दैनिक जागरण ने माना भूल हुई
सच हाथ में कथ्य और तथ्य की बूँदें आता है। वह बुझौणे तब तक झूठ अफवाह की हवा के साथ धूल भरे गुबार को लेकर बहुत आगे दौड़ जाता है !
खींचो न कमानों का न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो।
जी हाँ ! मेरी तरह आपने भी अकबर इलाहाबादी का यह शेर अक्सर महफिलों में सुना होगा। आज़ाद भारत के बाद तक भी अखबारनवीसों ने यह काम बदस्तूर किया। आपातकाल के दौरान भी अख़बारों ने अपना तेवर तोप से ज़्यादा प्रभावी रखा। बाद उसके जैसे-जैसे पूंजीपतियों ने अख़बार को मुनाफा और व्यावसायिकता की ओर ले जाना शुरु किया तो मिशनरी भाव कहीं हाशिए पर चला गया। रही-सही कसर विज्ञापन मिलने के तरीकों और सरकार के पक्ष में खबर बनाने के इम्पैक्ट फीचरों ने पूरी कर दी। पेड न्यूज़ ने अखबारों को चीथड़ा कंपनी घोषित कर दिया। राष्ट्रीय अखबार क्षेत्रीय हुए और फिर स्थानीय अखबार गली-मुहल्लों के कुत्ते खो जाने की खबरें छापने पर व्यस्त हो गए।
बहरहाल, सोशल मीडिया ने प्रिन्ट मीडिया की कमर नहीं गरदन तक मरोड़ दी है। एक समय ऐसा था कि कस्बों में एक अखबार की सात से दस हजार प्रतियां हॉकर बाँटते थे। आज यदि पहाड़ की बात करूँ तो दस-पन्द्रह साल पहले ही देहरादून से अलग-अलग शहरों के लिए अखबार छपने के बाद देर रात्रि पाँच-छह गाड़ियां अखबार लेकर चल पड़ती थीं। ताकि पाठकों को सुबह अपने दरवाजे पर अखबार मिल सके। आज बड़े-बड़े शहरों में चार-पाँच अलग-अलग अखबारों को लेकर एक ही गाड़ी उपलब्ध है। यानी, हाथ में अखबार पढ़ने वाले पाठक अब हज़ारों में नहीं सैकड़ा में सिमट गए हैं। कई शहरों में अख़बारों की ऐजेन्सी तक बंद हो गई हैं।
सूचना तकनीक के नए साधनों के साथ एक कारण पत्रकारों की पीत-पत्रकारिता भी है। सनसनी फैलाने और बेवजह का दबाव बनाने की मंशा ने सही तथ्यों को सत्य के साथ उपयोग करने की प्रतिबद्धता को धक्का दे दिया है। अब पत्रकार न्यूज़ कम अपना व्यूज़ या अख़बार के लाला का जारी सर्कुलर के आधार पर ख़बर बनाते हैं।
आज पाठक तीन तरह के रह गए हैं। बड़ी संख्या में लगभग साठ फीसदी परम्परागत पाठकों ने अखबार खरीदना और पढ़ना बंद कर दिया है। वह टीवी चैनलों में या मोबाइल में या और माध्यमों की ओर चले गए हैं। उन्होंने पूरी तरह से छप कर आने वाले अखबार की ओर पीठ कर ली है।
दूसरे पाठक वह हैं जो सरसरी तौर पर अखबार पढ़ते हैं। खरीदकर पढ़ते हैं। यह पाठक सौ में मात्र दस ही रह गए, लगते हैं।
तीसरे पाठक वे हैं जो आज भी अखबारों को किसी भी माध्यम से पढ़ते हैं। अखबारों में छपी खबरों से विचलित होते हैं। असहमति व्यक्त करते हैं। ऐसे पाठक एक फीसदी भी शायद ही होंगे।
क्या पाठक जान गए हैं कि अख़बार तोप-तीर-तलावार कमान की औकात नहीं रखते?
