अगर कहीं मिलती बन्दूक
उसको मैं करता दो टूक
नली निकाल बना पिचकारी
रंग देता यह दुनिया सारी।
यह कविता सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की है। यह भावना दुनिया के उन चंद लोगों के लिए है जो अमन-चैन चाहते हैं। शांति से अपने काम में तल्लीन रहते हैं। चाहते हैं कि हर इंसान अमनपसंद हो। वह सुख से जीवन यापन करे। इस जीव-जगत की सँभाल करे। आज इन चार पँक्तियों को जीवन का आदर्श वाक्य बनाने की ज़रूरत है। अपने आस-पास देखता हूँ तो दुनिया को बचाए-बनाए रखने वाले और इस दुनिया को ख़ूबसूरत बनाने वालों में मोहन चौहान पर नज़र जाकर ठहर जाती है।

मोहन चौहान उत्तरकाशी के मौण्डा गाँव के निवासी हैं। तीन दशक पहले खेत-खलिहान, घर-गाँव और माता-पिता से 245 किलोमीटर दूर देहरादून पढ़ने आए। पढ़ाई जारी रहे और जेब में कुछ खर्च के लिए रुपए रहें। इसके लिए दीवारों पर लेखन कार्य किया। वॉल पेन्टिग का काम सीखा। बैनर बनाए। गाड़ियों की नंबर प्लेट रंगी। पढ़ाई के साथ छपाई के काम को तल्लीनता से सीखा-समझा। संघर्ष करते-करते कला में परास्नातक किया। निजी स्कूल में भी पढ़ाया। छात्र राजनीति में सकारात्मक सहयोग किया। देहरादून के प्रेमनगर से दूर चायबागान के किनारे उनका अपना मकान है। उस मकान में कदम-कदम पर उनकी सहयोगी-साथी, पत्नी सुनीता रहती हैं। बिटिया तूलिका है।

एक बार की बात है। मैं भी उनके आवास पर था। शिक्षा, समाज, बच्चे और नौकरी आदि के मुद्दों पर बात हो रही थी। मोहन चौहान अपने देहरादून आवास से एक सौ पचास किलोमीटर दूर हैं। वहाँ उन्हें बीस साल हुए जाते हैं। इन बीस साल में ही आवास बना। विवाह हुआ। बिटिया हुई। बिटिया अब ग्यारहवीं में है। सुनीता जी ने मुझसे उनकी संवेदनशीलता की तीव्रता पर वाक्य कहा था जो मुझे याद भी है। जिसका आशय यही था कि मोहन चौहान जी के लिए पहले उनका स्कूल है। स्कूल के बच्चे पहले हैं। वह खुद और हमसे पहले विद्यालय को प्राथमिकता देते हैं। आपको पढ़ते हुए लग सकता है कि इन निजी बातचीत का साझा करने का क्या तुक हो सकता है? अंत तक पढ़ते हुए शायद जवाब मिल भी जाए। शायद नहीं भी।

बहरहाल, वह बीस साल पहले राजकीय इंटर कॉलेज में कला के अध्यापक हो गए। देहरादून छोड़ना पड़ा। टिहरी के खरसाड़ा-पालकोट में विद्यार्थियों के साथ रचनात्मकता के काम किए। छठी से बारहवीं के विद्यार्थियों के लिए पठन-पाठन के साथ पाठ्य सहगामी गतिविधियों का निरन्तर संचालन किया। रचनात्मक काम का संकल्प ज़ेहन में बनाए रखा। यही कारण है कि परम्परागत शिक्षण से इतर मोहन चौहान ने विद्यार्थियों के जे़हन में संवैधानिक मूल्यों पर जोर देना अपनी ज़िम्मेदारी समझा। विद्यार्थी संवेदनशील हों, स्कूली किताबों के अलावा दुनिया-जहान की किताबें भी पढ़ें। हर काम को सम्मान दें और जमीन से जुड़े रहें। यह उनकी प्राथमिकता में रहा।




अपने बीस साल के शिक्षण कार्यों को याद करते हुए मोहन चौहान बताते हैं,‘‘मैं बीस साल से एक ही कॉलेज में हूँ। आज इस क्षेत्र में सुविधाजनक सड़क है। नियमित बिजली है। संचार सुविधाएं हैं। लेकिन बीस साल पहले यहाँ यह सब आधा-अधूरा था। यह इलाका किसी दुर्गम क्षेत्र से कम नहीं था। आस-पास का शैक्षणिक माहौल देहरादून की अपेक्षा बेहद-बेहद पीछे था। युवा अध्यापकों के साथ मिलकर हमने विद्यार्थियों के लिए कई कार्यशालाओं का आयोजन किया। विद्यालय स्तर पर अंकुर एक सृजनात्मक पहल समूह का गठन किया। विद्यार्थी, शिक्षक, अभिभावक और जन समुदाय को शामिल किया। पेपरमेसी-मूर्तिकला-पुतुल कला की कार्यशाला, फल संरक्षण की कार्यशाला और बाल लेखन कार्यशालाएं भी की। लेकिन यह मेरे अकेले से नहीं हुआ। पूरी एक युवा टीम थी। पहल को जिन्होंने पंख दिए। इसे व्यक्तिगत नहीं सामूहिक प्रयास मानना उचित होगा।’

