्त कर चुका था कि वह चिन्ता न करे, मैं महीने के बीच में ही भिटौली दे आऊँगा। पर पता नहीं क्यों ईजा को मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा था। वह मेरे आश्वस्त करने के बावजूद कई बार बहनों को समय से भिटौली दे आने की बात दुहरा चुकी थी। मैं हमेशा की तरह व्यस्त था।
‘‘ईजा तू चिन्ता मत कर मैं समय से भिटौली दे आऊँगा!‘‘ उस का उखड़ा हुआ चेहरा देखकर, मैंने अगले दिन उससे फिर कहा था।‘‘तब तक तो बहुत देर हो जाएगी। लोग क्या कहेंगे?‘‘
‘‘कहने वालों की चिंता मत कर, वो तो इन दिनों जाने में भी कुछ न कुछ कहेंगे।‘‘
‘‘इन दिनों जाने में तो तारीफ ही करेंगे, देखो इनको अपनी बहन की कितनी चिन्ता है।‘‘
‘‘तारीफ करने वाले तो बाद में भी तारीफ ही करेंगे, देखो इनको कोई जल्दबाजी नहीं है, आराम से मन बनाकर आए हैं। जिनको नुक्स निकालना होगा वो पहले जाने पर कहेंगे, देखो, इनको भिटौली देना कितना आफत का काम लग रहा है। आ गए फटाफट निपटने। बाद में जाने पर कहेंगे, अब आ रहे हैं, जबकि भिटौली का महीना गुजरने को है।‘‘
‘‘तू तो जब देखो, अपनी बातों में उलझाकर पागल बना देता है करेगा तो अपने ही मन की।‘‘ ईजा ने गुस्से का इजहार करते हुए कहा। मैं ईजा के बगल पर बैठकर उसे मनाने की कोशिश करने लगा,‘‘ईजा, सवाल नीयत और भावना का है… आगे-पीछे जाने का नहीं।‘‘
‘‘हाँ, बहुत बड़ा हो गया है ना… हर बात समझाकर मुँह बंद कर देता है।‘‘ ईजा के चेहरे में अब वास्तविक नाराजगी जैसा कुछ था।
कहानी का शिल्प देखिए। संवाद आधारित तो है लेकिन पाठक खुद को अनायास संवादों में शामिल कर लेता है। उसे लगता है जैसे संवादों में वह भी शामिल है। संवाद कैसे? मानो उसके आस-पास के। एक पाठक ऐसे ही किसी कहानी को पढ़ने नहीं लग जाता। कहानी में सम्मोहन होना चाहिए। कोई भी कथाकार अपनी कहानी पढ़वा ले। संभव नहीं। बशर्ते उसमें अपनत्व हो। आकर्षण हो। कुछ जानने-समझने की जिज्ञासा जगाने की सामर्थ्य हो। दिनेश समर्थ कथाकार हैं।
वह कभी अति साधारण संवाद से भी कहानी आरम्भ करते हैं। कभी तीव्र घटना को अपनी कहानी का केन्द्र बनाते हैं। कभी खुद से बातचीत करते रहने की शैली से कहानी बुनते हैं तो कभी संवादों को कहानी के केन्द्र में रखते हैं। हर बार नई बुनावट के साथ पाठकों में ललक जगाए रखते हैं। कुल मिलाकर इस कहानीकार को पढ़ा जाना चाहिए। बार-बार पढ़ा जाना चाहिए। इसलिए भी कि वह भ्रमजाल नहीं बुनते। झांसा नहीं देते और न ही कल्पनालोक का आदर्श खड़ा नहीं करते। हमारे और आपके परिवेश, परिस्थितियों और पेशोपेश का ताना-बाना बुनते हैं और सकारात्मक चिन्तन की ओर ले जाते हैं। यह बड़ी बात है।
एक बात जो खटकती है कि आँचलिकता से भरे शब्दों को कहानी के मध्य कोष्ठक में देने से प्रवाह बाधित होता है। उन्हें उसी पृष्ठ के नीचे दिया जा सकता है। अंत में परिशिष्ट की तरह भी दिया जा सकता है। न भी दिया जाए तो पाठक पढ़ते-पढ़ते अपने लिए सार्थक अर्थ खोज ही लेता है। नहीं खोज पाए तो पूछे, खोजे या तलाशे। छपाई यूँ तो बेहतरीन है लेकिन कहीं-कहीं वह धीमी हुई जाती है। प्रकाशक को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। 232 पन्ने हैं। उस लिहाज़ से मूल्य मुफीद है। आवरण पेज और भीतरी पन्नों के लिए उम्दा काग़ज़ इस्तेमाल किया गया है।