संभव है कि ख़ासकर हिन्दी पट्टी का अधिकतर पाठक महबूब खि़जां से सहमत है। उन्होंने कभी कहा था-
अख़बार में रोज़ाना वही शोर है यानी
अपने से ये हालात सँवर क्यूँ नहीं जाते
उत्तराखण्ड की साक्षरता राष्ट्रीय औसत से अधिक है। लेकिन, बतौर पाठक जो नज़र होनी चाहिए, वह यहाँ कम ही दिखाई देती है। गिनती के योग्य ऐसे पाठक हैं जो यदा-कदा अख़बारों में छपी ख़बरों पर, उनके ध्येय पर और समाज में आ रही वैचारिक शून्यता के प्रति चिन्ता करते दिखाई देते हैं। क्या पता? वे भी जान गए है कि अब कुछ बदलता नहीं। झूठ पैर पसारता हुआ आगे, बहुत आगे निकल जाता है। सच कथ्य और तथ्य लेकर तब आता है जब तक झूठ का गुबार पूरी तरह से फैल जाता है। उसकी फैलाई धूल पोंछने में सच के पसीने छूट जाते हैं। यही एक कारण नहीं है। अपराधों के समाचार लगातार बढ़ते जा रहे हैं। सकारात्मकता की बजाय नकारात्मकता, हिंसा, चोरी, आगजनी और बेमेल व्यवहारों को अख़बारों में बढ़ावा मिल रहा है। तभी तो मख़मूर सईदी ने कभी यह कहा होगा-
सुर्खियाँ ख़ून में डूबी हैं सब अख़बारों की
आज के दिन कोई अख़बार न देखा जाए
अब एक उदाहरण देता हूँ। 23 दिसम्बर 2023 की बात है। दैनिक जागरण, हल्द्वानी में एक ख़बर छपती है। पाठ्यक्रम अधूरा छोड़ छुट्टी पर गए गुरुजी, स्कूलों में पठन-पाठन चौपट। सब हैडिंग छपी-दिसम्बर शुरू होते ही 60 से 70 फीसद शिक्षक अवकाश पर, 40 प्रतिशत पाठयक्रम अधूरा।
मुझे लगा किसी एक विद्यालय की ख़बर है। समाचार पढ़ा। कहीं किसी विद्यालय का नाम नहीं। फिर पढ़ा। मैं हतप्रभ। यह तो कुमाऊं की ख़बर बना दी गई है। यानी पूरे कुमाऊं में ऐसा है। यह समाचार की ध्वनि थी। दो-तीन दिन तक मैं प्रतीक्षा करता रहा कि कहीं से कोई विरोध होगा? हमारे शिक्षक संघ के पदाधिकारी कहीं संज्ञान लेंगे। मेरी सीमित सीमाओं में मुझे कहीं कुछ नहीं दिखाई दिया। मैंने 27 दिसम्बर को पत्र लिखा। उससे पहले शिक्षक साथी डॉ॰ दिनेश जोशी जी से अखबार की कतरन। समाचार संपादक का नाम। मेल आईडी जुटवाई। उन्होंने भी तत्परता से यह किया। 27 दिसम्बर को मेल किया सो किया। उस आशय की एक पोस्ट सोशल मीडिया में बनाई।
सोशल मीडिया की ताकत देखिए। इस आशय की 26 दिसम्बर को पोस्ट बनाई। गुस्से से भरी। सोशल मीडिया ने उसे हाथों-हाथ लिया। 15 मित्रों ने शेयर किया। 110 कमेंट आए। 5757 दोस्तों को एंगेज़ किया। यह पोस्ट 5757 तक पहुँची।
संपादक को लिखा पत्र जब 27 दिसम्बर को सोशल मीडिया में पोस्ट किया तो धड़ाधड़ शेयरिंग हुई। सबके नाम देना संभव नहीं । लेकिन मोहन चौहान , प्रदीप बहुगुणा दर्पण , सतीश जोशी , महेश पुनेठा , सुन्दर नौटियाल सहित पत्रकारों , लेखकों और मित्रों ने भी शेयरिंग की । पंकज चतुर्वेदी , सुनीता मलेठा सहित प्रदेश से बाहर के साथियों ने भी पोस्ट साझा की । 141 शेयर हुए। गैर शिक्षकों ने भी इसे अपनी भित्ति पर पोस्ट किया। 972 रिएक्शन मिले। पोस्ट इम्प्रेशन 30740 का आंकड़ा पार कर गया। 383 कमेंट आए। पत्र की इमेज को पढ़ने के लिए ही 2794 मित्रों ने क्लिक किया।
यह सब आंकड़े आत्ममुग्धता के लिए नहीं पेश किए गए। असर इसका यह हुआ कि अगले ही दिन डॉ॰ दिनेश जोशी जी ने भी ऐसा पत्र लिखा। मेल किया। सोशल मीडिया में वहाँ भी भरपूर रिएक्शन मिले। असर यह हुआ कि 29 दिसम्बर को दैनिक जागरण के संपादक के साथ राजकीय शिक्षक संघ के कुमाऊँ मण्डल के कई साथी मिले। दैनिक जागरण ने स्वीकार किया कि आइन्दा ऐसी खबरों को हतोत्साहित किया जाएगा। तीस दिसम्बर को जो ख़बर छपी। वह विरोध या असहमति की कम शिक्षकों का प्रतिनिधिमण्डल दैनिक जागरण को अपनी समस्याएं बताने के लिए पहुँचा हो, ऐसी ध्वनि गई। आप भी पढ़िएगा।