मैं कूची और रंग से जुड़े मोहन चौहान को पिछले तीस सालों से जानता हूँ। हर समय हर किसी के लिए उपलब्ध। सब कुछ न्यौछावर कर देने को तत्पर। हर संभावनाशील व्यक्ति में जोश भर देते हैं। नए-नए सुझाव देते हैं। यही कारण भी रहा कि उनकी पहल पर पूरे विद्यालय परिसर में छात्रों-अभिभावकों और शिक्षकों के सहयोग से विद्यालय की दीवारें रँगी गईं। संविधान की उद्देशिका लिखी गई। अल्पना, रंगोली सहित मधुबनी कला के दर्शन भी विद्यालय की दीवारों पर जगह पा गईं।

मोहन चौहान की सकारात्मकता ही थी कि विद्यालयी पुस्तकालय का संचालन करते हुए उन्हें जनप्रतिनिधियों का सहयोग मिला। सामूहिकता और विद्यालयी सहयोग के चलते विद्यालय स्तर पर प्रदर्शनियां लगाई। जनसहयोग से पुस्तकालय के लिए पुस्तकें उपलब्ध हुई। विद्यार्थी अपने परिवेश को जानने के लिए सामूहिक रूप से जल, जंगल और जमीन संबंधी अध्ययन प्रोजेक्ट के माध्यम से भी करते रहे। विद्यार्थियों ने सांस्कृतिक कार्यक्रमों-नुक्कड़ नाटकों में भी बेहतरीन प्रदर्शन किए। विद्यालय का नाम रोशन किया।

हाईस्कूल से इण्टरमीडिएट कॉलेज होने पर जनप्रतिनिधियों से सहयोग लिया। पुस्तकालय के लिए क्षेत्रीय विधायक ने पच्चीस हजार रुपए की धनराशि दी। विद्यार्थी स्कूल की छुट्टी के बाद और अवकाश के दिन भी पुस्तकालय में आते। पढ़ने-लिखने की आदत बनने लगी। विद्यार्थियों में लेखन क्षमता का विकास हो सके इसके लिए समय-समय पर प्रदेश के प्रख्यात रचनाकारों, संस्कृतिकर्मियों को विद्यालय में आमंत्रित किया गया।

मोहन बताते हैं,‘‘पुस्तकालय में विद्यार्थी शाम के समय पढ़ने आते थे। मन में विचार आया कि इनकी लेखन क्षमता का विकास किया जाए। इसी प्रयास को आगे बढ़ाया गया और विद्यालय स्तर पर कार्यशाला आयोजित कर दो बार अंकुर पत्रिका के दो अंक भी प्रकाशित किए जा सके। पत्रिका के प्रकाशन हेतु धनराशि भी सहयोग से एकत्र हुई। हमारे आग्रह पर देशभर के नामचीन व्यक्तित्व भी विद्यालय में आए। यह प्रसन्नता की बात है।’’

राजकीय इण्टर कॉलेज, खरसाड़ा, टिहरी गढ़वाल में अध्ययनरत् बच्चों में शिल्पकार समाज, मजदूर वर्ग और आम आदमी के प्रति सम्मान का नजरिया बने, इसके लिए ढोल-दमाऊ कार्यशाला का भी आयोजन किया गया। विभिन्न अवसरों पर आयोजित गतिविधियों के केन्द्र में शिक्षा, समानता, शांति, भाईचारा और लिंग भेद उन्मूलन को रहा। बाल दिवस पर विद्यार्थी सांस्कृतिक कार्यक्रम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। बाल कवि सम्मेलन का संचालन एवं समन्वयन विद्यार्थी स्वयं करते हैं। कुछ गतिविधियों में आस-पास के विद्यालयों के विद्यार्थी भी शामिल होते रहे हैं।