इस बीच पत्रकार विनय कुमार शर्मा जी का 29 दिसम्बर को मेरे मोबाइल पर रिंग आई। काफी देर बात हुई। उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया में शिक्षकों की नाराज़गी उन्होंने भी पढ़ी। जब मैंने यह बताया कि मैं राष्ट्रीय अख़बार में दस साल पत्रकारिता कर चुका हूँ तो वह हैरान हुए। उन्होंने गलती मानी और खेद प्रकट किया। उन्होंने यह भी कहा कि इस सिलसिले में संपादक जी के साथ आज शाम बैठक है। आप बताइए आपका क्या व्यूज़ आना चाहिए। मैंने कहा,‘‘जब हमारे राजकीय शिक्षक संघ के नेतृत्वशाली शिक्षक मिल ही रहें हैं तो उनसे अलग मैंने क्या कहना है?’’ बस आप मेल से या मेरे व्हाट्स एप पर खेद व्यक्त कर दें। अन्यथा मुझे प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया जाना होगा।
बहरहाल, पत्रकार विनय कुमार शर्मा जी ने दुःख और खेद व्यक्त कर दिया है। उनकी इच्छा यह भी है कि जब वह शिक्षक हित में और समाजोपयोगी ख़बरें जुटाते हैं तब भी प्रतिक्रियाएं आनी चाहिए। यह बात तो सही है।
अब आता हूँ यह सब लिखने के मक़सद पर। शिक्षक साथी मनोज ध्यानी ने पोस्ट पर आशंका व्यक्त की थी। सही कहा था कि अब देखते हैं कितने शिक्षक साथी इस मुद्दे को मुद्दा मानते हैं। सूबे का हर शिक्षक यदि इस ख़बर का संज्ञान लेता तो लाला संपादक तक को बदल देता। हालांकि हमारा कोई मक़सद किसी को अपमानित करना या किसी की नौकरी खाना नहीं है। लेकिन दूसरा हमारे स्वाभिमान, सम्मान और अस्मिता की चिंदी-चिंदी कर दे? यह किसे गवारा होगा? दुःख है कि हजारों शिक्षकों ने इस ख़बर की ओर पीठ कर ली। क्यों? क्योंकि वह शायद, अनवर मसूद के शेर से सहमत हो गए हैं। वह कहते हैं-
इस वक़्त वहाँ कौन धुआँ देखने जाए
अख़बार में पढ़ लेंगे कहाँ आग लगी थी
मेरा स्पष्ट मत है कि हमें असहमति व्यक्त करनी चाहिए। चुप्पी को कभी-कभी असहाय और कमजोर पक्ष मान लिया जाता है। मुझे खुशी है कि साल के आखिर दिन मैं यह कह सकता हूँ कि अक्सर नहीं, कभी-कभी ही सही मैं अपने भीतर शिक्षा, समानता और शांति की पैरवी करने वाली ध्वनि को सुनता रहता हूँ। मुझे इस समय साहिर लुधियानवी का शेर याद आ रहा है। वह कुछ यूँ कह गए हैं-
ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है
क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम
और हाँ। जिस तरह अख़बार ने और अख़बार के संपादक ने इस मामले को रफ़ा-दफ़ा किया है उनकी फितरत को बयां करता है। मैं अखबार का आदमी रहा हूँ। अब अख़बार नहीं पढ़ता। अलबत्ता सोशल मीडिया में ख़बरें देख-पढ़ लेता हूँ। इस अख़बार पर और इसके मौजूदा संपादक के प्रति मेरे मन में एक खटका तो बैठ ही गया है। निकट भविष्य में यदि फिर ऐसी ख़बर मेरे संज्ञान में आई तो मैं इस मुआमले को नत्थी कर इसे आगे तक ले जाऊँगा।
और अंत में बकौल खलील तनवीर यह कहकर मैं इस मामले को आगे नहीं ले जा रहा हूँ कि-
औरों की बुराई को न देखूँ वो नज़र दे
हाँ अपनी बुराई को परखने का हुनर दे
-मनोहर चमोली ‘मनु’
आपने गलत रिपोर्ट को लेकर विरोध दर्ज किया और सम्बंधित पत्रकार ने गलती स्वीकार की। यह सब शिक्षक समाज के सम्मान हेतु ही था।
आप समाज के जागरूक व्यक्ति हैं, अतः इस प्रकार की घटनाओं को गंभीरता से लेते हैं। आमतौर पर दृष्टिकोण यह हो गया है कि मनुष्य या तो बहुत सहनशील हो गया है या इतना आत्ममुग्ध है कि इन बातों पर ध्यान ही नहीं देता। आज समाज में जो विकृतियाँ आ रही हैं उसका कारण यह चुप्पी ही है।
दुष्यन्त का शेर है-
“वो मुतमईन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए। ”
🙏🙏
shukriya aapka !
आपके जज्बे, अनुभव व स्वाभिमान को नमन ।
ji shukriya.
आपका यह पूरा लेख पढ़ा, दुख भी हुआ और कुछ सुकून भी मिला।
दुख इसलिए कि वाकई इस खबर की उतनी निंदा हुई नही जितनी होनी चाहिए थी खुद शिक्षा जगत से, वजह से हम नावाकिफ नही है, आपने वाया शेर कारण पर थोड़ी रोशनी भी डाल ही दी है,
सुकून इस बात का कि, कुछ तो हलचल हुई!
आपके जज्बे को सलाम।
आपके भीतर का एक शिक्षक, एक पत्रकार और एक जागरूक नागरिक यूं ही आबाद रहे, आमीन।
जी । शुक्रिया । कोशिश करूँगा ।
ji shukriya.