गतिविधियों के आलोक में मोहन चौहान की भूमिका सराहनीय रहती है। लेकिन वह इसे हमेशा सामूहिक प्रयास बताते हैं। वह बताते हैं,‘‘विद्यालय ही एक ऐसी संस्था हैं जहां विद्यार्थी और शिक्षक मिलकर सामूहिकता में एक दूसरे के साथ सीखने-सिखाने का काम कर सकते हैं। पिछले दो दशकों से विद्यालय में सजीव पुस्तकालय संचालित है। पुस्तकालय के साथ पढ़ने-लिखने की संस्कृति विकसित करने की कई गतिविधियों के बाद एक और शृंखला आरम्भ की गई। ‘किताब जो मैंने पढ़ी’। वर्ष 2019 के शुरुआती महीनों से प्रत्येक सप्ताह के प्रथम सोमवार को प्रातःकालीन सभा में विद्यालय के किसी एक विद्यार्थी द्वारा पुस्तकालय से लेकर पढ़ी गयी किसी एक किताब पर बनी अपनी समझ पर अपने विचार रखने की शुरुआत की गई। पुस्तकालय से किताब छांटना। पढ़ना। पढ़कर विद्यालय प्रांगण में प्रातःकालीन सभा में अपने विचार व्यक्त करना उत्साहजनक रहा। विद्यार्थी अपनी रुचि के अनुसार किताब का चयन करते हैं। निर्णय लेने की क्षमता, पढ़ने की संस्कृति का विकास, एकाग्रता, तार्किकता, सृजनात्मकता व आत्मविश्वास जैसे मूल्यों विद्यार्थियों में विकसित होने लगे। इस शृंखला के तहत विभिन्न विद्यार्थी 24 किताबों पर अपनी बात रखने का अवसर जुटा पाए। इसे निरन्तरता में करने की जरूरत महसूस होती है।’’

मोहन चौहान बताते है कि विद्यालय के पुस्तकालय में लगभग 1300 किताबें हैं। इस वर्ष 162 ऐसी पुस्तकें चिह्नांकित हुईं जो विभिन्न विद्यार्थियों की पहली पसंद रहीं। पसंद-नापसंद की थाह पाना मुश्किल नहीं लगभग असंभव है। अनुभव बताता है कि कक्षा छह से आठ के विद्यार्थियों में पढ़ने की तीव्र ललक दसवीं-ग्यारहवीं और बारहवीं तक जाते-जाते कम हो जाती है। कक्षावार पाठकों की औसत संख्या में दूर-दूर तक कोई साम्यता नहीं दिखाई पड़ती। संभवतः पढ़ने का स्वभाव सभी विद्यार्थियों में नहीं जगाया जा सकता। लगातार पढ़ना भी एक कौशल है। इसमें सभी को पारंगत बनाना संभव है, यह कहना कठिन है। कई बार उत्साह समाज से आ रही ध्वनियों के कारण भी मंद पड़ जाता है। कहना न होगा कि, स्कूली व्यवस्था भी बाधा के तौर पर सामने आती है।


सार्वजनिक विद्यालयों में पुस्तकालय का संचालन अभी भी नियमित नहीं है। इण्टरमीडिएट स्तर पर सप्ताह के 48 वादनों में अभी 02 वादन ही पुस्तकालय के लिए चलन में हैं। इन 02 वादनों में स्वास्थ्य शिक्षा-खेल भी शामिल हैं। कक्षा छह से दस तक सप्ताह में कोई भी वादन पुस्तकालय के लिए नहीं है। ऐसे में पढ़ने-लिखने में रुचि लेने वाले छात्रों के लिए शिक्षकों को अपने विषय के वादन में ही पढ़ने-लिखने की संस्कृति का विकास करना एक मात्र विकल्प होता है।

गतिविधियों के लाभ के सवाल पर वे कहते हैं कि विद्यार्थियों का सीखना-समझना जीवन पर्यनत वाला मसअला है। यह कोई बैक में जमा रकम नहीं है जिसका ब्याज अंकों में दर्शाया जा सकता है। कई दशक बाद इसका असर दिखाई देता है। एक स्वस्थ समाज के लिए पढ़ते-लिखते नागरिक बनाना ही विद्यालय का मूल काम होना चाहिए।

उम्मीद की जानी चाहिए कि मोहन चौहान जैसे शिक्षकों की संख्या बढ़ेगी। समाज भी सार्वजनिक शिक्षा के प्रति सकारात्मक रवैया बनाएगा। यह इसलिए भी आवश्यक है कि जहाँ निजीकरण तेजी से हर क्षेत्र में पैर पसार रहा है वहाँ हाशिए के समाज को सिर उठाकर जीने का तौर सीखाने वाली सार्वजनिक संस्थाएं बनी और बची भी रहनी चाहिए।

प्रस्तुति: मनोहर चमोली ‘मनु’

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By manohar

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